Homeहिन्दी कहानियांBidi Pila Dete Sab बीड़ी पिला देते साब

Bidi Pila Dete Sab बीड़ी पिला देते साब

द्विवेदी के कानों में सुनाई दिया, ‘Bidi Pila Dete Sab!’’ द्विवेदी को दिखाई दिया, पंचू अपने दोनों पंजे उसकी गरदन दबोचने के लिए आगे बढ़ा चुका है। द्विवेदी का रहा-सहा धैर्य जवाब देने लगा। उसने तकिए के नीचे दाएं हाथ से थामे रिवाल्वर को बाहर निकाल लिया और इसके पहले कि पंचू के हाथ उसकी गरदन तक पहुंचें, द्विवेदी ने बिना समय गवाएं रिवाल्वर की लिबलिबी दबा दी…

 

एक पापमय कृत्य की परिणित का त्रासदी भरा अंत।

‘‘सर! सर!’’…‘‘जी सर! यस सर!’’…‘‘हो जाएगा सर!’’…‘‘नो सर।’’…‘‘यस सर।’’…‘‘ओ.के. सर…जय हिन्द सर!’’ द्विवेदी की आंखों में चमक वापस आ गयी जो दिनभर की थकान के बाद बुझने लगी थी। कप्तान साहब का डायरेक्ट फोन आया था, उसके मोबाइल पर। पच्चीस साल की पुलिस की नौकरी में उसके लिए शायद किसी कप्तान का पहला फोन था यह। छोटा दारोगा होने के बावजूद वह थानेदार था, भले ही थाना छोटा था, कुछ माह पहले ही चौकी से बने इस थाने का वह पहला थानाध्यक्ष था।

चमकते दो सितारे बुलट मोटरसाइकिल या पेट्रोलिंग में जीप की शानदार सवारी करते उसका दिमाग यदि सात आसमान होते हैं तो ठीक वहीं सातवें आसमान पर रहता था, फिर क्या जनता, क्या लोग, सब उसके जूते के नीचे। वह किसी को भी नहीं छोड़ता था सिवाय अपने आकाओं और नेताओं के। हां, वह उनकी जरूर सुनता जो उसे पहले मिल लेते और उसकी जेब गरम करना नहीं भूलते, ऐसे लोग उसकी परिधि से बाहर रहते।

नयी-नयी थानेदारी, कप्तान साहब का सीधा उसी को फोन, शीघ्र अगले प्रमोशन का पक्का वादा। द्विवेदी ने वर्दी पहनी, जूते कसे, रिवाल्वर लगाई और मोबाइल पर कुशवाहा को जीप निकालने का आदेश दे, थाने के अन्दर बने अपने क्वार्टर से निकलकर ड्यूटीरूम में आ गया, ‘‘यादव, दो सिपाही साथ में लो, तुरन्त निकलना है।’’ द्विवेदी मसाले का पाउच फाड़ मुंह में डालते बोला। ‘‘जी सर।’’ सैकंड ऑफीसर सब-इंस्पेक्टर यादव ने अपने वरिष्ठ को सेल्यूट करते कहा।

आनन-फानन में ड्राइवर सहित जीप में कुल पांच लोग सवार हो गये। ‘‘कुशवाहा गल्लामंडी की ओर चलो जल्दी।’’ द्विवेदी ने नजर कलाई घड़ी पर निगाह दौड़ाई, रात के दस बजे चुके थे। गल्ला मंडी में स्थित मधुशाला के पास के सस्ते से ढाबे के अन्दर से पुलिस पार्टी ने पंचू नाम के दुबले-पतले से पियक्कड़ को दो डंडे जमाए और उसे जीप में लादकर थाने ले आए। ‘‘साले को अन्दर डाल दो, बाकी सुबह देखा जाएगा।’’ सिपाही रामसेवक ने लॉकअप का ताला बाहर से बंद कर लिया और साथी अब्दुल से हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘इस साले मरियल को तो हम दोनों अकेले ही साइकिल पर बैठा लाते…’’ ‘‘हां, मैं तो समझा कोई बड़ा मामला होगा।’’

अब्दुल दो उंगली से अपने होंठ के नीचे खैनी दबाते बोला। पंचू नशे में बड़बड़ाते कटे वृक्ष-सा फर्श पर ढह गया। नशे में होने की वजह से उसे कुछ समझ में नहीं आया, फिर जल्दी ही वह खर्राटे भरने लगा। मैदान के एक ओर मंदिर के चबूतरे के पास द्विवेदी ने सब इंस्पेक्टर यादव को कुछ हिदायत दी। सब इंस्पेक्टर यादव ने दोनों सिपाही और ड्राइवर कुशवाहा को सुबह पांच बजे तैयार रहने का निर्देश दिया।

द्विवेदी ने प्रातः साढ़े चार बजे का अलार्म लगाया और कप्तान साहब के आए फोन की खुशी को अपने दिल और जेहन में कई बार दोहराने के बाद सो गया। नियत समय पर पुलिस पार्टी तैयार हो चुकी थी। पंचू को लॉकअप से निकाल हथकड़ी पहना जीप के पीछे डाल दिया गया। जैसे वह कोई अनावश्यक-सा सामान हो। पंचू ने मिचमिचाती आंखों से सिपाही अब्दुल से पूछा, ‘‘मुझे कहां लिए जा रहे हो?’’

अब्दुल चुप रहा। पंचू भी चुप रहा। जीप स्टार्ट हो अनजाने गन्तव्य की ओर बढ़ चली, भोर का उजास छंटने लगा था। जीप वीरान सड़क पर बढ़ी चली जा रही थी। पंचू की आंखें पूरी तरह खुल चुकी थीं। उसने ड्राइवर कुशवाहा से लेकर दारोगा द्विवेदी की ओर घूरते हुए सिर घुमाया, फिर एकाएक तेज स्वर में चिल्लाया, ‘‘मुझे कहां लिए जा रहे हो?’’ जीप में सवार सभी एक बारगी पंचू के चिल्लाने पर चौंक उठे, पर किसी ने भी उसके चिल्लाने पर ध्यान नहीं दिया। पंचू फिर चुप लगा गया। चढ़ाई पर आकर जीप एकाएक रुक गयी। ‘‘क्या हुआ?’’ द्विवेदी ने ड्राइवर कुशवाहा से पूछा।

‘‘देखता हूं, सर।’’ कुशवाहा जीप से उतरकर बोनट उठा कुछ देखने लगा। वातावरण में अजीब-सी खामोशी छाई थी। सूर्यदेव पूरब में चमकने लगे थे। तारकोल की सड़क रात में हुई बारिश से अब भी भीगी हुई थी। हवा मिट्टी की सौंधी गंध लिए मंद-मंद बह रही थी।

पंचू के होश ठिकाने आ चुके थे, बाकी में नींद की खुमारी साफ दिख रही थी। ‘‘मेरे दिन पूरे हो गये दारोगाजी!’’ पंचू निर्विकार भाव से बोला। जीप में सन्नाटा पसरा रहा। कुशवाहा ने कार्बोरेटर में फंसा कचड़ा साफ किया, जीप फिर भी स्टार्ट नहीं हुई। ‘‘क्या मेरे दिन पूरे हो गये दारोगाजी?’’ पंचू पहले से कुछ तेज आवाज में बोला। ‘‘जीप को धक्का लगाना पड़ेगा।’’ कुशवाहा बोला। पंचू के अलावा सभी जीप से उतर गये, उससे किसी ने कुछ नहीं कहा, कुशवाहा ने ढाल की ओर जीप घुमा ली। कुछ कदम बाद ही जीप के ढाल पर जाने से जीप स्टार्ट हो गयी।

‘‘बताइए दारोगाजी! क्या मेरे दिन पूरे हो गये, मुझे कहां लिए जा रहे हो?’’ द्विवेदी ने पुलिस पार्टी को पहले ही कह रखा था, कोई कुछ न बोला। पंचू का धीरज जवाब देने लगा किन्तु मृत्यु भय उसके चेहरे पर कहीं नहीं था। द्विवेदी के इशारा करने पर कुशवाहा ने जीप डामर रोड से नीचे कच्चे पर उतार ली। कच्चा रास्ता घने जंगल की ओर जाता था। चार-पांच फर्लांग चलने के बाद ही पंचू एक बार फिर चिल्लाया, ‘‘दारोगा जी! क्या आज मेरे दिन पूरे हो गये।’’

द्विवेदी ने कुशवाहा को जीप रोक देने के लिए उसका कन्धा थपथपाते पंचू से कहा, ‘‘हां, पूरे हो गये साले। बड़ी देर से रट लगाए जा रहा है। उतारो इसे जीप से।’’ पंचू को जीप से उतार लिया गया। उसके हाथ से हथकड़ी खोल दी गयी। ‘‘अब भाग साले, बच गया तो बच गया, तेरा भाग्य, नहीं तो…’’ ‘‘भागूंगा नहीं, गोली मारनी है तो मार दो।’’ ‘‘अच्छा, बड़ा दम है साले, कोई आखिरी इच्छा…’’ द्विवेदी ने नम्र होते पूछ लिया।

‘‘कोई इच्छा नहीं है, मारो गोली और अपना काम पूरा करो, इनाम पाओ, तरक्की पाओ…’’ पंचू के चेहरे पर अजीब-सी वीरानी छा गयी। ‘‘फिर भी बता कुछ कहना हो तो।’’ इस बार सब इंस्पेक्टर यादव ने पूछा। ‘‘तो एक बीड़ी पिला दो, तलब लग रही है।’’ …‘‘बीड़ी?’’… ‘‘हां, बीड़ी पिला दो।’’

पुलिस पार्टी में किसी के पास बीड़ी-सिगरेट नहीं थी। ‘‘बीड़ी तो नहीं है, मसाला खाएगा?’’ ‘‘नहीं, पिला सको तो एक बीड़ी पिला दो।’’ ‘‘अब साले तेरे लिए यहां बीड़ी कहां से लाएं?’’ ‘‘तो काहे अन्तिम इच्छा पूछ रहे हो, मार क्यों नहीं देते गोली।’’ पंचू पहले की तरह बोला। दारोगा द्विवेदी सोच में पड़ गया। सब इंस्पेक्टर यादव ने सिपाही रामसेवक से पास के गांव से बीड़ी लेकर आने को कहा।

रामसेवक, कुशवाहा को साथ लेकर बीड़ी की तलाश में चला गया और जल्दी ही बीड़ी का बंडल माचिस सहित लेकर आ गया। ‘‘ले बीड़ी पी ले।’’ दारोगा द्विवेदी ने बीड़ी के बंडल से एक बीड़ी व माचिस पंचू को पकड़ाते हुए कहा। पंचू ने इत्मीनान से बीड़ी सुलगाई और धीर-धीरे कश लेने लगा। दारोगा द्विवेदी को पंचू के इस रवैये से झुंझलाहट हो रही थी। खामखां देर हो रही थी।

सुबह चाय नसीब होना तो दूर, ठीक से फ्रेश भी नहीं हो पाया था, पर वह अपनी झुंझलाहट दबाए पंचू के खींचे जा रहे कश के समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। बीड़ी खत्म, पंचू खत्म। पंचू ने बीड़ी के आखिरी हिस्से तक कश खींचा फिर बचा टुकड़ा (कट्टा) नीचे फेंक दिया। द्विवेदी की आंखें चमकीं, पुलिस पार्टी बड़े दारोगा की इच्छा जान तुरन्त चौकस हो मोर्चा सम्भालने में लग गयी। दारोगा द्विवेदी की तरह सभी को जल्दी थी। कुशवाहा व रामसेवक ने तो इनकाउंटर के बाद मिलने वाले इनाम से अपने-अपने खर्चेर् का हिसाब भी बना लिया था।

‘‘एक बीड़ी और पिला दो साब!’’ जान की जगह बीड़ी की भीख अजीब-सी मांग लगी द्विवेदी को। ‘‘ले।’’ द्विवेदी ने बीड़ी के बंडल से एक बीड़ी निकालकर पंचू की ओर पुनः बढ़ा दी। पंचू ने पहले की तरह स्टाइल से बीड़ी सुलगाई और धीरे-धीरे कश खींचने लगा। चालीस बरस के आसपास मझोला कद और दुबली काठी का पंचू पीला रूखा-सा चेहरा, दाढ़ी उगी हुई, पर न के बराबर मूंछें जैसे महीनों से तराशी न गई हों।

सामने के दो दांत गायब। इकहरी काया, नीले जींस के ऊपर चेक शर्ट, बांहें मुड़ी हुईं। जेब से कुछ खास नहीं निकला था, पचहत्तर रुपये आठ आने के साथ, एक पॉकेट डायरी, ‘किसी को भला क्या खतरा हो सकता है, इस बेचारे से जो कप्तान साहब इसका इनकाउंटर चाह रहे हैं?’ द्विवेदी सोच रहा था। पंचू का चेहरा-मोहरा गौर से देख रहा था। तभी पंचू ने पुनः विनती की, ‘‘एक बीड़ी और पिला देते…’’

‘‘हट साले…मादर..चूतिया बनाता है। एक-एक कर पूरा बंडल पिएगा क्या? बच जाएगा क्या? टाइम पास कर रहा है। यादव लगाओ साले को ठिकाने, देर हो रही है।’’ द्विवेदी अपना आपा खोते चीखा। ‘‘एक बीड़ी पिला देते साब!’’ पंचू के चेहरे पर विनीत भाव उभर आए थे। आंखों में अजीब-सी चमक दिखी, द्विवेदी को। एक पल के लिए वह किसी अज्ञात भय से अन्दर ही अन्दर कांप-सा गया। वह पंचू से ज्यादा देर आंखें न मिला सका और यंत्रावत बंडल से एक बीड़ी और निकालकर उसकी ओर बढ़ा दी, ‘‘यह आखिरी है सुन…इसके बाद…’’ ‘‘गोली मार देना साब! अबकी मांगू तो कुत्ते की औलाद।’’ पंचू ने तीसरी बीड़ी थोड़े यत्न के बाद सुलगाई।

द्विवेदी बीड़ी पीते और धुआं उगलते पंचू से नजरें मिला नहीं पा रहा था। पंचू की घूरती आंखें पता नहीं क्यां उसे विचलित करने में लगी थीं। ‘‘लो साब! मार दो गोली, अब नहीं मांगूंगा बीड़ी।’’ पंचू ने दोनों हाथ ऊपर उठा दिए। ‘‘मार दो।’’ ‘‘धांय…धांय…धांय…’’ की आवाज के साथ पंचू का शरीर एक बारगी हिला, लहराया फिर जमीन पर गिर गया, शांत, बिना किसी हलचल के। दो गोली पंचू के मृत शरीर की पीठ पर और दागी गयीं। एक पुरानी पिस्तौल, कुछ जिन्दा खाली कारतूस के खोखे बरामद दिखाए गये।

एक पुरानी चादर में पंचू के शरीर को लपेटा गया। जीप में उसका मृत शरीर उसी जगह पर डाल दिया गया जहां कुछ देर पहले उसे जिन्दा बैठाकर लाया गया था। ‘‘एक बीड़ी पिला देते साब!’’ द्विवेदी के मन-मस्तिष्क में पंचू का बीड़ी मांगता कातर चेहरा और घूरती आंखें चलचित्रा की भांति घूम गयीं। वापस थाने की ओर भागती जीप की अगली सीट पर बैठे द्विवेदी ने सिर घुमाकर पंचू की लाश की ओर पीछे देखा। मृतक पंचू के चेहरे से चादर का हिस्सा हट गया था। पंचू की खुली आंखें उसे ही घूर रही थीं। कह रही हों, ‘एक बीड़ी और पिला देते साब।’ द्विवेदी चीख पड़ा।

सभी अपने बॉस को चीखते देख चौंक गये। कुशवाहा के पैर स्वतः ब्रेक पर जम गये, जीप चरमर की आवाज करते एकाएक रुक गयी। ‘‘क्या हुआ हुजूर!’’ अब्दुल अपनी रायफल सम्भालते बोला जो जीप के ब्रेक लगते ही हाथ से फिसल गयी थी। ‘‘इसकी आंखें बंद करो, चेहरा ठीक से ढक दो।’’ पहली बार द्विवेदी को अन्दर तक कंपकपा गया था पंचू का मृत शरीर। रामसेवक ने पंचू की आंख बंद करने का निरर्थक प्रयास किया, वे बंद ही नहीं हो रही थीं, फिर उसका चेहरा चादर से ठीक से ढक दिया और फिर न खुले, इसलिए सुतली से ठीक से बांध भी दिया।

‘‘चलो!’’ द्विवेदी कुछ आश्वस्त हुआ। थाने पहुंचकर सबसे पहले द्विवेदी ने काम पूरा होने की सूचना कप्तान साहब को दी और उनसे शाबाशी प्राप्त की। कप्तान साहब ने अपने पी.आर.ओ. को निर्देशित कर दिया था। फलस्वरूप कुछ देर बाद ही थाने में मीडिया के लोग इकट्ठे हो गये। पंचू के सिर के नीचे गोल तकिया लगा दिया गया, वही पुरानी पिस्तौल उसकी दाहिनी हथेली में फंसा दी गयी। जींस में खुंसी शर्ट ऊपर खींच ली गयी। पुलिस पार्टी विजेता की भांति विभिन्न कोणों से मीडिया के फोटोग्राफरों को पोज दे रही थी।

द्विवेदी की निगाहें बरबस पंचू के चेहरे की ओर घूम जातीं, उसकी खुली आंखें उसे दहशत में डाल रही थीं। वह स्वयं अचंभित था कि यह उसे क्या हो रहा है। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। ‘एक बीड़ी और पिला देते साब!’ द्विवेदी ने हड़बड़ाकर अपनी आंखें खोल दीं। ‘‘आंखें खोलिए साब।’’ फोटोग्राफर उससे ही कह रहा था। उसे यह क्या हो रहा है। द्विवेदी ने आंखें दोबारा बंद नहीं कीं। स्थानीय सांध्य दैनिक में बड़ी हैडिंग के साथ पुलिस की गौरव-गाथा छपी थी। दुर्दान्त अपराधी पंचू तिवारी का आपराधिक इतिहास बॉक्स में छपा था।

पंचू इतना बड़ा अपराधी था, यह बात पुलिस पार्टी में किसी सदस्य को उसको मारने से पहले तक पता नहीं थी। द्विवेदी अखबार में छपी फोटो देखने से कतराने लगा। पुलिस पार्टी के साथ खिंचे चित्र में मृतक पंचू की खुली आंखें उसे स्वयं को घूरती-सी लग रही थीं। देर शाम कप्तान साहब ने द्विवेदी को अपने निवास पर बुलवाया। द्विवेदी सारी थकान भूल बावर्दी कप्तान साहब के निवास पर नियत समय से कुछ पहले पहुंच गया।

कप्तान साहब कोठी से बाहर निकले। पी.आर.ओ. को कुछ निर्देश देने के बाद द्विवेदी को अपनी गाड़ी में बराबर की सीट पर बिठा लिया। कप्तान साहब की बगल में बैठे द्विवेदी का हृदय बल्लियों उछल रहा थ। उसने कभी सपने में नहीं सोचा था कि उसे कभी कप्तान पुलिस की गाड़ी में उनके साथ बैठने का सौभाग्य नसीब होगा। कप्तान साहब द्विवेदी को प्रदेश के नामधारी राज्यमंत्रा (स्वतंत्रा प्रभार) के निवास पर लेकर पहुंचे।

‘‘सर! पंचू तिवारी का इनकाउंटर करने वाले दारोगा जी यही हैं।’’ कप्तान साहब ने मंत्री  जी के सामने द्विवेदी का इस तरह परिचय दिया जैसे द्विवेदी ने बहुत बड़े दस्यु गिरोह के सरगना को घंटों चली मुठभेड़ के बाद मार गिराया हो। मंत्री जी ने द्विवेदी की पीठ ठोंकी और पास खड़े अपने खद्दरधारी सहयोगी के कान में कुछ कहा। खद्दरधारी पल में अन्दर गया और पल में ही बाहर आ गया। अन्दर से एक मोटा लिफाफा आया जिसे मंत्रीजी ने द्विवेदी को थमाते हुए कहा, ‘‘बहुत बड़ा काम तुम किए हो हमारा…इनाम तो सरकार से मिलेगा, यह रख लो हमारी तरफ से बीवी-बच्चों की मिठाई की खातिर…’’

द्विवेदी ने अचकचाते हुए कप्तान साहब की ओर निहारा। कप्तान ने आंखों ही आंखों में पैकेट रख लेने का इशारा किया। आज्ञापालक सेवक की तरह द्विवेदी ने लिफाफा हाथ में पकड़ लिया फिर उसे पैंट की जेब में ठूंसने लगा। ‘‘अरे! जेबवा में नहीं आएगा, शर्ट के बटन खोलकर अन्दर डाल लो, ये काम हम खूब किए हैं।’’ मंत्री जी अपनी ही कही बात पर बेसुरा-सा ठहाका मार हँस दिए। कप्तान साहब मुस्करा दिए और द्विवेदी से बोले, ‘‘द्विवेदी बाहर गाड़ी में मेरी प्रतीक्षा करो।’’

द्विवेदी मंत्री जी का अभिवादन कर बाहर खड़ी कप्तान साहब की गाड़ी में आकर उनका इन्तजार करने लगा। द्विवेदी की अब सब समझ में आ रहा था। मंत्रा जी ने अपनी लांग-डांट के चलते या किसी पुराने राज के बाहर आ जाने के भय से पंचू तिवारी का इनकाउंटर करवाया था। पंचू का नाम स्मरण आते ही द्विवेदी को लगा जैसे ड्राइविंग सीट पर पंचू उससे कह रहा हो, ‘बीड़ी पिला देते साब!’

‘‘का हुआ हो द्विवेदीजी साब!’’ कप्तान साहब का ड्राइवर उससे पूछ रहा था। ‘‘तो तुम बीड़ी मांग रहे थे?’’ ‘‘नहीं साब, हमारे पास तो सिगरेट है, आपसे लाइटर मांग रहे थे।’’ ड्राइवर अपनी उंगलियों में फंसी सिगरेट नचाते बोला। ‘‘ओह मुझे लगा…लाइटर तो है नहीं, हम बीड़ी-सिगरेट कछु नहीं पीते… मसाला खाने की आदत जरूर है।’’ द्विवेदी ने पुकार का एक पाउच जेब से निकालकर ड्राइवर के न करने के बावजूद उसे थमा दिया।

मंत्री  जी के भारी-भरकम लिफाफे में पांच-पांच सौ की दो गड्डियां निकलीं। पूरे एक लाख रुपये थे। द्विवेदी ने तकिए के गिलाफ के अन्दर दोनों गड्डियां रख दीं और सोने का प्रयास करने लगा, पर नींद तो आज उसकी आंखों से कोसों दूर थी। रह-रहकर पंचू का चेहरा सामने आ रहा था। जैसे ही वह सोने के लिए अपनी पलकें बंद करता, पंचू का बीड़ी मांगता चेहरा सामने आ जाता और कानों में सुनाई देता, ‘बीड़ी पिला देते साब!’

रात भर द्विवेदी करवटें बदलता रहा, कभी उठकर पानी पीता, बाथरूम जाता, कभी टहलता, फिर लेटता, पर नींद तो दूर आंखें झपकते ही पंचू का चेहरा सामने आ जाता, कानों में घंटियां-सी बजने लगतीं और उसे सुनाई देती पंचू की आवाज ‘बीड़ी पिला देते साब!’ पुलिस पार्टी को इनाम मिला। सभी की पदोन्नति हुई, द्विवेदी दो स्टार के दारोगा से तीन स्टार वाले कोतवाल बना दिए गये, तनख्वाह और रुतबे में भारी बढ़ोतरी हो गयी। राजधानी की सबसे महत्त्वपूर्ण कोतवाली के कोतवाल बन जाने की खुशी…कप्तान साहब से नजदीकी और मंत्राजी से परिचय और क्या चाहिए था उस नाचीज को।

धर्मपत्नी के जीवित रहते वह बेटी का ब्याह कर चुका था। इकलौते बेटे का इंजीनियरिंग का आखिरी साल चल रहा था। सब तरह की खुशियां उसके पास थीं, पर इन सारी खुशियों को एक साथ छीन रखा था पंचू तिवारी के खौफनाक हादसे ने। उस निर्दोष की हत्या कर जो पाप उससे हुआ था, वह अब सिर चढ़कर बोल रहा था, द्विवेदी तनाव का शिकार हो गया, सोते-जागते वह बड़बड़ाने लगा।

अवसाद और तनाव भरे क्षणों में वह आत्महत्या कर लेने की सोचने लगा था। पंचू तिवारी अब उसे सपने में सोते-जागते दिखने लगा, उसकी हालत जल्दी ही पागलों जैसी होने लगी। कब किसे क्या कह दे, क्या कर दे, कोई भरोसा नहीं। साथ के लोग इसे पंचू तिवारी के भूत का असर समझ रहे थे। टोना-टोटका, गंडा-ताबीज, झाड़-फूंक से लेकर अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर के पास द्विवेदी को ले जाया गया, पर कोई फायदा नहीं पहुंचा।

द्विवेदी की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गयी, उसका अर्जित अवकाश, चिकित्सकीय अवकाश सब खत्म हो गया। ‘लीव विदाउट पे’ की स्थिति आ गयी। बेटे ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर प्राइवेट फर्म में नौकरी पा ली थी। द्विवेदी की नौकरी किसी तरह खिंच रही थी। थाने में भी वह ठीक से कार्य नहीं कर पाता था, ऊल-जलूल बकना, कैदियों को नाहक ही मारना-पीटना, साथियों से बिना बात उलझना, अधिकारियों को ऊट-पटांग कहना, मातहतों को बेवजह डांटना, उसकी फितरत बनती जा रही थी। इस सारी वजहों का मूल कारण रात-रात भर सो न पाना और पंचू तिवारी को विस्मृत न कर पाना भी था।

द्विवेदी के बेटे की नयी-नयी शादी हुई थी। सुन्दर, सुघड़ जीवन साथी पा बेटा निहाल हो उठा था। नवविवाहित जोड़े के दिन सोने जैसे और रातें चांदी जैसी बीत रही थीं। पल-पल मुश्किल भरा होता था साथ छोड़ना। पिताजी का बड़बड़ाना-चिल्लाना इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ चला था। बेटे ने अपनी रात खराब न होने के इरादे से पिताजी को हाइडोज की दवा डॉक्टर की सलाह को अनदेखा कर देनी शुरू कर दी थी। फलस्वरूप द्विवेदी गहरी नींद में चले जाते और नव विवाहित जोड़ा प्यार के गहरे सागर में।

और इसी तरह की एक गहराती स्याह रात के अन्तिम प्रहर बेटे को नींद में कुछ खटका लगा। उसने दीवार घड़ी में देखा, भोर होने में एक घंटा शेष था चार बजने को थे, पिताजी नींद में बड़बड़ा रहे थे…उसे जोर की पेशाब भी लगी थी। पत्नी का यौवन से लदा शरीर अपने से परे करता वह उठा, पत्नी का चेहरा देखा जो गहरी नींद में कुछ ज्यादा ही दमक रहा था जैसे आज के मिलन के बाद नया जीवन उसे छू गया हो, प्यार का अंकुर उसके पेट में फूट पड़ा हो।

मन मयूर हो नाच उठा। उसने पत्नी के दोनों होंठ चूम लिए, मस्तक पर, फिर उघड़े पेट पर हाथ फेरते वह उठ खड़ा हुआ। बाथरूम जाकर पेशाब से भरे ब्लेडर को खाली किया। जग से गिलास में पानी भरके दो गिलास पानी पीने के बाद वह आश्वस्त हुआ। प्यास और पेशाब दोनों से मुक्त हो; उसने स्वयं को सहज महसूस किया। यहां द्विवेदी के स्वप्न में सालों पहले इनकाउंटर में मारा गया पंचू तिवारी आ रहा था, ‘बीड़ी पिला देते साब!’ ‘हट साले…तू मर चुका है।’ ‘नहीं साब! एक बीड़ी और पिला देते।’

‘भाग नहीं तो गोली मार दूंगा।’ द्विवेदी बड़बड़ाए जा रहा था ‘मार दो गोली, पर बीड़ी पिला देते साब!’ ‘हट जा साले! नहीं तो गोली मार दूंगा।’ बेटा बड़बड़ाते पिता के कमरे में प्रवेश कर चुका था। ‘‘पिताजी…पिताजी…’’ बेटे ने कमरे की लाइट जला दी। पूरा कमरा प्रकाश से भर गया। बिस्तर पर द्विवेदी बड़बड़ाए जा रहा था, ‘भाग जा साले, नहीं तो गोली मार दूंगा।’

‘नहीं साब! बस एक बीड़ी पिला देते साब!’ ‘‘पिताजी…पिताजी…’’ बेटे ने पसीने से लथपथ पिता के सीने पर हाथ रखा। ‘‘छूना नहीं…दूर हट साले, गोली, गोली मार दूंगा।’’ द्विवेदी का हाथ यंत्रवत तकिए के नीचे रखे भरे रिवाल्वर पर जा थमा। अनभिज्ञ बेटे ने द्विवेदी की आंखें खोलने के लिए अपनी दाईं हथेली बढ़ाई, आंखें पलटी हुई थीं। ‘‘पिताजी…कैसी तबीयत है?’’

बौखलाए द्विवेदी के कानों में सुनाई दिया, ‘एक बीड़ी पिला देते साब!’’ द्विवेदी को दिखाई दिया, पंचू अपने दोनों पंजे उसकी गरदन दबोचने के लिए आगे बढ़ा चुका है। द्विवेदी का रहा-सहा धैर्य जवाब देने लगा। उसने तकिए के नीचे दाएं हाथ से थामे रिवाल्वर को बाहर निकाल लिया और इसके पहले कि पंचू के हाथ उसकी गरदन तक पहुंचें, द्विवेदी ने बिना समय गवाएं रिवाल्वर की लिबलिबी दबा दी…

‘‘धांय…’’ की तेज आवाज करती रिवाल्वर की गोली ने द्विवेदी के इकलौते बेटे की कनपटी भेद डाली, बेटे के मुंह में ‘पिताजी’ का स्वर घुटकर रह गया। एक पापमय कृत्य की परिणित का त्रासदी भरा अंत हुआ।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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