Devotthani Ekadashi देवोत्थानी एकादशी

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By admin

बुन्देलखंड में Devotthani Ekadashi देवशयनी एकादशी तथा देव उत्थानी एकादशी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी दिन से चातुर्मास प्रारंभ हो जाता है।  इस पर्व के बाद शुभ और मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं। इसी दिन ही तुलसी जी का विवाह भी सम्पन्न किया जाता है। बुन्देलखंड मे इसे देवोत्थानी एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से भी जाना जाता है।

उठो देव गुड़माड़े खाव !

बुन्देलखंड में Devotthani Ekadashi के बाद ही सारे शुभ कार्य शुरू हो जाते हैं। अद्भुत हैं ये बुन्देलखंड की परम्परायें और इन्ही परम्पराओं मे छिपा है वैज्ञानिक आधार। अद्भुत और आह्लादिक है हमारी लोकसंस्कृति की जो आदमी को जिंदगी के दुःख – दर्दों से दूर करने के अनेक अलमस्त अवसर तीज – त्यौहारों , उत्सव – पर्वों के माध्यम से देती ही रहती है। कभी ऋतु पर्वों की अटूट श्रृंखला खड़ी करती है तो कभी पारंपारिक त्योहारों की।

यही लोकपर्व हमें उत्सवधर्मी बनाते हैं। लोक से जोड़ते हैं। धर्म की वैज्ञानिकता को आत्मसात करके समाज में एक स्वस्थ वातावरण सिरजते हैं। समरसता, सद्भाव, भाई -चारा की स्थापना करने में हमारे सहायक बनते हैं..। जिन तीज – त्यौहारों को हम ढकोसले , पाखण्ड व अँधविश्वास कहकर छोड़ते जा रहे हैं, उनमें जीवन को समृद्ध बनाने वाली अटूट शक्ति भरी हुयी है। उनके मूल में विज्ञान – अध्यात्म और सामाजिक समरसता के अनेक सूत्र भरे हुए हैं। हमें इन पर्वों के भीतर छुपी लोकमंगल की संस्कृति को देखना होगा।

‘देव’ God शब्द हमारे लोकजीवन में अत्यंत श्रृद्धास्पद संबोधन है। मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव ! आचार्य देवोभव !यही नहीं हमारे यहाँ पाहुने – मेहमान के लिए भी अतिथि देवोभव ! का विधान है। पौराणिक संदर्भों में देवशयनी एकादशी तथा देव उत्थानी एकादशी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

वर्षा काल में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी ग्यारस या हरिशयनी ग्यारस कहते हैं। इसी दिन से चातुर्मास प्रारंभ हो जाता है। यहीं से भगवान विष्णु का भी शयनकाल की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। जिसे हम शयन कहते हैं। इस कारण से ही इस पर्व को देवशयनी ग्यारस कहा जाता है।

इस पर्व के मूल में वर्षा काल में साधना करने का महत्व प्रदर्शित करता है।अर्थात् वर्षा ऋतु में हमारा कृषि प्रधान समाज एक प्रकार से वर्षा के कारण अपने दैनिक कृषि कार्यों से विरत रहता है। कामों से उसकी छुट्टी रहती है। वर्षा से जठराग्नि मंद हो जाती है। इसीलिए अधिकांश व्रतों और उपवासों का विधान वर्षा काल में किया गया।

स्वास्थ की निरोगता और विचारों का शुद्धिकरण के लिए चातुर्मास की साधना, व्रतादि के विधान की स्थापना के पीछे हमारे पुरखों का यही भाव रहा है।अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन भी इसी शुद्ध भाव से किया गया था। कालांतर में केवल कल्पित कथा ही शेष बची और उसके पीछे का विज्ञान पीछे छूट गया। जबकि देवत्व की आराधना का अर्थ अपने भीतर की आत्मशक्ति का विकाश करना है। अपने जीवन के सुख को समाज के सुख के साथ जोड़कर जीना है।

यों तो समूचे देश में देवउत्थानी एकादशी का उत्सव अपने विभिन्न रूपों में मनाया जाता है किंतु बुंदेलखंड में इसे ‘देवउठान ‘ या देवउठानी ग्यास के नाम से जाना जाता है। बरसात के चार महीनों से जो देवता सो रहे थे अब कातिक सुदी ग्यारस को उन्हें जगाना है। यही जागरण हमें धन – धान्य से परिपूर्ण करेगा। चार माह की बरसात से मध्यम पड़ी जीवन की गाड़ी का चाक तेज सी चल पड़ेगा।

शरद का दूधिया चाँद आँगन में उतर आया है। देवठान पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गयीं हैं। बखरी – आँगन को पीली मिट्टी में गेरू रंग मिलाकर लीप – पोत लिया है। कलई – चूना से सुंदर ढिंग (किनारी / आलेखन ) बनायी गयी है। गऊ माता के गोबर से आँगन में लिपाई की गयी है। आँगन के मध्य में देवठान देवता की पूजा के लिए रेखांकन बनाया है।

गेरू, हल्दी व चूना के रंगों से चौक सजा है। चार कोनों में हल, बैल, गाय, सतिया आदि की आकृतियाँ बन चुकीं हैं।ऊनी संख्या में (5,7,9,या 11 ) गन्नों के खुडुआ (घर /मंदिर की आकृति ) के बीचों – बीच बड़ा दीपक जगमगा उठा है। सभी पकवान भोग के लिए तैयार रखे हैं। जंगली बेर, भाजी, सिंघाड़ा, भटा, (बैगन ) मूरा (मूली ), सकलकंद्दी तथा अन्य मौसमी शाक – सब्जियाँ अर्पित कर दी गयीं हैं। चूरमा, गुलगुला , लपसी तथा करारी पूड़ियों को मसलकर खूँट बनाकर उन्हें पत्थर के हुलसे पर कतार में रखे हुए हैं।

परिवार के पुरुष सदस्यों की संख्या से एक अधिक खूँट रखा गया है। जिसे पूजन के बाद गाय को खिलाया जाएगा। एक डलिया में प्रदक्षिणा – परिक्रमा के लिए गेहूँ या अक्षत भरा रखा है। परिवार के मुखिया ही पहले देवठान की पूजा करने को बैठ गए हैं।कंडा के अँगरा पर होम करते हैं। होम का झिड़का हुआ तेल दीपक की लौ को छूते ही भक्क से अँगारे पर जल उठा है।

सभी श्रृद्धा से हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम कर रहे हैं। भोग अर्पित किया जाने लगा है। धूप , लोभान की सुगंध चारों ओर से बिखर रही है। मुखिया के पूजा करने के बाद परिवार के अन्य सभी सदस्य बड़े से छोटे क्रम में पूजा कर रहे हैं। (कहीं – कहीं महिलाएं इस पूजा में भाग नहीं लेतीं हैं।)

अब सात परिक्रमा होनी हैं। सबसे आगे घर का मुखिया मुट्ठी से अनाज बिखरते हुए चल रहा है। उसके पीछे अन्य सदस्य वही क्रिया करते चल रहे हैं। मुखिया यह लोक मंत्र गाते हुए चल रहे हैं- उठो देव गुड़़माड़े खाव..! कुँवारन के बियाव कराव …! बिहायन के चलाव कराव ..! सभी लोक मंत्र दोहरा रहे हैं। सात परिक्रमा पूर्ण होते ही सभी पैंड़ भर कर देवठान देवता को नमन करते हैं।

जल अर्पण कर देवता को विदाई दे रहे हैं। सबसे पहला खूँट गाय को खिला दिया गया है। फिर सभी अपने- अपने हिस्से का खूँट उठाकर श्रृद्धाभाव से खा रहे हैं।आस्था भरा भोलापन चारों ओर पसरा है। संयुक्त परिवार को बनाए रखने यह विलक्षण पर्व कृषिप्रधान है। अन्नपूर्णा को मनाने का दिन है। भू देवी की पूजा का उत्सव है।मानवमन में देवत्व जगाने की प्रक्रिया है।

सभी किसान अपने गाय, बैल, भैंस आदि जानवरों को उस दिन नहलाकर सजाते हैं। नये घुँघरु ,घंटियाँ बाँधते हैं। सींगों में तेल लगाते हैं। रात में गेरू और हिरमिजी से जानवरों के शरीर पर कुप्पे के निशान बनाते हैं। उन्हें प्रसाद खिलाते हैं।फिर उसी रात में देवठान की खुशी में ओदबोद जलाते हैं।जो आतिशबाजी का ही एक रूप होता है।

ओदबोद की बारी आते ही कपड़े की गेंद बनाकर उसे मिट्टी के तेल में भिंगोकर रस्सी में बाँध लेते हैं। इस ओदबोद को जलाकर घूमाते हैं। चारों ओर रोशनी भर जाती है। रात में दिवारी का नाच नाचते हुए ,गाते हुए आनंद से भर जाते हैं। दूसरे दिन सुबह खुड़ुआ के गन्नों को प्रसाद में बाँट दिया जाता है। और खुड़ुआ के चारों ओर बिखरे हुए अनाज को कन्याओं को दे दिया जाता है।

इस प्रकार देवउठानी ग्यारस का लोकोत्सव बुंदेलखंड में संपन्न होता है। इसी दिन से शादी – विवाह तथा अन्य शुभ कार्यों की शुरुआत भी हो जाती है। देवठानी के भीतर का भाव है कि चार माह में अर्जित ऊर्जा का उपयोग हमें अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की समृद्धि के लिए करना है। यही है सच में भगवान विष्णु के जागरण के महोत्सव देवोत्थानी एकादशी का निहातार्थ। ईश्वरीय सत्ता सृष्टि के सृजनात्मक रूप में यही संदेश देती है।

वस्तुतः देवठान , देवउठानी या देवोत्थानी एकादशी जैसे अनेक पर्व और त्यौहार बुंदेलखंड सहित समूचे देश में मनाए जाते हैं जो हमें सामूहिक जीवन शैली से जोड़ते हैं। हमें आन्नदित करते हैं। संस्कारित बनाते हैं। समाज के लिए भी कुछ करने की प्रेरणा देते हैं।

आज जिन पर्वों, तीज – त्यौहारों, खानपान, वेशभूषा, पहनावे को हमने निचाट देहाती, गँवई व उजड्ड कहकर छोड़ दिया है उनमें विशुद्ध वैज्ञानिकता है, आध्यात्मिकता है, सामाजिक समरसता है। आज आवश्यकता है हम अपने लोकोत्सवों को जीभर के जिएँ। कहीं यह त्यौहार रस्मों तक ही सीमित न रह जाएँ हमें इस चिंता से मुक्ति के रास्ते तलाशने ही होंगे…।

आलेख
डा. रामशंकर भारती

बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )

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