बुन्देलखंड की ‘आल्हा’ लोकगाथा अपने असाधारण प्रभाव ओैर लोकप्रियता के कारण भारत के ‘राष्ट्रीय लोकमहाकाव्य’ के रूप में ढल गई है।Alha- Bundeli lok Mahakaavy की रचना महाकवि जगनिक ने की थी। वस्तुतः ‘आल्हा’ लोक की जीवनीशक्ति और ऊर्जा का महाकाव्य है और उसका प्रभाव व्यक्ति, समाज और समूचे लोक पर इतना अधिक है कि उसके गायन से निराशाएँ विलीन हो जाती हैं और उत्साह उमंग उठते हैं।
बुन्देलखंड का लोकगाथात्मक लोकमहाकाव्य आल्हा
‘आल्हा’ की मूल गाथा भले ही ‘‘बनाफरी बुन्देली’’ में हो, लेकिन जहाँ उसकी बुन्देली में कई वर्णनाएँ हैं, वहाँ बैसवाड़ी, कन्नौजी, अवधी, भोजपुरी, बघेली, भदावरी, ब्रजी, कोरवी आदि विभिन्न लोकभाषाओं में अलग-अलग वर्णनाओं का शृंखला है। उनमें हर जनपद के भाषाई मुहावरे के साथ लोकसंस्कृति और लोकचेतना इतनी घुलमिल गई है कि वह उस लोक की अपनी गाथा बन गई है। लोक ने उसे इतना अपनाया है कि हर गाँव में आल्हा का गायन एक अमिट संस्कार की तरह प्रतिष्ठित हो गया है।
वर्षा ऋतु के आते ही आल्हा के बोल हर गाँव-नगर में गमकते हैं और उनके साथ फड़कते हैं हर नर-नारी के तन-मन और उनके भीतरी कोने में दुबके ओज के संवेदन। ऐसी राष्ट्रीय लोकगाथा की परम्परा, उसके स्वरूप और लोकगायकी को समझना ऐसे समय में बहुत जरूरी है, जब हमारी संस्कृति पर हर तरफ से बाहरी आक्रमण हो रहे हों और हमारी अस्मिता को खतरा पैदा हो गया हो।
‘आल्हा’ गाथा परम्परा
‘आल्हा’ गाथाओं की मौखिक और लिखित, दोनों परम्पराएँ आज तक जीवित हैं और विशेषता यह है कि दोनों में जागरूकता और ताजगी है। पहली परम्परा है मौखिक, जो लोक और अधिकतर अल्हैतों में सुरक्षित है। अल्हैतों या आल्हा-गायकों की अपनी अलग-अलग परम्परा गुरु से शिष्यों तक चलती हुई आज तक बनी हुई है। यह परम्परा लोककवि जगनिक के आल्हा-गायन से प्रारम्भ हुई थी।
पहला प्रश्न है जगनिक के अस्तित्व का, जिसका साक्ष्य महोबा-समय, परमाल रासो, आल्हा, राइछौ, दलपतिराय रासो, जगतराज की दिग्विजय, करहिया कौ रायसो आदि ग्रन्थ देते हैं। दलपतिराय रासो (1707 ई.) में तो ‘‘भाट जगनक्क’’ के प्रति वही सम्मान प्रकट किया गया है, जो एक महाकवि की गरिमा के लिए उपयुक्त है। साथ ही यह तथ्य प्रचलित है कि आल्हा का रचयिता जगनिक भाट है, जो दिल्ली के चैहान नरेश पृथ्वीराज के 1182-83 ई. में आक्रमण के समय मौजूद था। राष्ट्रीय महत्त्व के इस युद्ध को लोककवि ने अपनी आँखों से देखा था, तभी उसके उपरान्त ‘Alha आल्हा’ की रचना हुई थी।
1192 ई. में तराइन के पास ऐतिहासिक युद्ध में चैहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय ने अपने प्राणों का बलिदान किया था, जिसे ‘आल्हा’ में महत्त्व नहीं दिया गया। स्पष्ट है कि आल्हा की रचना 1183 ई. एवं 1192 ई. के बीच हुई थी। इसी अवधि में जगनिक ने ‘आल्हा’ को लोक के सामने गाकर सुनाया था, जो तत्कालीन गायकों के माध्यम से लोकप्रचलित हुआ था।
लोककवि जगनिक के बाद उसके सुपुत्र जल्हण का पता महोबा-समय, परमाल रासो, वीरविलास आदि ग्रन्थों और अल्हैतों के साक्षात्कार से चला है, लेकिन अधिक-से-अधिक वह 13वीं शती के प्रथमार्द्ध में जगनिक के आल्हा को चन्देलराज्य के प्रसिद्ध नगरों तक फैला सका था। चन्देलों के पराभव के बाद मुसलमान सेनाओं के आक्रमण होते रहे। तोमरों का प्रभावशाली शासन ग्वालियर-राज्य पर 15वीं शती में गोडों का गढ़ा-मंडला राज्य 16वीं शती में और बुन्देलों का 16वीं शती से उल्लेख है। बिखरे टुकड़ों और एकता के अभाव में संकट-काल में भी ‘आल्हा’ का स्मरण नहीं किया।
आल्हाखंड में सभी युद्धों के वर्णन में कुछ ऐसी कथानकरूढ़ियों का प्रयोग किया गया है, जिनके विश्लेषण से एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। दूसरे, आल्हाखंड के विविध रूपों की वस्तु में एक अद्भुत समानता है जिसे आसानी से परखा जा सकता है। मूल आल्हाखंड की भाषा बुन्देली थी, जो तत्कालीन मध्यदेशीया के निकट एवं अपभ्रंश से दूर थी क्योंकि लोक प्रबन्ध में लोकभाषा को ही स्थान देना पड़ता है, साहित्यिक भाषा को नहीं। इसी प्रकार मूल रूप की शैली लोकगाथात्मक या लोककाव्यात्मक थी, जिसे सामने रखने से शैली में एकरूपता की पहचान हो सकती है। छन्द की दृष्टि से भी मूलरूप के निकट पहुंचने में सुविधा है।
आल्हखंड के प्रारम्भिक छन्द में उल्लेख है
श्री गनेस गुरुपद सुमरि, इस्ट देव मन लाय।
आल्हखंड बरनन करत, आल्हा छन्द बनाय।।
इससे प्रकट है कि आल्हखंड का मूल छन्द आल्ह छन्द है और इस दृष्टि से विविध पाठों की परीक्षा सम्भव है। यह कार्य श्रमसाध्य है, पर शायद इस लेखक का यह प्रत्यत्न पूरा हो सके।
आल्हा पठन गायकी
पठन गायकी का गायक अधिकतर उसी स्वर और लय में आल्हा गाता है, जिसमें मंच-गायक प्रस्तुत करता है। बिना किसी वाद्य के केवल स्वर में आरोह-अवरोह से और मध्य तथा द्रुत लयों के क्रमिक उतार-चढ़ाव द्वारा वह श्रोताओं को बाँधे रखता है। पठन कथावस्तु को सम्प्रेषणीय बनाता है और वाचिक अभिनय भाव की अभिव्यक्ति करता है।
यह पठन गायकी बुन्देलखंड में ही नहीं, उत्तर भारत के अधिकांश अंचलों के गाँवों की चैपालों, अथाइयों और घरों में प्रचलित है और इससे स्पष्ट है कि महाभारत, पुराण और रामचरित मानस की पाठ-परम्परा से आल्हा पीछे नहीं है, बल्कि गाँवों में आल्हा की यह पठन गायकी काफी पुरानी है।
आल्हा मंच गायकी
मंच गायकी वह है, जो सचेतन रूप में गायन के उद्देश्य को भी केन्द्र में रखकर मंच से गाई जाती रही है। पहले उसका प्रमुख उद्देश्य जन-जागरण था और गायकी साधन मात्रा थी। 1878 ई. तक यही स्थिति रही, पर उसके बाद लोकगायकी के पुनरूस्थान काल में आल्हागायक गायन के प्रति भी जागरूक हुए, जैसा कि गायकी के इतिहास से स्प्ष्ट है। गायकी के प्रति लगाव की वजह से आज मंच गायकी हर जनपद में अलग-अलग है।
परम्परित गायकी में आल्हा वीर या आल्हा छन्द में ही है, यद्यपि प्रारम्भ या अन्त में साखी का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः आल्ह छन्द का नामकरण आल्हा के आधार पर हुआ है, वरना वह तो एक तरह से लोकछन्द ही है और उसे छन्द-शास्त्रा में ग्रहण कर लिया गया है। कुछ स्थानों व क्षेत्रों में कुछ और छन्द जोड़ने की परम्परा है।दतिया गायकी में साखी के तोड़ और लावनी गायकी के अंग हैं, जबकि महोबा गायकी में छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि छन्द बीच-बीच में प्रयुक्त किए जाने
पर भी गायकी से एकमिल नहीं हो सके। यह बात अलग है कि उन छन्दों को बहुत कुछ लोकधुनों में ढाल दिया जाता है। सभी अंचलों में साखी की गायिकी बहुत थोड़े अन्तर से एक ही तरह की है, अतएव हम उसे पहले लेंगे, फिर प्रमुख अंचलों की गायकी को।
आल्हा गायकी में साखी का प्रयोग मंगलाचरण और घत्ता दोनों रूपों में हुआ है। बुन्देलखंड में अधिकतर मंगलाचरण के रूप में शारदा, दुर्गा या स्थानीय देवता या फिर गायक के इष्टदेव की वन्दना, कथ्य के रूप में प्रसंग की सूचना और अन्त के विराम पर साखी गाई जाती है। दतिया गायकी में तोड़ या घत्ता की तरह ही साखी को स्थान मिला है। बुन्देलखंड अंचल में दतिया का अनुसरण नहीं किया गया, वरन् परम्परित गायकी की तरह ही साखी का उपयोग हुआ है।
गायकी की दृष्टि से साखी का गायन साखी लोकधुन में होता है और महोबा गायकी में वह दिवारी गायकी की तरह गेय है। बुन्देलखंड की महोबा गायकी में तार सप्तक को स्पर्श करते हुए अधिकतर मध्य सप्तक के स्वरों का प्रयोग होता है, जबकि यहीं की दतिया गायकी में निमद्र की ओर शेष अधिकतर मध्य सप्तक के स्वर होते हैं।
अन्य लोकभाषाओं की साखी गायकी में प्रायः मध्य सप्तक के स्वर लगते हैं। साखी की लय अधिकतर विलम्बित मध्य रहती है और मृदंग या ढोलक पर ठेका बजाया जाता है। छः-छः मात्राओं के तीन विभागों अर्थात् 18 मात्राकाल में ताल पूरा होता है।
साखी गायकी को शास्त्रीय ताल और राग से जाँचना उचित नहीं है। बाद की कुछ साखियाँ कहरवा की मध्य लय में पूरी करते हुए उसी के साथ आल्हा छन्द की गायकी जुड़ जाती है, केवल दतिया गायकी में साखी के तोड़ में मध्य लय का दादरा बजाया जाता है। इस प्रकार साखियाँ जहाँ आल्हा गाथा की किसी प्रसंग की भूमिका या पृष्ठभूमिका बनाती हैं।
वहाँ गायकी का ठाठ जमाती हैं। साखियों में जिस प्रकार लोकनीति, लोकविश्वास, लोकदर्शन आदि का सटीक संपुजन श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव डालता है, उसी प्रकार उनकी गायकी भी भाव का स्फोट करती है। समग्रतः साखी हर रूप में महत्त्वपूर्ण ठहरती है।
आल्हा की गायकी
कुछ विद्वान आल्हा छन्द को ही गाथा कहते हैं, पर मेरी समझ में गाथा तो साखी और आल्ह दोनों मिलाकर मानना चाहिए। आल्ह छन्द कोई शास्त्रीय छन्द न होकर लोकधुन है, जो आल्हा से प्रचलित हुई है। परम्परित गायकी या लोकधुन देवीगीत या पँवारे के स्वरसन्दर्भ परिवर्तित कर रची गई है। पँवारे वीरगाथाएँ ही हैं और उनमें कोई-न-कोई कथा रहती है तथा कथानक लम्बा रहता है। पँवारे और आल्हा की लड़ाइयों में वस्तु और शैली की दृष्टि से कई समानताएँ भी हैं और आल्हा पुराने पँवारे का विकास ही प्रतीत होता है,
अतएव पँवारे गायकी का प्रभाव लोककवि पर अवश्य पड़ा होगा। गायकी की दृष्टि से भी कुछ साम्य है। तार को स्पर्श करते मध्य सत्पक स्वर दोनों में होते हैं। दोनों की मध्य लय है, जो बीच-बीच में द्रुत हो जाती है और दोनों में कहरवा ताल लगता है।
आल्हा की बुन्देली गायकी
बनाफरी पेटी या महोबा गायकी में कहरवा की मध्य लय में साखी गाए जाने के बाद उसी से आल्ह की पंक्ति जोड़ दी जाती है और कुछ पंक्तियों के बाद कहरवा की द्रुत लय चलती है। दु्रत की चरम सीमा पर गायक आवेश में बिना ढोलक के कवितानुमा गाता है, मंजीरा की ध्वनि और बीच-बीच में ढोलक की थाप लय के प्रवाह को निरन्तर बनाए रखती है।
कथोपकथनों या संवादों और युद्ध-वर्णनों में अधिकतर इस शैली का प्रयोग होता है। इससे वाचिक आंगिक अभिनय को काफी समय मिल जाता है और गायक स्वर या टोन की भंगिमाओं तथा नेत्रा एवं हस्त-संचालन से युक्त मुख मुद्राओं द्वारा एक अनोखी नाटकीयता प्रदर्शित करता है।
भावानुरूप स्वर-संयोजन, ‘आन्दोलन’ और ‘सुस्वरता’ का सहज उपयोग, वाचिक एवं आंगिक अभिनय का अकृत्रिम जुड़ाव आदि इस गायकी की प्रमुख विशेषताएँ हैं। प्रसिद्ध अल्हैत बच्चा सिंह और चरणसिंह ने इसी गायकी में एक नया प्रयोग किया है। दोनों गायक आल्हा की एक-एक पंक्ति बारी-बारी से गाते हैं और गायन तथा वादन में पूरा-पूरा तालमेल रहता है। गायन-शैली वही है, इतना अवश्य है कि इसमें गायक को अवकाश मिलता जाता है।
साथ-ही-साथ कथोपकथनों के स्वरों उचित नाटकीयता तथा वाचिक एवं आंगिक अभिनय की मुद्राओं के प्रदर्शन में सहज कौशल का समावेश हो जाता है। दोनों में इतिवृत्तात्मक और भावात्मक वृत्तों में स्वरों के उतार-चढ़ाव का संगत तारतम्य बनाए रखने की कुशलता भी है। विशेषता यह है कि उनकी युगल गायकी महोबा गायकी से कहीं भी नहीं हटी; वरना इस तरह के प्रयोग में परम्परित लोकशैली से बहक जाने का खतरा बना रहता है।
सायर गायकी में महोबा गायकी का अनुसरण मिलता है, पर उसमें उतना जोश और ओज नहीं है। न तो गायक के स्वर में उतना आरोह और कम्पन है और न लय में उतनी द्रुति। वह कहरवा की मध्य लय का प्रयोग करता है और थोड़े आरोह-अवरोह से निरन्तर सम में बना रहता है। दूसरे, इस गायकी में अधिकतर मध्य सप्तक के स्वर प्रयुक्त होते हैं, तार का स्पर्श नहीं रहता है।
उड़ान में द्रुत लय प्रयुक्त होती है, पर थोड़ी देर के लिए, और स्वर मध्य का रहता है। इस कारण न तो वह पुछी-करगवाँ और दतिया की गंगोले गायकी की तरह संगीतात्मक है और न महोबा गायकी की तरह ओजस्विनी। स्पष्टतया, प्रसादता, और प्रवाह की समता उसमें अधिक है।
वाचिक अभिनय के लिए कम्पन या अन्दोलन की भी कमी है। कुछ गायकों ने नए प्रयोगों से गायकी को आगे बढ़ाने का कार्य भी किया है, जो अभी उन्हीं तक सीमित है। पुछी-करगवाँ और दतिया की गंगोली गायकी अधिकतर व्यक्तिपरक है। परम्परित गायकी लीक से हटकर वे संगीतात्मक अधिक हो गई है।
असल में दतिया, ओरछा आदि रियासतों में 19वीं शती में संगीत का बोलबाला रहा है, अतएव लोकधुनों में संगीतात्मकता का प्रवेश बहुत कुछ स्वाभाविक-सा है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि उसी समय आल्हा की कथा को लेकर कुछ कवियों ने अपने प्रबन्ध भी रचे थे। दूसरे, आल्हागायक अन्य गायकों की तरह राज-दरबारों में भी गायन करने थे और उनमें होड़ की भावना आना सहज थी। इसी वजह से व्यक्तिपरक गायकी का जोड़तोड़ शुरू हुआ।
पुछी-करगवाँ के गायक शिवू दा आल्हा ही गाते हैं। उनके स्वर में लोच और मधुरता है और वे अधिकतर कोमल स्वरों का प्रयोग मध्य लय में करते हैं। तीनों गायक एक साथ गाकर समूह गायकी का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं।
दतिया की गंगोले गायकी उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध रही है और उसका एक स्कूल या घराना-सा बन गया है, जिसके पक्षकार संगीतज्ञ की राय है कि आल्हाखंड को यदि केवल ‘वीर रस’ की ही शैली में ही गाया जाए, तो उसके अन्य ‘‘रस’’ गौण हो जाते हैं तथा उनकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
दूसरे, उनका मत है कि आल्हाखंड का मूल रस-भाव निर्वेद है। दोनों तर्क गायकी का औचित्य सिद्ध करने के लिए पेश किए गए हैं। लेकिन जहाँ तक समझ पाया हूँ, आल्हा ऊर्जा का लोकमहाकाव्य है और उसका अंगीरस वीर ही है, इसलिए भावानुकूल गायकी भी ओजस्विनी होती है। शृँगार, वीभत्स, करुण रसादि गौण और वीर रस के सहायक हैं, इसी तरह उनकी गायकी भी भावानुरूप होते हुए भी गौण और ओजपरक शैली का पोषण करती हैं।
गंगोले गायकी में साखी, चैपड़ी, तोड़ और लावनी चार अंग होते हैं तथा संगत में मृदंग, करताल, सारंगी और हारमोनियम वाद्य। दादरा भी मध्य लय में साखी के तोड़ के बाद चैपड़ी भी दादरा ताल और मध्य लय में गाई जाती है। युद्धवर्णनपरक चैपड़ी तोड़ के बाद कहरवा ताल में बदल जाती है और मध्य लय के बाद द्रुत एवं फिर तोड़ से एक चक्र पूरा होता है। बीच में प्रसंगानुसार लावनी का उपयोग अक्सर होता रहता है। इस तरह इस गायकी में विविधता के साथ संगीतात्मकता भी है।
‘लावनी’ की धुन का आल्हा गायकी में प्रवेश आश्चर्य में डालता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सांगीत परम्परा (सम्भवतः नथाराम की) का प्रभाव हो। एक अल्हैत श्री मलखान ग्राम बलेसा (जिला हमीरपुर) ने लिखा था कि उनके नाना नथाराम का सांगीत आल्हा गाते थे, जो समाजों, रईसों और राजदरबारों में साज के साथ होता था। उसी के प्रचलन से आल्हा गायकी संगीत प्रधान हुई है।
गंगोले गायकी भी उसी से प्रभावित हुई थी। वस्तुतः इस गायकी को दतिया की क्षेत्रीय गायकी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह गंगोले के शिष्यों तक सीमित है। दतिया और उसके आस-पास के सभी अल्हैतों की गायकी इससे भिन्न परम्परित गायकी के निकट है। इसी तरह पुछी-करगवाँ की गायकी तीन अल्हैतों द्वारा ही अनुसरित की गई है।
गायक की दोहरी भूमिकाएँ
आल्हा लोकगायकी में गायक को अक्सर दोहरी भागीदारी निभानी पड़ती है और उसके तीन रूप सामने आए हैं।
(1) गायन के साथ वादन (2) गायन और अभिनय और (3) गायन और सृजन का दोहरा दायित्व। बुन्देली की महोबा गायकी में सभी गायक ढोलक बजाते हैं और उससे उन्हें लय के अनुरूप ताल देने में सुविधा तो होती ही है, साथ ही वाचिक अभिनय द्वारा भाव की अभिव्यक्ति में भी सहायता मिलती है।
अन्य क्षेत्रों या अंचलों के कलाकारों की शिकायत है कि गायक द्वारा वादन करने से गायन के लिए उचित अवकाश नहीं मिलता। मेरे एक संगीतज्ञ मित्रा का कहना है कि स्वयं ढोलक बजाने से गायन के दोष छिपे रहते हैं। कुछ अंचलों में गायक गायन के साथ अभिनय भी करता है। उन्नाव के गायक लल्लू वाजपेई रंगीन वेशभूषा में तलवार लेकर ओजत्व के प्रदर्शन का प्रयत्न करते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि गायक का उद्देश्य गीतत्व और अभिनय के सामंजस्य से आल्हा को और प्रभावी बनाना है।
यहाँ तो हर आल्हा गायक के पास अपना लिखित या मौखिक पाठ है, जिसे वह हर प्रस्तुति में उसी रूप में गाता है, भले ही दो-चार पंक्तियाँ हेर-फेर हों। गायक को वह पाठ 200 वर्ष पुरानी मिली है, जिसमें एक ही पाठ उत्तराधिकारी के रूप में आज तक उपलब्ध है।
दतिया के गायक कवि नवलसिंह प्रधान का और पुछी-करगवाँ के शिवू दा का आल्हा गाते हैं तथा कुछ आल्हा की पुरानी या नई पांडुलिपि चुन लेते हैं। कुछ गायक श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए रासो या अन्य किसी वीररसपरक काव्य से कुछ छन्द या एक-दो मुक्तक बीच-बीच में जोड़ देते हैं अथवा गद्यमय वचनिका से किसी प्रसंग या कथ्य की पुष्टि करते हैं।
यह भी सम्भव है कि एक अभ्यस्त और मँजा हुआ गायक भूलने पर उसकी पूर्ति के लिए अथवा अपना अतिरिक्त कौशल दिखाने की महत्त्वाकांक्षा से पाठ से मिलती-जुलती कुछ पंक्तियों का सृजन तत्काल कर देता हो, लेकिन सभी तरह की स्थितियों की जाँच के बाद यह परिणाम निकला है कि गायक अपनी प्रस्तुति या गाए जा रहे पाठ की रचना तत्काल नहीं करता। यदि इतने अल्हैतों में एक-दो मिल भी जाएँ, तो उन्हें अपवाद ही मानना पड़ेगा।
फड़बाजी
फड़बाजी और फड़काव्य दोनों में अन्तर है, फिर भी इतना सही है कि फड़बाजी से ही फड़काव्य जन्मा है और उसी के कारण लोककाव्य की वस्तु, शैली और गायकी में चमत्कार आया है। फड़बाज कवि जिस प्रकार अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन में जबरन अलंकृति का प्रयोग करता है, उसी प्रकार गायक भी प्रदर्शन प्रतिद्वन्द्विता को ध्यान में रखकर गायन-शैली में परिवर्तन करता है।
फलस्वरूप लोकगायकी की जगह व्यक्तिपरक गायनशैलियाँ पनपती हैं और लोकगायकी का महत्त्व घटने लगता है। अतएव पुरस्कारधर्मी फड़बाजी में लोकगायकी की आंचलिक कसौटी ही निर्णय का प्रमुख आधार होना चाहिए। आल्हा न तो फड़काव्य है और न उसमें फड़बाजी का कोई महत्त्व रहा है। यद्यपि 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में फाग, सेझ, मंज, लावनी आदि की फड़बाजी उत्कर्ष पर थी, तथापि आल्हा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
इतना अवश्य है कि मेलों जैसे अवसरों पर एक ही फड़ पर हर रात अलग-अलग अल्हैतों का गायन होता था अथवा अलग-अलग स्थलों पर आल्हा के दो-चार फड़ लगते थे और श्रोताओं की रीझ ही प्रतियोगिता की कसौटी थी। अब तो एक ही मंच पर गायकों के लिए समय-सीमा (यहाँ तक कि 20 मिनट) निर्धारित कर कन्नौज, बाराबंकी, महोबा आदि नगरों में पुरस्कारधर्मी फड़बाजी हो रही है, जो प्रेरणा और प्रोत्साहन का साधन तो है, पर उसके खतरों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है।
आल्हा की आंचलिक या राष्ट्रीय लोकगायकी
आल्हा अपनी अंचलगत विविध गायन शैलियों के होते हुए भी एक राष्ट्रीय लोकगायकी है। इस मान्यता की पुष्टि में पहली बात तो यह है कि उसका क्षेत्र उत्तरभारत ही नहीं है, वरन् उसका प्रचार दक्षिण भारत के कई भागों में है। दूसरे, उसकी लोकप्रियता देश और काल की परिस्थितियों को पार कर निरन्तर बढ़ती जा रही है।
आल्हा की परम्परित गायकी का लोकप्रचलन सभी लोकभाषाओं में हो रहा है जिसकी वजह से आंचलिक गायनशैलियों में समानताएँ मिलती हैं। चैथे, परम्परित गायकी को आधार बनाकर जिन व्यक्तिपरक शैलियों का विकास हुआ है, उनमें भी आत्मगत साम्य मिलता है। पाँचवें, इस गायकी में इतनी लोचनीयता है कि वह व्यक्तिगत प्रयोगों के लिए पूर्ण स्वच्छन्दता देती है।
किसी को भी किसी नियम का बन्धन नहीं लगाती। सबसे प्रमुख विशेषता है उसकी प्रभावधर्मिता, जो इतनी असाधारण है कि हर वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय के श्रोताओं को प्रभावित करती है। अतएव इतने विशाल लोक को हरदम प्रेरणा और उत्साह देने वाली गायकी को राष्ट्रीय लोकगायकी कहने में किसी को संकोच नहीं हो सकता।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल