मनुष्य का जीवन Trasdi भरा रहता है। जब तक वह जीवित है, त्रासदियां उसके इर्द-गिर्द बनी रहती हैं। ज़िंदगी है तो कुछ न कुछ उहापोह चलता ही रहेगा, ज़िंदगी है तो त्रासदियां दांये-बांये चलती ही रहेंगी। भारत गणराज्य के उत्तर प्रदेश प्रांत की राजधानी लखनऊ कभी बागों के शहर के नाम से जानी जाती रही है। आज भी यहां के कई मोहल्लों के नाम के साथ बाग लगा है जैसे सुन्दरबाग, बादशाहबाग, ऐशबाग, आलमबाग, चारबाग इत्यादि।
चारबाग क्षेत्रा, यहां वर्तमान में एक भी बाग नहीं है, चारबाग के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसिद्धि का एक बड़ा कारण यहां स्थित रेलवे स्टेशन की बनी भव्य गुम्बदाकार इमारत है, जो पहली बार लखनऊ आए किसी भी पर्यटक का दिल मोह लेने के लिए पर्याप्त है। इस इमारत और इसके साथ फैले रेलवे परिक्षेत्रा को चारबाग रेलवे स्टेशन के नाम से जाना जाता है। कहानी इसी चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मों के बीच की है।
बंशी साफ-सफाई के कार्य के लिए यहीं पर नियुक्त था। सुन्दर और सुघड़ धर्म पत्नी रति और तीन बच्चों के साथ उसका जीवन सुखमय व्यतीत हो रहा था। रेलवे कॉलोनी में स्थित उसके क्वार्टर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और फ्रिज; दोनों थे। उनकी दोनों जुड़वां बेटियां केंद्रीय विद्यालय में कक्षा चार की छात्रा थीं और इकलौता बेटा दीपक चार साल का हो रहा था जिसे इसी वर्ष के नये शैक्षणिक सत्र से स्कूल जाने के लिए बंशी व रति प्रोत्साहित कर रहे थे।
बंशी में अच्छाई यह थी कि वह हँसमुख, मिलनसार और किसी भी प्रकार के नशे का आदी नहीं था। दूसरों की मदद करना, ड्यूटी लगन से करना और घर की साफ-सफाई व कार्यों में रति का हाथ बंटाना; उसका शगल था। बंशी सांवला जरूर था, पर कद-काठी व स्वस्थ शरीर का तीस-बत्तीस वर्ष का सुन्दर-सलोना पुरुष था।
घुंघराले बाल और हँसने-बोलने पर चमकते सफेद दांत देखने में अच्छे लगते। इसी तरह रति भी आकर्षक मुखमुद्रा और तीखे नैन-नक्श के साथ गौरवर्ण होने के साथ मोहिनी थी। जो एक बार उसकी ओर देख लेता तो विश्वास ही नहीं करता था कि वह सफाई कर्मचारी की पत्नी है।
वह ऊंचे घर-परिवार की या किसी अधिकारी की पत्नी से कम नहीं लगती थी। कई बार तो बंशी के संगी-साथी व उसे जानने वाले अटकलें लगाने लगते कि बंशी जरूर अपनी बीवी को कहीं से भगा के लाया है। दोनों पति-पत्नी के बीच भरपूर प्रेम था। कभी-कभी जब वे खाली होते तो किसी प्लेटफार्म की किसी भी खाली पड़ी बेंच पर बैठकर घंटों बतियाते।
देखने वाले यात्रागण महसूस करते ‘प्रेमी जोड़ा है’ और मन ही मन कनखियों से रति को जरूर देखते और बंशी के भाग्य की सराहना करते न थकते और सफाईकर्मी की वेशभूषा में बैठे बंशी और सजी-संवरी रति की जोड़ी के तार अमृतलाल नागर रचित उपन्यास ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ के नायक-नायिका से जोड़ते, कल्पना करते।
ऐसे ही किसी एक दिन पता नहीं किसकी बुरी नजर इस जोड़ी को लग गयी। रति के ऊपर पहाड़ टूट पड़ा। इंजन की शंटिंग के दौरान पता नहीं किस बेख्याली में डूबा बंशी दुर्घटनाग्रस्त हो गया। मौके पर ही उसकी देहलीला समाप्त हो गयी। अनुकम्पा के आधार पर रति को पति के स्थान पर जल्दी ही नौकरी मिल गयी, रहने को आवास था ही। नन्हा दीपक दोनों बड़ी बहनों के साथ स्कूल जाने लगा। रति अपनी ड्यूटी जाने लगी।
पति का अभाव उसे हर पल, हर पग पर महसूस होता था। उसकी निर्दोष सुन्दरता के आकर्षण से आकर्षित कामुक-व्यभिचारी उस पर कुदृष्टि रखने लगे थे। अच्छे-बुरे की परख में कच्ची रति को उनकी लुभाती बातों में दया और उदारता दिखती, पर क्रमशः उस दया और सहानुभूति के पीछे छिपी मंशा उसे समझ में आने लगती और धीरे-धीरे वह ऐसे लोगों से किनारा करने लगी।
बंशी के देहावसान को पांच माह ही बीते थे कि बहुत दिनों से वासना के दो भेड़ियों ने घात लगाकर एक दिन जेठ मास की कड़ी दोपहर में मौका पाकर रति को दबोच लिया और उसे गलत इरादे से मालगाड़ी के खाली डिब्बे में पकड़ कर ले गये। दुष्टों ने उसका मुंह बुरी तरह दबा रखा था, चिल्लाना तो दूर; वह कराह तक नहीं सकती थी…ईश्वरीय संयोग! प्लेटफार्म पर ही लोगों को नाच-गाना दिखा-सुनाकर अपना पेट पालने वाली हिजड़ा सुन्दरी ने रति के साथ हो रही जोर-जबरदस्ती को दूर से देख लिया था। वह भागी-भागी उस माल गाड़ी के डिब्बे में पहुंच गयी जहां वहशी अपना वहशीपन करने जा रहे थे।
सुन्दरी बेतहाशा चिल्लाते हुए उन दोनों पर टूट पड़ी। बदमाशों के चंगुल से छूटी रति भी चीखने-चिल्लाने लगी। जल्दी ही जी.आर.पी. के दो सिपाही चीख-पुकार सुनकर वहां आ गये। दोनों दुष्ट बदमाश तब तक सुन्दरी को चाकुओं से बुरी तरह घायल कर भागने लगे, पर भाग न पाए और पकड़े गये। सुन्दरी का रेलवे अस्पताल में लम्बा इलाज चला।
लगभग एक माह अस्पताल में भर्ती रही, फिर रति उसे अपने क्वार्टर में ले आई। इस एक माह में दोनों के बीच जिस प्रेम ने जन्म लिया, उसे आत्मिक प्रेम या आज की भाषा में अशरीरी फार (प्लेटोनिक लव) कहा जा सकता है। एक हिजड़ा और एक स्वस्थ सुन्दर विधवा स्त्री के मध्य विकसित प्रेम गंगा की तरह पवित्रा, एक-दूसरे के दुःख-दर्द को समझते हुए आकार लेने लगा।
रति के बच्चे सुन्दरी को बुआ का सम्बोधन देने लगे। सुन्दरी पूर्व की भांति अपना साज-शृंगार कर नाचने-गाने जाने लगी, पर चाकुओं के वार से बिगड़ गया चेहरा, पहले की तरह लोगों को आकर्षित कर इनाम पाने में मुश्किलें पैदा करने लगा। हां लोग हिजड़ा समझ भिखारी की तरह उससे व्यवहार करने लगे और इनाम के स्थान पर भीख-सी दे अपना पीछा उससे छुड़ाने लगे। हिजड़ा रूप से पहले से दुःखी सुन्दरी अपनी कुरूपता से मन ही मन और दुःखी रहने लगी थी।
सुन्दरी की स्थिति से रति अनभिज्ञ न रह सकी। वह उसकी मनोदशा देख उसे खुश रखने का प्रयास करती, उसे प्रोत्साहित करती रहती। लोगों के तानों को अनसुना कर देती कि रति एक हिजड़ा से दिल लगा बैठी है। लोगों के बीच उन दोनों के रिश्ते को लेकर तरह-तरह की काल्पनिक बातें पनपने लगी थीं।
रति ने किसी की कोई परवाह न करते हुए सुन्दरी को अपने पास रखा। अब वह सुन्दरी को अपने साथ ड्यूटी पर भी ले जाने लगी थी। सुन्दरी के साथ रहते रति को अपने चारों ओर सुरक्षा का आवरण-सा महसूस होता। पहले होने वाली छींटाकशी से उसे मुक्ति-सी मिल गयी थी। पुरुष प्रधान समाज में छिपे सफेदपोश भेड़ियों से उसकी रक्षा करने में एक सुन्दरी जैसा हिजड़ा काफी था।
दिन, महीने और वर्ष बीतने लगे। रति ने दोनों जुड़वां बेटियों का विवाह अच्छे वर ढूंढ़कर कर दिया। बेटा दीपक पढ़ाई में कमजोर निकला और गलत सोहबत में पड़ आवारागर्दी करने लगा था। उसे सुन्दरी बुआ फूटी आंखों न सुहाती थी। लोगों के तानों और कटुवाणी को पूछता-सुनता वह बड़ा हुआ था। मां से सुन्दरी को लेकर अक्सर लड़ जाता था और पैसे लेकर अपनी जिद पूरी करता।
सुन्दरी के एवज में रति द्वारा बिगड़ैल बेटे की अच्छी-बुरी जिद पूरी करते चले जाना दीपक के आवारागर्दी की ओर बढ़ते जाने का एक कारण बन गया। इधर प्रौढ़ हो चुकी रति पेट दर्द से बचने व शौचालय जाने के समय बीड़ी पीने की बुरी आदत पाल बैठी थी और यह बुरी लत उसे सुन्दरी से मिली थी। मां का बीड़ी पीना और सुन्दरी से बातें करना दीपक को जरा भी नहीं भाता था, सो सुन्दरी ने अपना डेरा रति के घर से हटाकर चारबाग रेलवे स्टेशन पर पूर्व की भांति जमा लिया था, जहां ड्यूटी से खाली हो रति उससे मिलने-बतियाने पहुंच जाती। वहीं सुकून से सुन्दरी के साथ बीड़ी पीती, दुःख-सुख की बातें करती, फिर वापस अपने क्वार्टर में आ जाती। सुन्दरी से मिलना और बीड़ी पीना धीरे-धीरे उसने कम कर दिया था, दीपक के सामने तो कतई नहीं।
जहां रति बेटियों के सुखद गृहस्थ जीवन से खुश थी, वहीं बेटे की आवारागर्दी से दुःखी रहती थी। अब उसे बेटे के धन्धे-पानी के जमने और उसके ब्याह की चिन्ता रहने लगी थी। मनुष्य का जीवन त्रासदी भरा रहता है। जब तक वह जीवित है, त्रासदियां उसके इर्द-गिर्द बनी रहती हैं। कॉलोनी में ही रहने वाली एक लड़की से दीपक के सम्बन्ध बन गए थे। वह लड़की दीपक के बच्चे की मां बनने वाली थी।
लड़की के मां-बाप ने रति के पास आकर बवाल काटा। पंचजनों की राय बनी और दीपक का ब्याह उसी लड़की से दीपक की मर्जी के बिना कर दिया गया। दीपक ने सारे फसाद की जड़ में सुन्दरी का योगदान ज्यादा समझा। वह सुन्दरी से पहले से ही चिढ़ता था, अब उससे मन ही मन नफरत करने लगा था। उसे जीवन साथी के रूप में स्वप्न सुन्दरी चाहिए थी और मिल गयी साधारण रंग-रूप वाली, वह भी जग-हँसाई के बाद, जबकि सत्यता कुछ और थी।
समाज के चार लोगों का दबाव था, बेटा बलात्कार के इल्जाम में जेल की चक्की पीसे या शादी करे। रति ने जवान बेटे को जेल जाने से बेहतर उसका ब्याह कर देना ठीक समझा। बहू सुन्दर नहीं थी, पर इतनी बुरी भी नहीं थी। रहने, बैठने-ओढ़ने का सलीका उसे आता था। खाना बनाना और घर के अन्य कार्यों के अलावा सास की सेवा पूरे मनोयोग से वह करती। जल्द ही रति से वह घुल-मिल गयी। समय आने पर एक सुन्दर स्वस्थ बेटे को जन्म देकर बहू ने रति का हृदयांगन खुशियों से भर दिया। रति को लगा जैसे दीपक ने पुनः उसकी कोख से जन्म लिया हो।
पोता बिल्कुल उसके बेटे पर गया था और बेटा दीपक उसके स्वर्गवासी पति की प्रतिमूर्ति था। सो पति और बेटे दोनों के अक्स पोते में पा रति निहाल हो उठी। बेटियां चंगलियां साथ लाईं, सप्ताह भर हँसी-खुशी रहीं, फिर अपनी-अपनी ससुराल लौट गयीं। बेटियां क्षणिक सही, पर अपना सच्चा स्नेह-प्यार अपनी मां पर लुटा चली गयी। रति की तनख्वाह से घर-गृहस्थी ठीक-ठाक चल ही रही थी।
रोज की तरह एक दिन रति अपनी ड्यूटी समाप्त पर प्लेटफार्म नम्बर पांच पर सुन्दरी से दीपक के लिए प्लेटफार्म पर ही रेलवे से स्वीकृति ले पूड़ी-सब्जी का ठेला लगाने की बात कर रही थी। तभी दीपक मां को ढूंढ़ता वहां आ पहुंचा। मां को सुन्दरी से हँस-हँसकर बातें करते और बीड़ी का कश लगाते देख दीपक के तन-बदन में आग-सी लग गयी। वह कुछ बोला नहीं, आगे बढ़ा और सुन्दरी को गाली देता उस पर झपट पड़ा। रति जवान बेटे के बलिष्ठ हाथों से सुन्दरी को बचाने का प्रयास करने लगी। लोगों का हुजूम एकाएक हुए बवाल को देखकर उस ओर बढ़ आया। वर्षों की नफरत से भरे दीपक ने आव देखा न ताव, सुन्दरी को गठरी-सा उठा लिया और प्लेटफार्म के नीचे फेंक दिया।
तभी वहां धड़धड़ करता हुआ मेमू ट्रेन का इंजन आ गया और सुन्दरी की चीख घुटकर रह गयी। देखने वालों की आंखें पलक झपकते घटी इस हृदय विदारक घटना को देख फटी की फटी रह गयीं। रति की उंगलियों के नाखून दीपक के कन्धे पर गड़ गये। वह खड़ी न रह सकी और तेज चीख के साथ वहीं प्लेटफार्म पर ढह गयी।