लोक साहित्य में लोक-भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति होती है। लोक का मन गंगा की तरह पवित्र तथा यमुना की तरह चंचल होता है। लोकमन जब उल्लास और उमंग से सरवोर होता है तो लोक कंठों से लोकगीत के मधुर स्वर फूटते हैं। लोक संस्कारों से सम्पन्न होकर Bundelkhand ke Sanskar Geet जीवन को आनन्द विभोर कर देता है। लोक का हर संस्कार गीतों की सुमधुर ध्वनियों से ही सम्पन्न होता है।
संस्कार गीत माधुर्य के विविध रूप
बुंदेलखंड अंचल में संस्कार गीतों की प्राचीन और समृद्ध परम्परा है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों के विशिष्ट गीत हैं। विवाह, जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। लगुन, मंडप, मायना, टीका, भांवर, चढ़ाव जैसे नेग बिना गीतों के अधूरे रहते हैं। अन्नप्राशन, पाटीपूजन, झूला-झूलने के बाल सुलभ संस्कार भी गीतों से पूर्णता पाते हैं।
हमारी परम्परा में लोक को वेदवत् आदर दिया गया है। संस्कार गीत लोकवेद की रचनायें हैं। ऐसे पवित्र अनुष्ठान, ऐसे रीति-रिवाज और रस्में हैं जो जन्म से पहले ही आरम्भ हो जाते हैं और मृत्यु पर्यन्त इनका निर्वहन अनिवार्य है। शास्त्र सम्मत संस्कार 16 माने गये हैं। (1) गर्भाधान, (2) पुंसवन, (3) सीमंतोन्नयन, (4) जातकर्म, (5) नामकरण, (6) निष्क्रमण, (7) अन्नप्राशन, (8) चूडाकर्म, (७) वेदारम्भ, (10) उपनयन, (11) कर्णवेधन, (12) समावर्तन, (13) विवाह, (14) वानप्रस्थ, (15) संन्यास, (16) अन्त्येष्टि।
लोकजीवन में गर्भाधान – फूल चौक है और सीमंत के स्थान पर सादें हैं। आगरनौ है। सादें, सातवें या आठवें महिनें में रखी जाती हैं और यह संस्कार कृष्णपक्ष – अंधेरे पाख में सम्पन्न किया जाता है। इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत वातावरण में मंगल कामनाओं की वृष्टि करते हैं। .
वंश वृक्ष तरें निकरीं दुलैया,
एक गोरी दूजी अंग की पतरी,
बीरा चबायें धना लगत सलौनी
कौन बड़े ने बहुअर ताल खुदाये,
कौन बड़े ने बहुअर पार बँधाई,
जई में दुलइया रानी सपरन जावें,
फूल झरै फल लागन लागे।।
हाँसे फूले ससुरा पंडित बुलाये,
पंडित को बहू की सादें दिखावें,
साहें दिखाकें, बहू के मायकें पौंचावे,
हाँसी फूली मैथा सादें संजोवै,
हाँसे जे फूले बीरन सादें पुजा….
प्रसव काल आ जाता है। लोक कठों में बसे लोकगीत आनन्द देने में समर्थ है…।
दुलैया चौके आई
सोने के दियला जराओ,
दुलैया चौके आई।
चंदन चौक पुराओ, पंडित बुलाओ,
गुन के गनित लगाओ,
दुलैया चौके आई।।
पंसवन के अंतर्गत पुत्र प्राप्ति की कामना रहती है। सब चाहते हैं आँगन में किलकारियों गूंजे। बधावा बजने की कामना आदिम है। सनातन है। प्रसूता की पीरों को मंगलमयी वेदना माना जाता है।
मेरी चंदा बहन सुकुमारी,
घुमड़ पीरें लै रई महाराज,
तुम सुन लो बलम हजारी,
सासों को टेर लेओ महाराज,
उननें लीले से घुड़ला सजाये,
मैया के घर पौंच गये महाराज।।
राम जन्म के अवसर पर पिता दशरथ द्वारा सर्वस्व दान देने का उल्लेख है। अथर्ववेद में सहज और सुरक्षित प्रसव के लिए प्रार्थनायें की गई हैं।
आज दिन सोंने को महाराज,
गैया कौ गोबर मँगाओ बारी सजनी
ढिंकधर अँगन लिपाओ महाराज,
कंचन कलस धराओ महाराज,
बैठो जसोदा आओ चौक में,
लालन कंठ लगाओ महाराज।
आज दिन सोने को महाराज।।
प्रसव के बाद प्रसूता के लिए चरुआ धरा जाता है। दरवाजे पर सा बनाये जाते हैं। खाने के लिए हरीरा और सोंठ बिसवार के लड्डू बांधे जाते हैं। छठी और दस्टौन होती है। सोहरे और बधाये की स्वर लहरियाँ घर आँगन में गूंजने लगती हैं।
जनम लये नंद लाला विरज में जनम लये,
चतुर सी सासो बुलाओ जसोदा रानी,
धरा लये चरुआ महल में,
चतुर सी जिठनी बुलाओ जसोदा जी,
बँधा रहीं लडुआ महल में,
सुघर सी ननदी बुलाओ जसोदा रानी,
धरा रहीं सतिया महल में।।
शिशु जन्म के रीति-रिवाजों का निर्वहन करने में ननद की भूमिका सर्वोपरि रहती है। पलना धरने में वह सबसे आगे और बधावा भी वही लाती है।
आज बाजे रे बधइयाँ मोरे अँगना,
छोटी-छोटी आँगुरियौं, बड़े-बड़े बिछिया,
ठुमका नाचै रे ननदिया, मोरे अँगना,
चाँय बिन्नू उचकौ, चांय बिन्नू ठुमको,
नइयाँ, नइयाँ रे ककनवा, मोरे अँगना।
भैया के घर भतीजे का पैदा होना, छोटी बहिन का नेग माँगना भाभी की पुलक को बढा देता है ।
झुला दो आली श्याम परे पलना,
काये के पलना बने काये के फुदना,
चंदन के पलना बने और रेशम के फुदना,
काऊ गुजरिया की नजर लगी है सो खीझ रहे ललना।
राई – नोंन उसारें जसोदा,
सो किलक उठे ललना,
जो मेरे ललना को पलना झुलैहै,
सो दैहों जड़ाऊ ककना ।।
शिशु की बुआ पालने को सिर पर रखकर आँगन में नाचती है
ननद बाई आ गई लैकें बधाऔं।।
पैलौ बधाऔ मेरे मैंड़े पै आओ,
बाबा को हियौ हुलसानों,
पाँचओ बधाऔ मेरे अँगना में आऔ,
भौजी को हियौ हुलसानौ,
ननद बाई आ गई लैकें बधाऔ।।
लोक जीवन को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए परम्पराओं को अंगीकार करना पड़ता है। जिससे वर्तमान सुखमय रहे और भविष्य यशस्वी। लोकाचार समूह के अनुभव हैं।
अंगना में हरी-हरी दूबा,
घिनौचिन केवरे महाराज।
पहले पहर को सपनों सुनी मेरी सासु ज,
चंदा सूरज की जोड़ी अँगन बिच उग रई महाराज
नामकरण और निष्कमण संस्कार में नामकरण नक्षत्र मास के देवता कुल के देवता और लौकिक व्यवहार के आधार पर रखने का विधान रहा है। लोक जीवन में निष्क्रमण संस्कार का स्वरूप प्रसूत गृह से बाहर निकलकर प्रसूता द्वारा सूरज के दर्शन करना है। इस संस्कार का बुलौआ ‘बाहर निकलने के नाम से दिया जाता है।
तुम्हरे उगत अच्छित डारौ,
भड़ाभड़ देवल मोरियो महाराज।।‘
जीवन में जल का महत्व आदिम युग से रहा है। और जल प्रकृति का वरदान है। जलधाराओं में नदियाँ श्रेष्ठ हैं और उपयोगी है। ‘कुआँ पूजना’ इसी से लोक जीवन में प्रचलन में है। मंगलगीत गाती हुई महिलाओं के साथ प्रसूता कुआँ पूजने के लिये जाती है।
ऊपर बदर घहरायें रे,
हमारी धना पनियाँ कौं निकरी।
जाय जो कइयो उन ससुर बड़े से,
अँगना में कुअला खुदाय रे,
तुमाई बहू पनियाँ को निकरी।।
मायके से आया हुआ कलश रस्सी से बाँधकर कुंये में डाला गया। रस्सी को गिर्रा पर चढ़ाया गया और लोक कंठ मुखर हो उठे
गिर्रा पै डोरी डार गुइयाँ,
गिर्रा पै डोरी तब नौंनी लगै,
जब सोने घड़ेलना होय गुइयाँ,
डार गुइयाँ के डराऔ गुइयाँ।
अन्न प्राशन संस्कार लोक जीवन में पासनी है। यह संस्कार मायके में शिशु के नाना या मामा द्वारा संपन्न कराया जाता है। चावल अथवा साबदाने का खीर कटोरी में रखकर शिशु को चम्मच से चटाई जाती है।
जनक जू के महलन में आज बड़ी भीर,
हर्ष भरी भीर हुलस भरी-भीर,
नाना चटा रये ललन कों खीर,
काये की बिलिया काये की खीर,
सोने की बिलिया इमरत की खीर।।
चूडाकर्म संस्कार को सामान्य रूप से मुंडन कहा जाता है। बालों की झालर को उतरवाना ही मुंडन है। यह संस्कार किसी भी तीर्थ या देवस्थान पर सम्पन्न कराया जाता है। छितरिया कढोरना भी लोक व्यवहार में है।
वेदारम्भ संस्कार लोक जीवन से धीरे-धीरे दूर होता चला गया। उपनयन संस्कार लोक जीवन मे जनेऊ है लेकिन इस संस्कार की अनिवार्यता भी धीरे- धीरे निर्वल हो रही है। ‘कर्ण वेधन संस्कार’ को कनछेदन कहा जाता है। जितना अलंकरण से है। समावर्तन संस्कार का सरल आशय विद्यार्थी जीवन के समापन की सूचना देता है।
सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार अधिक महत्त्वपूर्ण है। सगाई की चर्चा से लेकर नववधू के रोटी छूने तक के रीति-रिवाज इस संस्कार में समावेशित हैं।
कच्ची ईंट बाबुल देहरी न धरियो,
बिटिया न दियो परदेस गोरे लाल।
देहरी की ईंट खिसक जैहै बाबुल,
बिटिया बिसुरै परदेस गोरे लाल।
मैया के रोये सें छतिया फटत है,
बाबुल के रोयें बेला ताल मोरे लाल।
भैया के रोये सें नदिया बहत है,
भाभी के जियरा कठोर मोरे लाल।।
विवाह केवल पति और पत्नी के भौतिक तत्त्वों का मिलन नहीं है, यह आध्यात्मिक समागम भी है। सनातन संबंध है। स्थाई बंधन है। लगुन लेकर नाई जाता है।
आज मोरे अंगना में रंग बरसात है,
रंग बरसत है, अबीर उड़त है।
आज मोरे रामजू की लगुन चढ़त है,
कानन कुंडल राजा राम जू के सो है,
सो मुंतियन माल गरे बिलसत है।
विवाह के अवसर पर ‘मटयाना’ लिया जाता है। मटयाने के गीत शालीनता तोड़ने वाले हैं ..।
गाँव में आये मटखुदना, काऊ में देखे मटखुदना।
‘छेई’ विवाह के अवसर पर खाना पकाने के लिये जंगल से लकड़ियाँ मँगाने की व्यवस्था है। भात’ का बंदेलखंड में बहुत महत्त्व है। हरदौल ने अपनी बहिन को मरने के बाद ‘भात’ दिया था। बहिन अपने भाई से गुड़ और चावल लेकर भात’ माँगने जाती है। नरसी भगत के भात जैसी प्रसिद्धि इस अंचल में हरदौल के भात की है। भतइया’ गाये जाते हैं। इसी तरह अरगौ – मोंगर, तेल, ‘देवतन कों निमंत्रण देने का चलन लोक-जीवन में है।
आज मेरे राम जू को तेल चढ़त है,
तेल चढ़त है, फुलेल चढ़त है,
सोने की बिलियन तेल धरौ है,
सो हरदी मिलाके अजब झलकत है।
आंधी हवा व्यवधान पैदा न करे इस दृष्टि से पवनपुत्र हनुमान से प्रार्थना की जाती है
पवन के हनुमत हैं रखवारे,
बैहर के हनुमत हैं रखवारे,
आँधी बैहर जे रोकनहारे।
विवाह संस्कार में टीका से एक दिन पहले मण्डप छाया जाता है। मंडप यज्ञ-स्थल है। बारात जाने से पहले वर को सजा कर राछरी निकाली जाती है। माँ के द्वारा मुँह पौंछना और आँचर डालना तथा वर की राई-नौंन से नजर उतारी जाती है। मूसर बदला जाता है। पीछे लौटकर न देखने के निर्देश दिये जाते हैं।
ऊपर चाँदनी तनी, नैंचें लाड़लौ खड़ौ,
सहरा बाँध लो सही, मेरी मान लो कही,
खौरें काढ़ लो सही, मेरी मान लो कही,
ऊपर चाँदनी तनी, नैंचें लाड़लौ खड़ौ।
कन्या का भी उबटन होता है।
रुनक – झुनक बेटी अंगना डोले,
सो बाबुल लई है उठाय – भले जू।
द्वार चार और टीका के अवसर पर घोड़ा आज भी जरूरी है। दूल्हे पर सबकी दृष्टि रहती है। उससे अजीब-अजीब प्रश्न भी किये जाते हैं। तुमनें कौन के भरोसे घर छोडौं रे बना।
बना रस गेंदवा नई घालौ।
मेरे लाग जैहै रे।
गगर मेरी फूट जैहै रे।
चूनर मेरी भींज जैहै रे।
मेरे लाग जैहै रे,
सास घर गारी है है रे।।
बारात, मिलनी और टीका की रस्में होती हैं।
राजा जनक जू की पौर पै जसरथ चढ़ आये,
माथौ आजुल जू को जब नवै सिया ब्याहन आये,
माथी काकुल जू को जब नवै सिया ब्याहन आये,
राजा जनक जू की पौर पै जसरथ चढ़ आये।।
कन्या पक्ष आज भी सदियों पुरानी विनम्रता लिये हुये है। लड़की का पिता हिमांचल बनकर सिर झुकाये रहता है। सब कुछ सहन करने के लिये विवश हाथ जोड़े… ।
कोट नवै पर्वत नवै सिर नवन न आये।
माथौ हिमांचल जू को तब नवै जब साजन आये।
माथौ आजुल जू कौ तब नवै जब साजन आये।
माथौ वीरन जू कौ तब नबै जब साजन आये।
चीकट और चढ़ाव की रस्में पूरी होती हैं।
मंडप विवाह संस्कार का पवित्र स्थल है।
हरे बाँस उसकी पावनता को और बढ़ा देते हैं।
चीकट और चढाव की रस्मे पूरी होती हैं मण्डप विवाह संस्कार का पवित्र स्थल है,हरे बांस उसकी पावनता को और बढा देते हैं ।
हरे बाँस मंडप छाये।
सिया जू कौं राम ब्याहुन आये।
जब सिया जू कौ चढ़त चढ़ाऔ,
भाँत-भाँत गहने आये।
सिया जू को राम व्याहुन आये।
जब सिया जू की परत भाँवरें,
बुद्धिमान पंडित आये,
सिया जू कौ राम…..
भाँवरें, कन्यादान, धान बुआई, पाँव-पखराई की परम्परायें व्यवहार में हैं। पाणिग्रहण संस्कार। कन्यादान, गौदान से भी पावन है। गृहस्थी की गाड़ी पति-पत्नी के सहयोग से चलती है।
जाय लली तुम फलियो फूलियो,
सदा सुहागन रहियो, मेरे लाल।
गीतों के माध्यम से शिक्षायें, नसीहतें और उपदेश कन्या को सदियों से दिये जाते रहे हैं। ये उपदेश और अपेक्षायें कन्या से ही नहीं वर से भी हैं। वर-वधू का सम्मिलित प्रयास ही परिवार है। सात-पाँच वचन का विधि-विधान दोनों के लिये हैं। रास वधाऔ, पंचडेरा, दैरचपौ, गूंज छोरबौ और कलेऊ, ज्यौनारें संस्कार गीतों में समावेशित हैं। हर संस्कार के अलग-अलग गीत हैं।
ज्यौनार के समय महिलाओं द्वारा गारियाँ गाई जाती है। तरह-तरह के व्यंग्य कटुक्तियाँ और हास परिहास इन ज्योनारों में सम्मिलित हैं।
मेरे हरि सें करें ररियाँ,
जनक पुर की सखियों।
उननें आतर परसी, पातर परसी,
सो परस दई दुनियाँ।
जनकपुर की सखियाँ।
उननें निबुआ परसे अथाने परसे,
सो परस दई अमियाँ,
जनकपुर की सखियाँ।
विवाह के अवसर पर गाई जाने वाली गारियाँ मीठी होती हैं।
गुडर गुड़र समधी हुक्का पियें रसवारी के भौंरा रे।
हुक्का के ऊपर ककरा धरे, रसवारी के भौंरा रे।
ककरा के ऊपर धरी तमाखू बाके ऊपर आग धरे,
रसबारी के भौंरा रे।।
देन-दायजौ, छाती पान और फिर विदा। मामा अपनी गोदी में लेकर कन्या को पालकी या अन्य वाहन तक ले जाता है। नाइन पानी पिलाती है। सबकी आँखों से आँसू दुलकने लगते हैं।
बीरन कों छाई महल अटरियाँ,
बिटिया को दऔ परदेस मेरे लाल,
हम तो कहिए अजुल बरहै कौ पानी,
जित मोड़ो तित जाँय मेरे लाल
हमतौ कहिये बाबुल अंगना की चिड़िया,
चुनौं चुनें उड़ि जॉय मेरे लाल,
हम तो कहिए बाबुल झूटा की गैया,
जित ढीलौ उत जाय मेरे लाल।।
जुगिया, सरबत, बहू-बेटा के संस्कार पूरे होते हैं। नव-वधु और वर की आरती उतारी जाती है। लोकगीतों का सिलसिला चलता रहता है।
थार कंचन के हाथ लये आरती,
जगर मगर जोत कों समारती।
ठाड़ी द्वार सुमित्र रानी
उनके मुख से कदै न बानी,
ऐसी हिरदै खुसी समानी,
चारउ भैयन के रूप को निहारती,
अगर-मगर जोत कों सम्हारती।
बहू-बेटा लेने के बाद वर-वधू ग्राम्य देवताओं का पूजन करने के लिये जाते हैं। कंगन छोरना, मौचायना, और ‘बाबू को – विवाह संस्कार के अंतर्गत आने वाले रीति-रिवाज है। द्विरागमन को लोक भाषा में गोना कहते हैं। ‘नॉव धरवी’ और रोटी छुआई के नेग-दस्तूर बुंदेलखंड के संस्कारों में समावेशित हैं।
वानप्रस्थ संस्कार, संन्यास आश्रम और अंत में अन्त्येष्टि संस्कार हैं। यह जीवन का अंतिम संस्कार है।
बखरी रैयत है भारे की दई पिया प्यारे की।
तन को तनक भरो सौ नइयाँ,
राखौ लाज गुसइयाँ।
शरीर की नश्वरता जगत विदित है। पेड़ की टहनी से टूटा पत्ता फिर नहीं जुड़ता। मृत्यु तो अटल सत्य है।
माटी, माटी में मिल जाने, इक दिन ऐसौ आनें।
सबकों गोड़ पसारें जाने काऊ न काऊ बहाने।
महाकवि ईसुरी ने कहा है
पलका लचौ मिलै बाँसन को,
कसौ हुयै काँसन को।
वर्तमान समय संघर्ष का समय है। भाग-दौड़ का और आपा-धापी का। संवेदनहीनता का। ऐसे में हमारे संस्कारों का रूप-स्वरूप बदला है। कुछ संस्कारों का अस्तित्व मिट गया है किंतु लोक-जीवन इन संस्कारों को अमूल्य निधि के समान सहेजे है। लोक इन्हें समेटे है। लोक गीतों में ये संस्कार प्राणवान हैं।