एक गरीब की ज़िंदगी मे आकांक्षायें ज़्यादा तो नही होती पर उसे अपनी ज़िनदगी के Oor Chhor के बारे मे ही पता नही होता कहां से उसकी ज़िंदगी शुरू होती है और कहां खत्म। संघर्ष की सुरूआत तो होती है लेकिन अंत का कुछ पता नही होता और न उसका कोई ओर-छोर….बस चलते ही जाना है …… ।
बनारसी ने ठेके से दारू के दो पाउच खरीदे और आज की कमाई के पचास रुपयों में से बाकी बचे सोलह रुपये अपनी मैली फटी बंडी की जेब में ठूंस लिए। सारा दिन हाथ ठेला पर इधर से उधर माल ढोते-ढोते उसके शरीर का पोर-पोर श्रम की अधिकता से दुखने लगता था। सूर्यास्त के बाद शरीर में इकट्ठी हो चुकी थकान को बनारसी प्रायः रोज ही दारू के एक-आध पाउच हलक के नीचे ढाल लेने के बाद ही दूर कर पाता था। यह आदत उसकी दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुकी थी।
कानपुर जैसे महानगर में चालीस-पचास रुपये रोज हाथठेला का किराया चुकाने के बाद उसके पास बच जाते थे। कड़की के दिन तब शुरू हो जाते थे, जब शहर में कर्फ्यू लग जाता या फिर उसका शरीर ही श्रम करने से इन्कार कर देता था। बनारसी अपनी पत्नी तुलसिया और तेरह वर्षीय इकलौती बेटी पुक्खन के साथ अपने जैसे अन्य दिहाड़ी मजदूरों की भांति शहर के उपेक्षित कोने में झोपड़ी बनाकर जीवन-यापन कर रहा था।
अपनी जन्मभूमि से यमुनापार, गंगा के किनारे आए उसे पूरे दस बरस हो चुके हैं। जब वह पहली बार इस शहर में आया था, तब वह गांव का गबरू जवान था। युवा पत्नी और दो-ढाई वर्ष की बच्ची के साथ वह अपनी इच्छा से गांव छोड़कर नहीं आया था बल्कि होश सम्भालने के बाद से प्रारम्भ होने वाली उस जैसी गरीबों की भूख की लाचारी उसे शहर ले आई थी। गांव में रोज काम नहीं मिलता था और जिस दिन काम नहीं मिलता था, उस दिन घर में चूल्हा जलने की नौबत नहीं आ पाती थी।
फलस्वरूप उसके जैसे गांव के उसके कई संगी-साथी कोई दिल्ली, कोई भोपाल और कोई कानपुर जैसे महानगरों में काम और पेट की भूख मिटाने की खातिर गांव छोड़कर चले गये और फिर ऐसे रम गये काम और भूख को मिटाने में कि एक-आध को छोड़कर गांव लौटकर कोई नहीं गया। बनारसी भी गांव वापस नहीं जा सका। रोज की जिन्दगी जीना उसकी आदत बनती चली गयी। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करना और रात भर दारू के नशे में धुत रहना उसकी नियति बन चुकी थी। दारू के स्वाद को बढ़ाने के लिए बनारसी ने रास्ते में चाय-पान की फुटपाथी दुकान से बेसन के मोटे सेब और मंगोड़ी खरीद ली थी।
बनारसी जब अपनी झोपड़ी में पहुंचा, तब तक दिन ढल चुका था। सूर्यदेव अस्ताचल को प्रस्थान कर चुके थे। दूर ऊंची इमारतों के पीछे कहीं छिपा, क्षितिज दिन और रात को मिलते देख रहा था। झोपड़-पट्टियों से धुआं उठ रहा था। रात्रि के भोजन की तैयारी लगभग प्रत्येक झोपड़े में आरम्भ हो चुकी थी। उसकी पत्नी तुलसिया भी चूल्हा जला चुकी थी और उसकी बेटी पुक्खन परात पर आटा गूंथने में लगी थी।
बनारसी को आया देख तुलसिया अपने स्थान से उठी। उसने अपने पति के हाथ से दारू के दोनों पाउच, सेब व मंगोड़ी के दोने ले लिए। बनारसी ने बंडी की भीतरी जेब में रखे रुपये निकालकर तुलसिया के हाथ पर रख दिए और बिना कुछ बोले-बताए पास बने नाबदान में हाथ-मुंह धोने बैठ गया। तुलसिया ने दोनों हाथों में पकड़े दारू के पाउच, मंगोडी व सेब के दोनों के बीच फंसे मुड़े-तुड़े नोटों की ओर देखने के बाद नाबदान में बैठे बनारसी की ओर इस भाव से देखा, मानो वह अपने पति के थके शरीर और उसकी दिनभर की कमाई के मध्य कुछ तौल रही हो।
‘‘काए पुक्खन की बाई! का आ बन रओ? बड़ी नोनी महक आ रई है।’’ बनारसी हाथ-मुंह धो चुकने के बाद उन्हें अंगोछे से पोंछते हुए बोला। ‘‘हओ…भला तुमई बताओ का बन रओ? वैसे चीज तो साजी आ बन रई। तुलसिया अपने शब्दों में रहस्य घोलते हुए बोली। बनारसी ने सूंघने की चेष्टा की। फिर मुस्करकर बोला, ‘‘मछरिया आ रई…काय बन। सांसी के रओ न मैं?’’
‘‘हओ, काए तुम कबहुं…झूठी कात हो का, एकदम सांसी कई तुमने। मछरियाई आ बन रई।’’ तुलसिया मुस्कराते हुए बोली। ‘‘काए पुक्खन की बाई, तोए अपने गौने की याद है, जब जो लोकगीत खूबई आ चलो तो…’’ ‘‘कौन सो?’’….‘‘अरे वोई।’’….‘‘ढिमर तोरो पानी को रुजगार, ढिमर तोरो पानी को रुजगार।
अरे! वोई तला की मारी मछरिया और वोई के तोरे सिंगार।’’ बनारसी द्वारा मटक-मटक कर गाने पर मां-बेटी दोनों मुक्त-कंठ से हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयीं। दोनों को हँसता देख बनारसी भी गाना, गाना छोड़ हँसने लग गया। ‘‘और भी तो हते कछु देशराज पटेरिया, रामकली रेकवार, लक्ष्मी त्रिपाठी, मंचल हरन के गाये लोकगीत जोन आकाशवाणी छतरपुर से बाजे में बजत ते।’’ तुलसिया हँसते-हँसते बोली।
‘‘तोय तो सबके नाम रटे हैं। ते तो बड़ी होशियार है, काए पुक्खन?’’ पुक्खन ने अपने पिता के कथन को सिर हिलाकर पुष्ट किया। ‘‘काए, तुमखां याद है ऊ जीजा-साली वालो किस्सा…‘चली गोरी साइकिल पे बैठ के…’ और, ‘मोरी चट्टो पर गयी जीभ…’…..‘‘और वो, एक दिन बोली नार पिया से…’’ बनारसी कुछ याद कर बोला, ‘‘बुंदेली गीतकार अवध किशोर ‘अवशेष को वो बुंदेली गीत जीमे।
‘बुंदेलों की सुनो कहानी, बुंदेलों की बानी में।
पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहां के पानी में।।’
‘‘अरे वो कितेक अच्छो हतो देवर भुजाई वालो
‘उतार दईयों गगरी लाला, देहो नेग तुम्हारो।
‘गगरी तोरी जबई उतरहे, जब मिल है नेग हमारो।।’
गीत की दूसरी पंक्ति बनारसी ने पूरी कर दी और बोला, ‘‘काए ओर हरदौल-चरित वाले लोकगीत…।’ ‘‘दद्दा जे लाला हरदौल को आए? पहली बार पुक्खन के मुंह से बोल फूटे। ‘‘आं…रॉ…रॉ…रॉ बिट्टी! ते लाला हरदौल हां नई जानत।’’ बनारसी विस्मित हो बोला, ‘‘जिने बुन्देलखंड को बच्चा-बच्चा जानत। हओ ते उने कैसे जाने? तोय काऊ ने बताओ हो तबहीं तो ते जाने। ई में तोरो दोष तनकऊ नइयां…सुन बिट्टी!
ऐसे है कि, ‘‘अपने बुन्देलखंड में ओरछा के राजा जुझार सिंह की रानी चम्पावती अपने लाला हरदौल हां लरका जैसो मानत ती। हरदौल भी अपनी भुजाई हां मताई की तरॉ मानत ते। हरदौल बरे लराका हते जिनसे दुश्मन थर-थर कांपत ते। उनई दुश्मनन ने चुगली करके राजा जुझार सिंह के मन में देवर-भुजाई के गलत सम्बन्ध की शंका पैदा करा दई।
रानी चम्पावती, अपनी पति राजा जुझार सिंह के कहे से उनके मन में पनपी शंका हां मिटाए के लाने अपने लाला हरदौल हां खीर में विष मिलाकर खाए हां देत और लाला हरदौल हां जा भी बता देत कि खीर में विष मिलो है। तब सारी बात जानवे के बाद और जो भी जानवे के बाद कि ‘खीर में विष मिलो है’, हरदौल अपनी भुजाई के चरित्रा और सम्मान की रक्षा के खातिर सबरी विषैली खीर खा लेत और इतिहास में अमर हो जात। ऐसे हते देवता समान, चरित्रवीर कुंवर लाला हरदौल जूं।’’
हरदौल-चरित के वर्णन ने रस में परिवर्तन कर सभी का हँसना-हँसाना छोड़ माहौल में गम्भीरता ला दी। विषय परिवर्तन करते हुए बनारसी तुलसिया से बोला, ‘‘काय पुक्खन की बाई! इतेक पइसा का से आए, जोन जा इतेक मांगी मछरिया बन रई?’’ ‘‘ऊ ठेकेदार को आदमी दे गओ तो पइसा।’’ ….‘‘कितेक?’’…..‘‘एक सौ…एक सौ को और दो बीस-बीस के लोट हते।’’ काए बिट्टी….इतेकई हते न।’’ पुक्खन ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया और आटे की लोइयां बनाने में लगी रही। मुंह से कुछ नहीं बोली।…..
‘‘जो ससुरो ठेकेदार बहुत बदमाश है, जे ओरे होतई है ऐसे…हम औरन को खून चूसबे वाले उते गांव में प्रधान, लम्बरदारन की मार हती और इते शहर में जो ठेकेदार हरे…अरे। महीना भर घूरन-घूरन पिलासटक बीन-बीन कर देवे के बाद भी हाथ पे डेढ़ सौ रुपट्टी भी कबहूं न धरे हुए।…काए ते तौलाए करत कि ऐसई आ दे आउत?’ बनारसी ने तुलसिया से प्रश्न किया। ‘‘और काए तौलात नईया? काए ऐसई आ दे आउत हो का मैं, मोए काए एकदम बुद्धू आ समझत हो का तुम।’’
तुलसिया तनिक आवेश में बोली। ‘‘नई…को आ कहत कि ते बुद्धू है। अरे! ते तो बोत गुनी और होशियार है…का काने।…अच्छा चल, पंचायत छोर और ला मोरो सामान।’’ बनारसी पालथी लगाकर जमीन पर बैठते हुए बोला। तुलसिया कुछ बोलना चाहती थी, पर वह माहौल भी बिगाड़ना नहीं चाहती थी। अतः अपने आपको संयत करते हुए धीमे स्वर में बोली, ‘‘काए झाड़े न जेहो का?’’
‘‘काए, तोए पता नइयां कि मैं एकई ज्वार जात हों भुन्सारे-भुन्सारे।’’ बनारसी अपनी व्यवस्था में विलम्ब होता देख कुछ चिड़चिड़ाते हुए बोला। ‘‘मैं तो तुमाए भले कि के रई…मोए का पाउने तुमारई पेट सई रेहे दोऊ बखत जाए से…तुम दोई बखत कि आदत डार लो नईता कबहूं केहो कि पेट विरात कबहूं के हो कि…’’ ‘‘अच्छा पुक्खन की बाई, अब ते और लेक्चर न झार और झट्टई कर, अबेर हो रई।’’ बनारसी तुलसिया को बीच में टोकते हुए बोला। तुलसिया कुछ न बोली और नित्य की भांति उसने पीढ़े पर एक लोटा पानी, कांच का गिलास, दारू के दोनों पाउच और एलमूनियम की प्लेट पर मंगोड़ी व बेसन के मोटे सेव रख दिए।
तुलसिया को इस बात की खुशी रहती थी कि उसका पति औरों की तरह ठेके से पीकर नहीं लौटता और न ही पीने के बाद दूसरों की भांति ऊधम मचाता है। उसके दिमाग में यह बात अच्छी तरह से पैठ चुकी थी कि दिनभर की कड़ी मेहनत से उसके पति की थकान से चूर हो चुकी हड्डियों को दारू राहत पहुंचाती है। तुलसिया के इस सहयोग से बनारसी भी खुश रहता था क्योंकि वह जानता था कि ज्यादातर झोपड़-पट्टियों में आए दिन सोने से पहले होने वाले कोलाहल का मुख्य कारण पति का रोज दारू पीकर लौटना और पत्नी का दारू को लेकर हंगामा खड़ा करना और असहयोग करना था।
‘‘अरे! तनिक प्याज काट के सेव में मिला तो पुक्खन की बाई। दारू का पहला घूंट गले से नीचे उतारने के बाद बनारसी मीठे स्वर में तुलसिया से बोला। तुलसिया ने चाकू से प्याज के टुकड़े करके दोने पर रख दिए और नीबू काटकर ऊपर से निचोड़ दिया। ‘‘ते बहुतई साजी है पुक्खन की बाई और समझदार भी।’’ बिना कहे नीबू निचुड़ता देख बनारसी खुश होकर बोला और तुलसिया की पीठ पर हाथ रख दिया, जिसे तुलसिया ने तुरन्त हटा दिया और पुक्खन की उपस्थिति का संकेत कर अपनी आंखें तरेर दीं।
बनारसी मुंह बिचका कर पीने में व्यस्त हो गया। निर्विकार रूप से वह स्वाद ले-लेकर दारू पी रहा था। बीच-बीच में सेव व मंगोड़ी का प्याज मिश्रित स्वाद उसके आनन्द को द्विगुणित कर रहा था। पूरे दिन की थकान उतारने का उसका यह स्वयं का अपना तरीका था। इस समय वह सबसे अच्छे मूड में होता था। संसार भर का ज्ञान उसके अन्दर समाने लगता था। अक्सर मां-बेटी उसकी इस स्थिति का लाभ अपनी कोई बात मनवाने के लिए उठाती थीं। पी चुकने के कुछ देर बाद बनारसी ने तली हुई मछली के साथ गरमागरम रोटियां भरपेट खाईं और फिर खाट पर पैर पसार कर पसर गया।
तुलसिया, पुक्खन के साथ झोपड़पट्टियों के पास ही स्थित बरसाती पोखरनुमा विस्तृत गड्ढे के किनारे दैनिक-क्रिया से निपटने के लिए चली गयी, जो शहर की नालियों से निरन्तर आने वाले गंदे पानी के कारण कभी सूखता नहीं था। जब दोनों वापस झोपड़ी में आईं, तब उन्होंने देखा कि बनारसी चारपाई पर पसरा खर्राटे भर रहा था।
मां-बेटी भी अपनी-अपनी बारी समाप्त कर सोने की तैयारी में लग गयीं। ‘‘अरे तना पानी दइये, पुक्खन की बाई।’’ आहट पाकर बनारसी अपनी आंखें बंद किए हुए बोला।…‘‘हओ, अबई देत हो।’’ तुलसिया ने पानी से गिलास भरा और खाट के पास जाकर बनारसी को थमा दिया। पुक्खन टाट के पर्दे के पीछे बने छोटे से हिस्से में सोने चली गयी। वह जानती थी कि उसकी बाई रोज की तरह बापू के हाथ-पैर मींजने के बाद ही उसके पास सोने आएगी। अपनी बाई की पति-सेवा की वृत्ति उसे बहुत भाती थी।
पुराने कपड़ों के चिथड़ों को सुतली में फांसफांस कर बुनी रंगबिरंगी मोटी दरी को जमीन पर बिछा चुकने के बाद, तुलसिया ने उस पर बनारसी को लिटाने में मदद की और पति सेवा में लग गयी। बनारसी के हाथ-पैर भली-भांति दबा चुकने के बाद तुलसिया उठी और घड़े से एक गिलास पानी निकालकर पिया। फिर पुक्खन की ओर झांक कर देखा जो गहरी नींद में पैर सिकोड़े सो रही थी। तुलसिया ने मच्छरों से बचाव के लिए पुक्खन के ऊपर अपनी पुरानी धोती डाल दी और लालटेन बुझाकर बनारसी के बगल में लेट गयी।
बनारसी ने करवट बदली और तुलसिया को अपने सीने से भींच लिया। दारू के भभके की आदी हो चुकी तुलसिया पति की बांह पर सिर रख उसके सीने पर उगे गिनती के बालों को अपनी उंगलियों में लपेटने का प्रयास करते हुए धीमे स्वर में बोली, ‘‘सुनो जी, अब हम ओरे पिलासटक बीनवे न जेहे।’’ ‘‘काहे भला?’’ बनारसी ने तुलसिया की पीठ पर फिसल रहे अपने दाहिने हाथ को रोककर पूछा। ‘‘बताए…ऊ पिलासटक की थैलियन में का कहत हैं ऊका बरगओ याद नहीं आ रहो उको नाव…अरे ऊ हां याद आ गया निरोध…निरोध मिल जात है। पराए मरदन के बीरन से भरे! घिन आउत मोए तो…हम न जेहे सकारे से घूरन-घूरन पिलासटक बीनबे।’’ बनारसी का हाथ अपनी जगह स्थिर रहा। वह कुछ न बोला और सोच में पड़ गया।
‘‘वो जोन नई कालोनी नई बनी, उते थाने के ऐंगर उतई घूरे पे दूधन की खाली थेलियन में रखे रात जे बरगए निरोध। काल पुक्खन पूछत हती कि ‘बाई, जे का आए फुकना जैसे? मैं ऊहां कछु जवाब नई दे पाई।…मैं का बताओ ऊखां और आज तो…जब ऊ ठेकेदार को आदमी पइसा देन आओ हती तब जा बोई का फुकना फुलावे में लगी हती। पइसा पकरा के ऊ नाटपरो अपनी खींसे निपोरत चलो गओ। अब हम ओरे पिलासटक बीनबे न जे हे और कौनऊ काम तलाश लेबी…।’ तुलसिया के शब्दों में दृढ़ता थी।
बनारसी पूर्ववत सोच में डूबा रहा, कुछ बोला नहीं। ‘‘ई बरगा निरोध कोने खातिर जे मड़ई पहनत है?’’ ‘‘अरे, ई संसार मां अइसन-अइसन बीमारी फेल रई कि में तो खां का बताओ…जीके बचे खातिर आए ई निरोध पहने वालन की संख्या बढ़त जात।’’ ‘‘कैसी-कैसी बीमारी?’’ तुलसिया बीमारी का नाम सुन शंकित हो बोली। ‘‘अरे ऊ एडस कात ऊखां…जो को अबे लो कछु इलाज नईयां, छूत की बीमारी है, जोन मड़ई अपनी लुगाई के अलावा इते उते मो मारत या फिन जोन लुगाई अपने आदमी के अलावा इते उते जात, उन्हें आ लग जात जा बीमारी…’’
‘‘ऐसो आए…काए हां करते बरगए ऐसी…भली फैली जा बीमारी, कम से कम येई बाने सुधरे ऐसे लोग। तुलसिया आश्वस्त होते बोली, ‘‘पर ईमें ई निरोध को का काम?’’ तुलसिया का अपनी संक्षिप्त बुद्धि के अनुरूप प्रश्न करना उचित था। ‘‘अरे! अब मैं तो खां का बताओं पुक्खन की बाई, अरे ई हां पैनबे के बादई तो सुरक्षा बनी रत है और छूत की ई बीमारी एडस से बचे रहत है। बनारसी का रुका हाथ पीठ से तुलसिया के खुले पेट पर फिसलने लगा था। तुलसिया अपने पति के कहे को कुछ समझी, कुछ नहीं समझी।
‘‘और येई निरोध से बाल-बच्चन के पैदा होए में रोक बनी रहत है।’’ बनारसी का नशा तुलसिया का स्पर्श पा रंगीन हो उठा था। उसने हौले से उसकी कमर के पास चिकोटी काटी। ‘‘निरोध से कोनऊ बुराई थोड़ई है। तबही तो सरकार जगां-जगां मुफत में ईको प्रचार कर रही है और इन्हें मुफत में बांट रही है।’’ बनारसी का दाहिना हाथ तुलसिया के शरीर पर कसे कपड़ों को ढीला करने में व्यस्त हो गया। तुलसिया बिना विरोध किए बोली, ‘‘काए? तुमने तो कबहूं निरोध लगाओ नइयां…फिन पुक्खन के बाद हमाए और कौनऊ बाल-बच्चा काए नई आओ?
पति के कहे शब्दों में अपने मतलब को पकड़ तुलसिया ने एक और प्रश्न किया। ‘‘वो तो भगवान की मरजी पर है, पुक्खन की बाई। काए अपने लाने पुक्खन अकेली काफी नइयां।’’ बनारसी का दाहिना हाथ अब तक तुलसिया को कसे कपड़ों से मुक्त करने में सफल हो चुका था। बनारसी ने एक बार फिर तुलसिया को अपनी बाहों में भींच लिया और उसके गालों को चूम लिया। ‘‘है तो…पर अगर एक लरका…हो जाता तो…।’’
पति की बढ़ती जा रही हरकतें उसे आनंदित करने लगी थीं। वह आगे कुछ बोल न सकी। तुलसिया के प्रश्न को बनारसी ने अनसुना कर दिया और दारू के नशे की झोंक में वह उसे समेटने में लग गया। तुलसिया भी शांत पति की बाहों में सिमटती चली गयी। उसकी आस को किनारे रखते हुए रात और अंधेरे होती गयी। कुछ देर बाद दोनों गहरी नींद में अलग-अलग सो गये थे।