Lalach लालच

सक्सेना जी जोड़-घटाने में लग गये, Lalach धीरे-धीरे उनके ऊपर हावी होने लगा। ‘दो लाख लड़कियों के विवाह में खर्च होंगे, बचे पचास हजार, उससे अखिलश को कोई धन्धा, परन्तु यह ढाई लाख रुपये किसी की हत्या के बाद मिलेंगे। नहीं…नहीं…मुझे ऐसे पाप के रुपये नहीं….।

टायलेट से बाहर आकर पद्म ने सतर्कतापूर्वक कम्पार्टमेंट की ओर दृष्टि दौड़ाई। उसे वह काला-नाटा आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया जो उसका पीछा कर रहा था। पद्म पटरियों पर रेंग रही ट्रेन से उतर गया। कुछ पल बाद ही ट्रेन ने गति पकड़ ली थी। झांसी-कानपुर रेलवे मार्ग पर यह कोई छोटा रेलवे स्टेशन था। वह पुष्पक एक्सप्रेस की गति धीमी होने के कारण समझ नहीं सका था।

ट्रेन के चले जाने के बाद पद्म ने एक तेज सांस खींची। चारों ओर घनघोर अंधकार व्याप्त था। झाड़ियों में छिपे झींगुरों का समवेत स्वर अंधेरे में जीवन का अहसास दिला रहा था। कुछ दूर स्थित प्लेट-फार्म पर उसने टिमटिमाते इकलौते लैम्प-पोस्ट की ओर देखा, जो अंधेरे से लड़ने में पूर्णतया अक्षम सिद्ध हो रहा था। ‘कहीं, उसने इस छोटे रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर गलती तो नहीं की।

पद्म ने अपने मस्तिष्क में उपजी शंका को सिर झटककर दूर किया और ब्रीफकेस को अपने सीने से दबा लिया, जिसमें पांच-पांच सौ रुपये की दस गड्डियों के रूप में पूरे पांच लाख रुपये थे। ये रुपये पिछले कुछ घंटों से उसकी जान के लिए खतरा बने हुए थे। बाहर की ठंडक से पद्म के शरीर में कंपकंपी दौड़ गयी। उसने अपने कन्धे उचकाए, हाथों-पैरों को झटकते हुए शरीर में कुछ गर्मी पैदा करने का प्रयास किया और गले पर लिपटे मफलर से अपने कान ढांप लिए।

‘इस स्टेशन से गुजरने वाली अगली किसी ट्रेन से वह कानपुर के लिए निकल जाएगा, तब तक उसे स्टेशन पर ही रुककर किसी तरह समय बिताना होगा।’ मन ही मन यह निश्चय करते हुए पद्म ने प्लेटफार्म के किनारे बीचोबीच बने स्टेशन-रूम की ओर अपने कदम बढ़ा दिए। स्टेशन के निकट बने रेलवे कर्मचारियों के क्वार्टरों की ओर से किसी आवारा कुत्ते के रोने की आवाज ने व्याप्त नीरवता भंग कर अंधेरे में अजीब भयानकता ला दी।

पद्म को स्टेशन पर कोई दिखाई नहीं दिया। उसने स्टेशन मास्टर के कक्ष में झांका। एक दुबले से प्रौढ़ व्यक्ति बड़ी-सी मेज के ऊपर झुके रजिस्टर पर कुछ लिख रहे थे। पद्म थोड़ा सा हिचकिचाया। फिर अन्दर आकर बोला, ‘‘सर! नमस्ते।’’ पचपन वर्षीय प्रौढ़ स्टेशन मास्टर सक्सेना जी अपने सामने अपरिचित नवयुवक को देखकर सोच में पड़ गये। ‘भला! इतनी रात गए यह नवयुवक कौन है जबकि इस समय किसी पैसेंजर ट्रेन के आने का समय भी नहीं है?

‘‘नमस्ते।’’ …‘‘सर!’’….‘‘कहो बेटे! क्या बात है?’’ नवयुवक का स्वर कुछ घबराया हुआ महसूस किया सक्सेनाजी ने। ‘बेटे’ शब्द के सम्बोधन ने पद्म को बहुत राहत पहुंचाई। वह पास आकर धीमे स्वर में बोला…‘‘सर! मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहता हूं।’’ सक्सेनाजी असमंजस में पड़ गये। नवयुवक को कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए बोले, ‘‘हां-हां! बताओ बेटे! क्या बात है?’’ पद्म कुर्सी पर बैठ गया। चारों ओर दृष्टि घुमाने के बाद वह चौकन्ना होकर बोला, ‘‘सर, एक बदमाश मेरा पीछा कर रहा था, जिसे चकमा देकर मैं कुछ देर पहले यहां से गुजरी पुष्पक एक्सप्रेस ट्रेन से उतरा हूं। मुझे कानपुर जाना है, अगली किसी ट्रेन से कानपुर चला जाऊंगा। तब तक के लिए मुझे आपका आश्रय चाहिए।

‘‘अच्छा!’’ सक्सेना जी ने अपने पुत्र की उम्र के नवयुवक की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘अगली ट्रेन सुबह पांच बजे आएगी, तब तक तुम पास वाले रेस्टरूम में जाकर आराम कर सकते हो, जाओ…और सुनो घबराओ नहीं, अब यहां कोई नहीं आएगा।’’ पद्म प्रौढ़ स्टेशन मास्टर की ओर कृतज्ञता से देखते हुए रेस्टरूम में चला गया। रेस्टरूम के अन्दर एक तख्त पड़ा हुआ था। उस पर बिस्तर बिछा हुआ था। एक मरियल रोशनी का बल्ब टिमटिमा रहा था। बाथरूम की बगल की दीवार पर एक बड़ी-सी खिड़की थी, जिस पर पुराने स्टाइल के पल्ले जड़े हुए थे।

पद्म ने खिड़की खोली, ठंडी हवा का तेज झोंका अन्दर आ गया। बाहर का अंधेरा उसे अन्दर तक भयभीत कर गया। झाड़ियों में छिपे झींगुरों की समवेत आवाज अंधेरे में भयानकता पैदा कर रही थी। खुली खिड़की से कोई भी रेस्टरूम के अन्दर आ-जा सकता था।  पद्म ने खिड़की के पल्ले बंदकर अन्दर से सिटकनी चढ़ा दी और तख्त पर बिछी चादर खिड़की के ऊपर डाल दी। पद्म ने अपनी रिस्ट वाच में देखा, रात्रि के ग्यारह बज चुके थे।

ब्रीफकेस को सिरहाने रखकर वह तख्त पर जूते पहने ही लेट गया। उसकी लम्बाई तख्त से अधिक होने के कारण उसके जूते बिस्तर से बाहर निकले रहे। उसने आंखें बंद कर लीं और कुछ पल यूं ही लेटे रहने के बाद अपनी आंखें खोलीं। उसे बल्ब की रोशनी अच्छी नहीं लग रही थी। वह उठा और स्विच आफ करने के बाद उसने परदे को थोड़ा-सा हटाकर बाहर वाले कमरे में देखा, स्टेशन मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे रजिस्टर पर अब भी कुछ लिख रहे थे।

रेस्टरूम में अंधेरा छा चुका था। पद्म ने रिस्टवाच में पुनः देखा जिसमें ग्यारह बजकर पन्द्रह मिनट चमक रहे थे यानी अगली ट्रेन के आगे तक उसे पूरे पांच घंटे, पैंतालिस मिनट इस रेस्टरूम में बिताने थे। पद्म पुनः तख्त पर लेट गया। उसने गले पर लपेटे मफलर से अपने कान कस लिए। बाहर की अपेक्षा कमरे में ठंडक कम थी परन्तु जनवरी माह की ठंडक बंद कमरे में भी अपना पूरा असर दिखा रही थी।

पुष्पक एक्सप्रेस के सकुशल चले जाने के बाद प्वाइंट्समेन रामेश्वर आउटर सिगनल को चेक करने चला गया। वहां से वापस आकर उसने सक्सेना जी से अनुमति ली और समीप स्थित अपने क्वार्टर में चला गया। उसकी दो वर्षीय बच्ची को सुबह से दस्त आ रहे थे। रामेश्वर के जाने के बाद सक्सेना जी ने रेस्टरूम की ओर दृष्टि दौड़ाई, चश्मा उतारकर अपनी आंखें मलीं। फिर अलसाए से मोटे रजिस्टर पर मत्था टेककर कुछ पल आराम करने की गरज से अपनी भारी हो रही पलकें बंद की और ऊंघने लगे।

कन्धे पर किसी के खुरदरे स्पर्श से सक्सेना जी अर्द्धनिद्रित अवस्था से चैतन्य हो, चौंकते हुए सीधे बैठ गये, ‘‘हूं…कौन? मेज पर रखे चश्मे को अपनी आंखों पर चढ़ा लेने के बाद वह अपने पास खड़े अजनबी से बोले, ‘‘कौन हो तुम?’’ अजनबी ने अपने मुंह पर उंगली रख सक्सेना जी को चुप रहने का संकेत किया फिर उनके कान के पास अपना मुंह लाकर धीमे स्वर में बोला, ‘‘बाहर आइए, आपसे बहुत जरूरी बात करनी है।’’

वह अजनबी सक्सेना का हाथ थामे, उन्हें बाहर ले आया। ‘‘अरे भाई, क्या बात करनी है, कौन हैं आप?’’ सक्सेना जी को अजनबी के हाव-भाव अच्छे नहीं लग रहे थे। ‘‘बताता हूं, सब बताता हूं।’’ पहले बेंच पर बैठिए।’’ ‘‘नहीं..नहीं…ऐसे ही ठीक हूं।’’ सक्सेना जी कुछ-कुछ भयभीत हो चले थे। ‘‘अरे बैठ भी जाइए।’’ कहते हुए उस अजनबी ने सक्सेना जी के दोनों कन्धों पर अपने मजबूत हाथों का दबाव देते हुए उन्हें बेंच पर बैठा दिया।

‘‘लीजिए, सिगरेट पीजिए।’’ अजनबी ने अपने कोट की जेब से सिगरेट-केस निकालकर सक्सेना जी की ओर बढ़ाते हुए कहा। ‘‘नहीं! मैं सिगरेट नहीं पीता।’’ ‘‘अच्छा कोई बात नहीं।’’ सिगरेट-केस से एक सिगरेट निकालकर उसे लाइटर से सुलगाने के बाद, अजनबी ने एक तेज कश खींचा और ढेर सारा धुआं बाहर उंड़ेल दिया। दुर्गंधयुक्त सिगरेट के धुएं की गंध सक्सेना जी के नथुनों में घुस गयी।

‘‘स्टेशन मास्टर साहब बात यह है कि आपने जिस नवयुवक को अपने रेस्टहाउस में ठहराया है, वह कानपुर के एक बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा है। उसके ब्रीफकेस में पूरे पांच लाख रुपये हैं। मुझे इसकी पक्की सूचना है। मुझे वह ब्रीफकेस हड़प करना है। मैं उस लड़के का पीछा भोपाल से कर रहा हूं।’’ सक्सेना जी सारी बात समझ गये। उन्हें नवयुवक का घबराया हुआ चेहरा याद आया। ‘‘मुझे, इससे क्या मतलब?’’ सक्सेना जी थूक निगलते हुए बोले। वह किसी अनिष्ट की आशंका के आभास मात्र से घबरा उठे थे। यदि अंधेरा न होता तो उनके माथे पर इतनी ठंड के बावजूद उभर आईं पसीने की बूंदों को स्पष्ट देखा जा सकता था।

‘‘आपसे मतलब है। आपके थोड़े से सहयोग की जरूरत है। आपके सहयोग से कुछ देर बाद ही हमारे पास पूरे पांच लाख रुपये होंगे जिसके आधे यानी ढाई लाख रुपये आपके होंगे।’’ सिगरेट का दुर्गंधयुक्त धुआं सक्सेना जी के चेहरे पर उंड़ेलते हुए वह अजनबी बोला। ‘‘क्या मतलब…तुम मुझसे कैसा सहयोग चाहते हो?’’ सक्सेना जी हकलाते हुए बोले, ‘‘आखिर तुम मुझसे चाहते क्या हो?’’ ‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं…आपसे मुझे कुछ नहीं चाहिए…बस मुझे रेस्टरूम तक चला जाने दीजिए।’’

अजनबी कुटिलता के साथ बोला, ‘‘उस लड़के को ठिकाने लगाकर पांच लाख रुपये हम दोनों आपस में आधा-आधा बांट लेंगे और उस लड़के की लाश को पटरी पर रख देंगे। किसी को जरा भी शक नहीं होगा, और अपना काम भी बन जाएगा।’’ ‘‘क्या! तुम रुपयों के लिए उस नवयुवक को जान से मार दोगे? नहीं…नहीं, मैं इसमें तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। तुम जाओ यहां से।

सक्सेना जी बेंच से उठ पाते, इसके पहले ही उस अजनबी ने उनका गला पकड़कर उन्हें बेंच से ऊपर उठा दिया। ‘‘अबे साले, बुड्ढे खूसट, तू ऐसे लाइन पर नहीं आएगा।’’ अजनबी ने अपने बाएं हाथ से अपनी पैंट की जेब से बटनदार चाकू निकाल लिया। अंधेरे में भी लम्बे चाकू की चमक सक्सेना जी को स्पष्ट नजर आई। उनकी घिग्घी बंध गयी। उनका पूरा शरीर पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगा।

‘‘मैं अपने शिकार को यूं ही छोड़कर चला जाऊं, अगर तू सीधी तरह रास्ते पर नहीं आता है, तो मैं तुझे भी मार डालूंगा और उसे भी, फिर पूरे पांच लाख रुपये मेरे होंगे। बोल…साले बुड्ढे, आता है लाइन पर या घुसेड़ दूं चाकू तेरे पेट में।’’ सक्सेना जी के मुंह से घबराहट और भय के कारण बोल नहीं फूट रहे थे। गर्दन पर पड़ रहे कसाव के कारण उनका दम घुट रहा था। वह घबराकर अपना सिर ऊपर-नीचे हिलाने लगे।

अजनबी ने उन्हें बेंच पर वापस पटक दिया। सक्सेना जी अपनी गर्दन सहलाने लगे, इस अचानक आन पड़ी विपत्ति ने उनका कचूमर निकाल दिया था। ‘‘मुझे…कुछ…कुछ…सोचने का मौका दो…हे भगवान!’’ सक्सेना जी हांफ रहे थे। ‘‘अच्छी तरह सोच लो, तुम्हारी जरा-सी मदद के बदले तुम्हें पूरे ढाई लाख मिलेंगे।’’ अजनबी ने सक्सेना जी का कन्धा थपथपाया। सक्सेना जी ने अंधेरे में अपना चश्मा टटोलकर ढूंढ़ा, उसके शीशे सुरक्षित थे।

चश्मा आंखों पर चढ़ाते हुए वह बोझिल कदमों से अपने रूम में आकर कुर्सी पर बैठ गये, तभी फोन की घंटी बजी। रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर दूर स्थित कस्बे से किसी ने सुबह पांच बजे आने वाली पैसिंजर ट्रेन का समय पूछा था। सक्सेना जी ने एक गिलास पानी अपने गले से नीचे उतारा, कुछ संयत होने के बाद उन्होंने कनखियों से रेस्टरूम की ओर देखा, जिसके अन्दर अंधेरे में वह नवयुवक पांच लाख रुपयों से भरे ब्रीफकेस के साथ निश्चिंततापूर्वक सो रहा था।

सक्सेना जी ने घबराकर अपनी दृष्टि वहां से हटा ली और अपना मत्था मोटे रजिस्टर पर टिकाकर विचार-मग्न हो गये। बेरोजगार इकलौते युवा लड़के और दो जवान जुड़वां लड़कियों का बोझ सक्सेना जी के कन्धों पर शेष था। उनकी सर्विस की सारी जमा पूंजी पहले ही दो लड़कियों का विवाह करने में समाप्त हो चुकी थी। सर्विस से रिटायर होने में तीन ही वर्ष शेष रह गये थे। बेटा अखिलेश अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था, परन्तु अभी तक उसे कहीं नौकरी नहीं मिल सकी थी।

लड़कियों की शादी की उम्र बीतती जा रही थी। इन्हीं सब चिन्ताओं ने उन्हें समय से पूर्व बूढ़ा कर दिया था। सक्सेना जी सोचने लगे, ‘ढाई लाख रुपये बहुत होते हैं, इतने रुपयों में तो दोनों जुड़वां लड़कियों का विवाह आसानी से खाते-पीते परिवार के लड़कों से हो सकता है और यदि दहेज की मांग ज्यादा न हुई, तब तो अखिलेश को भी किसी व्यवसाय में जमाया जा सकता है। सक्सेना जी जोड़-घटाने में लग गये, लालच धीरे-धीरे उनके ऊपर हावी होने लगा।

‘दो लाख लड़कियों के विवाह में खर्च होंगे, बचे पचास हजार, उससे अखिलश को कोई धन्धा, परन्तु यह ढाई लाख रुपये किसी की हत्या के बाद मिलेंगे। नहीं…नहीं…मुझे ऐसे पाप के रुपये नहीं चाहिए। मैं किसी की हत्या में भागीदार नहीं बनूंगा। नहीं! कदापि नहीं। यह पाप है, महापाप है। तभी उनके विचार ने पलटा खाया। तर्क ने सिद्धान्त को पछाड़ते हुए स्पष्ट किया, ‘वह नाटा-बदमाश मेरे सहयोग न करने पर भी मुझे मार डालेगा और उस नवयुवक को भी नहीं छोड़ेगा।

उसको मन की करने देने मात्र से ही मुझे ढाई-लाख रुपये मिल जाएंगे…मैं…कहां हत्यारा कहलाऊंगा?…अरे! ट्रेन के नीचे आकर कितने लोग हर वर्ष कटते-मरते हैं। लोग इसे भी आत्महत्या का केस समझेंगे। सैकड़ों घटनाएं रोज होती रहती हैं। संसार है, अपना मतलब सभी साधते हैं। लक्ष्य मिलना चाहिए, साधन की परवाह इस जमाने में कितने करते हैं?

पूरे ढाई लाख रुपये मिल रहे हैं…वह काला-नाटा बदमाश, वैसे भी मुझे कहां जीवित छोड़ने वाला है। बहती गंगा में हाथ धो लेने में हर्ज ही क्या है? दोनों जवान लड़कियों का बोझ सिर से उतर जाएगा। उनके विवाह के बाद ढाई लाख रुपयों में से अगर कुछ बचा तो अखिलेश को छोटा-मोटा धन्धा करा देंगे। फिर रिटायरमेंट के बाद जीवन सुख-शान्ति से बीतेगा।

‘‘क्यों, क्या सोचा?’’ काला, नाटा अजनबी सक्सेना जी के कानों के पास अपना बदबूदार मुंह लाकर फुसफुसाया। उसने अपना दाहिना हाथ सक्सेना जी के कन्धे पर रख दिया। सक्सेना जी कुछ नहीं बोले। उनके माथे पर पसीने की बूंदें फैल गयीं। चेहरा पीला पड़ता चला गया। कन्धे पर काले, नाटे बदमाश के हाथ के दबाव ने उन्हें एक ओर झुका दिया था। वह कुछ बोल न सके किन्तु लालच मिश्रित घबराई आंखों से सहमति में सिर हिलाकर रेस्टरूम की ओर देखने लगे।

स्टेशन मास्टर की मौन स्वीकृति पाते ही वह भयानक काला नाटा अजनबी खुला लम्बा चाकू लिए रेस्टरूम में चला गया। कुछ पलों के बाद ही रेस्टरूम से एक घुटी हुई चीख सक्सेना जी के कानों को भेदती हुई उनके अंतस तक चली गयी। ‘हे भगवान!’ सक्सेना जी के मुंह से निकला। उन्होंने अपने दोनों कान हथेलियों से बंद कर लिए और सिर मेज पर झुकाकर आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उन्हें आभास हुआ कि वह अजनबी रेस्टरूम से बाहर निकला है। उन्होंने उसकी ओर सिर उठाकर देखा, जो इस समय और भी ज्यादा वीभत्स दिख रहा था।

‘‘साले की मैंने पूरी तलाशी ले ली, सिर्फ दो रुपये बारह आने उसकी जेब से मिले हैं। ब्रीफकेस कहीं नहीं मिला, मैंने पूरा कमरा तलाश डाला।’’ भयानक काला नाटा अजनबी हताश और थका हुआ सा बोला। ‘‘क्या…क्या…कह रहे हो, तुम! मैंने उसे अपनी आंखों से ब्रीफकेस के साथ रेस्टरूम के अन्दर जाते हुए देखा था। तुम झूठ बोल रहे हो। तुम मेरा हिस्सा मारना चाहते हो।’’ सक्सेना जी अजनबी की नीयत पर शक करते हुए झुंझलाए।

‘‘मैं…मैं…सच कह रहा हूं, स्टेशन मास्टर साहब।’’ अजनबी कुछ नरमी से बोला। ‘‘चलो अन्दर, मैं भी देखता हूं…’’ लालच और शक ने सक्सेना जी को क्षणिक बलशाली बना दिया था। फलस्वरूप उनकी आवाज में भारीपन आ गया था। ‘‘चलिए! हो सकता है अंधेरे में, मैं अकेले ठीक से तलाश न कर पाया होऊं।’’ काला नाटा अजनबी उम्मीद बांधते सक्सेना जी के पीछे-पीछे रेस्टरूम में जाते हुए बोला।

रेस्टरूम के अन्दर घुप्प अंधेरा था। सक्सेना जी ने रेस्टरूम में टार्च की रोशनी से ब्रीफकेस तलाशना शुरू किया। दीवाल पर बनी अलमारी खोलकर देखी, बाथरूम छान मारा, तख्त के नीचे ढूंढ़ा, परन्तु ब्रीफकेस का कहीं पता नहीं चला। फर्श पर मुड़े-पड़े हरे कागज के टुकड़े को यूं ही सक्सेना जी ने खोलकर टार्च की रोशनी में देखा। यह कागज का हरा टुकड़ा कस्बे की एकमात्र टाकीज रंगमहल के नाइट शो का टिकट था, जिस पर आज की तारीख की मुहर छपी हुई थी। ‘‘अभी शाम की ही तो बात है, अखिलेश उनसे कस्बा जाकर फिल्म देखने की बात कर रहा था।’’

सक्सेनाजी की आंखों के सामने एकाएक हजारों बल्बों की रोशनी फैल गयी। टार्च की रोशनी अपने आप तख्त पर मृत पड़े नवयुवक के चेहरे पर घूम गयी। अगले ही पल सक्सेना जी लहराकर कटे वृक्ष की भांति फर्श पर गिर पड़े। उनका शरीर शक्तिहीन हो गया। बेहोश होने से पहले उनके मुंह से अस्पष्ट शब्द निकले थे, ‘‘अ…खि…ले…श…हाय! मैं लुट गया…हे भगवान!…यह क्या हो गया…?’’

अभागा निर्दोष मृतक और कोई नहीं, स्टेशर मास्टर सक्सेना जी का इकलौता पुत्र अखिलेश था, जो कस्बे की टाकीज में नाइट-शो देखने के बाद रेलवे स्टेशन के पास बने अपने क्वार्टर में न जाकर अपने पिताजी के रेस्टरूम में खुली खिड़की से अन्दर आकर तख्त पर सो गया। पद्म को रेस्टरूम में आए अभी एक घंटा भी नहीं बीता होगा, जब उसने बाहर वाले कमरे में आहट सुनी।

उत्सुकतावश वह तख्त से उठा और परदे को हल्का-सा हटाकर जैसे ही उसने बाहर वाले कमरे में देखा, तो पाया कि वही काला नाटा आदमी, जो उसका पीछा कर रहा था, जिसे वह चकमा देकर इस स्टेशन पर उतर गया था, वह स्टेशन मास्टर का हाथ पकड़े, उन्हें अपने साथ बाहर लिए जा रहा था। पद्म काले नाटे आदमी को देखकर कुछ पल के लिए भौंचक्का रह गया। उसे अपनी मौत स्पष्ट नजर आने लगी। भय के कारण उसकी पिंडलियां कांपने लगी। उसके शरीर के सभी रोएं खड़े हो गये। उसकी स्थिति, ‘काटो तो खून नहीं’ जैसी हो गयी।

पद्म ने बिस्तर के सिरहाने से ब्रीफकेस उठाया और खिड़की की सिटकनी धीरे से खोलकर रेस्टरूम से बाहर निकल आया। अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसने अपनी घबराहट को नियंत्रित करने का प्रयास किया और अपने शरीर की सारी शक्ति समेटकर, अंधेरे का लाभ उठाते हुए स्टेशनरूम से दूर आउटर सिगनल के पास आ पहुंचा।

वहीं एक झाड़ी में ब्रीफकेस छिपाकर वह पुराने बरगद के पेड़ पर चढ़ गया और सुबह पांच बजे आने वाली पेसेंजर ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगा। कोहरा फैला होने के कारण दूर स्टेशन रूम के बाहर सिवाय टिमटिमाते लैम्प पोस्ट के पद्म को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। ठंड के बावजूद उसका शरीर भय और घबराहट से पसीने-पसीने हो रहा था।

काले-नाटे बदमाश ने रेस्टरूम की खुली खिड़की देखकर सारी स्थिति भांप ली ‘वह सेठ का बच्चा बड़ा चालाक निकला, वह अब उसे इस अंधेरे में कहां ढूंढ़ेगा।’ मन ही मन बड़बड़ाते हुए वह खिड़की की ओर बढ़ा ही था कि तभी होश में आ चुके स्टेशन मास्टर सक्सेना ने उसकी टांग पकड़ कर खींच दी, जिससे वह बदमाश भरभराकर फर्श पर गिर पड़ा और माथे पर चोट लग जाने के कारण बेहोश हो गया।

‘‘साहब…सक्सेना…साहब…’’ प्वाइंट्समेन रामेश्वर की आवाज से सक्सेना जी चौंक पड़े। शीघ्र ही उन्होंने अपने आपको संयत किया और इसके पहले कि रामेश्वर रेस्टरूम में आ जाए, वह रेस्टरूम से बाहर निकल आए। ‘‘सक्सेना साब! बिटिया की तबीयत अब अच्छी है। वाइफ के मिडवाइफ होने से अच्छा फायदा है…बिटिया को ओ.आर.एस. को घोल खूब पिला दओ। अब बां आराम से सो रई है। मैंने आप हां खम्हखां डिस्टर्ब करो, आप आराम करो मैं अपनी जगां पे जा रओ…सबेरे की गाड़ी के आबे में अबे चार घंटा की अबेर है।’’ रामेश्वर दीवाल घड़ी में देखते हुए स्टेशन मास्टर के रूम से बाहर आ गया और सामान तौलने वाली मशीन के पास पड़ी बेंच पर पहले से रखे अपने बिस्तर को बिछाकर उस पर लेट गया।

सक्सेना जी प्वाइंटसमेन रामेश्वर के सामने अपने आपको संयत किए खड़े रहे। वह कुछ नहीं बोले और न ही उन्होंने यह गौर किया कि रामेश्वर क्या बोल गया। वह कठिन परीक्षा से गुजर रहे थे। इकलौते पुत्र की हत्या में स्वयं भागीदार बनकर जो पाप उनसे हो गया था, उसे मिटाने की सोच में वह डूबते-उतराते रहे। सुबह के चार बज चुके थे। काले-नाटे बदमाश की बेहोशी टूटी। उसने फर्श पर सिर झुकाए बैठे स्टेशन मास्टर की ओर देखा।

अपना माथा सहलाता हुआ वह बदमाश उठा और सक्सेना जी के कन्धे पर हाथ रखते हुए बोला, ‘‘जो हुआ, सो हुआ। अब अगर अपने आपको फांसी से बचाना चाहते हो तो इसे पटरी पर लिटाने में मेरी मदद करो। इसके अलावा अब कोई चारा शेष नहीं है।’’ अपने प्राणों का मोह व्यक्ति को कितना निष्ठुर बना देता है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यहां स्पष्ट हो रहा था। सक्सेना जी को समय का भान हुआ। वह यंत्रावत काले-नाटे अनजबी की आज्ञा मानने लगे। अपने पुत्र की लाश को चादर से लपेटे वह अजनबी की मदद से खिड़की के रास्ते बाहर ले आए।

सुबह की पेसेंजर ट्रेन का समय निकट आता जा रहा था। स्टेशन मास्टर सक्सेना को कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। वह काले- नाटे बदमाश के कहे अनुसार पटरियों के पास अपने मृतक पुत्र की लाश को उठा लाया। मृतक अखिलेश की लाश को पटरी पर लिटाकर वे दोनों हटने ही वाले थे कि एक तेज प्रकाश से नहा गये।

‘‘वहीं खड़े रहो, नहीं तो गोली मार दी जाएगी।’’ कड़कदार आवाज सुनकर दोनों को काठ-सा मार गया। पास के कस्बे से रात्रि-ड्यूटी पूरी कर कस्बे के थाने की ओर वापस लौट रहे पुलिस के गश्ती दल ने लाश को पटरियों पर लिटाते हुए स्टेशन मास्टर सक्सेना और उस काले-नाटे बदमाश को रंगे हाथों पकड़ लिया।

स्टेशन मास्टर सक्सेना की हालत पागलों जैसी हो गयी जबकि उस काले- नाटे बदमाश के चेहरे पर कोई भी भाव नहीं बन रहे थे। वह इस तरह पकड़े जाने पर क्षुब्ध होकर अपने दांत किटकिटा रहा था। पुलिस पार्टी मृतक अखिलेश की लाश व दोनों हत्यारों को स्टेशनरूम के बरामदे में ले आई। प्वाइंटसमेन रामेश्वर जाग चुका था। सामने का दृश्य देखकर वह अवाक् रह गया। निर्धारित समय पर पेसेंजर ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर दो मिनट रुकी और सीटी देती हुई अगली स्टेशन के लिए बढ़ गयी।

पद्म पैसेंजर ट्रेन के आखिरी डिब्बे में ब्रीफकेस लिए चुपके से चढ़ चुका था। उसे कुछ पता नहीं था कि इस बीच क्या-क्या घट चुका था। उसके मन में अब भी उस काले-नाटे बदमाश का भय समाया हुआ था। सूरज की पहली किरण के साथ ही पूरे कस्बे में आग की तरह यह बात फैल गयी कि स्टेशन मास्टर सक्सेना अपने ही पुत्रा की हत्या कर उसकी लाश को पटरी पर लिटाते हुए एक अन्य किराये के बदमाश के साथ पुलिस के द्वारा रंगे हाथों पकड़ लिया गया है।

लोगों के मन में अपने ही पुत्रा की हत्या करने के दोषी स्टेशन मास्टर सक्सेना के प्रति भांति-भांति के विचार और कल्पित कहानियां बनने लगीं। लोगों की भीड़ कस्बे के थाने की ओर बढ़ चली। ठीक चौबीस घंटे के बाद कानपुर में जब पद्म ने सुबह-सवेरे चाय की पहली चुस्की लेने के बाद अखबार देखा, तो उसके हाथ से चाय की प्याली छूट गयी।दैनिक-पत्र के मुख पृष्ठ पर नीचे के हिस्से में बड़े-बड़े अक्षरों में पुत्र-हंता-पिता लिखा हुआ था। पूरा विवरण पढ़ चुकने के बाद पद्म के शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। उसके मस्तिष्क में पूरे घटनाक्रम की फिल्म घूमने लगी।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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