Bundelkhand Ki Fag Gayki बुन्देलखण्ड की फाग गायकी

बुन्देलखण्ड की फाग गायकी एक लोककाव्य है, लोककाव्य का अपना काव्यशास्त्र होता है। अपनी भाषा, शब्द और छंदयोजना से लेकर भाव-विस्तार तक उसका अपना विधान होता है। उसमें एक लटकनिया लगाकर फाग (होली) का रूप दे दिया जाता है। Bundelkhand Ki Fag Gayki की अनेक विधायें हैं जिनमें से कुछ विलुप्त हो चुकी है और कुछ अभी प्रचलित है।

’पुरानी फाग‘ कोई Bundelkhand Ki Fag Gayki का विशिष्ट नामकरण नहीं है। लोकगीत रूप में बची उस फाग के लिए कहा है, जो फाग के आदिकाल में रही होगी। यह कई धुनों में मिल सकती है। वर्तमान में प्रचलित ऐसी पुरानी फागों में कौन आदिकाल की है और कौन मध्यकालीन, यह निर्णय करना सरल नहीं है।

राम लला दशरथ के लला,
जा होरी खेलें राम लला।
काहे की पिचकारी बनाई,
काहे के रंग घोरे लला। जा होरी….
चंदन की पिचकारी बनाई,
केसरिया रंग घोरे लला। जा होरी…
भर पिचकारी सन्मुख मारी,
भींज गई तन सारी लला। जा होरी…
कात जानकी सुनौ वीरा लछमन,
बइयाँ न छुओ हमारी लला। जा होरी…

फाग (दादरा ताल)
स्थायी
रे म म म ग रे ग रे सा सा सा रे
श ऽ म ल ला ऽ द श र थ के ल
रे नि सा रे रे रे नि सा रे रे सा रे
ला ऽ जा ऽ हो ऽ र ऽ खे ऽ लें ऽ
नि सा सा सा सा सा

अन्तरा
नि नि – नि – – सा – – नि सा सा
का ऽ ऽ हे ऽ ऽ की ऽ ऽ वि चा ऽ
रे रे ग रे सा सा रे नि नि सा – –
का ऽ ऽ री ऽ ब ना ऽ ऽ ई ऽ ऽ
म म म म ग रे ग रे सा सा सा रे
का ऽ हे ऽ के ऽ रं ग धो ऽ रे ल
रे नि सा रे रे रे नि सा रे रे सा रे
ला ऽ जा ऽ हो ऽ री ऽ खे ऽ ले ऽ
नि सा – सा – –
रा ऽ म ल ला ऽ

उपर्युक्त उदाहरण में पूर्वांग के स्वरों का सीधा-सादा प्रयोग है। इसमें न कोई कण हे, न खटका और न मींड। इस फाग-रूप में लोकगीत की सारी सहजता है, अभिधात्मक कथनमात्र। कहीं से कोई शास्त्रीयता की छुअन नहीं, किन्तु यदि सूक्ष्मता से देखा जाय, तो भावानुरूप शब्द-योजना, प्रश्नोत्तर शैली और अन्त में सांकेतिकता हे, जिससे गीत हृदय को सीधा स्पर्श करता है। इस तरह की दूसरी फागों में भी इसी तरह की निश्छल अभिव्यक्ति मिलती है।

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सखयाऊ फाग का  रूप दोहे में लटकनिया लगाकर बना है। दोहा जहाँ अपभ्रंश का प्रिय छंद था, वहाँ अभीरों से भी उसका संबंध था। छन्द शास्त्र में 11 मात्राओं के चरण वाला आभीर या अहीर छंद मिलता है। इसका विकास भी दोहे के रूप में संभव है। बुंदेली के दिवारी-गीतों में भी दोहे का ऐसा ही बंधान है। बुंदेली फाग में कभी-कभी दोहे में अन्त्यानुप्रास नहीं रहता और कभी मात्राओं की संख्या सही नहीं होती। चतुर्थ चरण में अपनी तरफ से सो लगा दिया जाता है।

दोहे का गायन भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलता है, लेकिन तीसरी पंक्ति (लटकनिया) दादरा ताल पर गायी जाती है। इस कड़ी में मात्राओं का कोई नियम नहीं है। उसके उठते ही वाद्य और नृत्य गीत का अनुसरण करते हैं, बाद में यह नृत्य को गति देने के लिए दुगुन और चैगुन में गायी जाती है।

सबके सैयाँ नीरे बसत हैं मो दूखन के दूर।
घरी घरी पै चाना है सो हो गये पीपरा मूर।
नजर सें टारे टरौ नईं बालमा।।

चुनरी रंगी रंगरेज नें, गगरी गढ़ी कुमार।
बिंदिया गढ़ी सुनार नें, सो दमकत माँझ लिलार।
बिंदिया तौ लै दई रसीले छैल नें।।



’दफ‘ अरबी शब्द से डफ या ढ़प बना है। संभव है कि यह बाद्य मुसलमानों या पठानों के आने के बाद ही प्रचलित हुआ हो। इस फाग के गायन में ढ़प के प्रयोग से ही इस फाग का रूप का नाम रखा गया है। इस फाग की सभी पंक्तियाँ दोहों की हैं। प्रथम पंक्ति में दोहे के प्रथम चरण की अद्र्धाली में ’मनमोहाना‘ जोड़कर टेक बना ली जाती है और दूसरी पंक्ति में दोहे की शेष अद्र्धाली के साथ ’पिया अड़ घोलाना‘ अनुप्रास के लिया या तुक मिलाने को रख दिया जाता है। शेष पंक्तियों मे दोहे के एक-एक चरण में ’प्रिया अड़ घोलाना‘ के योग से पूर्ति की जाती है।

हरे पाठ के फूंदना, मनमोहाना।
कहाँ धराऊँ तोय, पिया अड़ घोलाना।
गंगा जी की रेत में लंबे लगे बाजार, पिया अड़।
घोलाना। हरे…
इक गोरी इक साँवरी दोउ बजारें जाँय। हरे…
कौना बिसा लए काजरा कौन बिसा लये पान। हरे…
गोरी बिसा लये काजरा राधे बिसा लये पान। हरे…
किनके ढुर गये काजरा राधे बिसा लये पान। हरे…
गोरी के ढुर गये काजरा राधे के खा गये पान। हरे…

यह भी संभव है कि ’मनमोहाना‘ और ’पिया अड़ घोलाना‘ के स्थान पर अन्य तुकें भी जोड़ी जाती हों। यह फागरूप अब प्रचलित नहीं है, अतएव इसकी गायन-शैली के सम्बन्ध में कुछ भी कहना उपयुक्त नहीं है। उपर्युक्त राई की गायन शैली वही रही है, जो आज की राई की है। वर्तमान राई से दोहा लुप्त हो गया है, केवल टेक की पंक्ति ही पूरा गीत बन गई है। राई बुंदेलखण्ड का प्रसिद्ध फाग-नृत्य है राई गीत के साथ ढोलक या मृदंग, नगड़िया, झाँझ और झींके के समवेत तालों पर बेड़िनी नृत्य करती है। नृत्य को गति देने के लिए एक ही पंक्ति दुगुन और चैगुन में गायी जाती है।

सपने में दिखाय, सपने में दिखाय
पतरी कमर बूंदावारी हो।
राई (ताल दादरा)
नि सा रे रे ग – रे रे सा सा सा नि
स प ने ऽ में ऽ दि ऽ खा ऽ ऽ य
रे रे रे रे रे – रे रे सा सा सा सा
प त री ऽ क ऽ म र बूँ ऽ दा ऽ
नि नि नि सा सा –
वा ऽ र हो ऽ ऽ
म म – म – म म म – म – म
प ऽ ने ऽ में ऽ दि ऽ खा ऽ य
म म म ग ग म म रे रे रेसा- –
सा प ऽ ने ऽ में ऽ दि ऽ ख ऽ य
रे रे रे रे रे – रे – सा, सा स – रे
प त री ऽ क ऽ म र बूँ ऽ दा ऽ
नि नि – सा – – वा ऽ ऽ हो ऽ ऽ
नोट:- उक्त पंक्ति नृत्य गीत को देने के लिए द्विगुन और चैगन में गायी जाती है।

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रागबद्ध पदों में होरी या फाग-गीत भी रचे गए और उनका अनुसरण लोककवियों ने भी किया, जिसके फलस्वरूप 16 वीं शती में पदशैली की फाग का आविर्भाव हुआ। इस फागरूप को चाहे जितना लोक-सहज बनाया गया हो, पर उस पर शास्त्रीय संगीत और गायनशैली की छाप अवश्य रही होगी।




’लाल‘ से जुड़ने वाली लाल फाग 17 वीं शती की है। यह ’लाल‘ ब्रजी का है या बुंदेली का, यह तो शोध की बात है, लेकिन वह फाग के चरणों के साथ जुड़कर एक नई लोकधुन का आविष्कार कर गया, जो आज तक फाग गायकी की प्राण बनी हुई है। लाल फाग पद शैली की फाग से जन्मी है, शायद पद शैली के शास्त्रीय बन्धन से मुक्ति और नये फागशास्त्र की प्रतिष्ठा दोनों के लिए। पद के हर चरण में ’लाल‘ लगने पर लाल फाग बन जाती है। टेक को विभाजित कर उसे दुहराते हैं और बाद में ’लाल‘ का योग कर देते हैं। यदि पद की टेक है।

’कट गई झाँसी वाली रानी‘ तो इसे ’झाँसी वाली रानी कट गई झाँसी वाली रानी लाल‘ के रूप में ढाल देते हैं और इसी को दुगुन-तिगुन में गाते हैं। फिर अंतरा की पहली अद्र्धाली को दुहराकर कर दूसरी अद्र्धाली में टेक का कुछ अंश मिलाकर उसी लय में गाते हैं। कभी-कभी जब अंतरा का तुकान्त नहीं मिलता, तब लाल तुकान्त का काम करता है।

दोई नैनों के मारे हमारे,
जोगी भये घरबारे लाल।
जोगी भये घरवारे हमारे,
जोगी भये पिय प्यारे लाल।
अरे, जोगी भये पिय प्यारे हमारे जोगी,
भये घरवारे लाल।
अंग भभूत बगल मृगछाला,
सीस जटा लपटाने, हमारे।
हाँत लयँ कुंडी बगल लयँ,
सोटा घर-घर अलख जगाबें, हमारे।।


चैकड़िया फाग लोककाव्य के पुनरूत्थान-काल अर्थात् 19 वीं शती के अंतिम चरण की देन है। लोककवि ईसुरी को इस फागरूप का जनक माना जाता है। उसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। चैकड़िया की विशेषता यह है कि उसके प्रथम चरण में 16 मात्राओं पर यति है और उसका तुकांत वर्ण ही हर चरण के तुकांत में आना जरूरी है।

इस तरह अनुप्रास-सौन्दर्य का आकर्षण बना रहता है। गायन में प्रथम पंक्ति की चैथी मात्रा पर भी एक अल्प विराम निश्चित है। चैकड़िया कई रागों में गायी जा सकती है, पर मैंने काफी और वृन्दाबनी सारंग में उसे सुना है। लोकगायक तो काफी में ही अधिकतर गाते हैं। वे अपनी सुविधा के लिए उसकी प्रथम पंक्ति में परिवर्तन कर देते हैं।

जो तुम छैल छला हो जाते, परे उँगरियन राते।
मौं पोंछत गालन खाँ लगते, कजरा देत दिखाते।
घरी-घरी घूँघट खोलत में नजर सामनें राते।
ईसुर दूर दरस के लानें ऐसे काये ललाते।।
फाग चौकडिया दादरा ताल
स्थायी
ग – – ग – – ग – रे ग सा सा
छै ऽ ल छ ला ऽ हो ऽ जा ऽ ते –
सा रे रे सा नि नि प प नि ऩि सा –
जो ऽ ऽ तु म ऽ छै ऽ ल छ ला ऽ
ऩिसा रेग ग रे ग सा सा – – सा – –
होऽ ऽऽ ऽ जा ऽ ते ला ऽ ऽ ल ऽ ऽ
प प – प प प प प पध मग रे सा
प रे ऽ उँ ग रि ऽ य नऽ ऽरा ते ऽ
सा रे रे सा ऩि ऩि जो ऽ ऽ तु म ऽ
निम्न को दुगनी लय में बजाएँ

पप पप पप पप मम मम गग रेसा ऩिऩि
ऩिऩि सासा सासा
परे ऽउँ गरि यन राऽ तेऽ जोऽ तुम छैऽ
लछ लाऽ होऽ
रेरे रेरे सासा
जाऽ तेऽ लाल

अन्तरा
प़  ऩि ऩि सा – ऩि सा – रे ग सा
मो ऽ पो ऽ छ त गा ऽ ऽ ल न खाँ
रे ऩि सा सा – – ल ग ऽ ते ऽ ऽ
सा – ग म प प प प ग ग म प
मो ऽ पो ऽ छ त गा ऽ ल न खाँ ऽ
ग ग ग सा सा सा ल ग ऽ ते ऽ ऽ
ग ग – ग – – ग – – ग रेग सा
क ज रा ऽ दे ऽ ऽ त दि ऽ खाऽ ते
नोट:- इस अन्तरे इसी प्रकार बजाए जाएँ।




चैकड़िया फाग के प्रत्येक चरण में परार्द्ध में दो मात्राएँ और बढ़ा देने से 30 मात्रा की खड़ी फाग बनती है। प्रथम चरण में चैकड़िया की तरह 16 मात्रा पर यति होती है, इस तरह 16*14 मात्राएँ होती हैं। चरणों के अन्त में दीर्घ अवश्य रहता है। खड़ी फाग के जन्मदाता ईसुरी के समकालीन स्व.गंगाधर व्यास हैं, जो रीति कालीन प्रवृत्ति से प्रभावित होकर फागों में चमत्कार का समावेश करने में सफल हुए।

खड़ी फाग में रीतिशास्त्रीय उपकरण और उनका बंधान विशेष रूप में दिखाई देता है। सर्वत्र एक परिष्कृति सी लक्षित होती है। एक तो उनमें नायक-नायिका-भेद के प्रति एक अप्रत्यक्ष झुकाव है, दूसरे फागों की फड़बाजी से प्रेरित चमत्कार मूलक दृष्टि का आग्रह है। इन फागों की गायन शैली चैकड़िया से मिलती जुलती होने पर भी उससे कुछ भिन्न है।

दिन ललित बसंती आन लगे,
हरे पात पियरान लगे।
घटन लगी सजनी अब रजनी,
रवि के रथ ठहरान लगे।
उड़न लगे चहूँ ओर पताका,
पीरे पट फहरान लगे।
बोलत मौर कोकला कूकैं,
आमन मौर दिखान लगे।
गंगाधर ऐसे में मोहन किन,
सौतन के कान लगे।।

फाग दादरा ताल
स्थायी
सा – – सा – रे म – – ग रे रे
दि न ऽ ऽ ऽ ल लि त ब सं ऽ ऽ
ग – – सा – – रे रे ऩि सा रे रे
ती ऽ ऽ आ ऽ न ल गे ऽ दि न ऽ
रे रे – रे – – सा – – सा – –
ल लि त ब सं ऽ ती ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ
ऩि निं ऩि सा – – आ ऽ न ल गे ऽ
रे म म म ग रे ग ग ग सा – –
ह रे ऽ पा ऽ त पि य ऽ रा ऽ न
रे रे ऩि सा रे रे ल गे ऽ दि न ऽ

अन्तरा
ऩि – – ऩि सा सा सा ऩि सा सा – –
घ न ल गी ऽ ऽ स ज ऽ ऽ ऽ
रे ग रे सा रे ऩि ऩि सा सा सा – –
नी ऽ अ ब र ज ऽ ऩि ऽ ऽ ऽ ऽ
रे म म म ग रे ग ग ग सा ऽ न
र वि के ऽ र थ ठ ह ऽ रा ऽ न
रे रे ऩि नि सा रे ल गे ऽ ऽ दि न
नोट: शेष अन्तरे इसी प्रकार बजाए जाएँ।


फाग की गायन शैलियों में एक है, होरी की फाग, जो होली के अवसर पर गायी जाती है। इन गीतों में राधा, कृष्ण और गोपियों द्वारा होली खेलने का वर्णन है। इस गीत में पुरूष वर्ग का समूह गायन होता है। एक कोई गायक फाग उठाता है, शेष उसे दुहराते हैं। पहले इसे मध्य लय में गाते हैं, फिर धीरे-धीरे द्रुत में पहुँचते हैं और अंतिम चरण में फिर मध्य लय में आ जाते हैं। गीत का रस श्रृंगार और ताल दादरा रहता है। संगत करने वाले लोकवाद्य हैं- मृदंग, टिमकी, झाँझ। यह फाग क्षेत्रगत अंतर से पूरे बुंदेलखण्ड में गायी जाती है।




राई नृत्य के साथ या तो राई गीत गाये जाते हैं या राई की फागेंराई की फाग श्रृंगारिक होती है, भले ही वह रूप-सौन्दर्य का चित्रांकन करे या दाम्पत्यपरक संबंधों का। वह मध्य लय और दादरा ताल में गायी जाती है, पर धीर-धीरे उसकी लय द्रुत हो जाती है। मृदंग, ढोल, टिमकी, मंजीरा, रमतूला आदि लोकवाद्य उसकी संगत करते हैं। राई की फाग अतिकतर सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलों में गायी जाती है। यह राई गीत से मिलती-जुलती है।
’अरे काँ गये रे ऊदल मलखान, अरे काँ गये रे बछेरा रसबेंदुला।‘




लेद गायकी 20 वीं शती के प्रथम चरण में दतिया की देन है। दतिया के प्रसिद्ध गायक कमला प्रसाद ने लेद का आविष्कार किया था और कालका प्रसाद एवं ललन जू ने उसका समर्थन किया था। लोकगायकी की लेद शास्त्रीय लेद से सरल, सहज और छोटी है। लेद लोकसंगीत में दादरा-कहरवा में ढली है। उसमें एक टेक और चार अन्तरे होते हैं। लेद गायन में स्थायी और अन्तरे, दोनों दादरे में गाये जाते हैं। लेद का विस्तार नहीं किया जाता है।

कीसैं कइये जी के साके।
चाउन नयी बहार नये, झौंका रसभरी हवा के।
महुअन के बे फूल बोल बे, मीठी कोइलिया के।
टीलन के ककरा पथरा बे, डाँगन हरीतमा के।।

इसमे पहली पंक्ति स्थायी है और शेष अन्तरे। लेद का ठेका निम्नांकित है- (धिं नक ध् 51 तिं नक धा)। गीत को दादरा ताल और मध्य एवं दु्रत लय में गाया जाता है। लेद गायन दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, सागर के जिलों में अधिक प्रचलित इस गीत में श्रृंगारप्रधान विषय ही प्रमुख रहते हैं। संगत के लिए पखावज और सारंगी लोकवाद्य हैं।



बुंदेली रसिया ब्रज से यहां आया, संभवतः 16 वीं शती के उत्तरार्द्ध में। मेरी समझ में ओरछानरेश मधुकरशाह के राज्य काल में पारस्परिक सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ था, क्योंकि नृसिंह-उपासक राजा को कृष्णभक्ति की ओर उन्मुख करने के लिए अनेक कृष्णभक्तों का आगमन ओरछा हुआ था। इस भक्तिपरक संस्कृति के सम्पर्क से रसिया जैसे ब्रजगीतों का प्रभाव यहाँ की फागगायकी पर पड़ा और बुंदेली ने उन्हें अपनाया, पर काफी परिवर्तन के साथ। बुंदेली रसिया की गायनशैली और लय भिन्न है, कहीं पर लोकगीत बिलवारी की तरह और कहीं लेद के ताल-स्वरों में बँधी।

राधा खेलें होरी हो, मनमोहन के साथ मोरे रसिया।
कै मन केसर गारी हो, कै मन उड़त गुलाल मोरे रसिया।
नौ मन केसर गारी हो, दस मन उड़त गुलाल मोरे रसिया।
कौना की चूनर भींजी हो, कौना की पंचरंग पाग मोरे रसिया।
राधा की चूनर भींजी हो, किसना की पंचरंग पाग मोरे रसिया।।




इस फागरूप में डेढ़ कड़ी होने के कारण इसे डिढ़-खरयाऊ भी कहते हें। खुर शब्द फाग के चरण का संकेत करता है। प्रथम चरण में अहीर छंद या दोहे के सम चरण के पूर्व दो मात्राएँ जोड़ी गई हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वह राई के प्रथम चरण का विकास-रूप है। दूसरी पंक्ति अधिकतर चैपाई (16 मात्राएँ) के पहले तीन मात्राएँ लगाने से बनी है। वैसे इस नियम का कड़ा बंधन लागू नहीं होता। बिलवारी से प्रभावित होने पर अरे हां, भलाँ सखीं री आदि का योग हो जाता है।
ब्याहन आये राजाराम,
जनकपुर हरे बाँस मंडप छाये। अरे हाँ, हरे।

झूला जैसी लयगति से शायद उसे झूलना की फाग नाम से अभिहित किया जाने लगा। लेद के तालों पर आश्रित होने से बाद में उसे लेद की फाग भी कहा गया। गायकी में कुछ व्यापकता मिलने पर यह फागरूप कई कड़ियों का लम्बा होता गया, अतएव इसे डिढ़-खुरयाऊ कहना उचित नहीं है।

ढुँड़वा लैयो राजा अमान,
हमारी खेलत बेंदी गिर गई। अरे हाँ, हमारी।
सखी री मोरी कौना सहर की जा बिंदिया,
भलाँ, कहना की धरी है रबार, हमारी।
सखी री मोरी झाँसी सहर की जा बिंदिया,
भलाँ, पन्ना की धरी है रबार, हमारी।
सखी री मोरी कैसें गिर गई जा बिंदिया,
भलाँ, कैसें है झरी जा रबार, हमारी।
सखी री मोरी खेलत बिंदिया गिर गई,
भलाँ, गिरतन झरी है रबार, हमारी।




यह फागरूप विभिन्न छन्दों के प्रयोग से उदित हुआ है। वर्तमान में प्रचलित इस फाग में टेक चैकड़िया की होती है, फिर छन्दसांगीत के नाम से विभिन्न छन्दों की योजना की जाती है। दोहा, सोरठा, लाउनी, कवित्त, सवैया आदि छन्द मुख्य रूप से अपनाये गए हैं। लावनी की रंगतों के प्रभाव से लाउनी की फाग भी कहा जाता है।

उसके बाद उड़ान में 12 मात्रा की चैकड़िया की परार्द्ध पंक्ति होती है। फागकार भुजबल सिंह ने उड़ान में नए प्रयोग किए हैं, कभी-कभी चैकड़िया की पूरी पंक्ति दे दी है। उड़ान के बाद फिर टेक, इस तरह फाग का यह रूप काफी लम्बा हो जाता है।

फाग की फड़ों में होड़ का प्रमुख आधार छन्दयाऊ फाग ही है। काव्यत्व और संगीत का जितना सुंदर समन्वय इन फागों में दिखाई पड़ता है, अन्यत्र नहीं। दोनों पक्षों में शास्त्रीय प्रवृत्ति के प्रति अधिक लगाव रहता है, पर जहाँ छन्द प्रयोग में शास्त्रीय बन्धन है, वहाँ लोकछन्दों की स्वच्छंदता भी और संगीत का रूढ़िबद्ध नियन्त्रण है, वहाँ नयेपन के लिए छूट भी। इन सबके बाबजूद यह फागरूप अपनी अलग गायन शैली और लय का एक निश्चित रूप रखती है, जिससे वह बँधी रहती है।

बुंदेली भाषी क्षेत्र बहुत विस्तृत है, अतएव उसमें भिन्नताएँ स्वाभाविक हैं। यह उसका सबसे निर्बल पक्ष है। वस्तुतः उनकी विविधताओं का अनुशीलन तटस्थ वैज्ञानिक दृष्टि से किया जाना चाहिए। संभव है कि विविधताओं से एकरूपता का मार्ग खोजा जा सके। लेकिन यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि यह शास्त्रीय तत्वों की खोज कहीं अगली कलाकार पीढ़ी को रूढ़िग्रस्त न कर दे।

बुँदेली फागों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनका फागरूप और गायकी सदैव गतिशील रही है। दादरा, लाउनी, लेद आदि विभिन्न गायनशैलियों को पचाकर वह आगे बढ़ती रही है और मैं समझता हूँ कि शास्त्रीय संगीत में यह क्षमता कम मिलती है। आजकल यह फागगायकी काफी व्यापक रूप ग्रहण कर रही है, पर कलाकार को सतर्क रहना आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि बुंदेली फागगायकी अपने उस मूल आधार से हट जाए, जो उसका प्राण है, उसकी आत्मा है।

इनकी बड़ी मोहनी भाका, चलै अँगाऊँ साका।
इनकी कहन लगत औरन कों गोली कैसौ ठाँका।
बैठे रऔ सुनौ सब बेसुध खेंचें रऔ सनाका।
दूनर होत नचनियों फिर-फिर मईं कौ जात छमाका। और,
बुंदेली फागन की दिन-दिन, लोकन उड़ै पताका।

फाग गीत और फागकार 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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