बुन्देलखण्ड के छतरपुर जिले के एक गरीब परिवार में कवि श्री रामदास दर्जी का जन्म श्रावण कृष्ण पक्ष 14 विक्रमी संवत् 1937 को हुआ। कवि Aashukavi Ramdas Darji की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा छतरपुर में ही हुयी। इनमें बचपन से ही काव्य प्रतिभा दिखाई देने लगी थी। वे अपने मित्रों के बीच में पहले तुकबंदियाँ किया करते थे। फिर छतरपुर के सैर साहित्य के फड़ों का उन पर असर पड़ा और उन्होंने रीतिकालीन परम्परा में रचना करना प्रारंभ कर दिया।
वैष्णव आस्तिक … आशु कवि श्री रामदास दर्जी
कवि श्री रामदास दर्जी वैष्णव आस्तिक कवि थे इन्होंने रीति काल के कवियों की तरह देवता, ऐतिहासिक पुरुषों के ऊपर आधारित कविताएँ लिखीं। उस समय छतरपुर में कवि गोष्ठी प्रति माह होती थी जिसमें समस्या पूर्तियाँ दी जाती थीं। रामदास आशु कवि थे, वे तत्काल कविता बना देते।
पं गंगाधर व्यास रचित ‘भर्तृहरि चरित्र’ रामदास ने अपनी गरीबी अवस्था में छपवाया था यह उनकी उदारता का परिचायक है। इनके द्वारा रचित ‘हरदौल चरित्र’ अब उपलब्ध नहीं है। इनकी रचनाएँ लोककंठों में उपलब्ध हैं। कोई प्रकाशित ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। इनके दो पुत्र थे, बड़े पुत्र के पुत्र श्री बाबूलाल नामदेव छतरपुर में रहते हैं और एक पुत्र श्री विश्वनाथ नामदेव रीवा चले गये थे।
कवित्त
पाँयन के रँग को मजीठ ने न पायो रंग
रंभ खंभ जंघन की समता न होना हैं।
देख कटि जाकीं सिंह वन में निवास करैं
नाभी है गंभीर सुधा कुण्ड क्या निरोना है।।
‘रामदास’ श्रीफल उरोजन से हीन होत मुख
छवि देख दियों चन्द्र में दिठौना है।
नैन कंज नासा शुक दन्त बीज दाड़िम से
गात की गुराई तें मलीन होत सोना है।।
नायिका के पावों (पैर के तलवों) की लालिमा मजीठ के रंग से भी अधिक लुभावनी और गहरी है। कदली के तनों की सुडौलता भी उसकी जांघों के सामने लज्जित हो जाती है। उसकी कमर की सुन्दरता को देख सिंह वन में निवास करने लगे (अर्थात् लज्जित हुए) नाभि की गंभीरता अमृत कुंड को भी पीछे छोड़ देती है।
विल्व फल उसके सुन्दर कुचों के सामने श्री हीन से दिखने लगते हैं। मुख मण्डल की आभा को देखकर चन्द्रमा की सुन्दरता में भी दाग लग गया। आँखों की सुन्दरता के सामने कमल, नासिका के समान शुक की चोंच, दंत पंक्ति समक्ष अनार के बीज, देह के गोरेपन समक्ष स्वर्ण भी मलीन हो जाता है।
विकल विहाल भई तलफति भूमि परी जल
बिन होत जैसी मीनन की गत हैं
नीर दृग ढारै न सम्हारै पर अंगन के
नेह की नदी में परी डूबत तरत हैं।
‘रामदास’ ताही समै सखी समझाय रही
होत क्यों अधीर धीर काहे न धरत हैं
रुक्मनी तिहारे हेतु ऐहैं ब्रजराज जो पै
साँची तुव चरन ससोजन में रत हैं।
व्याकुलता से उसकी बुरी स्थिति हो गई है वह जमीन पर पड़ी इस प्रकार तड़प रही है जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है। आँखों से अश्रु बहा रही है, देह के वस्त्रों को नहीं सम्भाल पा रही है और प्रेम रूपी नदी में कभी डूब रही है कभी उतरा रही है। रामदास कहते हैं कि इसी समय सखी उसे समझा रही है कि इतनी अधीर क्यों होती हो? धैर्य धारण क्यों नहीं करतीं? यदि तुम्हारा उनके चरण कमलों में सच्चा प्रेम है तो हे रुक्मणि! श्रीकृष्ण तुम्हारे लिये अवश्य आयेंगे।
करमै न सोचो मोचो दृगन न अश्रुधार
बार-बार बिनबौं तिहारे पाँय पर मैं।
पर मैंने सुनी बालपन-मित्र द्वारकेस
‘रामदास’ रिद्धि जहाँ घर-घर मैं।
घर मैं न भूजी भाँग भेंट हेत दीजैं कहाँ
कहत सुदामा सौं सुदामा नार दर मैं।
दरमैं गये ते निज घर में निबैहैं प्रभु
दैहैं कछू द्रव्यमान स्वामी तुव कर मैं।
सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती हैं- हे स्वामी! आपके बार-बार पैर पकड़ विनती करती हूँ। तुम अपने प्रारब्ध के बारे में मत विचार करो और अपनी आँखों से अश्रु मत बहाओ। मैंने सुना है कि आपके बचपन के मित्र श्री कृष्ण द्वारिका के राजा हैं, वहाँ घर-घर में रिद्धि-सिद्धि का निवास है। सुदामा कहते हैं कि उन्हें भेंट में देने के लिये अपने पास कुछ भी नहीं, फिर उन्हें क्या देंगे? तब पत्नी बड़े विश्वास के साथ कहती है कि उनकी देहरी (द्वार) पर पहुँचते ही वे अपने घर में आपका निर्वाह कर लेंगे और आपके हाथों में कुछ सम्पत्ति अवश्य देंगे।
पाय दुरयोधन की सुधि जल माहिं दुरयों
पांडु-पुत्र वचन कहे हैं वीर वानी में।
त्याग भव-सिन्धु जल – सिन्धु में छिपे हों
आज गुप्त भये जिन्द से रहोगे जिन्दगानी में।
‘रामदास’ आन कर कीजे तृप्त शत्रुन
को दीजे उपहार प्रान युद्ध की निशानी में।।
नेक न लचैहो सिर धुन के पचैहौ मेरी
आँच न बचैहौ न बचैहो डूब पानी में।।
पाण्डु पुत्र ने जब यह समाचार पाया कि दुर्योधन पानी में छिपा है तो वहाँ जाकर वीरतापूर्ण वाणी में कहा – तुम भव-सागर (संसार) छोड़कर जल-सागर में आकर छिप गये हो। आज गुप्त स्थान पाकर छिप गये हो किन्तु जीवन में सदैव अमर बने रहोगे। बाहर निकलकर शत्रु से युद्ध करके उसे संतुष्ट करो और युद्ध की निशानी में अपने प्राणों का उपहार दो। यदि तुम थोड़े भी नम्र नहीं होगे तो जीवन भर सिर धुन-धुन पछताओगे। मेरी चोट से नहीं बच सकोगे, पानी में डूबकर भी नहीं बच पाओगे।
जानैं कहा निंदक प्रभाव परमेश्वर को जानैं
कहा सूम विधि दान के करन की
जानैं कहा पुरुष नपुन्सक तिया के भाव
जानैं कहा कायर कृपान मार रन की
‘रामदास’ जानैं कहा दासता को भाव मूढ़
जानैं कहा काशी क्रिया योग के जतन की
जानै कहा कीरत करैया अपकीरत को
जानैं बाँझ पीरा का प्रसूत हू के तन की।
निन्दा करने वाला व्यक्ति ईश्वर के प्रभाव को कैसे जान सकता है? कंजूस व्यक्ति दान करने का विधि-विधान कैसे जान सकता है? पुरुषत्वहीन व्यक्ति रमणी के कामुक हाव-भावों को कैसे समझ सकता है? कायर पुरुष युद्ध में तलवार के घावों और आनंद को नहीं जान सकता है?
कवि रामदास कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति दास भक्ति-भाव को क्या जानेगा? कर्मकाण्ड का विद्वान योग की क्रियाओं और उनके प्रभाव को कैसे जान सकता है? दूसरों की बुराई करने वाला व्यक्ति गुणों की चर्चा का अर्थ कैसे जान सकता है? जिस प्रकार बांझ स्त्री पुत्र-जनन की पीड़ा को नहीं जान सकती।
आज्ञा मानि पितु की अवज्ञा राज्य करवे की
देवन के काज की प्रतिज्ञा कर मन में।
निज कुल-रीति की सुरीति प्रतिपाली सदा
नीति युत राखी प्रीति जानकी लखन में।
गोदावरी पास पच्चवटी में निवास कियों
निश्चरी लुभानी देख रूप के रतन में।
सूर्प नखा नाक-कान काट के पठाई लंक
मानौं राम रावनै चुनौती दीन्हीं वन में।।
कवि रामदास भगवान राम के चरित्र का बखान करते हुए कहते हैं कि पिता की आज्ञा पाकर, राज्य का त्याग करके देवों के कार्यों हेतु रघुकुल की मर्यादाओं का पालन करते हुए भगवान राम ने सदा जनकसुता सीता तथा भाई लक्ष्मण से प्रीति जोड़े रखी। गोदावरी के निकट पंचवटी में वास करते समय राक्षसी सूर्पनखा अपने रूपजाल से उन्हें लुभाने आयी तो उसकी नाक-कान कटवाकर जंगल से ही रावण को राम ने चुनौती दे दी।
चले गये करके सपूती पुत्र पारथ के
कौरव कपूत के अधर्म से दले गये।
दले गये चक्रव्यूह बीच महाभारत में
पाण्डव दुशासन-अनीति सों छले गये।
छले गये राजा बलि तीन पग भूतल दै
बावन स्वरूप धार श्री पति भले गये।
भले गये धर्म की ध्वजा को रोप ‘रामदास’
धन्य-धन्य वीर नाम करके चले गये।
पार्थ पुत्र वीर अभिमन्यु को कौरव कपूतों द्वारा छल से मारा गया। पाण्डव भीम दुशासन की अनीति से छले गये। राजा बलि को भी वामन अवतार रखकर लक्ष्मीपति विष्णु ने छला किन्तु इन सभी ने धर्म अर्थात् नैतिकता की पताका फहराकर अपना नाम अमर कर लिया।
बरसे न बसुन्धरा गोकुल की, मन में डरपी बिजुरी दरसे
दरसे घन कारे मयूर नचे, तब चातक बोल लगे सरसे।
सर से हम ‘दास’ लगे उनको, कुबजा मिली जा दिन से हरि से
हरसे मन क्यों घनश्याम अरी, दरसे कहूँ पै औ कहूँ बरसे।
कवि कहता है कि गोकुल की धरा पर पावस के मेघ न बरसें क्योंकि घटाओं के कारण चमकने वाली बिजली से मेरा मन डरता है। काले मेघ देखकर मोर नचते तथा चातक पिउ-पिउ करते हैं। कवि रामदास कहते हैं गोपिकायें कहती हैं कि जिस दिन से कुब्जा कृष्ण से मिली तभी से घनश्याम वहीं के हो लिये। अर्थात् रसवर्षा तो वहीं हो रही है। कहा जा सकता है कि घनश्याम अर्थात् काले मेघों के दर्शन यहाँ (गोकुल में) हो रहे हैं और वर्षा वहाँ (मथुरा में) हो रही है।
टूटे करवाल के सकोप अभिमन्यु भयो कर
माहिं रथ चक्र लीन्हों खीच छन में।
चहूँ दिस धावें सामें बचन न पावें कोऊ
वीरन विदारें औं सिधारें सैन रन में
व्यूह मध्य एक ही अनेकन को मारें मान
‘रामदास’ कौतुक दिखावें क्षत्रियन में
होकर सरोष निरशंक हो चलावे चक्र
हौंस पार्थ-पुत्र के समानी यही मन में।।
अभिमन्यु की वीरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि तलवार के टूटने से क्रोधित हो अभिमन्यु ने क्षणभर में रथ का पहिया हाथ में उठा लिया। उस चक्र को शस्त्र के रूप में प्रयोग करते हुए वह चारों दिशाओं में दौड़ते हुए कह रहा है कि आज मेरे सामने कोई बच नहीं सकेगा। मैं सभी को स्वर्ग का रास्ता दिखाऊँगा। चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु को अनेक वीर घेरे हुए हैं। किन्तु फिर भी वह क्षत्रियोचित संघर्ष कर रहा है। अभिमन्यु के मन में यह चाह है कि वह इस चक्र से सभी को पराजित कर दे।
हरदम देखा करते हैं रूप यार ही का
नाम भगवान कै लिवैया नर थोड़े हैं।
वे तो प्रात शाम करैं दरश दिवालन में
हम दिन-रैन रहैं मित्र के कनोड़े हैं।
भक्ति भगवान की सदैव करते हैं पर
‘रामदास’ देखे बहु निपट गपोड़े हैं।
लगन लगी है मेरी तैसी न लगाते वह
दिल्लगी उड़ाते ऐसे निंदक निगोड़े हैं।
कवि रामदास कहते हैं कि सांसारिकता में लिप्त रहते हुए प्रेमी/प्रेमिका का गुणगान करने वाले संसार में बहुतायत हैं जबकि भगवान को स्मरण करने वाले लोग कम हैं। वे सुबह शाम मन्दिर में दर्शन न कर मित्रों के साथ यारी करते हैं। भगवान की भक्ति न करके मात्र गप्पे हाँकते हैं। जैसी लगन प्रभु से मुझे लगी वे वैसी नहीं लगाते उल्टे मेरी निन्दा करके खिल्ली उड़ाते हैं।
श्री वृष भानजा कौं मुख चन्द्र
सदैव चकोर है, चाहने वाले।
गोकुल वासन को घनश्याम सो
चातक प्यास बुझाहवे वाले।
ते ब्रज राज भये कुबजा-बस
ऊधव ! गोपिन डाहने वाले।
ऐसे सनेही सनेह सनें उत
वाह वा प्रेम निबाहने वाले।
वृषभान पुत्री राधिका का मुख चन्द्रमा है और उसके दर्शन करने वाले चातक कृष्ण हैं। गोकुल के निवासियों को घनश्याम जैसा चातक मिला है। जो सभी की पिपासा को तृप्त करता है। जबसे वे (कृष्ण) ब्रजराज हो मथुरा में कुब्जा के पास जाकर गोपियों से ईष्या रखने वाले ऊधव के बस में हो गये हैं तब से गोकुल को भूल गये हैं। कवि व्यंग्य करता हुआ कहता है कि वाह ऐसे ही क्या प्रेम का निर्वाह किया जाता है?
ग्रीष्म की गरिमा गर्माई उपचारन में
पावस में प्रानन पै परी कठिनाई है
शरद की शोभा दिखाई तना देरको
दरद घटों न वरी पीरा की अबाई है
पता नहीं लगो खरे कान्त को हेमन्त में
शिशिर के शासन में देह पियराई है।
‘रामदास’ वरनै फागुन की फाग आई
तबै सुनी छतरपुर में बसन्त की अवाई है।
(उपर्युक्त सभी छन्द श्री दीनदयाल नामदेव के सौजन्य से)
विरहिन नायिका कहती है कि ग्रीष्म ऋतु की गर्मी उपचारों में बीती। वर्षा में प्राणों की पड़ी रही। शरद की शोभा थोड़ी देर को दिखी और इसमें पीड़ा घटी नहीं बल्कि बढ़ी ही। हेमन्त में पति का पता नहीं लगा, कहाँ रहे? शिशिर में शरीर पीला पड़ गया। रामदास कवि कहते हैं, सुना है कि फागुन में फाग के आते ही बसंत का आगमन छतरपुर में हो गया है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)