चरखारी राज्य के संस्थापक राजा श्री खुमान सिंह के भाई श्री पृथ्वी सिंह की चौथी पीढ़ी के Kavi Jujhar Singh के पुत्र श्री मलखान सिंह (1880-1933 ई.) चरखारी के राजा रहे। चरखारी नरेश मलखान के पिता होने के कारण नृपति जुझार सिंह लिखा गया है। कवि जुझार सिंह के चरखारी नरेश के पिता होने के कुछ प्रमाण मिलते हैं।
कवि जुझार सिंह… “नृपति जुझार सिंह”
पंगोरेलाल तिवारी ने चरखारी के राजाओं का निम्नांकित क्रम दिया है…।
खुमान सिंह संवत् 1821 (सन् 1764) में गद्दी पर बैठे। विजय बहादुर (विक्रम सिंह) सं. 1860 (सन् 1803) में, रतन सिंह सं. 1879 (सन् 1822) में गद्दी पर बैठे इनकी मृत्यु सं. 1914 (सन् 1857) में हुई। कवि मोतीलाल चरखारी ने अपने खण्डकाव्य प्रेम पयोधि में नृपति जुझार सिंह को गुरु के रूप में स्वीकारा है।
चक्रपुरी मम जन्म जहां छत्रसाल राज चन्द आयो है
तासु बंस भूपत जुझार सिंह पालो मोह पढ़ायौ है
भये श्याम के भक्त नीति निध जिन निज कवता बहु ग्रंथ कहे
रच सर कूप अनेक देवगृह राजधर्म सब भांत गहे
तिन सों में पूछों कछु पिंगल वने भूप सो मोह कहे
मगण नगण अरु मगण भगण गहु चरन चार सुभ अधिक कहे
कविन विवेक अनेक कहे सुभ कवता देन सकल फल की
श्री हरि चरित वरन करबे में नहि विसेष कछु पिंगल की
यह भी निश्चित है कि राजा रतन सिंह के विवाह में मोती कवि थे क्योंकि टीका के समय का कवित्त मिला है। उपरोक्त छंद से यह तो ज्ञात होता है जुझार सिंह विद्वान कवि थे और छत्रसाल के वंशज थे। मोती कवि को सान्निध्य मिलने का मतलब है वे स्वयं राजा न होंगे। अतः चरखारी नरेश के पिता होना निश्चित होता है। इनका रचनाकाल भी सन् 1800 के आसपास ही निश्चित है। वे श्रीकृष्ण के भक्त थे उनकी सभी रचनायें भक्ति रस की हैं। कवि ने अवश्य ही ग्रन्थों के रचने की बात लिखी है।
मैं तो आनंद अली आज लौ न देखो कहूँ
आप ही झूलन हार आपही झुलावै।
गरजति घन बरषति जोर कोकिल पिक वचन शोर,
तड़ित चमक चमक चहुं ओर दंपति हरषावै।।
भींजि रहे सबै अंग वसन अंग कुसुम रंग,
भूलति दोउ एक संग दिल बहार आवै।
सिंह जुझार करि विचार शोभा उर धारि धारि,
श्याम गौरि छवि निहार मदन रति लजावै।।
(श्री हरिगोविन्द घोष, चरखारी की मूल पाण्डुलिपि से प्राप्त)
हे सखि! मैंने आज तक ऐसा नहीं देखा कि झूलने वाला ही स्वयं अपने आप को झुला रहा हो। (यहाँ ऐसा ही देखने को मिल रहा कि श्री राधा-कृष्ण जी दोनों अकेले अपने आप झूल रहे हैं) बादल जोर-जोर से गर्जना के साथ वर्षा कर रहे हैं। कोयल आदि की बोली से शोर हो रहा है, चारों ओर बिजली बार-बार चमक जाती है वहाँ श्री राधा-कृष्ण की जुगल जोड़ी प्रसन्न हो रही है। उनके सभी अंग वर्षा की बूंदों से भीग रहे हैं और पुष्पों के रंगों जैसे सुन्दर वस्त्र भी गीले हो रहे हैं किन्तु दोनों एक साथ आनंद से झूल रहे हैं और हृदय में नव उमंग लिये हुए हैं। कवि जुझार सिंह कहते हैं कि श्याम सुन्दर और राधिका जी की शोभा को देखकर कामदेव और रति लजा जाती हैं।
जल शय्या मंदिर मन मोहन जलभल जलज रसाल।
मणिमय दिव्य नाव पर राजति राधा कृष्ण कृपाल।।
बसन झीन तनु सुंदर सोभित उर मोतिन की माल।
सप्त स्वरन बाजे स्वर साजे गावत दै दै ताल।।
सुर नर मुनि लखि छवि सुम बरषहि कहि जय शब्द विशाल।
सिंह जुझार चरण युग वंदति सहित लाड़िली लाल।।
(श्री हरिगोविन्द घोष, चरखारी की मूल पाण्डुलिपि से प्राप्त)
श्री राधा-कृष्ण जी पराग युक्त कमलों के निर्मल जल वाले सरोवर में मणियों से जड़ी दिव्य नाव पर बनी शैय्या पर विराजमान हैं। उनके शरीर पर सुन्दर पतले वस्त्र सुशोभित हैं और गले में मोतियों की माला है। सातों स्वरों में संगीत बज रहा है और सभी प्रसन्नता से गा रहे हैं। देवतागण, मुनिगण और मनुष्य इस शोभा को देखकर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं और जय-जयकार ऊँचे स्वर में कर रहे हैं। कवि जुझार सिंह जी कहते हैं कि मैं श्री राधा-कृष्ण के युगल पदों की वंदना करता हूँ।
पवन चलति अतिशय पुरवाई घन जल कण बरषात।
पिय पिय बोलि पपीहा बोलति सो नहिं हमें सुहात।।
जुगनू चमक दमक दामिन की चहु दिश अनल दिखात।
झिल्ली झनक परत जब कानन सो सुनि जिया डरात।।
हरष रहित उन नंद नंदन बिन बरष भई है रात।
नृप जुझार सिंह अली मिलावह खुस करहों परभात।।
(श्री हरिगोविन्द घोष, चरखारी की मूल पाण्डुलिपि से प्राप्त)
बादलों को देखते ही मन में बेचैनी होने लगती है। पुरवाई पवन तीव्रता से चलती है और घनघोर वर्षा हो रही है। चातक पिय-पिय की बोली बोल रहा है – यह सब हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जुगनू का चमकना और बिजली का कौंधना मुझे लगता है जैसे चारों तरफ आग लगी हो।
जंगल में जब झींगुर के बोल सुनाई देते हैं तो हृदय में डर लगने लगता है। नंदनंदन श्री कृष्ण के बिना आनंदविहीन यह एक रात्रि भी एक वर्ष के समान लगती है। कविवर राजा जुझार सिंह बताते हैं कि नायिका अपनी सखी से कहती है कि मुझे प्रियतम से मिला दो तो मैं सुबह होते ही तुम्हें प्रसन्न कर दूँगी।
हिडोरा दोऊ झूलत रंग भरे।
राधे सहित गुमान बिहारी छवि सौं छवि अगरे।।
कनक डोल मुक्ता लर झालर रेशम डोर हरे।
ललिता झमकि झुलावति झुकि झुकि सखियन गान करे।।
साजि साजि नर नारि नगर तें डगर डगर डगरे।
छवि अतोल लोचन भरि भरि के लाभ लेत सिगरे।।
यह आनंद देखिकर दिवतें देवन सुमन झरे।
सिंह जुझार हेतु पद पंकज सुर तरु फलनि फरे।।
(श्री हरिगोविन्द घोष, चरखारी की मूल पाण्डुलिपि से)
आनंदित होकर श्री राधिका जी के साथ गुमान बिहारी (श्रीकृष्ण जी) झूला झूल रहे हैं। दोनों के सौन्दर्य की छटा एक दूसरे से आगे ही लगती है। झूले में डोली सोने की बनी है, मोतियों की झालरे लटक रहीं हैं और हरे रंग की रेशम डोर लगी है। ललिता सखी झुकि-झुकि कर झूला झुला रही है और सखियां गीत गा रहीं हैं।
नगर के स्त्री-पुरुष सुन्दर साज सजाकर सभी मार्गों से धीरे-धीरे चले आ रहे हैं और श्री राधा-कृष्ण की असीम शोभा को नयन भर भर के दर्शनों का लाभ लेते हैं। इस आनंद को देखकर आकाश से देवता लोग फूल वर्षा में लगे। कवि जुझार सिंह के हित में श्री राधा-कृष्ण जी के चरण कमलों से कल्प वृक्ष के फल फलने लगे अर्थात् चरण कमल कल्पवृक्ष का लाभ देने लगे।
श्री हरि नें नर हरि तनु धारौ।
जानि वार तरवार दास शिर खंभ कारि कें आनि हंकारौ।
तन मन धन सों चरण शरण लखि दीन जानि प्रहलाद उबारौ।
देवन दुख मेट्यौ करुणानिधि हिरणकाशिपु उर नखन विदारौ।।
सुर सुरेश पालक प्रभु प्रगटयौ चारहु वेदन सुयश उचारौ।
राजा अखंड दियौ प्रहलादहि पुनि निज लोक माँहि पग धारौ।।
जब जब भीर परी सुर संतन तब तब प्रभु इमि आनि उबारौ।
कारज करण सिद्धि जन मन के सिंह जुझार ध्यार उर धारौ।।
(श्री हरिगोविन्द घोष, चरखारी की मूल पाण्डुलिपि से प्राप्त)
श्री विष्णु भगवान ने नरसिंह का शरीर धारण किया। जब उन्होंने देखा कि मेरे सेवक के सिर पर तलवार का प्रहार हो रहा है तो खम्भे को फाड़कर उन्होंने ललकार दी। तन, मन और धन से दीन बनकर अपने चरणों में शरण लेने वाले प्रहलाद को उन्होंने बचा लिया। करुणानिधान भगवान ने हिरण्यकश्यप के हृदय को नाखूनों से फाड़कर देवताओं के दुख को मिटाया।
देवताओं का पालन करने वाले प्रभु प्रकट हुए और चारों वेदों ने उनका यशगान किया। प्रहलाद को अखण्ड राज्य प्रदान किया फिर अपने लोक को प्रस्थान किया। जब भी संतों और देवताओं पर आपत्ति आई तब-तब प्रभु ने आकर छुटकारा दिलाया। कवि जुझार सिंह कहते हैं कि मनोकामना पूरी करने वो प्रभु का हृदय में ध्यान करिये।
व्रज वीथिनि विहरति है रसिया।
माथें मुकुट लकुट कर शोभित अधर मधुर वाजति वसिया।
हनि मुष्टिका चाणूरहि मारयो कंस पछारयौ गहि चुटिया।
राज दियौ नृप उमसेन कों उदय अस्त जह लौं शासिया।
सिंह जुझार गुमान बिहारी पद पंकज हिरदें वसिया।।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी, टीकमगढ़)
ब्रज की गलियों में श्रीकृष्ण विहार कर रहे हैं। उनके सिर पर किरीट और हाथ में छड़ी शोभा दे रही है। उनके होंठों पर रखी बाँसुरी से मधुर ध्वनि निकल रही है। उन्होंने मुष्टिका और चाणूर का वध किया तथा चोटी पकड़कर कंस को पछाड़ दिया। फिर महाराजा उग्रसेन को सम्पूर्ण राज्य दे दिया। कवि जुझार सिंह कहते हैं कि गुमान बिहारी (श्रीकृष्ण जी) के चरण कमल मेरे हृदय में बस जाय।
व्रज कच्छ मच्छ खेलैं होरी।
प्रभु वराह नरसिंह रंग रँग वामन लिय गुलाल झोरी।
परशुराम श्रीराम कुमाकुम कृष्णचंद्र कुमकुम घोरी।
श्री जगदीश ईश पिचकारी संकर्षण पुस्पन झोरी।
वाजति ताल मृदंग बीन डफ् मची फाग व्रज की खोरी।
सिंह जुझार अवतार दशहु के पद वंदति युग कर जोरी।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी, टीकमगढ़)
ब्रज में भगवान मत्स्य (भगवान विष्णु के प्रथम अवतार) और भगवान कच्छप (श्री विष्णु भगवान के द्वितीय अवतार) प्रसन्नता से होली खेल रहे हैं। भगवान वाराह (भगवान विष्णु के तृतीय अवतार) और श्री नृसिंह भगवान (श्री विष्णु का चौथा अवतार – आधे सिंह और आधे पुरुष) विविध रंग लिये हुए हैं। भगवान वामन (भगवान विष्णु ने बलि को छलने के लिए अवतार लिया था) अपनी झोली में गुलाल भरे हुए हैं।
भगवान परशुराम, श्रीराम और श्रीकृष्ण अलग-अलग पागों में केसर अथवा रोली लिये हुए। श्री जगदीश प्रभु के हाथों में सुन्दर पिचकारी और फिर श्री संकर्षण भगवान (श्रीकृष्ण के भाई बलराम) कुसुमों से झोली भरे हुए हैं। ब्रज में मृदंग, ढोलक, वीणा, डफ आदि वाद्य बज रहे हैं और ब्रज की गलियों में होली खेली जा रही है। जुझार सिंह कहते हैं कि भगवान के दसों अवतारों के चरणों की दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता हूँ।
गोवर्द्धनधारी धाम लगै गोवर्द्धन बाग सुहावनौ।
वारा मास वास तह कीन्हें ऋतु वसंत ह्यै पाहुनौ।
त्रिविध समीर कीर कल कोकिल भ्रमरन भीर लुभावनौ।
फूले तरु तरु पर तरु फूलै झूले अंमन मौर झुमावनौ।
चलति फुहारे पंच रँगवारे जनु मेघन सावनौ।
करति विहार कृष्ण राधायुत सिंह जुझार मनभावनौ।।
(डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी के सौजन्य से प्राप्त)
गोवर्द्धन पर्वत धारण करने वाले श्रीकृष्ण के धाम में गोवर्द्धन बाग अत्यन्त सुन्दर हैं। बारहों महिने बसंत ऋतु यहाँ मेहमान बनकर रहती है। शीतल, मंद, और सुगंध युक्त पवन चलती है, कोयल और तोते की मधुर बोल सुनाई देते हैं, भ्रमरों के समूह आकर्षित होकर यहाँ भ्रमण करते हैं।
वृक्षों पर पुष्पों की शोभा देखने को मिलती है। आम के वृक्षों पर आम की बौरें झूल रहीं हैं। श्रावण माह की तरह छाये मेघों से हल्की सुखदायी पांच प्रकार की फुहार आनंद दे रही है। कवि जुझार सिंह कहते हैं कि ऐसे में मनमोहन श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ यहाँ बिहार कर रहे हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)