Bundeli Aadhunik Shrigarparak Lokkavya श्रृंगार का भोगोन्मुखी रूप में अधिक उभरा है। उसके लिए आज के मानव-मन की रुचियाँ जिम्मेदार ठहरती हैं।आधुनिक युग मे भौतिकता के मूल्य जहाँ हावी रहे हैं, वहाँ साथ ही साथ भोग-विलास की तीव्र लालसा आंतरिक मन की धरोहर जैसी रही है। इसी वजह से श्रृंगारपरक लोककाव्य खूब फूला-फला। वैसे तो प्रेम मानव जीवन का सबसे प्रमुख आधार है और हर युग मे उसकी भूमिका रही है।
बुंदेलखंड का आधुनिक श्रृंगारपरक लोककाव्य
उत्तरमध्ययुग मे उसका साम्राज्य था, पर शास्त्रीयता की रूढ़ियों से जकड़ा हुआ। उसकी प्रतिक्रिया मे खड़ा हुआ लोकसहज लोकसिंगार। वस्तुतः भोगोन्मुखी सज्जा और श्रृंगार जितना समाज में प्रसारित है, उतना लोककाव्य मे नहीं मिलता। दो उदाहरण..।
ज्वानी सरर सरर सर्राबै, जैसें अंगरेजन को राज।
अंगरेजन को राज, जैसें उड़ै हवाई जहाज।। ज्वानी.।।
काजर दै मैं का करौं, मेरे बैसई नैन कटार।
जासें निगाह मिल जाय, हो जाय मोरो ताबेदार।। ज्वानी.।।
उमर खिंचे पै कोऊ न पूछै, ज्वानी को सिंसार।
ज्वानी सरर सरर सर्राबै, जैसें अंगरेजन को तार।। ज्वानी.।।
चली जा रई है चाल मरोरा की। टेक।।
मुखभर पान नैनन मे कजरा
नैनन भर कजरा उर गरे मे गजरा
उर कम्मर में करधौनी बोरा की। चली.।।
जब कहुँ गोरी धना जाबै बजारै
अगल बगल में ऐसे निहारै
जैसें हेरन होय चकोरा की। चली.।।…
Bundeli Aadhunik Shrigarparak Lokkavya का पहला उदाहरण आन्दोलन-काल का अर्थात् 1947 ई. के पूर्व का है, जब लोक का सारा ध्यान अंग्रेजों के राज्य की तरफ था। राज्य-लिप्सा को देखकर ही लोककवि यौवन बढ़ने को उपमित करता है। साथ ही राज्य बढ़ने की उपमा हवाई जहाज की गति से देता है। एक विशेषता यह भी है कि यह अनुभूति नायिका के स्वयं की है और यौवन की बाढ़ को उससे अधिक कौन महसूस कर सकता है।
वह नैनों में काजल देकर क्या करे, जब वे बिना काजल के ही कटार का काम करते हैं। जिससे आँखें मिलती हैं, वह उसका दास बन जाता है। यौवन सारे संसार को प्रिय है और उसकी बाढ़ अंग्रेजों द्वारा खोजे तार (टेलीग्राम) की तरह है। दूसरे उदाहरण मे श्रृंगार -प्रसाधनों से सजे रूप का चित्रण है। नयनों में काजल, मुँह मे पान का रचाव, गले मे गजरा, कटि में नूपुरवाली करधौनी तथा मरोरा की गति और चकोर की हेरन, इन सबसे नायिका का रूप निखरा है।
रूप-सौन्दर्य ही सब कुछ नहीं है, नायिका का आन्तरिक सौन्दर्य अन्तर्मन से होता है। अगर मन से गोरी नहीं है, तो काजर या रोरी लगाकर लुभाने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रेमी स्पष्ट कहता है कि….।
काजर लगाओ चाय रोरी, मन की नइयाँ गोरी।
हाँ हाँ रे मन की नइयाँ गोरी।। टेक।।
हल्की प्रीत जा छलकै भारी, रहत दिनन की थोरी रे, मन.।
तन के साँचे हम मन के साँचे, तुम तो हौ रंगबोरी रे, मन.।
संयोग में मिलन, मान-मनुहारों, प्रेमपरक क्रीड़ाओं आदि से प्रेम की व्यंजना होती है और प्रेम की उल्लसित अभिव्यक्ति सम्भव होती है। मिलन का आनन्द अलग होता है। अगर बिछुड़े पति बहुत समय बाद आकर मिले, तो वह क्षण बड़े अनमोल होते हैं। ऐसे ही मिलन का एक मर्यादित गीत सम्भवतः आन्दोलन काल का है। उसकी कुछ पंक्तियाँ…।
मोरे पूरब पिछले भाग री मोए पिया मिले फागुन में।
रंग अबीर ज्ञान की रोरी, फेंक रहे पिया भर भर झोरी
मोए धब्बा गले न दाग री मैं हो जां बेदागन मे। मोरे.।।
तो तुम पाग रँगो पिया रँग मे, मैं भी चीर रँगू तेरे रँग में।
जहाँ बजे छतीसों राग री, मैं हो जां बैरागन मे। मोरे.।।
उक्त पंक्तियों में नायिका अपने पति से मिलने को अपने भाग्य का फल मानती है। आन्दोलन-काल के जागरण से प्रभावित होने के कारण ही वह अपने प्रियतम को ज्ञान की रोरी फेंकते हुए होली की फाग खेलते बताती है और उसी के रंग में अपने को रँग लेती है। वस्तुतः वह आन्दोलन-काल की नैतिकता से बँधी हुई हैं और अपने और पति के संग को अद्वैत मानती है।
संग हमारो ऐसो गोरी जैसें जल उर मीन हैं।
हम नैना तुम जोति हमारी, बिन जोति सब हीन हैं।।
जल और मीन तथा नयन और ज्योति का जोड़ा अमिट है और इसी नैतिक शील ने परिवार को सुरक्षित रखा है। फिर भी आजादी मिलने के बाद हम हर क्षेत्र में इतने स्वतन्त्र हुए कि चाहे कोई कैसा भी मार्ग हो, उसमें जाने के लिए कोई नियन्त्रण नहीं था। इसलिए रसिकता के द्वार खुल गए और भ्रमर पूरी आजादी के साथ कलियों का रस लेने लगे। कुछ पंक्तियाँ …।
भँवरा रूप रंग को लोभी,
कलिन कलिन बिचरत बड़ो लोभी,
रस ले छल छोड़त नइयाँ। टेक।।
कपटी मीत प्रीत ना जानें,
प्रीत ना जानें मन पछतानें,
मन ले मन खोलत नइयाँ। टेक।।
गोरी धना को नओ नओ कंगना,
खनके दिन उर रात। टेक।।
छैल छबीलो गोरी को सजना,
धुन सुनकें मुस्क्यात।। टेक।।
गोरी धना रे सैयाँ ढिगु जाबै,
गलबहियाँ लिपटात।। टेक।।…
पहला उदाहरण बिलवारी गीत का है, तो दूसरा मतवारी गीत का। दोनों मे भोगोन्मुखी रसिकता है। पहले में भ्रमर के ब्याज से और दूसरे में अभिधात्मक अभिव्यक्ति से। ऐन्द्रिकता जैसे मुखर हो गई हो। लेकिन वियोग में प्रेम की अनुभूति अधिक गहरी और घनी होती है। प्रिय के विछोह से मन को चैन नहीं पड़ता। सभी काम-काज धरे रह जाते हैं, केवल प्रिया की मधुर मुस्कान और कोइल से बोल नहीं भूलते।
सुरझत नाहीं उरझ गए नैना।
समझाओ मन मानत नाहीं,
पल छिन चैन परै ना।
नहीं बिसरत मुसक्यान माधुरी म दु कोकिल से बैना।
भूलो खान पान ग ह कारज नेकउ धीर धरै ना।।
उक्त पंक्तियों मे वियोग की स्थिति मानसी है, शारीरिक नहीं। कोयल के कूकने और पुरवाई हवा चलने से मन को पीड़ा होती है। लोकगीतों मंे प्रेम की पीर की अभिव्यक्ति स्वच्छन्द है, रूढ़ियों से बँधी नहीं। इसलिए अभिधा में सीधे बात होती है ‘घर नहीं साजना मोर बदरवा बैरी भए’ और ऐसे साजन से नायिका की शिकायत है ‘नेहा लगाकें टोर गए रे, बेदरदी दगा दै चले गए रे’।
लोकगीतों में एक गीत ऐसा भी है, जिसमें प्रिया अपने प्रियतम के लिए सन्देश भेजने का कार्य शुक (तोता) से करवाती है। शुकदूत, पवनदूत, भ्रमरदूत आदि सब लोककाव्य की ही देन है। इस जनपद में तो काग के लिए भी कहा करते हैं…। ‘दूध-भात के भोजन कराहों, सोने चोंच मढ़ाहों’।
शूकदूत बनाकर प्रियतम के पास भेजने की साक्षी पंक्तियाँ…..
जाओ सुआ तुम पिया के देस,
मोरो सन्देसो कइयो रे।
दूध भात तुम खइयो रे।
सब सखियन के सैयाँ आए,
मोसें पूछें बे नईं आए,
सुनतईं मोरे नैन जाए,
सबने मोरी हँसी उड़ाई,
तुम जाकें सुआ कइयो रे। जाओ.।।
मौरे आम फूल गई बगिया,
डार डार बोले कोइलिया,
कली कली रस भौंरा लिया,
एक कली बगिया में रै गई,
तुम जाकें सुआ कइयो रे। जाओ.।।
उक्त पंक्तियों मे आम का मौरना, बगिया का फूलना, कोइल का बोलना, एक कली का एक रस सुरक्षित रहना, सब अछूते यौवन का संकेत करते हैं, जो प्रियतम की धरोहर है। इस रूप मे विरहिणी अपने प्रियतम को बुलाने का अप्रत्यक्ष आमन्त्रण भेजती है, जो भारतीय नारी के मान की रक्षा करता है।
Bundeli Aadhunik Shrigarparak Lokkavya विरह की अन्तिम परिणति उन्माद और मरण में होती है, पर लोकगीतों की जड़ तो भारतीय आशावाद में है। इसलिए लोकगीतों में मरण की दशा नहीं मिलती। इतना अवश्य है कि विरहिणी विरह-व्यथा के मारे ऐसी सूख जाती है, जैसे तेज गर्मी में नदी की जलधारा और छोटे तालाबों में तो दरारें फट जाती हैं।
लूह लपट सी सूखतई,
ज्यों नदियन की जलधार।
ताको दुख लख तलैयन के,
छातिन होत दरार।।
बारामासियों में विरह का सागर अपने ज्वार-भाटों के साथ उमड़ पड़ा है। बारहों महीनों की प्रकृति के परिवेश मे पीड़ा की निरन्तर चलती विरह-कथा एक अलग समाँ बाँध देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि विरहिणी करवट बदल-बदलकर रो रही हो। एक-दो माह की करुण कथा प्रस्तुत है…।
सुनकें असड़ा की घनघोरें
गलियन दादुर करत किलौरें
बोलन लगे पपीरा मोरें
गड़ गड़ जात तीर सी तन में हूलत जात कमानी में।
तज गए निठुर जवानी में।।
आई पूस माँव की रात जियरा थरर थरर थर्रात
मुख मे बात कही न जात
फागुन मास आम की डाली कोइल बोलत बानी मे।
तज गए निठुर जवानी मे।।
Bundeli Aadhunik Shrigarparak Lokkavya इन उदाहरणों मे विरह के उस सहज स्वाभाविक रूप की ही अभिव्यक्ति हुई है, जो भारतीय लोकनारी धैर्यपूर्वक भोगती है। उसमें कहीं भी कोई बुनावट नहीं है। अगर विरहानुभूति की तीव्रता देखना ही हो, तो इन पंक्तियों में रमना जरूरी है। ‘गड़ गड़ जात तीर सी तन में’ और ‘जियरा थरर थरर थर्रात’। इस प्रकार लोकगीतों में संयोग की कथा और वियोग की व्यथा नारी-जीवन की लोककथा है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल