बाप की सिखावन
लिख पढ़ लला कलट्टर हुइयो,हमें चाहें फिर कछू न दिइयो,
करौ नौकरी कभउँ काऊ के मों को कौर खैंच जिन खइयो ।
ऐसौ कठिन समइया आय गऔ, गाँव गाँव भुखमरी परी है ।
घर-घर में बिधी लड़ाई, भइयन में मुड़कटई भरी है
अपऔं गाँव है गऔ दुपटया, गाँव-गाँव बढ़ गए चौपटया,
हमनें तेरी फसल काट लई, तैं खरयानन आग धरी है ।
ऐसे गाँव पुरन में जइयो चार जनन को टेर बुलदयो,
सुनियों बातें सबइ जनन कीं, न्याय निबल के संगै करियो ।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो ।।
भूखे मुन्स उघारे मिलहैं, सीदे और हरारे मिलहैं,
ऐसेउ भगत तुम्हें मिल जैहें, ढेर लगा देहैं पइसन कौ,
रूपया पइसाबारे मिलहैं, दुपिया – कुरताबारे मिलहैं ।
लला न इन्हें तनक पतयइयो, मुफत मिलै सौनों ठुड़यइयो।
टूटी खटिया फटे गदेला, मिलैं तिनइँ पै तुम सो रइयो ।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो ।।
देखो तुमने क्वाँर – घम जब होय बखरनी हाँ पर – पीटा,
तुम्हें पता है भरी बतर में बैलन के कढ़ आओ खुसीटा,
रूखी रोटी रकत बनो, साई कढ़ी पसेउ, भूम को पिया दओ,
चैत नुनाइ गड़गड़ाय के बादर डर के मारे छींटा ।
सब भुगतौ है, भूल न जइयो, छाइँ पाय केंना बुकल्याइयो,
मिलै पसीना की तौ खइयो, मिलै न तौ सुखेइ हरयइयो ।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो।।
है सौगन्ध हमाए पाँव में लगे हूँड़ की पकी पीर की,
हर जोंतें धरती से जूझें मौं पै धूरा के अबीर की
चकिया पीसत महतारी की ठेठन की सौगन्ध तुम्हें है,
भइयन की रूखी रोटिन की ज्वान बहिन के फटे चीर की ।
लाज पराई कों न उघारियो, बुरी गैल पै पाँव न धरियो,
नौकर-चाकर अपएँ गाँव के नथुआ – बुधुआ घाँई समझियो ।
लिख-पढ़ लला कलट्टरे हुइयो ।।
रचनाकार – शिवानंद मिश्रा “बुंदेला”