बुन्देलखंड की Sair Aur Launi Fadkavya लोकगायकी के होते हुए भी उनका गायन फड़ों पर ही होता रहा है । बुन्देलखंड की लोक गायकी को समृद्ध करने में फाग गायकी के बाद दूसरे क्रम में आती हैं। वस्तुतः इसलिए उसे फड़गायक ही गाते हैं, सभी नहीं। इतना अवश्य है कि वे गायन शैलियाँ लोक के लिए खुली रहती हैं। जिस गायक की रुचि है, वह गा सकता है।
बुन्देलखंड की सैर और लावनी फड़काव्य
गायन शैली भी परम्परित है और आज तक प्रचलितल है। उसके गायक चुनिन्दा ही होते हैं। इनकी तुलना लोकगीतों की लोकगायकी से की जाय, तो स्पष्ट है कि सैर और लावनी गायन शैलियों का लोकप्रचलन कम है। हालाँकि सैर और लावनी, दोनों मुक्तक रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं और लोकगाथाओं का रूप प्रबन्धात्मक रहा है, फिर भी लोकगाथाएँ अधिक प्रचलित रहीं।
सैरों और लावनियों में भी प्रबन्ध लिखे गए, पर उनका प्रचलन आरोहों-अवरोहों से झूलता रहा। गायनशैलियों की प्राचीनता स्व. रामचरण हयारण ‘मित्र’ ने यह सिद्ध किया है कि सैरगायकी राजा शूद्रक के राज्य-काल अर्थात् तीसरी या चौथी शती में प्रचलित थी, पर उन्होंने कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं दिया। वे यह भी स्पष्ट नहीं कर सके कि उस गायकी का प्रचलन किस भाषा में था। फिर वे सैर की दो पुरानी पंक्तियों का अर्थ लगाने में भी चूक गए। पंक्तियाँ हैं…
रेवा के माँय, सारंग में सरसिज फूले।
अलि गूँज गूँज तिनें सबइ सुदबुद भूले।।
इन पंक्तियों के अर्थाने में वे यह सिद्ध कर गए कि रेवा नदी के जल में कमल पुष्पित हैं और संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने काव्य में ‘सरिताओं में कमल के प्रफुल्लित होने का वर्णन’ किया है। इस आधार पर यह कालिदास-काल का माना जा सकता है।
उन्होंने पंक्तियों के ‘शब्दों’ का चयन और रूप बुन्देलखंडी बोली से मिलता-जुलता है’ भी लिख दिया। सैर की इन पंक्तियों का अर्थ है कि रेवा नदी के उस पार सरोवर में कमल पुष्पित हैं, जिनमें भौंरे सुधि भूलकर गुंजार कर रहे हैं। दूसरे गुप्त-काल में लोकभाषाओं का जन्म ही नहीं हुआ था। सबसे प्राचीन उपलब्ध
पांडुलिपि श्रीनगर (जिला महोबा) उत्तर प्रदेश निवासी पंडित भैंरोलाल ब्राह्मण (1743 ई.) के चार चरणवाले सैरों के संग्रह की हस्तलिखित प्रति है, जिसका प्रतिलिपि-काल माघ सुदी 14 संवत् 1918 (अर्थात् 1861 ई.) है। पांडुलिपि के सैरों में शृँगार की वियोगपरक वेदना की अभिव्यक्ति हुई है। उनके बाद के सैरकारों में प्रमुख हैं द्विज रामलाल (1820 ई.), शाहनगरवासी दरयावदास दउआ (1824 ई.), झाँसीवासी भग्गी दाऊ जू ‘श्याम’ (1823-83 ई.) कवि लछमन (1849 ई.), द्विज किशोर (1842-57 ई.) आदि।
सैरों की झूमका शैली का विकास छतरपुरवासी पं. गंगाधर व्यास के पहले ही हो चुका था और इन सैरकारों ने 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम में जन-जागरण कर सहयोग दिया था। प्रमाण में द्विज किशोर द्वारा रचित ‘पारीछत कौ कटक’ की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं…
काहू नें सैर भाषे काहू नें लाउनी।
अबके हल्ला में फुँकी जात छाउनी।।
लावनी लोकगायकी दर्शनपरक रही है और इसकी प्राचीनता चन्देरीनरेश की जनमश्रुति से जुड़ी है और जिसे पूर्वमध्ययुग के दर्शनपरक लोककाव्य में स्पष्ट किया जा चुका है कि उसका उद्भव 15वीं शती में तुकनगिरि और शाहअली, दोनों सन्तों की स्पर्द्धा से हुआ था। तब से वह रियासतों के दरबारों में आश्रय पाकर इस कालखंड में उत्कर्ष तक पहुँची।
लावनी को एक प्रकार का छन्द, ग्राम्य गीत और उपराग कहा गया है। संगीतज्ञ उसे देसी राग के अन्तर्गत मानते हैं, जिसे ग्राम्य राग भी कहते हैं और जो अंचलों के भिन्न होने से भिन्न नाम धारण करे (देशे देशे भिन्न नाम तद्देशी परम्परा और इतिहास गनगुच्यते)। लावनी का विकास तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम चरण में उसका स्वरूप पूरी तरह दार्शनिक था, जिसमें तुर्रा और कलगी के दो दल ब्रह्म और शक्ति का पक्ष लेकर दार्शनिक संवाद से प्रेरित लोकगायकी की प्रतिद्वन्द्विता किया करते थे। दूसरे चरण में भोगविलास की पृष्ठभूमि के कारण लावनी शृँगार से जुड़ी तथा तीसरे चरण में अर्थात् पुनरुत्थान और आधुनिक काल लावनी के विषयों में विविधता आ गई। यहाँ तक कि राष्ट्रीय लावनी भी अधिक संख्या में लिखी गईं।
पुनरुत्थान-काल के सैरकार और लावनीकार इस कालखंड के सैरकार और लावनीकार के रूप में पहला नाम गंगाधर व्यास (1842-1915 ई.) का आता है। उन्होंने सैर और लावनी की फड़बाजी को उत्कर्ष प्रदान किया। छतरपुर में उनके नाम से व्यास दल बना और उनके समकालीन परमानन्द पांडे ने पांडे दल बनाया।
दोनों दलों में साहित्यिक प्रतियोगिता होती थी। इसी समय मऊरानीपुर में दुर्गा प्रसाद पुरोहित ने अपना दल खड़ा किया था। इस दल के साथ भी व्यास दल की प्रतियोगिता हुआ करती थी। प्रतियोगी दलों के मंडल आमने-सामने बैठकर प्रश्नोत्तर शैली में स्पर्द्धा करते थे।
प्रथम दल वन्दना के सैर के बाद सैर में ही काव्य-लक्षण, नायिका भेद अथवा किसी पौराणिक या विवादी विषय (जैसे कलम और कृपाण) के सम्बन्ध में प्रश्न करता है, जिसका उत्तर सैर में ही दूसरे दल को देना पड़ता है और वह दूसरे सैर के द्वारा प्रतिप्रश्न भी करता है। इस प्रकार प्रश्न-उत्तर एवं प्रतिप्रश्न-प्रति उत्तर चलते रहते हैं।
जो दल उत्तर नहीं दे पाता, पराजित समझा जाता है और विजयी दल विजय के उपलक्ष्य में गणेश-पूजन करने के बाद विसर्जित होता है। कभी-कभी यह गम्मत दो-तीन रातों तक चलती रहती है। प्रत्येक गायक दल का एक कवि अवश्य होता है, जो फड़बाजी के समय किसी भी प्रश्न के उत्तर में सैर की रचना करने में समर्थ होता है।
गंगाधर व्यास के गुरु मऊरानीपुर के बालमुकुन्द दर्जी थे और उनके शिष्यों में प्रमुख रामदास दर्जी और दसानन्द थे। मऊरानीपुर के दुर्गा पुरोहित और गणपति प्रसाद चतुर्वेदी इस समय के प्रमुख सैरकार थे। इस समय के प्रमुख लाउनीकार भी गंगाधर व्यास जी थे, जिन्होंने लावनी की फड़बाजी को जाग्रत किया।
सैरकाव्य-सम्पदा और उसका वर्गीकरण
फड़ के मुखिया कवि गंगाधर व्यास ने विविध विषयों पर सैकडों सैरों की रचना की है, जो उनके दल के रजिस्टरों में हस्तलिखित हैं। उनके शिष्यों रामदास दर्जी और दसानन्द ने भी सैरों की रचना की थी जो हस्तलिखित रूप में ही उपलब्ध हैं।
मुक्तकों के बाद प्रबन्ध भी सैरों में रचे गए, जिनमें व्यासजी के ‘रामाश्वमेघ कथा’, ‘उद्धव-गोपी-संवाद’, ‘भरथरी-चरित्रा’, ‘चन्द्रावल का झूला’ और ‘कलियुग पच्चीसी’ हैं। उनके शिष्य दसानन्द ने ‘सैर हरदौल-चरित्र’ की रचना की थी।
व्यासजी के भरथरी-चरित्र और कलियुग पच्चीसी तथा दसानन्द का ‘हरदौल-चरित्र’ प्रकाशित हो चुके हैं। मऊरानीपुर के दुर्गा पुरोहित और गणपति चतुर्वेदी के अगणित सैर उनके दल के रजिस्टरों में हस्तलिखित हैं। इस कालखंड की सैरकाव्य-सम्पदा का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है…
1 – मुक्तक सैरकाव्य
2 – पौराणिक सैरकाव्य
3 – रामपरक सैरकाव्य
4 – कृष्णपरक सैरकाव्य
5 – अन्य देवपरक सैरकाव्य
6 – काव्य-लक्षण-परक सैरकाव्य
7 – नायिकाभेदपरक सैरकाव्य
8 – विविध लौकिक विषयपरक सैरकाव्य
9 – प्रबन्धात्मक सैरकाव्य
10 – रामपरक प्रबन्ध – रामाश्वमेध कथा
11 – कृष्णपरक प्रबन्ध उद्धवगोपी-संवाद
12 – लोकाख्यानपरक प्रबन्ध – भरथरी-चरित्रा, चन्द्रावल का झूला, हरदौल-चरित्र
13 – वर्णनात्मक प्रबन्ध – कलियुग पच्चीसी
रामपरक मुक्तक और प्रबन्धात्मक सैरकाव्य
रामपरक मुक्तक सैरों के विषय रामजन्म, बधाई, नामकरण, अहिल्योद्धार, जनकपुर-आगमन, धनुष-भंग, राम-विवाह, बरात, वन-गमन, केवट प्रसंग, मारीच-बध, सीता-हरण, जटायु-वध, शबरी की भक्ति, बालि-वध, सुग्रीव एवं हनुमान का मिलन, सीता की खोज, अशोक वाटिका में हनुमान, सेतुबन्ध, रावण-मन्दोदरी-संवाद, अंगद-रावण-संवाद, लक्षण-मेघनाथ-युद्ध, लक्ष्मण को शक्ति लगना, रावण-वण, राम का राज्याभिषेक आदि।
इन प्रसंगों पर वाल्मीकि रामायण और रामचरित्रामानस का प्रभाव है और संवादों पर रामचन्द्रिका का। रामाश्वमेघ तथा सैरप्रबन्ध के रूप में अनुपम कृति है। उसमें रामचरितमानस की तरह मंगलाचरण का विस्तार है। राम के चरित्रा-चित्राण में उदात्ता है। प्रबन्ध में वीर, रौद्र, बीभत्स, शान्त, शृँगार और हास्य रसों की अभिव्यक्ति मिलती है। अलंकरण के प्रयोग सहज ही चमत्कार उत्पन्न करते हैं। यहाँ रामाश्वेघ से ही दो उदाहरण प्रस्तुत हैं…
1 – छूटो है बान साइक सें चलो रिसभरा।
प्रगटी अनल प्रचंड उठी ज्वाल झरझरा।
सर पंजर कर छार जाइ कटक में परा।
रथ जरत है जराऊ अभरन अमित जरा।।
2 – सब सत्रा जीत लैहों तोरे प्रभाव कें।
संग्राम करें रैहों तुव सुयस छाय कें।
सत्रान की सकल सेना दैहों भगाय कें।
मानिन को राज लैहों छिन में छुड़ाय कें।
कहँ ‘गंगाधर’ कौतुक दैहों दिखाय कें।।
पहले सैर में अग्नि की ज्वालाओं सेना, रथ आदि का जलना ‘भय’ को उद्दीप्त करता है, जो भयानक का स्थायी भाव होने से रस की अभिव्यक्ति करता है। यह दमन-पुष्कल-युद्ध प्रसंग से लिया गया और भावशबलता की भी बानगी प्रस्तुत करता है। दूसरा उदाहरण राजा राम के यह कहने पर कि ‘जो बीर होय बीरा लेबै उठाइकें’ भरत का पुत्रा पुष्कल का कथन है, जो ‘उत्साह’ भाव को संचारियों से सम्पुष्ट कर रसानुभूति तक पहुँचा देता है। बीरा (पान के बीरा) एक स्वर्णथाल में रखकर चुनौती देने की प्रथा बुन्देलखंड की अपनी है, जिसे गंगाधर व्यास ने भी संकेतित किया है।
कृष्णपरक मुक्तक एवं प्रबन्धात्मक सैरकाव्य
बुन्देलखंड की संस्कृति कृष्णपरक अधिक है, इसलिए सैरों में भी कृष्णकथा विषयक सभी प्रसंग प्रवेश पा गए हैं। दूसरे इस युग में ब्रजभाषा और भक्ति एवं श्रृँगार के आराध्य कृष्ण की प्रतिष्ठा के कारण भी कृष्णपरक मुक्तकों की संख्या सर्वाधिक है। उनमें कृष्ण के जन्म से लेकर द्वारिका की लीलाओं तक का व्यापक कथाफलक समाविष्ट है, जिसमें एक ओर वात्सल्य से सिंचित बाललीलाएँ हैं, तो दूसरी ओर शृँगार से अंकुरित और पल्लवित प्रेमपरक लीलाएँ हैं।
इसी प्रकार पूतना से लेकर कंस, और शिशुपाल-वध तक के उत्साह से उद्बुद्ध वीररसपरक वर्णनों की परम्परा है, तो दूसरी ओर रक्मिणी-विवाह, जाम्बवती, सत्या, भद्रा आदि और बन्दी राजकुमारियों से विवाह तथा गार्हस्थिक एवं पारिवारिक लीलाएँ हैं। उद्धव-गोपी-संवाद में भ्रमरगीत की लोकपरम्परा की स्थापना हुई है। इस प्रकार कृष्णकथा के सभी प्रसंग सैरों में ढलकर लोकप्रसंग बन गए हैं। यहाँ मुक्तकों की भावुकता के दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं…
दोहा-
1- स्यामा की गति स्याम बिन, जैसें जल बिन मीन।
जब टेरी बंसी बजा, अब हित करतज दीन।।
सैर- तज दए तमोर दाँतन मिस्सी ना धारी।
अँसुआ प्रवाह नैनन सें बहत पनारी।
काजर दृगन बिसारो, बेनी न समारी।
नन्दलाल बिना ऊधौ, जा दसा हमारी।। टेक।।
2 – ब्रज बधुन बीच अपनो वह ज्ञान बताबै।
समझाय जोग मारग की बात चलाबै।
कहें ‘गंगाधर’ तब ही अभिमान भुलाबै।
जो ब्रजहिं जाय ऊधो तो भक्त हो आबै।।
पहले उदाहरण में राधा का शृँगार त्यागना, निरन्तर रोते रहना आदि से कृष्ण के वियोग में उन्माद दशा की व्यंजना की गई है। दूसरा सैर उद्धवगोपी-संवाद से लिया गया है, जिसमें कृष्ण द्वारा ऊधव को ब्रज भेजने का उद्देश्य वर्णित है।
अन्य देवपरक सैरकाव्य
सैरों में सभी प्रमुख देवियों और देवों की बन्दनाएँ हैं। गंगाधर व्यास ने पुराणों में वर्णित चौबीस अवतारों की कथाएँ सैरों में गूँथ दी हैं। उनके द्वारा रचित ‘गज पच्चीसी’ में गज-ग्राह की कथा का वर्णन है। महाभारत की प्रमुख घटनाओं के प्रसंग सैरों में मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं द्रोपदी चीर-हरण, चक्रव्यूह, भीष्म-प्रतिज्ञा आदि।
काव्यलक्षणपरक एवं नायिकाभेदपरक सैरकाव्य
गंगाधर व्यास आचार्य कवि थे, अतएव उनके सैरों में काव्य के लक्षणों का निरूपण हुआ है। रस और उसके अवयव तथा अलंकार आदि की व्याख्या संस्कृति के काव्यशास्त्रा के अनुसार की गई है। सैरकाव्य में ककहरा, दुअंग, चुअंग, छैअंग, अठंग, निरोष्ठ आदि के चमत्कार मिलते हैं, जिनके कई उदाहरण सैरों में दिए गए हैं। इसी तरह पक्षी, पेड़, आभूषण की जिला, अन्तर्लापिका एवं बहिर्लापिका आदि की भी बानगी सैरों में मिलती है।
नायिका-भेद पर आधारित सैरों की संख्या बहुत अधिक है। नायिका के रूप, नखशिख, सोलह शृँगार और द्वादश आभूषण के वर्णन की शास्त्राय परम्परा का अनुसरण भी सैरों में हुआ है। स्वकीया, परकीया और गणिका नायिकाओं के भेदों एवं उपभेदों में सैरकाव्य के लोककवि बहुत कुशल थे। छतरपुर की एक प्रतिद्वन्द्विता में गंगाधर के एक झूमका में नायिका-भेद के प्रश्न पर दूसरा दल उत्तर नहीं दे सका था। प्रश्न के उलझे स्वरूप को देखें…
दोहा
एत के रहै सनेह में, सुखिया कहो न कोय।
प्रेम करै परपुरुष सें, परकीया ना होय।।
सैर – सम लाज काम मध्या ना जानों कोई।
धन चाहै पर गनका ना कहियो ओई।
प्रौढ़ा न कहो रत कों चाहत है समोई।
कर रहत मान पत सें माननी न होई।। टेक।।
बचनन में चतुर बचन बिदग्धान जोई।
खंडिता नहीं पत की रत चिहून लहोई।
चित चही बात चाहत ना मुदिता गोई।। टेक।।
उकवाव दरस काज उक्ता ना होई।
जोबन का ज्ञान जातजोबना ना होई।
रत की न चाह रंचक नवोढ़ा न तकोई। टेक।।
कर रही कलहन्ता कल रतन छछोई।
नायिका कहो कौन जुरे दंगल दोई।
कहें गंगाधर कस्यप की बुद्धि टटोई। टेक।।
विविध लौकिक विषय-परक सैरकाव्य
लौकिक विषयों में अनेक सामाजिक, नैतिक और सामाजिक विषय सैरों में वर्णित हैं। प्रकृतिपरक सैरों में बुन्देलखंड की प्राकृतिक सुषमा और पारिवारिक एवं लोकोत्सवी सैरों में लोकसंस्कृति के चित्रा बोलते प्रतीत होते हैं। प्रकृतिपरक सैर का एक उदाहरण देखें…
दोहा
लाली डाली सुमन की, ना बनमाल लसन्त।
बनमाली आली न यह, है छबिवन्त बसन्त।।
सैर बंसी की नहीं तान कोकिलान कलावन्त।
बनमाल है न फूलजाल जानिए अनन्त।
बौरे रसाल हैं न मोरपक्ष छटावन्त।
ब्रजकन्त हैं न आली छबिवन्त है बसन्त।। टेक।।
उक्त चरण की तरह ही शेष तीन चरण भी भ्रान्तापन्हुति के चमत्कार से पोषित हैं। लोकाख्यानक सैर-प्रबन्ध गंगाधर व्यास द्वारा दो प्रबन्ध भरथरी-चरित्रा और चन्द्रावल का झूला तथा उनके शिष्य दसानन्द द्वारा रचित हरदौल-चरित्रा, तीनों प्रबन्ध सैरों में लिखे गए हैं। भरथरी चरित्रा में 113 सैर, 25 दोहे और 22 सोरठे हैं। इस सैर-प्रबन्ध की रचना सं. 1948 वि. (1891 ई. के लगभग) हुई थी। इसका प्रकाशन व्यासजी के शिष्य रामदास दर्जी ने कराया था।
इस प्रबन्ध की कथा नाथपन्थी कथा से मिलती-जुलती है। उज्जैननरेश गन्धर्व सैन के तीन पुत्रों में सबसे छोटे थे भरथरी। उनके तीन विवाह हुए थे। एक बार पारधी की पत्नी को सती होते देख अपनी पत्नी की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने अपनी मृत्यु की झूठी खबर रानी पिंगला के पास भेजी, जिसने राजा के वियोग में प्राण त्याग दिए। पिंगला की मृत्यु से राजा भरथरी अति दुखी हुए।
कवि ने इसके उपरान्त शिकार की घटना की योजना की है, जिसमें मृत हिरन के वियोग में हिरनियाँ राजा को शाप देती हैं। भरथरी गुरू गोरखनाथ से भेंट करते हैं और उनके द्वारा मृग के पुनर्जीवित करने पर उनके शिष्य बन जाते हैं। गुरू की शर्त यह थी भरथरी अपनी पत्नी श्यामदे से माता कहकर भिक्षा माँगे। रानी के योगी होने से राजा को रोकने के प्रयास असफल हुए और भरथरी को शिष्यत्व प्राप्त हुआ। एक उदाहरण द्रष्टव्य है…
लै थार हाथ भिक्षा दैबे कों डगरी।
सोरहु करें सिंगार रूप गुन में अगरी।
जेबर पड़े जड़ाऊ जड़े हीरा नग री।
मुख ससि समान जोत रही पूरन जग री।।
जग रही जोत जगर मगर बाहर आई।
परदा दिखाय जोगी को दई दिखाई।
राजा ने लखी रानी जब सजी सजाई।
जानै है हमें बेग देव भिक्षा माई।।
भिक्षा दे बेग देर भई हमको भारी।
ये बचन सुनत रानी नें झरप उघारी।
नख सिख से सकल सूरत राजा की निहारी।
धरनी में गिरी झमा खाय हाय पुकारी।।
चन्द्रावल का झूला दूसरा सैर-प्रबन्ध है, जो ‘आल्हा’ गाथा की कथा के आधार पर रचा गया है। उसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है। आल्हा-ऊदल के महोबा से राजा परमाल द्वारा निष्कासन के बाद राजकुमारी चन्द्रावलि सावन तीज को नौलखा बाग में झूलने की हठ करने लगी।
आल्हा-ऊदल की कन्नौज में रहने की खबर पाकर दिल्ली में राजा पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण कर दिया। उधर कन्नौज में आल्हा-ऊदल ने सपने में देखा कि उनकी बहिन पर संकट आ पड़ा है, तो वे योगियों के वेश में अपनी सेना के साथ महोबा आ गए। उन्होंने चन्द्रावलि को नौलखा बाग में झूला झुलाया और पृथ्वीराज चौहान को खदेड़ दिया।
कथा-योजना में कवि की कोई मौलिक उद्भावना नहीं है और आल्हा गाथा जैसा ओजत्व एवं विषय की लोकप्रियता से रीझकर ही कथा को सैर विधा में ढालने का प्रयास किया गया है। तीसरा सैर-प्रबन्ध कवि के शिष्य दसानन्द द्वारा रचित ‘सैर हरदौल-चरित्रा’ है, जिसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है। ओरछा राज्य के नरेश महाराज वीरसिंहदेव के नौ पुत्रा थे, जिनमें ओरछा की गद्दी पर थे राजा जुझार सिंह और लाला हरदौल उनसे छोटे थे। जुझार सिंह की पत्नी रानी अपने देवर हरदौल को पुत्रवत प्रेम करती थीं। हरदौल भी उन्हें माता के समान मानते थे।
चुगलखोर ने राजा के मन में शंका भर दी, जिसके कारण उन्होंने रानी को आदेश दिया कि हरदौल को भोजन में विषय दे दे। रानी रातभर रोती रही। सबेरे नाउन द्वारा हरदौल को भोजन के लिए बुलाया। रानी बराबर रोती रहीं। तब हरदौल ने कष्ट पूछा और रानी ने सच-सच कह दिया। हरदौल ने तुरत थाल परोसने को कहा और भोजन करने के बाद उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। उनके निधन से महलों में खलबली मच गई। हरदौल के घोड़े-हाथी सब चीखकर मर गए। उनकी कथा में करुण रस साकार हो उठा है। उदाहरण देखें…
धर धीर तुरत भौजी दओ पान लगाकें।
गओ ब्याप जहर तन में हरदौल लला कें।
गौएँ हजार औ हजार मुहर मँगा कें।
करवाओ पुन्य गंगाजल लला पिला कें।।
धरनी में डरे मरे बाज मय सवार के।
अरु दल सिंगार हाथी चित्कार मार के।
दए छोड़ प्रान घसी खातन पछार के।
मर गओ महावत हन कटार धर्म धार के।।
निज धर्मा धार खासे सब मरे कहारा।
चीते औ बाघ कुत्ता भए भव के पारा।
मैना सुआ मुनइयाँ पिंजरन के मँझारा।
सब तड़फ तड़फ मर गए ना लागी बारा।।
वर्णनात्मक सैर-प्रबन्ध
कविवर गंगाधर व्यास द्वारा रचित ‘कलियुग पच्चीसी’ एक वर्णन प्रधान प्रबन्ध है, जिसमें सैरों द्वारा कलियुग के व्यवहारों पर व्यंग्य किया गया है। 23 सैरों में एक बेहया बीबी का वर्णन है, जो स्त्रियों की निर्लज्ज आधुनिकता पर चुटीला प्रहार करता है। इसकी लोकप्रियता कवि के समय अतिशयता से प्रसरित हुई और इसका प्रकाशन सं. 1997 वि. में पहली बार उनके शिष्य रामदास दर्जी ने कराया था।