Alha kathanak आल्हा कथानक

आल्हाखंड के कथानक का विस्तार अद्भुत है। उसमें आल्हा, उनके पिता और उनके पुत्र तीन पीढ़ियों की कथा को एक साथ समावेश Alha kathanak मे किया गया है। उसकी घटनाएँ मध्यप्रदेश के तत्कालीन प्रमुख राज्यों महोबा, दिल्ली और कन्नौज के विस्तृत क्षेत्र में घटित होती है। चरित काव्यों की तरह उसमें आल्हा, ऊदल, मलखान आदि वीर नायकों के जन्म से मृत्यु तक का वर्णन हुआ है।

बुंदेलखंड के लोक महाकाव्य आल्हाखंड का कथानक

यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मौखिक परम्परा के कारण आल्हाखंड के कथानक में निरन्तर विकास होता गया है और अनेक उपेक्षित-अनपेक्षित घटनाएँ और कथाएँ मूल कथानक में जुड़ती गई हैं। मौखिक परम्परा के कारण ही आल्हाखंड के कथानक को खंडों में विभाजित करना पड़ा। 

ताकि प्रत्येक खंड अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता हुआ भी नायक के व्यक्तित्व से बँधा होता है और बहुत कुछ चरित्र  काव्य का कथानक ग्रहण करता है। आल्हाखंड का कथानक-रूप गाथाचक्र जैसा भी है जिसमें कुछ पात्रों से सम्बन्धित गाथाएँ एक गाथाचक्र में बँध जाती हैं और उसका ताना-बाना नायक के चरित्र पर आधारित होता है।

कथानक-रूढ़ियों पर विचार करने से यह भी स्पष्ट होता है कि कथानक का यह ढाँचा लोककथाओं या लोककाव्यों की शैली का अनुसरण करता है जिसमें एक कथा के भीतर अनेक कथाएँ निकलती आती हैं और वे तो पात्र के या घटना के किसी विशिष्ट सूत्र से बँधी रहती हैं। तात्पर्य यह है कि अन्विति का कथानक एक विशेष प्रकार का है और उसी दृष्टि से उसकी परीक्षा उचित होगी।

वर्तमान आल्हाखंड की विविध कथाओं में कुछ आधारों पर एक तारतम्य सम्भव हो सकता है पर यहाँ इसके लिए अवकाश नहीं है। इतना निश्चित है कि चन्देल और चैहानों का युद्ध उसकी अधिकारिक कथा है और आल्हा के पिता, ऊदल, मलखान, इन्दल आदि से सम्बन्धित कथाएँ प्रासंगिक हैं। आल्हखंड में जिन कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है, उनमें से अधिकांश लोककथाओं से ली गई हैं।

जादू से सम्बन्धित रूढ़ियाँ जैसे जादू की वस्तुएँ, जादू की लड़ाई, पत्थर का जीवित हो जाना, रूप बदल देना, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियाँ जैसे पूर्व जन्म की स्मृति, रूप-गुण, श्रवण-जन्य, प्रेम-मिलन आदि संयोग और भाग्य से सम्बन्धित रूढ़ियाँ जैसे वरदान से शस्त्र की प्राप्ति, निषेध और शकुन सम्बन्धी रूढ़ियाँ जैसे शुभ शकुन या अपशकुन, मन्त्र-तन्त्र की लड़ाई आदि लोककथाओं और लोकविश्वासों पर आश्रित है।

पृथ्वीराज रासो में भी पूर्व जन्म की स्मृति, मन्त्र-तन्त्र की लड़ाई, मृत व्यक्ति का जीवित होना, रूप-गुण-जन्य प्रेम आदि कुछ रूढ़ियों का प्रयोग मिलता है। आल्हाखंड में प्रमुखतः नायक के रोमांचक और साहसिक कार्यों से सम्बद्ध कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है ताकि कथाकार उनके द्वारा कथा में चमत्कार उत्पन्न कर उसे मनोरंजक बना सके।

इन अभिप्रायों का उद्देश्य राज्य-प्राप्ति या कन्या-लाभ कहा गया है। इनके साथ-साथ प्रेममूलक अभिप्रायों की योजना भी की गई है। कुछ विद्वान इनके पीछे या तो सामन्ती वीर-युग की विलासी प्रवृत्ति को ही कारण मानने लगे हैं या फिर उनमें आध्यात्मिक भावना की अभिव्यक्ति का उद्देश्य कहते हैं पर आल्हखंड में प्रेममूलक अभिप्रायों का प्रयोग विशुद्ध लौकिक प्रेम के लिए किया गया है।

आल्हा के विवाह या नैनागढ़ युद्ध में सुनवाँ आल्हा के रूप-गुण को श्रवण कर उनसे प्रेम करने लगती है परन्तु पिता के प्रण से दुखी होकर ऊदल को सन्देश भेजती है और आल्हा को ही वरण करने का संकल्प दुहराती है जिसके असफल होने पर आजन्म अविवाहित रहने का व्रत लेती है।

चन्देल सेना का नैनागढ़ से युद्ध, अमर ढोल का भेद लेकर उसे छीनना, जोगा और ऊदल तथा भोगा और मलखान में द्वन्द्व युद्ध, देवी द्वारा अमर ढोल का फूटना, राजा अरिनन्दन द्वारा छल से आल्हा को बन्दी बनाया जाना और ऊदल का उन्हें छुड़ाना, पुनः युद्ध और चन्देलों की विजय, माहिल की छल की सलाह और भाँवरों में वार, जादू की लड़ाई, आल्हा को बन्दी करना तथा ऊदल और सुनवाँ को उन्हें छुड़ाना आदि विविध घटनाएँ हैं जिनमें रंच भर विलासिता या यौवनाकर्षण नहीं है।

विवाह की पूर्व कथा में रामचरितमानस जैसा सुनवाँ के पिता का प्रण है जिसे पूरा करने के लिए युद्ध होता है और युद्ध को लम्बा करने के लिए जादू, छल-कपट, उड़न-बछेड़ा आदि की रूढ़ियाँ रोमांचक उतार-चढ़ाव उत्पन्न करती हैं। विशेषता यह है कि सुनवाँ वीर नारी की तरह आल्हा को सहयोग देती है। आल्हा का चरित्र कल्पनापरक होता हुआ भी वीरता के आदर्श पर खरा उतरता है।

उसमें मध्ययुगीन आख्यानों के नायकों की तरह प्रेम की विलासिता और भूख अथवा प्रेम की आध्यात्मिक भावना नहीं है, परन्तु  आल्हाखंड में लौकिक प्रेम का विशुद्ध मर्यादित स्वरूप प्रकट हुआ है। एक तरफ पौरुष का शौर्य और विशालता  है तो दूसरी तरफ नारीत्व का उत्कर्ष और मर्यादा। नारी और पुरुष दोनों समान स्तर पर खड़े किए गए हैं, दोनों का सम्मान करने वाला कथानक सामन्त युग की अद्भुत देन है।

आल्हाखंड के कथानक में कथा का प्रवाह अधिक है, इस कारण पाठक या श्रोता न तो उसमें शिथिलता पाता है और न विशृंखलता। दूसरी विशेषता यह है कि समग्र रूप में आल्हाखंड का कथानक विशाल हो गया है। उसमें असाधारण ऊर्जा और ओज है तथा उसका सम्पूर्ण प्रभाव पाठक या श्रोता की समस्त चेतना को अभिभूत करने की अपार क्षमता रखता है। अस्तु केवल प्रभाव की दृष्टि से ही यह औदात्यपूर्ण कथानक महाकाव्यात्मक गरिमा धारण कर लेता है।

पात्रा-योजना
महाकाव्य के नायकत्व की पुरानी कसौटी धैर्यवान या आदर्शमयता अब अमान्य हो गई है और वहीं पात्र को नायक कहा जाता है जोकि महाकाव्य के कार्य-व्यापार में केन्द्रीय भूमिका अदा करे और पाठकों पर जिसका सर्वाधिक प्रभाव हो। इस दृष्टि से आल्हाखंड के नायक का निर्धारण आसानी से किया जा सकता है। उसमें केवल आल्हा और ऊदल ऐसे पात्रा हैं जो अपनी सफलताओं और निर्बलताओं के साथ समकक्षता को प्राप्त करते हैं।

आल्हा अतिमानवीय वीरता का प्रतीक है और धीर, गम्भीर है जबकि ऊदल मानवीय शौर्य का साकार रूप है और भावुक, प्रेमी तथा स्वच्छन्द है। आल्हा में दुर्बलताएँ कम हैं इसलिए अपनी दैवी प्रकृति के कारण पाठकों को प्रभावित करता है। वह पूरे कार्य-व्यापार का संचालन भी अपने हाथ में लिए है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने नायकत्व के लिए आल्हा को ही गढ़ा होगा। किन्तु ऊदल का व्यक्तित्व एक ओर मानवीय भावुकता और दूसरी ओर मानवीय दुर्बलता के कारण हमारे अधिक निकट हो गया है इसलिए उसमें सहज आकर्षण है जो चुम्बक की तरह खींचने की अधिक क्षमता रखता है।

दूसरी विशेषता यह है कि यद्यपि कार्य-व्यापार की कुंजी आल्हा के हाथ में है पर उसको पूरा करने वाला ऊदल ही है। यही कारण है कि हम  उलझन में फँस जाते हैं और यह महाकाव्यकार के कौशल का  एक नमूना है। यदि मानवता के गम्भीर पक्ष को केन्द्र में रखा जाए तो नायकत्व के अधिकारी आल्हा माने जाएँगे। वे दूरदर्शी, उदार और देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता के प्रतिनिधि हैं।

फिर भी एक कठिनाई यह भी है कि आल्हाखंड एक लोकमहाकाव्य है और उसके नायक को लोकगुणों से आभूषित होना चाहिए। इस दृष्टि से ऊदल का चरित्र अधिक लोकमय प्रतीत होता है। किन्तु आज भी बुन्देलखंड के लोक-मानस में आल्हा का व्यक्तित्व अधिक आकर्षणयुक्त है क्योंकि आल्हा के सम्बन्ध में इतनी किंवदन्तियाँ जुड़ गई हैं कि  आल्हाखंड का नायक आल्हा ही है।

आल्हाखंड के चरित्र-चित्रण की विशेषता यह है कि उसके मुख्य पात्र आल्हा, ऊदल, मलखान, इन्दल, जगनिक आदि सभी वीर, स्वाभिमानी, निर्भीक और क्षात्रधर्म के पालक हैं। युद्ध में विजय के चरण करने के लिए वे तभी साधन प्रयुक्त करते हैं। उन्हें सिद्धि से प्रायोजन है, साधन से नहीं। अतएव वे पूर्णतया आदर्श न होते हुए भी अपने विशिष्ट गुणों से महान हैं। राजभक्ति, देश-प्रेम, साहसिकता, पौरुष, प्रतिशोध की भावना, आत्मप्रशंसा, दृढ़संकल्प आदि विशिष्ट कुछ गुणों की मात्रा में कमी या अधिकता से उनमें विविधता आ गई।

सभी पात्रों में माहिल को एक अद्भुत व्यक्तित्व प्रदान किया गया है और अकेले माहिल के आधार पर ही हम कवि की असाधारण चरित्र-निर्मात्री प्रतिभा को देख सकते हैं। वह समस्त युद्धों का कारण है फिर भी युद्ध-भूमि से बिल्कुल अछूता है, वह सदैव झूठ बोलकर धोखा देता है फिर भी उसकी हर बात सच्ची समझी जाती है और वह चुगली में कुशल है फिर भी सम्मान का पात्र है।

नारी पात्रों में पुरुष पात्रों की अपेक्षा कवि की कुशलता अधिक दिखलाई पड़ती है। उनमें विविध रंग और रेखाएँ हैं तथा व्यक्तिगत विशेषतायें है। परमाल की रानी मल्हना की राजनैतिक अन्तर्दृष्टि, व्यावहारिक कुशलता और निश्छल सहानुभूति, सुनवाँ की साहसिकता, वीरता और दृढ़ता, बेला का पातिव्रत धर्म, दृढ़संकल्प और एकनिष्ठ प्रेम सभी उनके नारीत्व को उभारने में समर्थ है।

आल्हा-ऊदल की माँ देवल दे तो आदर्श क्षत्राणी वीर नारी और राजमाता हैं। भारतीय नारी के सभी गुण उनमें समाहित हैं, इसीलिए इतिहास में देवल दे की श्रेष्ठ और उदार देशभक्ति की तुलना में किसी स्त्री का उदाहरण नहीं मिलता।

भाव-सौष्ठव
आल्हाखंड लोकमहाकाव्य होने के कारण शास्त्रीय रूढ़ियों से स्वच्छन्द है। इसलिए उसमें परिष्कृत महाकाव्यों के परम्परित भाव-रूपों, भाव-व्यंजना और भावों की गहराई तथा सूक्ष्मता को खोजना उचित नहीं है। प्रबन्धत्व के घेरे में वह गीति-प्रधान काव्य है, अतएव उसमें भावों का सहज और निश्छल आवेग स्वाभाविक है।

आल्हाखंड भाव-सौन्दर्य हिन्दी के समस्त महाकाव्यों से भिन्न है और इसी दृष्टि से उसका मूल्यांकन सम्भव है। सामन्ती वीर युग में उत्साह और रीति ही लोक-भावों में प्रमुख थे और उन्हीं की सच्ची अभिव्यक्ति आल्हाखंड में हुई है। इसी प्रकार क्रोध, भय, घृणा, शोक आदि भावों का भी लोक-सहज रूप केन्द्रित भाव की पुष्टि  करने में सहायक है। वस्तुतः आल्हाखंड वीरकाव्य है इस लिये वीर  रस  के साथ श्रृंगार, करुण, भयानक, वीभत्स, रौद्र आदि अन्य रस अंग रूप में समाहित हैं।

नवविवाहिता रानी कुसुमा अपने पति को रण में जाने से रोकती है, पर वह वीर नहीं रुकता, तब क्षण भर के लिए उसका मन वियोग की आशंका में भर जाता है और वह कारी बदरिया से प्रार्थना करती है…
कारी बदिरया तुमको सुमरों, कोंधा बीरन की बलि जाऊँ।
झमकि बरसियो मोरे महलन पै, कंता आज नैनि रह जायं।।
आल्हाखंड में भाव की सूक्ष्मता और गहराई न होकर प्रवाह और तीव्रता है। अलंकारों का जमाव नहीं है। फिर भी उपमानों का लोकरूप हृदय को तुरन्त स्पर्श करता है ।


आल्हा की भाषा और शैली
आल्हा की हर गाथा के कई पाठ हैं, इस कारण उसके भाषा-रूप का निर्धारण कठिन है। कोई सम्पादित पाठ न होने पर मौखिक परम्परा में प्राप्त अल्हैतों के पाठों के आधार पर कुछ समान विशेषताएँ ही यहाँ रेखांकित करना उचित है। इन पाठों में लोकप्रचलित बुन्देली के सामान्य रूप का प्रयोग हुआ है।

बुन्देली का लोकप्रचलित भाषा रूप ही है, जो आम आदमी के लिए भी समझ मे आने वाला हो गया है। दूसरी विशेषता यह है कि इन पाठों में एक ही लोकधुन का प्रयोग है और अधिकांश चरणों के अन्त में डय अथवा डर आया है। डय में पूर्वकालिक प्रत्यय ‘य’ कार्य की पूर्णता और साथ ही जारी रहने का भी आभास होता है। उदारहण के लिए लपटाय, बुझाय, सुनाय आदि लपटाकर, बुझाकर और सुनाकर से लपटाने, बुझाने और सुनाने क्रिया पूरी हो जाती है। शब्दों की पुनरावृत्ति भी भाषा की प्राचीनता की द्योतक है जैसे…
बातन बातन बतबढ़ हो गई और बातन में बढ़ गई रार।
खटखट खटखट तेगा बाजै, बाजै छपक छपक तलवार।


शैली की दृष्टि से आल्हाखंड सहज और अनलंकृत लोककाव्यात्मक शैली का महाकाव्य है। उसमें कथाकाव्यों की लोकरंजक वर्णनात्मक शैली और लोकगाथाओं की कल्पनापरक रोमांचक शैली का अद्भुत समन्वय हुआ है। कथाकाव्य की कुतूहल और जिज्ञासा से पुष्ट सरल एवं स्वाभाविक सरसता तथा रोमांचक काव्य की अतिशयता और अलौकिकता से पूर्ण कल्पनापरक रोमांचकता, दोनों के योग से एक नई शैली निर्मित हुई है।

इसी प्रकार आल्हाखंड के प्रत्येक इकाई-खंड में एक दीर्घ कथात्मक प्रगति की स्वच्छन्द और मधुर रागात्मकता दिखाई पड़ती है और साथ ही समग्र रूप में प्रबन्ध की प्रभावान्विति अनुस्यूत है। अतएव आल्हखंड में शैली की नवीनता स्पष्ट है। यद्यपि उसमें आदि से लेकर अन्त तक वीर रस के प्रवाह है।

संस्कृति में जीवन
आल्हाखंड की कथावस्तु में तत्कालीन संस्कृति और जीवन का चित्रण न हुआ हो, इसे कैसे माना जा सकता है किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इसमें बारहवीं शताब्दी के भारतवर्ष और हिन्दू जीवन के आदर्श की पूर्ण झाँकी अंकित है। वास्तव में आल्हाखंड एक लोकमहाकाव्य है अतएव उसे परिस्कृत महाकाव्यों-रामचरितमानस और पद्मावत की तरह मानकर उसमें सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की खोज करना उचित नहीं है।

लोककाव्य होने के कारण उसमें सरलता और सहजता है किन्तु वैचारिक गम्भीरता का अभाव है, जीवन के यथार्थ की तीव्र अनुभूति है पर जीवन के आदर्श की अलंकृत अभिव्यक्ति नहीं मिलती। इसलिए जीवन की सम्पूर्णता और विविधता का अंश उसकी सामर्थ के बाहर की बात है, उसमें तत्कालीन प्रमुख प्रवृत्तियों एवं दरबारी संस्कृति का यथार्थ चित्र अवश्य प्रतिबिम्बित हुआ है और इसी दृष्टि से उसका मूल्यांकन अभीष्ट है।

12वीं शती के राजपूत-युग की संस्कृति के प्रमुख आधार युद्ध और प्रेम थे। आल्हाखंड में युद्धों और विवाहों के अनेक वर्णन युद्ध-वीरता और प्रेम-व्यापार के वैशिष्ट्य से भरे पड़े हैं। प्रत्येक सर्ग एक युद्ध का आख्यान है। युद्ध-वर्णन में सैन्य-सज्जा, सैन्य-प्रयाण, द्वन्द्व युद्ध, भेद लेना, शौर्य-परीक्षा, शस्त्रा-वर्णन, युद्ध के रोमांचक दृश्यों का चित्रण आदि विविध व्यापार अंकित हुए हैं।

उस समय के मानव जीवन का प्रमुख आदर्श वीरता है और व्यक्तिगत वीरता में जिस साहस, विश्वास, दर्प और गौरव की अभिव्यक्ति आल्हखंड में हुई है, वह दूसरे महाकाव्यों में विरल है। इतना ही नहीं, व्यक्तिगत वीरता के पोषण में स्वाभिमान से लेकर जन्मभूमि का प्रेम, परिवार का प्रेम, राज्यभक्ति और जातीय तथा राष्ट्रीय सम्मान की भावना तक की व्यापक भावभूमि समाविष्ट की गई है। चन्देलों और चैहानों का युद्ध एक ऐसी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय घटना है जो अकेली महाकाव्य के कथानक के लिए पर्याप्त है।

युद्धपरक संस्कृति से विवाह, प्रेम, उत्सव, विरह जैसे कोमल पक्ष दब गए है, फलस्वरूप वैवाहिक संस्कारों-टीका भेजना, बरात, एपनवारी भेजना, ज्योंनार, मंडल-पूजन, दान-दहेज, भाँवर, विदाई परछन आदि का समापन बिना युद्ध के सम्भव नहीं होता। प्रेम-व्यापार अधिकांशतः कुछ रूढ़ियों पर आधारित है।

रूप-गुण-श्रवण, शुक-सन्देश, नायक का योगी बनना, उड़नखटोला पर भाग निकलना आदि मध्ययुगीन कथारूढ़ियाँ प्रयुक्त की गई है जिसमें प्रेम में लोक-रंग और स्वच्छन्द चित्र के दर्शन नहीं होते, केवल मिलन, परिहास और नायिका की साहसिक तथा वीरता के प्रसंग नवीन हैं। नायिका का सती होना, तत्कालीन संस्कृति का प्रमुख आदर्श जान पड़ता है।

जिस प्रकार वीर पुरुष मृत्यु की सहज उपेक्षा करता हुआ रणक्षेत्रा में शोभा पाता है, ठीक उसी प्रकार वीर नारी सती होकर मृत्यु को आनन्दमय बनाती हुई चिता पर गौरव पाती है।

दरबारी संस्कृति के कुछ समवाय भी आल्हाखंड में मिलते हैं। चुगली, ईष्र्या, धोखा, छल-कपट, कंचनी का नृत्य, भेंट देना आदि प्रसंगवश यत्रा-तत्रा प्रच्छन्न रूप में बिखरे पड़े हैं। इसी प्रकार जहाँ त्योहारों, मेले और उत्सवों का वर्णन है, वहाँ जादू-टोना, मन्त्रा-तन्त्रा आदि रोमांचक तत्त्व भी नियोजित हैं।

तात्पर्य यह है कि आल्हाखंड की पृष्ठभूमि विशाल है किन्तु इसमें जीवन की विविधता नहीं है वरन् जीवन का एकांगी रूप ही चित्रित हुआ है। इस सीमित परिधि में भी वस्तु की गहराई और भावना की तीव्रता के कारण जो चित्रा अंकित हुआ है, वह अमिट है।

युद्धपरक संस्कृति के इस महाकाव्य में युद्ध का दर्शन और चिन्तन भले ही न हो पर युद्ध का व्यावहारिक धरातल अवश्य स्पष्ट हुआ है। आल्हाखंड का दर्शन वीरता का दर्शन है, उसकी संस्कृति और जीवन की व्यावहारिकता का ऐसा विराट चित्रा कभी उकेरा नहीं गया। परमाल रासो में महोबा समय के छन्द सम्मिलित है, इसलिए वह बाद की रचना सिद्ध होती है। इस आधार पर आल्हाखंड सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।

वर्तमान आल्हखंड तो प्राचीन ग्रन्थ का विकसित रूप है जिसमें स्थान और काल के भेद से परिवर्तन जुड़ते गए हैं और उसमें कुछ नवीन तत्त्व भी संग्रभित होते गए हैं। तीनों ग्रन्थों की कथावस्तु में समानता होते हुए भी बड़ा अन्तर है।

आल्हखंड ऊर्जा का महाकाव्य है। उसमें व्यक्ति की वीरता का इतना तीव्र वेग और अबाध प्रवाह है कि वह तत्कालीन परिस्थितियों और सन्दर्भों को लाँघकर सार्वकालिक और सार्वभौमिक बन गया है। उसके नायक आल्हा और ऊदल व्यक्तिकेन्द्रित वीरता की आदर्श ऊँचाई के कारण समाज की शक्ति-चेतना के स्फूर्ति-केन्द्र को गए हैं।

फलस्वरूप उसकी जीवनीशक्ति लोकजीवन की शक्ति से तादात्मय स्थापित कर चिरन्तन हो गई है। यही कारण है कि रामायण और महाभारत जैसे विकसनशील महाकाव्यों की तरह उसमें विकास की अद्भुत क्षमता है। आल्हखंड एक महाकाव्य है और जगनिक एक महाकवि।

हिन्दी काव्य पर प्रभाव
आल्हाखंड के कथांशों पर भी अनेक ग्रन्थ रचे गए हैं और रचे जा रहे हैं। यहाँ तक कि वर्तमान युग में भी उसके आधार पर गद्य और पद्य दोनों में कई रचनाओं का सृजन हुआ है। पृथ्वीराज रासो का महोबा समय, परमाल रासो, वीर विलास, आल्ह राइछौ आदि के अतिरिक्त मध्ययुग में शताधिक आल्हाखंड उपलब्ध हैं। वर्तमान काल में महोबा खंड काव्य, ऊदल नाटक आल्हा उपन्यास आदि अनेक प्रयास किए गए हैं।

आल्हाखंड की कथावस्तु का ही नहीं, भाषा शैली और छन्द-बद्ध आदि का प्रभाव भी शोध का विषय है। मध्ययुगीन वीरकाव्य-परम्परा में विशेषतया रासो ओर चरित्र काव्यों में जो सहजता, स्वच्छन्दता और लोकोन्मुखता है, वह आल्हाखंड की ऋणी है। भक्तिमूलक प्रबन्ध काव्यों में संवादों की सजीवता, प्रेमाख्यानों की कथारूढ़ियाँ, रीति- श्रृंगार परक काव्यों में नायिका-भेद-शैली आदि पर आल्हाखंड की शैली में लिखे जाने के कारण आल्हा रामायण और आल्हा भारत नामों से ही विभूषित किए गए। संक्षिप्त रूप में यह स्पष्ट है कि आल्हाखंड का प्रभाव मध्ययुगीन के ही नहीं वरन् आधुनिक युग के काव्य पर भी किसी न किसी रूप में रहा है और यह उसकी महान उपलब्धि है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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