बुन्देलखंड के Bundeli Loksahitya Aur Itihas का सम्बन्ध बहुत निकट का और घनिष्ट है। लोकसाहित्य में एक युग के लोक की तस्वीर रहती है, जबकि इतिहास में व्यक्तियों, विशिष्ट घटनाओं, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के समन्वित एकत्व से लोक का चित्र खड़ा होता है।
कथापरक लोकगीतों और लोकगाथाओं में जनपद की उन महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन और पात्रों का चित्राण मिलता है, जिनका इतिहास में उल्लेख तक नहीं है। यदि किसी जनपद के लोक की संस्कृति और सामाजिक स्थिति की वास्तविकता का पता लगाना हो, तो लोकसाहित्य पक्षपातविहीन होने के कारण अनुशीलन का मुख्य विषय है। इसीलिए किसी भी युग का लोकसाहित्य उस युग के सामाजिक इतिहास का मौखिक दस्तावेज है।
यह सही है कि लोकसाहित्य की उपलब्ध सम्पदा का विभाजन मोटे तौर पर आदिकाल, मध्ययुग, उत्तर मध्ययुग, पुनरुत्थानयुग और आधुनिक युग में किया जा सकता है। इतिहास में तो प्रभावशाली व्यक्ति, समुदाय अथवा घटना का उपयोग काल-चक्र के अनुसार ही रहता है।
इतिहास में प्रभावशाली व्यक्तियोंµराजाओं, महाराजाओं, बादशाहों, समाज सुधारकों, चमत्कारी सन्तों आदि के कार्यों, उनके द्वारा लिखवाए अभिलेखों और निर्मित स्मारकों तथा उनकी रचनाओं पर विशेष ध्यान रहता है, जबकि लोक-साहित्य में व्यक्ति की अपेक्षा लोक को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
दोनों में व्यक्ति देश या उसके समाज का अंग ही रहता है, पर इतिहास में वह लोक पर हावी हो जाता है, जबकि लोकसाहित्य लोक का प्रतीक बनकर ही अंकित होता है। और भी भिन्नताएँ हैं, लेकिन उन सबके बावजूद दोनों का आधार और उद्देश्य मनुष्य ही है, इस दृष्टि से दोनों का सम्बन्ध घनिष्ट रहा है।
इतिहास-लेखन का अधिकांश या तो व्यक्ति केन्द्रित रहा है या घटना केन्द्रित। व्यक्ति केद्रिन्त से लिखे गए इतिहास में पहले राजा-महाराजा या बादशाह प्रधान रहा, फिर शासक या सत्ता। घटना केन्द्रित दृष्टि में पहले युद्धों को महत्त्व दिया गया, फिर सांस्कृतिक घटनाओं को।
स्पष्ट है कि इन असाधारण व्यक्तित्त्वों, घटनाओं और कार्यों के द्वारा एक खास वर्ग का इतिहास लिखा गया था, पूरी जनता या लोक का नहीं। तीसरी दृष्टि थी जनकेन्द्रित, जिसमें समाज के शोषित वर्ग को प्रधानता मिली थी, लेकिन वह भी एक खास वर्ग के इतिहास को केन्द्र में रखकर चली। यह सही है कि किसी भूखंड का इतिहास उसके निवासियों का इतिहास होता है।
किसी एक खास वर्ग, जाति, सम्प्रदाय या धर्म का नहीं। लोककेन्द्रित दृष्टि से रचित इतिहास में किसी तरह का कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं रहता। उसके सामने पूरा लोक रहता है और इतिहासकार लोक के प्रति उत्तरदायी रहता है, जिससे न तो किसी आग्रह की तृप्ति हो पाती है और न किसी उपेक्षा की आसक्ति।
इतिहास की लोककेन्द्रित दृष्टि का सभारम्भ इतिहास को लोकसाहित्य के निकट ही नहीं ला देता, वरन् उससे आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस स्थिति में लोकसाहित्य और इतिहास एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे, क्योंकि लोकसाहित्य समकालीन लोक के जीवन, समाज, आदर्श और विसंगतियों का चित्राण करता है, जबकि इतिहास अतीत के साक्ष्यों का सहारा लेकर उनके अर्थ प्रतिष्ठित करता है।
इस रिश्ते में लोकसाहित्य इतिहास का प्रत्यक्ष साक्षी सिद्ध होता है। आश्चर्य यह है कि शासक वर्ग द्वारा अपने पक्ष में अपने यश के लिए लिखवाए शिलालेख, सनदें, ताम्रपत्रा, अभिलेख आदि प्रामाणिक मान लिए जाते हैं, जबकि पक्षपातहीन एवं लोकमान्य लोकसाक्ष्य अप्रामाणिक ठहरा दिए जाते हैं।
लोकसाहित्य की मौखिक परम्परा में जीवित लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोककथाएँ, मिथकथाएँ, जनश्रुतियाँ, लोककहावतें, लोकनाट्य आदि ऐसे साक्ष्य हैं, जो लोकमान्य होकर ही लोक द्वारा गृहीत होते हैं। उनमें कोई भेदभाव, पक्षपात और आग्रह नहीं होता। कई लोकसाक्ष्यों से इतिहास की भ्रान्तियाँ भी दूर हो जाती हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने महोबा के मनियाँदेव को मनियाँ देवी मानकर चन्देलों की उत्पत्ति गोंड़ या भर से बताई है और चन्देलों को हिन्दूआइज्ड गांड कहा है। लेकिन लोकमुख और लोकगाथाओं में मनियाँ देव (पुरुष) ही प्रचलित रहा है, मनियाँ देवी कभी नहीं। समाधान के लिए ‘जगतराज की दिग्विजय’ (रचना-काल 1722-23 ई.) की ऐतिहासिक महत्त्व की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं…
तिहि समय ऐलविल पार्श्वमणि, दै चन्देल कहि हित सहित।
मणिदेव यक्ष रक्षक सुपुनि, धन कलाप प्रतिनित्य नित।।
जब ससि चन्द्र ब्रह्म उपजाये, यज्ञ सयम धनपति तहँ आये।
पारस दै मणि देव यक्ष है, अवनी पर दरसन प्रतच्छ है।।
दोनों छन्दों में ऐलविल और धनपति यक्षपति कुबेर के पर्याय हैं, जिन्होंने पार्श्वमणि या पारस मणि के साथ मणिदेव यक्ष रक्षक के रूप में चन्देलों को प्रदान किए थे। मणिदेव या माणिभद्र यक्ष की पूजा का साक्षी चन्देल नरेश परमर्दिदेव के अमात्य और नाटककार वत्सराज द्वारा रचित ‘कर्पूरचरित’ भाग है। नागों के समय की यक्षमूर्तियाँ भरहुत और पवायाँ में मिली हैं।
यक्ष-मन्दिर जलाशयों के पास होते थे और अखाड़े भी। महोबा का मनियाँ देव मन्दिर मदन सागर के किनारे है और उसके सामने अखाड़ा एवं दीयट है। इन आधारों पर मनियाँदेव यक्षदेव ही सिद्ध होते हैं और चन्देलों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्मिथ की मान्यता असिद्ध हो जाती है।
लोकसाक्ष्यों के ही अन्तर्गत राछरे कथागीत और लोकगाथाएँ आती हैं, जोकि अंचल की ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करते हैं। उदाहरण के लिए ‘आल्हा तो लोकगाथात्मक लोकमहाकाव्य है, जिसमें चन्देल-नरेश परमर्दिदेव और पृथ्वीराज चौहान तृतीय के संग्राम का वर्णन है।
प्रसिद्ध इतिहासकार चि.वि. वैद्य ने राष्ट्र के विनाश का कारण माना है। ‘मथुरावली’ और ‘मनोगूजरी’ की लोकगाथाएँ मध्ययुग की हैं, जिनमें आक्रमणकारियों द्वारा नारियों के अपहरण और फलस्वरूप नारियों के अग्निस्नान की सम्पुष्टि होती है। अनेक लोकगाथाओं में तत्कालीन लोकजीवन और लोकसंस्कृति के विवरण मिलते हैं।
मध्ययुगीन कटककाव्यों में इतिहास के उन अनकहे प्रसंगों का वर्णन है, जिनके बिना देश के इतिहास की गुत्थियाँ नहीं सुलझ सकतीं। उदाहरण के लिए ‘पारीछत कौ कटक’ के ऐतिहासिक संकेत समझे बिना बुन्देलखंड के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम (1857 ई.) का सभारम्भ नहीं समझा जा सकता।
‘झाँसी कौ कटक’ के बिना झाँसी का संग्राम समझना भी कठिन है। बुन्देलखंड में ऐसे छोटे-छोटे युद्धों के बारे में लोकगीत या गाथा अथवा राछरे रचे गए, जिनसे मध्ययुग के इतिहास के अजाने पृष्ठ खुलते हैं। ‘छत्रासाल कौ कटक’ ‘और ‘मिलसाँय कौ कटक’ प्रत्यक्षदर्शी लोककवि के लोकसाक्ष्य हैं, जिनके विवेचन से युद्धों की सही तस्वीर अंकित होती है।
प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम को राजाओं और उच्चवर्ग के विद्रोह का नाम दिया जाता रहा है लेकिन जनपदीय बोलियों के लोकसाहित्य में जिस तरह का चित्रण हुआ है, उससे स्पष्ट है कि यह संग्राम जन-संग्राम था।
हिन्दी के शिष्ट साहित्य में इस संग्राम को चित्रित करने में जहाँ तक एक रिक्तता दिखाई पड़ती है, वहाँ बोलियों के लोकगीतों में केवल युद्धवीरों की वीरता का वर्णन नहीं मिलता, वरन् नारियों की भागीदारी और अंग्रेजों के दमन के अनेक दृश्य चित्रांकित हुए हैं। एक दृश्य देखें…
बाँदा लुटो रात कें गुइयाँ।
सीला देबी लड़ी दौरे के, संग में सौक मिहरियाँ।
अँगरेजन नें करी लड़ाई, मारे लोग लुगइयाँ।
सीला देबी को सिर काटो, अंगरेजन नें गुइयाँ।
भगीं सहेलीं सब गाँउन सें, लैकें बाल मुनइयाँ।
‘गंगासिंह’ टेर कें रै गये, भगो इतै ना रइयाँ।।
बीसवीं शती के द्विवेदी युग में राष्ट्रीयता के स्वर प्रखर थे, पर छायावादी युग में उनका अभाव खटकता है। उस काल के इतिहास और खासतौर से राजनैतिक संघर्ष एवं राष्ट्रीय आन्दोलनों का इतिहास लिखने के लिए हमें लोकसाहित्य का अध्ययन करना पड़ता है। 1920 ई. से लेकर 1942 ई. तक अंग्रेजों के दमन का सामना जब शिष्ट साहित्य नहीं कर सका, तब लोकसाहित्य ने अपनी मुखर अभिव्यक्ति से किया था।
इसीलिए लोकसाहित्य ने ही उस काल के इतिहास को भोगा है और संघर्ष में स्वयं भाग लेकर लड़ने का अदम्य उत्साह जीवित रखा है। लोकसाहित्य का गाँधी अपने सही रूप में उभरा है। हर गली-कूचे में गांधी का गीत गाया गया और आम आदमी तक गांधी की खादी, चरखा और सत्याग्रह ले जाने का श्रेय लोकसाहित्य को ही है।
किसी जनपद के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य के लोकसाक्ष्य और भी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे। उदाहरण के लिए, कारसदेव और गहनई की बुन्देली लोकगाथाओं में चरागाही समाज और संस्कृति का स्वरूप प्रतिबिम्बित हुआ है, जबकि राछरों में बहिन और भाई का आक्रमणकारियों से संघर्ष करने का वीरतापरक, लोकमूल्य उभरा है और बहिन एवं भाई के सम्बन्ध का बलिदानी रूप भी उसी का सहायक है। मध्ययुगीन लोकगाथाओं में अन्तःपुर में बन्द नारी ज्यादा मुखर हुई है।
लोकसाहित्य के सभी अंगों लोककाव्य, लोककथाओं, लोकनाट्यों आदि में पारिवारिक सम्बन्धों जातीय प्रवृत्तियों, देश-काल के विविध व्यवहारों, संस्कारों, आदर्शों, विसंगतियों, व्यक्ति की मानसिकता और सामाजिक चेतना के माध्यम से समाज की संरचना, उसके बदलाव और समस्याओं का इतिहास स्पष्ट हो जाता है। इसलिए सामाजिक इतिहास की रचना में लोक साहित्य के साक्ष्य अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
लोकसाहित्य और इतिहास के सम्बन्ध स्थिर करने में यह समझना अत्यन्त आवश्यक है कि लोकसाहित्य में न तो रचनाकार और न ही रचना-तिथि का ज्ञान रहता है। वहाँ तो केवल रचना है, जिसके काल-निर्धारण से ही इतिहास में उसका उपयोग सम्भव है। यह अवश्य है कि जनपद, उसके इतिहास, उसकी भाषा आदि से कुछ संकेत मिल जाते हैं, जो कृति का काल-निर्धारण करने में सहायक होते हैं। रूपान्तरण से कठिनाई आती है, पर मोटे तौर पर काल-निर्धारण किया जा सकता है।