Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिचंदेल कालीन लोकरंजन

चंदेल कालीन लोकरंजन

Chandel Kalin Lokranjan के साक्ष्य तत्कालीन मंदिरों, शिलालेखों और ग्रंथों में मिलते हैं। खजुराहो के मंदिरों में एक तरफ नृत्य, संगीत और उत्सव-आयोजन के दृश्य उत्कीर्ण किये गये हैं, तो दूसरी तरफ आखेट, हस्तियुद्ध आदि के। लक्ष्मणमंदिर के गर्भगृह की वाह्य भित्ति पर होली खेलने और लोकगीत गाने के लोकचित्रण यह सिद्ध करने में समर्थ हैं कि लोकरंजन के अनेक साधन इस युग में मौजूद थे।

वि. संवत् 1101 के खजुराहो अभिलेख में यशोवर्मन द्वारा विष्णु मंदिर के निर्माण के समय उत्सवों के आयोजन का उल्लेख मिलता है। वि.सं. 1186 के कालिंजर स्तम्भ-अभिलेख में ’महानाचनी‘ से राजनर्तकियों के समूह की स्वामिनी का संकेत मिलता है। जिन मण्डन के कुमार पाल प्रबंध में चंदेलनरेश मदनवर्मन के समय के वसंतोत्सव का वर्णन मिलता है।

इतिहासकार अलबेरूनी ने कई उत्सव दिवसों का उल्लेख किया है-चैत्र की एकादशी को झूले का दिन, पूर्णिमा को वसन्तोत्सव, आश्विन पूर्णिमा को पशुओं का त्योहार और कुश्तियों का आयोजन, कार्तिक प्रतिपदा को दीपावली का उत्सव तथा फाल्गुन पूर्णिमा में स्त्रियों का दोलोत्सव एवं होली आदि।

वत्सराज के “कर्पूरचरित” नामक रूपक में नीलकण्ठ यात्रा महोत्सव की चर्चा आयी है। उत्सवों पर नाटकों का मंचन होता था। “प्रबोध चंद्रोदय” और वत्सराज के रूपकों को अभिनीत किया गया था। वत्सराजकृत “रूपकषटकम्” में गायन, नर्तन और आलेखन का उल्लेख कई जगह आया है (हास्यचूड़ामणि, पृ. 123, समुद्रमंथन, पृ. 158, रूक्मिणीहरण, पृ. 57)। “किरातार्जुनीय व्यायोग” और “समुद्रमंथन समवकार” के अंतिम श्लोकों में कवि-नाटककारों की गोष्ठियों एवं नाटयभिनय से रंजित होने की अनुभूति स्पष्ट है। ’प्रबोध चन्द्रोदय‘ में “वाक्कलह” (अंक 3, पृ. 116) और “रूपकषटकम्” में “काव्यशास्त्र” विद्वद्गोष्ठी नामों से अभिहित किया गया है। सभी नाटकों में सुरापान गोष्ठियों, द्यूत, वेश्यावृत्ति, नारीसेवन, ताम्बूलभक्षण जैसे भोगमूलक लोकरंजन के उल्लेख मिलते हैं।

(प्रबोध., 3/20, पृ. 125 एवं रूपकषटकम्, पृ. 25, 119, 123, 138, 148)। झूला, हिंडोला, भौंरा फिराना, जल-क्रीड़ा, चौपड़ और इंद्रजाल उस समय लोकप्रचलित थे। गाथा पढ़ना और सुनना परिष्कृत लोकरंजन था, यही परम्परा “आल्हा” की लोकगाथाओं के संदर्भ में सुरक्षित बनी रही।

वत्सराज के किरातार्जुनीय में नट, शैलूष और इंद्रजालपुरूष जगत्प्रमोद को आविष्कृत करने वाले कहे गये हैं। उन्हें कवियों को मुदित करने वाला, सूक्तियों का अमृत बरसानेवाला और परितोष भरे बादलों के रूप में बरसनेवाला बताया गया है। इतिहासकार डा. शिशिरकुमार मित्र किरात स्त्रियों को मयूरनृत्यों की संगति में गीत गाकर मनोरंजन करने वाली मानते हैं।

वत्सराज ने अनेक स्थलों पर ’समाज‘ के रूप में सचेतन संस्था का स्मरण किया है, जिसके सदस्य ’सामाजिक‘ के रूप में लोकरंजन के सजग सहृदय होते थे। राजशेखर ने ’काव्यमीमांसा‘ में नर्तक, गायक, वादक, चारण, चितेरे, विट, वेश्या, ऐन्द्रजालिक के अतिरिक्त हाथ के तालों पर नाचनेवाले, तैराक, रस्सों पर नाचनेवाले, दाँतों से खेल दिखलानेवाले, पहलवान, पटेबाज और मदारी का उल्लेख किया है।

इन सबका महत्व राजसभा और गोष्ठियों में आँका गया है, परन्तु यह निश्चित है कि वे लोक और लोकरंजन में उससे भी अधिक महत्व रखते थे। “आल्हा” की लोकगाथा, तत्कालीन रूपक और इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि चंदेल-काल में नारी का अपहरण किया जाता था, जिसकी प्रतिक्रिया पुरूष वर्ग से नहीं, वरन् समस्त नारी जाति से हुई है। उसका प्रमाण है नौरता का खेल, जिसका सुअटा अपहरण का दैत्य है। उसे मारने के लिए क्वाँरी युवतियाँ गौरा से प्रार्थना करती हैं। वे नौ दिन-रात व्रत-उपासना करती हैं, जिससे प्रसन्न होकर गौरा उसका वध कर डालती है।

बुंदेलखंड के लोक देवता – खैर बाबा 

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