बंदेली का व्यवहार क्षेत्र विस्तृत है। व्यवहार क्षेत्र के विला रूप विविधता दी है। रूप विविधता ने ध्वनियों को बहुवर्णी बनाया और क्रियारूप सर्वाधिक प्रभावित हुये। बुंदेली-अपनी शब्द सामर्थ्य, शैली एवं विविधता में एकता के कारण Bundeli ka Mankikaran गद्य एवं पद्य में उपलब्ध साहित्य के आधार पर मानक भाषा है।
बुन्देली का मानकीकरण Bundeli ka Mankikaran
बुंदेली हिन्दी की एक बोली है। इसका व्यवहार क्षेत्र ग्वालियर संभाग के मुरैना, भिण्ड से लेकर जबलपुर संभाग के छिंदवाडा-सिवनी तक है। इसी से इसके क्षेत्रीय रूपों में शब्द अर्थ और न विभिन्नता है। इस भू-भाग में उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमश: सिकरवारी, तंवरधारी, भदावरी, रजपूतघारी, जटवारे की बोली पंचमहली, कछयावघारी, पंवारी, रघुवंशी, लोधाती, खटोला, बनाफरी, कुंद्री, तिरहारी, निभट्टा और छिंदवार की बुंदेली आदि रूप व्यवहार में हैं। डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने बंदेली के बोली रूपों को उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमशः ‘कौं बोली रूप’, ‘खौ बोली का ‘खाँ बोली रूप’ नाम दिये हैं।
भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तक बुंदेली की शब्द-संपदा में तत्सम, तदभव, देशज, ध्वन्यात्मक विदेशी, स्थानीय, अन्य भाषाओं से गृहीत तथा संकर शब्द सम्मिलित हैं। विस्तृत भू–भाग में व्यवहृत होने के कारण बंदेली की शब्द-संपदा में स्थानीय रूपों का विशेष महत्व है। बुंदेली भाषा और उसके लोक-साहित्य पर विगत 60-70 वर्षों से शोध-कार्य हो रहे हैं।
बुंदेली का विकास प्राचीन भाषिक परम्परा का परिणाम हैं। उपलब्ध प्रकाशित और अप्रकाशित गद्य और पद्य की रचनायें यह प्रमाणित करने में समर्थ हैं कि बुंदेली बोली स्टैंडर्ड कोटि तक पहुँची है और उसका साहित्यिक रूप निरंतर विकसित हुआ। बुंदेली काव्य भाषा, राज-भाषा और लोकभाषा के रूप में विकसित हुई। जगनिक पुराना ग्रंथ है जो एक हजार साल पहले लिखा गया था। बुंदेली, भाषा की पूँजी है। ईसुरी, गंगाधर व्यास जैसे लोक कवियों की परम्परा सशक्त है।
गद्य में सनदें, रूक्का, पटटा, शिलालेख पत्र-पांडुलिपिया आदि में उपलब्ध हैं। छत्रसाल के हजारों पत्र बुंदेली गद्य के उच्चकोटि के नमूना हैं। वीरसिंह देव द्वितीय के जमाने में कुंडेश्वर में पाक्षिक ‘मधुकर’ का प्रकाशन में हुआ। पत्रिकाओं में ईसुरी’ ‘बुंदेली बसंत’ का तथा ‘अखिल भारतीय बुन्देली साहित्य एवं संस्कृति परिषद का बुंदेली के लिए महत्वपूर्ण योगदान है।
डा. बिहारी द्विवेदी के अनुसार-‘परिनिष्ठित या मानक बुंदेली का क्षेत्र टीकमगढ़ के चारों ओर लगभग एक सौ मील के अर्द्धव्यास के कल्पित वृत्त में आने वाले क्षेत्र मे सभी उप बोली क्षेत्रों से सम्बंधित है । बोली के साथ भाषा सामाजिक संपदा है। पश्चिमी हिन्दी के व्रज और बंदेली रूप शौरसेनी नागर से पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। भाषा भूगोल की अधुनातन स्थापनाओं के आधार पर बोलियों के मिलन स्थल भाषा के अंतरीपों की रचना करते हैं।
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के बोली रूप उत्तर पश्चिम में मानक व्रज से सिकरवारी की ओर बढ़े हैं। उत्तरपूर्व में इन बोली-रूपों ने भदावरी और तेंवरधारी को रूप प्रदान किया, दक्षिण पूर्व में ये बोली रूप पंवारी हो गये। ग्वालियर और मुरैना की सिकरवारी को आसन नदी विभाजित करती है। उत्तर पूर्व में भदावरी, उत्तर में तँवरघारी, डबरा के आसपास पंचमहली, अट्ठाइसी तथा जटवारी के बोली-रूप स्पष्ट हैं।
भाषा शस्त्रीय दृष्टि से पंवारी दतिया में बोली जाती है। उस क्षेत्र में पंवार क्षत्रियों को बाहुल्य था। सत्रहवीं सदी में भगवानसिंहजूदेव बुंदेला द्वारा राज्य स्थापित किया जाने के बाद दतिया निरंतर ओरछा बुंदेलाओं के संपर्क में बना रहा। वहाँ की भाषा वही रही जो ओरछा और टीकागढ़ की भाषा रही।
दतिया जिले में पत्र-पांडुलिपियों को सर्वेक्षण शोध-परियोजनाओं पर कार्य करते समय बुंदेली के परिनिष्ठत रूप में चिट्ठी-पत्री सनदें, बीजक रुक्का, मुचलका, याद, टीप, पावती, अरजी, परवाना, इस्तहार, इज्जत आसार नामा, हियायत नामा, करारनामा, चकनामा, हुकुमनामा, सरखत, हाजिर नामा, जाहर नामा, रपट, पुन्ननामा, कौलनामा, ताम्रपत्र, कुरसीनामा, बीजक, दुर्गलेख, पादाघ, लिखित, साख, कुरसीनामा, जागीर, तोप के ऊपर उकेरा गया लेख, कबूलत, शिलालेख, रसीद शोकपत्र, भारेनामा, फारकती, राजीनामा आदि उपलब्ध हुए हैं। अतः बुंदेली के मानकीकरण की पुष्टि होती है।
बोली और भाषा का मूल रूप ध्वनियाँ होती हैं। क्षेत्रीय उच्चारणगत् बलाघात् के कारण उस क्षेत्र की बोलियों में अर्थद्योतन क्षमता अधिक है। अनुकरण की प्रवृत्ति, द्वित्व की बहुलता, समीकरण का प्रभाव और द्विरुक्तियों का व्यवहार इन बोली रूपों को प्राणवान बना देता है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में बसाहट के अंतर्गत् जाति समूह स्थान-स्थान पर मिल जाते हैं। उन जाति समूहों को ‘घार’ कहा जाता है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के भदावरघार, कछवाहघार, जटवारौ, ‘ तंवरघार, सिकरवारघार और जादौंमाटी के साथ जो जातियाँ जुड़ी हैं उनमें भदौरिया, कछवाहा, जाट, तोमर, सिकरवार के साथ जादौं प्रमुख हैं।
उन के अंतर्गत चौरासियाँ, बाउनी, बत्तीसी अट्ठाइसी और उनईसी जैसे उपधार है उन उपधारों के बोली रूप भी उच्चारणत् विशेषतायें लिये हुए हैं। – इस क्षेत्र के प्रमुख घारों के बोली रूपों में जितना महत्व रूप-रचना उतना ही महत्व उच्चारणगत् बलाघात का है।
सन् 1981 ई. केस कच्छपघातों ने ग्वालियर पर अधिकार करके 900 वर्षों तक शासन नि कच्छपघातों की एक शाखा नरवर और दूसरी श्योपुर में राज्यासीन रही। सहानि और कुतवार के पुरावशेष उन राजवंशों के साक्षी हैं। ऐतिहासिक संघर्षों के पर कच्छपात-लहार, मछण्ड, इंदुरखी, गोपालपुरा और रामपुरा ठिकानों में आ और भिण्ड जिले की वर्तमान लहार-रौन तहसीलों में उनके बत्तीस और बावन गार वर्तमान में कछवायधार के अंतर्गत हैं। उन ग्रामों में कछवायधारी बोली का व्यव है।
मेंहगाँव तथा लहार तहसील के अंतर्गत् चौरासी गाँव रजपूतों के हैं और रजपुतधारी बोली का व्यवहार अड़ोखर, अमायन, जारैट के साथ गुरयायची में उपलब्ध है। राजपूतघारी और कछवायघारी की विभाजक रेखा सिंध नदी है। भिण्ड तहसील का संपूर्ण भू-भाग मेंहगाँव तहसील का संपूर्ण भू-भाग, मेंहगाँव तहसील का उत्तर पश्चिमी भाग भदावरघार के अंतर्गत है जिसे सामान्य बोल-चाल में भिण्ड-भदावर कहा जाता है।
उसी तरह गोहद को केन्द्र बनाकर जाट सत्ता का विस्तार हुआ और मगरौरा, पिछोर, चितौरा तथा इन्दरगढ़ इलाके जाटों के आधिपत्य में रहे। उस भू-भाग में पंचमहल सहित जटवारी बोली का व्यवहार है। ये सभी बोलियाँ और उपबोलियाँ बुंदेली भाषा की समृद्धता की परिचायक हैं।
मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक इकाई के रूप में ग्वालियर जनपद तोमर सत्ता के अंतर्गत उत्कर्ष के शिखर पर रहा और तोमरों का प्रभाव इन्द्रप्रस्थ तक फैला रहा। तोमरों की सत्ता के साथ उनकी बोली का व्यवहार चंबल और क्वांरी नदियों के भू-भाग में स्थिर हुआ। मुरैना जिले के सवलगढ़ और जौरा में सिकरवार क्षत्रियों का बाहुल्य हैं। इनका संबंध सीकरी से था। इस बोली रूप में ध्वनियाँ तंवरघारी के साथ ‘जादौं माटी’ बोली का व्यवहार क्षेत्र धौलपुर के समीप करौली से आरंभ होकर चंबल नदी को पार करता हुआ मुरैना के पश्चिमी भू-भाग में फैला हुआ है।
गुना और शिवपुरी के अंतर्गत बैयरवानी का व्यवहार है। ‘जौरासी घाटी के आसपास किरार जाति के उन्नीस गाँव की ‘उनईसी’ गजरघार की अट्ठाइसी बाला रूप प्रचलित हैं। बोलियों की सीमायें न तो अचल होती हैं और न सनातन । इसी परपरा , अनुसार बोलियों का व्यवहार क्षेत्र घटता-बढ़ता रहता है। आवश्यकता और सम्पर्क के आधार पर बोलियाँ व्यक्ति से आरंभ होकर समाज तक पहुँचती हैं।
एक दूसरे के निकट लाती हैं। बोलियों का उच्चरित रूप हृदय को झझकोरता है। क्रोध के साथ करूणा और सहृदयता के साथ व्यग्य को समर्थ बनाता है और सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इसी आधार पर ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले घारों के बोली रूप एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
मध्यदेशीय ग्वालियरी को जैनों, नाथों और सूफियों ने अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। विष्णुदास ने महाभारत और रामायण-कथा लिखी। मानिक की बेताल-पच्चीसी, गोविंद स्वामी के विष्णुपद, आसकरन और तानसेन के स्वर इन्हीं बोली रूपों के जीते-जागते प्रमाण हैं।
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की बोलियाँ पुलक को आकार देती हैं। इनमें मुदिता का भाव समावेशित है तथा करुणा के साथ उपेक्षा भी जुड़ी हुई है। इन बोलियों की क्षमता ध्वनि के साथ शब्द, वाक्य, मुहावरा और लोकोक्तियों तक मिल जाती है। लोकभाषा के रूप में इन बोली-रूपों का विकास खेत-खलिहान से लेकर गाँव-गली में हुआ। राजभाषा के रूप में ये बोली-रूप सन् 1578 ई. से व्यवहार में रहे।
काव्यशास्त्र, भक्तिकाव्य, यात्रा विवरण, नाटक और कोश रचना भी इन बोली-रूपों में की गई। जोगीदास, खंडन, अक्षर अनन्य, रसनिधि, दिग्गज, कन्हरदास, ऍनसांई, कारे फलक और बजीर की अनुभूतियों ने उन बोली रूपों को काव्य भाषा का पद प्रदान किया। इसी से इन बोली रूपों में विभिन्नता होते हुए भी अद्भुत प्रभाव क्षमता है।
देवनाम भाषा कहूँ, कहूँ जावनी होय।
भाषा नाना देस की, ग्वालियर मधि जोय ।।
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में बुंदेली के अनेक बोली रूप व्यवहत हैं। एक बोली के अनेक रूप हैं। निष्कर्ष रूप में बुंदेली-अपनी शब्द सामर्थ्य, शैली एवं विविधता में एकता के कारण तथा गद्य एवं पद्य में उपलब्ध साहित्य के आधार पर मानक भाषा है। भौगोलिक स्थितियों के कारण बुंदेली भाषा के क्षेत्र निर्धारण का विवाद असंगत है। बुंदेली-समर्थ एवं विस्तृत भू–भाग की भाषा है।