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श्री अम्बिका प्रसाद दिव्य के उपन्यासों का समीक्षात्मक अध्ययन

श्री अम्बिका प्रसाद Divya ke Upanyason का समीक्षात्मक अध्ययन पुस्तक। साहित्यिक वैभव की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की अपनी अलग प्रतिष्ठा है। हिन्दी साहित्यसागर को सम्पन्न बनाने में बुन्देलखण्ड के प्रतिभाशाली रचनाकारों ने प्रभूत मात्रा में अपना योगदान दिया है, जिसके साक्षी हिन्दी साहित्य के इतिहास संबंधी ग्रन्थ हैं। इन साहित्यिक इतिहास ग्रन्थों में केवल उन कृतियों और कृतिकारों के सन्दर्भ और विवेचन हैं जिनको प्रकाशन का सुयोग मिला और जिनको इतिहास – लेखकों की कृपा दृष्टि मिली।

इन सन्दर्भित रचनाकारों के अतिरिक्त भी बुन्देलखण्ड में हजारों की संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ अप्रकाशित और अज्ञात स्थिति में बिखरे हुए हैं। ऐसे रचनाकारों एवं उनकी रचनाओं को अगर प्रकाश में लाया जाए, न केवल साहित्य जगत की श्रीवृद्धि होगी, अपितु साहित्यिक इतिहास ग्रन्थों में अनेक नये तथ्य जुड़ेंगे।

बुन्देलखण्ड के एक ऐसे ही बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार हैं- श्री अम्बिका प्रसाद दिव्य । जिन्होंने बुन्देलखण्ड के इतिहास और संस्कृति से संबंधित अनेक अनछुये पक्षों और प्रसंगों को अपनी लेखनी के माध्यम से उजागर किया है।

सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा के बाद बुन्देलखण्ड के ऐतिहासिक महत्त्व के पन्ना, अजयगढ़, गढ़कुंडार, खजुराहो, महोबा, गठेवरा, कालिंजर आदि स्थलों से जुड़े प्रसंगों को अपनी कथाकृतियों के माध्यम से प्रकाशित करने का बखूबी प्रयास दिव्य जी ने किया है यद्यपि दिव्य जी की साहित्यिक प्रतिभा बहुमुखी थी।

उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी सफल लेखनी चलाई है। उनकी बहुआयामी प्रतिभा काव्य, गद्यगीत, निबन्ध, खण्डकाव्य, महाकाव्य, नाटक और उपन्यास की सभी विधाओं में चमत्कृत हुई है। हिन्दी के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी साहित्य रचना की है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ केवल संख्या में ही अधिक नहीं हैं वरन् उनके ग्रन्थों की विषय सामग्री भी व्यापक है।

उनका उद्देश्य भी महान है। ‘दिव्य दोहावली’ से प्रारंभ हुई उनकी साहित्यिक यात्रा जीवन के अन्तिम चरण तक अविराम चलती रही। कविता, नाटक एवं गद्यगीत लिखने के पश्चात् उनकी दृष्टि उपन्यास लेखन की ओर उन्मुख हुई और उन्होंने ‘निमियाँ’, ‘मनोवेदना’ जैसे सामाजिक यथार्थवादी एवं ‘बेलकली’, ‘खजुराहा की अतिरूपा’, ‘जूँठी पातर’, ‘जयदुर्ग का रंगमहल’, ‘पीताद्रि की राजकुमारी’, ‘प्रेम तपस्वी’, ‘फजल का मकबरा’, ‘जोगीराजा’, ‘असीम की सीमा’, ‘कालाभौंरा ‘ एवं ‘सती का पत्थर’ जैसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखित श्रेष्ठ उपन्यास हिन्दी जगत को प्रदान किए, जो उनकी अमरकीर्ति के अक्षय स्रोत हैं।

दिव्य जी के उपन्यास साहित्य पर कार्य करने की प्रेरणा मुझे बुन्देलखण्ड के साहित्य, संस्कृति और इतिहास के प्रति मेरी गहन अभिरुचि के कारण मिली। साथ ही स्व. वियोगी हरि कृत ‘वीर सतसई’ के अध्ययन व अन्वेषण ने इस अभिरुचि में और वृद्धि की ।

‘वीर सतसई’ में बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पन्ना, गठेवरा आदि अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के स्थलों और विभूतियों की चर्चा हुई है, किन्तु इस स्फुट अध्ययन से मेरी जिज्ञासा शान्त न हुई अतः मैंने निश्चय किया कि बुन्देलखण्ड के समर्थ रचनाकार श्री दिव्य जी के उपन्यासों का विस्तृत प्रामाणिक और समीक्षात्मक अध्ययन किया जाए।

ऐतिहासिक उपन्यासों का विषयगत सामान्य परिचय प्रस्तुत कर देना पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि उन उपन्यासों में आए घटना प्रसंगों और पात्रों का ऐतिहासिक सन्दर्भों में विधिवत प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए। शोध कर हुए मैंने अनुभव किया कि एक तो दिव्य जी पर इससे संबंधित सामग्री का अत्यन्त अभाव है और उन पर जो कुछ लिखा भी गया है उसे ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर कसा नहीं गया है।

उपन्यासकार द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और ऐतिहासिक तथ्यों के साथ यदि संगति नहीं बैठती तो उनके औचित्य – अनौचित्य का निर्धारण साधारण कार्य नहीं होता। यह सत्य है कि उपन्यासकार इतिहास नहीं लिखता बहुत कुछ कल्पना का सहारा लेता है, किन्तु उपन्यासकार को यह छूट नहीं दी जा सकती है कि वह वास्तविक इतिहास को अनदेखा कर अथवा उसे जानबूझकर तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करे। शोधकर्ता के लिए इसकी जाँच-परख करना स्वयं को भी कसौटी पर कसना है।

मैंने दिव्य जी के उपन्यासों का अध्ययन करते समय और निष्कर्ष निकालते समय इस बिन्दु का बराबर ध्यान रखा है और गहरी छानबीन की है तथा उन तथ्यों को उद्घाटित किया है, जो अभी तक सामने नहीं आ पाए थे।

इस प्रकार दिव्य जी के औपन्यासिक कृतित्व की समीक्षा का यह मेरा विनम्र प्रयास है यद्यपि मैंने सतत् यह प्रयत्न किया है कि किसी प्रकार की असंगति न होने पाए, किन्तु मेरी अपनी सीमाएँ भी हैं। ज्ञान सामग्री और आंकलन आदि सभी दृष्टियों से मेरे लिए यह सर्वथा कठिन कार्य था, लेकिन अनेक कठिनाइयों और निराशाओं के घटाटोप में मुझे श्रद्धेय गुरुवर डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’ की ज्ञानरश्मियों पूर्ण प्रकाश प्राप्त हुआ इस हेतु मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। आदरणीय डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त, डॉ. राधावल्लभ शर्मा के प्रति आभारी हूँ जिन्होंने समय-समय पर अपना पांडित्य पूर्ण दिशा निर्देश प्रदान कर मेरे कार्य को सरल बनाया।

मैं अपने हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ माननीय डॉ. राजकुमार आचार्य, कुलपति अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (मध्यप्रदेश) एवं सम्मानीय डॉ. यू.एस. परमार, प्राचार्य महात्मा गांधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, करेली, नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) का जिन्होंने अपना शुभकामना संदेश लिपिबद्ध रूप में सम्प्रेषित करके न केवल मुझे उपकृत किया अपितु पुस्तक को गरिमा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

उपन्यासकार दिव्य जी के पुत्र जगदीश किंज्लक जी के प्रति भी मैं अपना पुनीत आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने अपने निजी पुस्तकालय की पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षात्मक लेख और दिव्य के उपन्यासों की पाण्डुलिपियों के अवलोकन एवं पठन की सुविधा प्रदान की साथ ही अपना समुचित मार्गदर्शन व प्रोत्साहन समयानुसार प्रदान किया जिससे मेरे अध्ययन की समस्याएँ सरलता से हल होती गईं।

इसके साथ ही इस शोध यात्रा मैंने जिन अनेक मूर्धन्य विद्वानों के विचारों का उपयोग किया है उन सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना मैं अपना कर्त्तव्य समझती हूँ। वे समस्त सम्पादक और लेखक भी साधुवाद के पात्र हैं जिनकी विविध पुस्तकों और पत्रिकाओं का उपयोग मैंने इस अध्ययन में किया है।

अन्त में इस सुदीर्घ अवधि में जिन परिजनों और स्वजनों ने मुझे अपना अमूल्य समय और सहयोग प्रदान किया उनके प्रति मैं नतमस्तक हूँ। वे सभी मेरे लिए स्तुत्य हैं, उनका सहयोग अविस्मरणीय है। अपने अग्रज श्री कृष्ण कुमार तिवारी एवं पति डॉ. अश्विनी कुमार वाजपेयी के प्रति श्रद्धावनत हूँ जिन्होंने अपना अमूल्य समय, श्रम व साधन सुलभ करा कर मेरे शुभ संकल्प को साकारता प्रदान की ।

इस आलोचनात्मक कृति में सर्वांग पूर्णता का दावा मैं किसी भी रूप में नहीं कर सकती। इसमें अनेक त्रुटियाँ भी होगी, जो मेरी अपनी अल्पज्ञता के कारण हैं यदि कुछ विशिष्ट है तो वह आचार्यगणों का प्रसाद है। आशा है मेरी यह पुस्तक बुन्देलखण्ड के गहन साहित्यिक मूल्यांकन का आधार बनेगी तथा ‘दिव्य’ साहित्य के अध्येयताओं और सुधी आलोचकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

‘श्रीकृपानिकेत’ छतरपुर (म.प्र.)
डॉ गायत्री वाजपेयी

मालवा की लोक कलाएं 

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