रावला लोक विधा का आधार विदूषक और पुरुष नायिका है। बुंदेलखंड की लोकविधा रावला जातीय लोक नृत्य है। यह नृत्य धोबी, चमार, काछी, ढीमर, अहीर, गड़रिया, कोरी, बसोर , मेहतर आदि जातियों में लोक प्रचलित है। Rawla Bundelkhand ka loknritya निम्नवर्गीय जातियों के शादी-विवाहों में विशेष रूप में प्रचलित होने से रावला व्यावसायिक बन गया है।
पुरुष नायिका विशेष बुन्देलखंड की लोकविधा रावला
इस नृत्य में पुरुष पात्र ही भाग लेते हैं। एक पुरुष स्त्री का वेश धारण करता है और दूसरा विदूषक बनता है। विदूषक हास्य-व्यंग्य के माध्यम से समाज की विकृतियों की पोल खोलता है और नव चेतना का संदेश भी देता है। पुरुष नायिका के हाव भाव एवं भंगिमायें, साज सज्जा एवं वेशभूषा इतनी ज़्यादा स्त्रियोंचित (feminine) लगती है।
रावला Rawla Bundelkhand ka loknritya में किसी प्रकार का मंच की आवश्यक्ता नहीं होती है यह लोक नृत्य दर्शकों के बीच ही प्रदर्शित किया जाता है। चारों तरफ दर्शक होते हैं बीचो- बीच विदूषक और पुरुष नायिका होती है उसी के एक छोटे से हिस्से में (Accompanist) संगतकार वादक बैठते हैं। रावला की खास बात यह भी होती है यह कार्यक्रम रात्रि के भोजन के बाद शुरू होते हैं और जब तक सुबह नहीं होती तब तक चलते रहते हैं।
रावला की विशेषता
रावला की विशेषता यह है कि रावला कलाकार दर्शकों के साथ सीधा संवाद करते हैं, बात-चीत और हंसी मजाक करते रहते हैं। रावला के अभिनेता अपनी प्रस्तुति के दौरान जनमानस से इतने ज्यादा जुड़ जाते हैं कि वह अपने प्रसंगों में दर्शकों को भी जोड़ लेते हैं अगर कोई दर्शक किसी तरह का प्रश्न करता है तो विदूषक एवं पुरुष नायिका बखूबी उसके प्रश्नों का जवाब भी दे देते हैं और फिर अपने चरित्रों में आ जाते हैं।
पारम्परिक रावला नृत्य के वाद्य यंत्र – सारंगी, मृदंग, झींका, कसावरी और रमतूला।आधुनिक रावला नृत्य के वाद्य यंत्र – ढोलक, हारमोनियन, झींका, बेंजो।
रावला गीत-नृत्य के बीच में स्वाँगों (लघु नाट्य) का जुड़ाव रहता है, जिससे नृत्य में अभिनय का तत्व भी जुड़ जाता है। नृत्य के साथ गाये जाने वाले वाले गीत हर जाति के अलग-अलग हैं। धोबियों और कोरियों में निरगुनियाँ गीत गाये जाते हैं। चमारों में रावला नृत्य मटका और सूपा के वाद्यों की संगत में नाचा जाता है। कभी-कभी लोकप्रचलित जातिगत लोकगीत का गायन होता है।
रावला के गीत अनेक प्रसंगों पर आधारित होते हैं। कुछ गीत देवी- देवताओं के प्रसंगों पर आधारित होते हैं कुछ सामाजिक चेतना पर आधारित होते हैं, कुछ परम्परा और संस्कारों पर आधारित होते हैं।
रावला में गाये जानेवाले गीत
मोरे बटुआ में लोंग पचास, आँगनवाँ में बगर गईं।
बारी सासो नें लई हैं उठाय, आँगनवाँ में बगर गईं।
रिमझिम बरसै मेह, आँगनवाँ में रिपट परीं।
भोरी जिठानी नें लईं हैं उठाय, आँगनवाँ में बगर गईं।
मोरी देवरनियाँ में लई हैं उठाय, आँगनवाँ में बगर गईं।
बारी ननदी नें लई हैं उठाय, सो लोंगों बगर गईं।।
इन पंक्तियों में बटुआ की लोंगों का अलग संकेतात्मक अर्थ है, जो पूरे परिवार को बाँधने में सहायक हुआ है। जातिगत गीतों का जुड़ाव जाति के क्रिया-व्यापारों से रहा है और लोकहित के उद्देश्य से प्रेरित भी।
बालक के जन्म (दस्टोन उत्सव) के अवसर पर होने वाले रावला कार्यक्रम के बारे में चर्चा करना आवश्यक समझता हूं… जिस बच्चे का दस्टोन उत्सव हो रहा है उस बच्चे को विदूषक और नायिका गोद में उठाकर नाचते – गाते हैं हास्य परिहास करते हैं और उनके परिवार वालों को जोड़ते हुए अनेक सवाल और जवाब होते हैं।
बातचीत के दौरान विदूषक और नायिका बताते हैं कि बच्चे की नाक बुआ से मिल रही है, बच्चे की आंखें काका से मिल रही हैं, बच्चे के होठ दादी से मिल रहे हैं और कभी बच्चे की तुलना बालकृष्ण से करते हुए गीत गाते हैं। इस प्रकार रावला के कलाकार दर्शक दीर्घा में बैठे स्त्री पुरुषों से सीधे संवाद करते हैं कई बार ऐसा लगता है यह उनके नाट्य का ही हिस्सा है और दर्शक भी पूरी तरह उनके साथ जुड़ जाते हैं। हंसी मजाक हास्य परिहास करते रहते हैं।
रावला के कलाकारों में कमाल की जीवंतता होती है कमाल की ऊर्जा होती है एक बार शुरू होता है कम से कम चार-पांच घंटे लगातार चलता रहता है। प्रदर्शन के दौरान किसी प्रकार की थकावट कलाकारों के अन्दर देखने को नही मिलती शुरूआत से अंत तक चेहरे पर वही ताज़गी रहती है। वही स्फूर्ति रहती है।
नृत्य के बीच अभिनय
Rawla Bundelkhand ka loknritya रावला के नृत्य गायन के बीच बीच में स्वांग (लघु नाट्य ) रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं जिसमें अभिनेताओं के संवादों का चुटीलापन, व्यंगात्मक हास- परिहास से उत्पन्न नाटकीयता का तत्त्व अत्यन्त प्रभाव पूर्ण होता है, क्योंकि वह श्रोताओं पर सीधे असर करता है। इस कारण लोकगायक भी अपनी गायकी को प्रभावी बनाने के लिए गायन-शैली में ही अभिनय का सहारा ले लेता है।
किसी अन्य पात्र के आने से विदूषक और पुरूष नायिका बीच-बीच मे वाचिक अभिनय का सहारा ले लेते है। जिससे कलाकारों और वादकों को थोडा विश्राम मिल जाता है लेकिन ऊर्जा मे कोई कमी नही आती ये खास बात होती है रावला मे। कभी-कभी मुखज चेष्ठा face expression और हस्त-संचालन और हावभाव- मुद्रायें Hand Movement and Gesture-Posture से ऐसी अकृत्रिम भावाभिव्यक्ति Expression दिखाई पड़ती है कि अभिनय की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
अभिनय वस्तु और भाव के अनुरूप सहज-स्वाभाविक होना जरूरी है। स्वर के उतार-चढ़ाव, काकु और कम्पन के साथ-साथ नेत्रा, मुख, सिर और हस्तादि से भावोचित मुद्राएँ सोने में सुहागे का कार्य करती हैं। रावला मे गायन के अन्त से नृत्य का जुड़ाव पैरों की थिरकन और घुँघरू की रुनझुन से हो जाता है।
गायक हस्तमुद्राओं से भावाभिव्यक्ति करता हुआ चक्राकार घूमता है और उसके घुमाव को कलात्मक रूप देने के लिए कमर और पैर का संचालन घुँघरू के बोलों पर होता रहता है। हल्के से कन्धे उचकाने से अंगों के संचालन की लयात्मकता गति पाती रहती है। गायन के साथ नर्तन की संगति गायक को विश्राम देती है और अगली पंक्तियों की पृष्ठभूमि बनाती है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त