हमारे यहां ऋतु पर्व जीवन की व्यापकता निर्मित करने के उद्देश्य से संचित हैं। बसंत पंचमी के आते ही जिधर देखो Banan Me Bagan Me Bagro Basant Hai । इन्हीं ऋतु पर्वों के माध्यम से मनुष्य की संवेदनाओं को व्यापकता मिलती है, उसका सौंदर्यबोध परिष्कृत होता है और नैतिक वृत्ति पवित्र होती है। प्रकारांतर से ऋतु पर्व सांस्कृतिक चेतना को अनुप्राणित – विकसित और मार्जित करने का सर्वोत्तम माध्यम है ।
भारतीय संस्कृति (Indian Culture) के मूल में यहाँ के लोक पर्वों लोक -उत्सवों की एक विराट परंपरा समाहित है । संस्कृति को जानने के लिए मनुष्य ने चिरकाल से प्रकृति से अपने संबंध स्थापित किये हैं । क्योंकि प्रकृति अंतश्चेतना की अनुभूति होती है जिससे आत्मा में आनंद और तन्मयता उत्पन्न होती है।
जब प्रकृति हँसती है तो समूचा संसार हंसता है। इसी हँसने और हँसाने का नाम है वसंत। यह वसंत दुंदुभी बजाकर भी आता है और चुपके से भी । वसंत के आने की आहट प्रकृति रूपसी का श्रृंगार कर लेना भर नहीं है बल्कि श्रंगार को जीना है , उसे आत्मसात करना है ।
आम्र मंजरी की मादक गंध, मधमाती – इतराती सुरभित हवाएँ , ठहरती – बहती नदी की चंचल धाराएँ , बहुरंगी – बहुवर्णी पुष्प – गुल्म , प्रेमातुर विटप – लताएँ , नव कोपल – नव पात – पल्लव – हरितमा , मधुकर का गुंजार , कोयल की कूक , पक्षियों के कलरव , वन प्रांतर में विहँसते पलाश , मुसकाते किशंकु के फूल , खुशबूओं के उड़ते बादल , घूँघट से झाँकता चाँद , हथेली की मेहंदी , पाँव का महावर , लहलहाते सरसों – अलसी के खेत , गेहूं की गदरायीं बालियाँ , अरहर की झुक – झुक जाती डालियाँ और फगुनाहट से बौराया मन जब हँसता है, Banan Me Bagan Me Bagro Basant Hai तब वसंत साकार होता है।
वसंत का यों साकार होना , सप्राण – सवाक् होना ही जीवन की जीवंतता है। वस्तुतः जीवन की यही जीवंतता ही वसंत है वरना ‘ बस – अंत ‘ है । जीवन के जितने भी पक्ष हैं , संदर्भ हैं उन सभी को नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत करता है वसंत । चतुर्दिक पूर्णता ही दृष्टिगोचर होती है । कहीं भी कोई अपूर्ण नहीं , कोई रिक्त नहीं , कोई अतृप्त नहीं । सभी संतुष्ट हों , सभी तृप्त हों याने व्यष्टि से लेकर समष्टि में संपूर्णता भर देता है वसंत ।
वसंत का अर्थ – रिक्तता नहीं , पूर्णता है। जड़ता नहीं , सजीवता है। द्वेष नहीं , राग है वसंत। क्षण भंगुरता नहीं , शाश्वतता है वसंत । वासना नहीं , प्रेम है वसंत । सच में सृष्टि और सर्जन के मध्य सेतु का कार्य यही वसंत करता है। यही अभीष्ट भी है वसंत और फागुन का ।
सौंदर्य प्रकृति का प्राण तत्व है । हम उसे फूलों की तरह खिलने दें , अपने मन को उसकी सोंधी सुगंध से भरने दें , अपने कानों में वह स्वर पहुँचने दें जो अपने भीतर – भीतर प्यार की उष्मा लेकर आना चाहता है। हम अपनी आँखों में उसका आकाश छा जाने दे, जहाँ जिंदगी अपने पंख खोल कर उड़ रही होती है। हम रोम – रोम उस स्पर्श से भर जाने दें जो हमें पारस बनाए रखने को आकुल है। बस इसी अकुलाहट का नाम है फागुन। जो रीतने नहीं देता है , छूटने नहीं देता है , टूटने भी नहीं देता है ।
परिपूर्ण बनाए रखना फागुन की अपनी विवशता है और विशेषता भी Banan Me Bagan Me Bagro Basant Hai। फागुन को उत्पाती कहा गया है। किंतु फागुन का जो उत्पात है वह पीड़ा से मुक्ति देने वाला है , ठूँठ में भी नई आकांक्षाओं के किसलय उगाना फागुन का ही सृजन धर्म है। आग लगाने का जो मीठा उपालंभ है , उसमें प्रेमसिंधु हहरा रहा है।