बुन्देली लोक संस्कृति के संवर्धन के लिये डॉ हिमांशु द्विवेदी के नाटक मूल रूप से बुंदेली भाषा, संस्कृति लोक नाट्य परंपरा और विशेष रूप से बुंदेलखंड के लोक नाट्य Bundeli Swang Shaili Me Rangmanch स्वांग पर आधारित है।
डॉ हिमांशु द्विवेदी वर्तमान में राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश मैं विभागअध्यक्ष नाटक एवं रंगमंच संकाय में कार्यरत है साथ ही शोध विभाग के निर्देशक है। आपने पंजाब, विश्वविद्याल चंडीगढ़ से MA की उपाधि दो स्वर्ण पदक के साथ प्राप्त की है। नाटक और रंगमंच में आप तीन बार यूजीसी नेट- जेआरएफ की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं! डॉ हिमांशु द्विवेदी विशेष रूप में अभिनेता ,निर्देशक ,गायक और लेखक के रूप में विख्यात है।
आपने लगभग 40 से अधिक नाटकों में अभिनय और 20 से अधिक नाटकों का निर्देशन किया है, जिसका मंचन देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर 170 से अधिक बार हो चुका है, आप के नाटक मूल रूप से बुंदेली भाषा, संस्कृति लोक नाट्य परंपरा और विशेष रूप से Bundeli Swang Shaili me Rangmanch आधारित है, आपने ना केवल शहरी स्तर पर नाटकों का मंचन किया है अपितु गांव गांव जाकर बुंदेली लोक नाटक का मंचन किया है, जिनकी संख्या 1000 से अधिक है।
साहित्यिक स्तर पर डॉ. हिमांशु द्विवेदी की पुस्तक “भारतीय लोकनाट्य स्वांग बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि में” प्रकाशित हो चुकी है। जिसे इनलेक्स थिएटर अवार्ड के साथ अन्य महत्वपूर्ण सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। आप की बुंदेली लोक नाट्य स्वांग पर पहली शोध उपाधि है, आपने नाटक एवं रंगमंच में यूजीसी नेट जेआरएफ की पूरे भारत की पहली पुस्तक लिखी है ” 11 नाट्य संग्रह” साथ ही आप के लगभग 35 से अधिक शोध पत्रों का प्रकाशन राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रेफर्ड जनरल में हो चुके हैं। आप शोध परक पत्रिका “कला – स्वरांग” के संपादक भी है ।
आपको अनेक महत्वपूर्ण सम्मानो से सम्मानित किया जा चुका है । जिनमें नटराज सम्मान 2019 झांसी, कला गुरु सम्मान 2019 ग्वालियर , ग्वालियर गौरव अवॉर्ड 2018 ,बुंदेलखंड गौरव सम्मान 2017 ,बुंदेलखंड थिएटर अवार्ड 2016, थर्ड आई कल्चर अवॉर्ड 2015 ,चंडीगढ़ संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप 2014, इनलक्स थिएटर अवॉर्ड 2013 , यूनिवर्सिटी रिसर्च फैलोशिप 2011 ,प्रभात मेमोरियल स्वर्ण पदक 2010, मोहन राकेश स्वर्ण पदक 2010, पल्लव अवार्ड 2009 आदि महत्वपूर्ण सम्मान आपको अभिनय ,गायन ,निर्देशन के लिए प्राप्त हो चुके हैं।
इसके अलावा आपको उत्कृष्ट अभिनय हेतु तत्कालीन मुख्यमंत्री हरियाणा श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा , राज्यपाल माननीय शिवराज पाटील, माननीय राज्यपाल जगन्नाथ पहाड़िया , हरियाणा के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर, वर्तमान वित्त मंत्री पंजाब सरदार मनप्रीत बादल ,पंजाब के सांसद और प्रतिष्ठित अभिनेता भगवंत मान एवं लक्ष्मीकांत चावला स्वास्थ्य मंत्री पंजाब आदि महत्वपूर्ण लोगों से अभिनय और निर्देशन में सम्मान प्राप्त कर चुके हैं वर्ष 2017 में उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान हेतु केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी आप को सम्मानित कर चुके हैं।
लगभग 50 से अधिक नाटक रंगमंच लोकनाट्य इत्यादि की कार्यशाला इस देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर कर चुके हैं आप राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का संचालन भी करते हैं। डॉ हिमांशु द्विवेदी ने देश के लगभग 100 से अधिक रंग जगत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ कार्य किया है जिनमें – प्रो. जी कुमार वर्मा ,पद्मश्री नीलम मानसिंह चौधरी, जीएस चन्नी, बसंत निर्गुणी, निरंजन गोस्वामी, भारत रत्न भार्गव, प्रो. रानी बलबीर कौर ,प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी ,डॉ कमल वशिष्ठ, प्रो. देवेंद्र राज अंकुर ,पंडित रामसहाय पांडे ,श्री कपिल तिवारी आदि प्रमुख है
डॉ हिमांशु द्विवेदी ने झांसी में बुंदेलखंड नाट्य कला केंद्र की स्थापना की जो विगत 7 वर्षों से लगातार बुंदेली लोक नाट्य सॉन्ग बुंदेली गीत संगीत नृत्य राई बधाई नौरता बुंदेली साहित्य के संरक्षण संवर्धन हेतु निरंतर कार्य कर रही है कार्यशाला एवं शिक्षण के माध्यम से छात्रों को निशुल्क शिक्षित कर रही है बुंदेलखंड कला केंद्र “रंग दृष्टि” नाम की पत्रिका भी प्रकाशित करती है! कम शब्दों में यही कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक नाटक के प्रशिक्षण का एक मात्र संस्थान है ! आप देश के प्रतिष्ठित संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में सदस्य के रूप में भी अपनी सेवाएं देते हैं।
Swang स्वांग
स्वांग लोक नाट्य की सम्पूर्ण विधा का प्रतिनिधि शब्द है। मूलत: स्वांग किसी भी ऐसे प्रदर्शन को कहा जाता है जहां जनता को जोड़कर किसी कथानक को किसी भी रूप में खेलकर मनोरजन किया जाता है या कोई नकल आदि की जाये। बाद में स्वांग लोक नाट्य के लिए प्रयुक्त होने लगा अब किसी भी ऐसे लोक नाट्य को स्वांग कहा जाता है। जिसमें कोई पात्र किसी अन्य व्यक्ति का रूप धारण करके कोई प्रदर्शन करे। संस्कृत साहित्य में जैसे रूपक शब्द प्रत्येक मंचीय प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त होता रहा है और उसके अनेक भेद व उपभेद हुए हैं।
ठीक उसी प्रकार स्वांग शब्द सभी लोक नाटकों के लिए प्रयुक्त होता रहा है, संस्कृत के लिए लक्ष्य गद्यो में नाटक यद्यपि रूपक का एक भेद माना गया है जो एक विशिष्ट प्रकार के स्पक का ही द्योतक है परंतु आज हिन्दी जगत में नाटक का अर्थ व्यापक होकर संस्कृत के रूपक शब्द का पर्यायवाची हो गया है आज हम जिस तरह प्रत्येक मंचीय प्रदर्शन को नाटक कह देते हैं ठीक उसी अर्थ में लोक जीवन में प्रत्येक लोक नाटक को स्वांग कहा जा सकता है।
हां लोक नाट्य के वे रूप जिनके साथ धार्मिकता जुड़ी है। अवश्य स्वांग नहीं कहे जाते उदाहरण-रामलीला, रासलीला को स्वांग नहीं कहा जाता, परंतु शेष लोकानुरंजन करने वाले और लौकिक कथानकों पर आधारित सभी लोक नाटय स्वांग नहीं हैं स्वांग शब्द का महत्व इस दृष्टि से और अधिक है कि शब्द लोक रंगमंचीय विधा के लिये तो रूढ़ ही हो गया है।
स्वांग शब्द का अर्थ और विकास:
व्यापक रूप में स्वांग का अर्थ है। रूप रखना, वेश बनाना, नकल करना आदि। पं० रामशंकर शुक्ल ने स्वांग के लिए एक ग्रामीण शब्द सुरांग दिया है जो “सु+रांग” अर्थात सुंदर रंग या सुन+ आगिक से बना होगा कुछ लोक स्वांग का प्रयोग नाटक के लिए करते हैं पर स्वांग लोक नाट्य का पर्याय नहीं है पर एक विशिष्ट लोक नाट्य के अर्थ में लोकप्रिय होने पर उसमें अर्थ व्याप्ति आ गई है असल में स्वांग लोक नाट्य अत्यंत जनप्रिय रहा है इसीलिए वह लोक में व्यापक अर्थ वहन करने में सफल हुआ है।
बुन्देली स्वांग का उद्भव अनुभावानुसार :
आठवीं नौंवी सदी के लोक-चेतना के उत्थान-क. ल में उसका प्रस्फुलन हुआ था। इस काल में प्रतिहारों चंदेलों को उनके अनेक जनजातियों से संघर्ष करना पड़ा था। जिससे प्रतीत होता है कि नौंवी सदी तक इस प्रदेश में अधिकतर जनजातियों का स्वामित्य था और उनका मनोरंजन यथा-वार्ता, लोक नृत्य एवं लोक नाट्य आदि थे, दसवीं सदी के खुजराहों के मंदिर ग्यारवीं सदी के प्रबोध चंद्रोदय की रंग स्थली महोबा के मदन सागर के बीच पड़े रंगशाला के अवशिष्ट और बारहवीं सदी के लोक गाथात्मक महाकाव्य आल्हाखण्ड से यह निष्कर्ष निकलता है कि बुन्देलखण्ड में लोक चेतना, लोक साहित्य, लोक नाट्य का उद्भव इसी समय हुआ था। मध्यकाल के अनेक ग्रंथों में इसके उत्पादन का पता चलता है आधुनिक युग में स्वांग पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। लेकिन इतना अवश्य है कि स्वांग में ही आधुनिक समाज चेतना, उसकी अनुभूतियों और व्यंजना पुष्ट अभिव्यवित्तयों को अपने में समेट लेने की पूरी क्षमता है।
स्वांग की व्यापकता:
आज लोक जीवन में स्वांग का अर्थ और भी व्यापक हो गया है। अब लोक जीवन से संबंध ऐसे प्रदर्शन भी जो बिना मंच के भी हो पाते हैं स्वांग ही कहते हैं उदाहरण के लिए विवाह के अवसर पर बारात के चले जाने के उपरांत रात्रि में वर पक्ष की नारियां घर पर खोइयां या बाबा के नाम से जो प्रदर्शन करती हैं उसे भी स्वांग ही कहा जाता है। मांगलिक अवसर पर धोबी, चमार, कुम्हार, मेहतर आदि जातियों के लोग आपस में ढोलक मंजीरों पर रंग बिरंगे कपड़े पहनकर मन की मौज मे जो प्रदर्शन करते हैं, नाचते गाते हैं उन्हें भी स्वांग कहते हैं।
बुन्देलखण्ड में छोटे बच्चे (लड़के-लड़कियां) खिलोने से विवाह आदि का अभिनय करते हैं उन्हें भी स्वांग कहते हैं। घरघूला, गुड्डा, गुड़ियों का विवाह और नौरता उत्सवों के अवसर पर ठेलों पर या ट्रकों में जो झांकी संजाई जाती है उन्हें भी पहले स्वांग ही कहते थे। जिन्हें अब झांकी के नाम से जाना जाता है अब भी स्वांग लोक नाटक सभी रूपों के लिए प्रचलित सर्वाधिक लोकप्रिय शब्द है स्वांग शब्द जहां गेय लोक नाटकों के लिए प्रयुक्त किया जाता है वहीं दूसरी और लोकधर्म परम्परा के नाटकों को भी स्वांग ही कहा जाता है। हमारे प्राचीन कवियों ने भी यथा स्थान अपने काव्यों में स्वांग शब्द का इसी रूप में उल्लेख किया है।
स्वांग के प्रमुख तत्त्व और उनका वैशिष्ट्य:
बुन्देली स्वांग में सभी नाट्य तत्त्व मौजूद हैं उनकी विषय-वस्तु में विविधता है कुछ पौराणि क या धार्मिक है तो कुछ ऐतिहासिक या राजनैतिक पुराने ऐतिहासिक व राजनैतिक नहीं के बराबर हैं किन्तु अब राजनैतिक स्वांगों की और अधिक झुकाव हो गया है वैसे स्वांगों की मुख्य विषय वस्तु सामाजिक जीवन व मनोरंजन है उसमें जीवन की यथापूरक और वास्तविक अनुभूतियों का प्रतिबिम्बन बना हुआ है। इसलिए स्वांगों में आधुनिक संदर्भो से जुड़ने की शक्ति विद्यमान है।
इस विशेषता के बावजूद बुन्देली स्वांगों में किसी अनुभव की पूर्णता नहीं मिलती वरन उनका खण्ड चित्र ही थोड़ी देर के लिए चमत्कृत करता है। लेकिन बुन्देली स्वांग की प्रमुख प्रवृति कथा मूलक न होकर व्यंगात्मक है। सामाजिक विषमताओं, कुरीतियों, आंड. बरों आदि पर जितनी तीखी चोट बुन्देली स्वांग करते हैं उतनी अन्य बोलियों के स्वांग नहीं। बुन्देली स्वांग के पात्रों की संख्या बहुत कम होती है। एक पात्र अनेक पात्रों का अभिनय करता है। उनमें इतना कौशल होता है कि वह हर भूमिका को बहुत ही अच्छे तरीके से कर लेता है। स्त्री तक पाठ करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता।
संवाद छोटे, सरल और सहज होते हैं। उनकी भाषा सहज सीधी होती है। जिसे आम आदमी समझ सकता है। बुन्देली भाषा का स्वरूप गद्य और पद्य दोनों में दिखाई पड़ता है। गद्य की भाषा जहां तीखी चुटीली और व्यंजनामयी होती है वहीं पद्य की भाषा सरल, मधुर होती है।
रंगमंच की दृष्टि से बुन्देली स्वांग और भी सहज है व्याव के स्वांगों में रंगमंच घर का आंगन होता है। उसी में विधीवत फर्श-दरी, चादर, चटाई आदि बिछा दी जाती है पेशेवर और लोको. त्सव के स्वांगों में खुला मंच, ऊंचा चबूतरा, ऊंची जमीन या तख्त होता है परदों का प्रयोग नहीं किया जाता है केवल पर्याप्त प्रकाश की व्यवस्था जरूरी होती है। जो पहले लालटेन या मशाल से की जाती थी और वर्तमान में हैलोजन, ट्यूबलाईट या 200-200 बाट के बल्ब लगा कर की जाती है। स्वांग में साधारण वेशभूषा होती है। सामान्य पदार्थ, रोली, सिंदूर, चिलकनी आदि से वेशभूषा तैयार की जाती है। वाद्यो में हर प्रकार के स्वांग में लोक वाद्यों का प्रयोग होता आया है जिसका अनुसरण बहुत थोड़े परिवर्तन से आज तक चला आ रहा है मुख्य रूप से स्वांग में ढोलक, चिमटा, नगड़िया और लोटा ही रहता है।
स्वांग की अलग पहचान:
बुन्देली स्वांगों अन्य जनपदों स्वागों से भिन्न अपनी एक खास पहचान रखने के कारण महत्त्व का अधिकारी है। वह वृज के भगत की तरह संगीत प्रधान राजस्थान के ख्याल स्वांगों और गुजरात के भवाई वेश की तरह नृत्य प्रधान तथा हरियाणा के सांग की तरह गीत प्रधान नहीं है वरन हिमाचल के करियाला और कश्मीर के भांड पाथेर की तरह अभिनय प्रधान है।
करियाला में व्यंगों का वैभव वैविल्य नहीं जो बुन्देली स्वांगों में है और भांड पाथेर के व्यंग अंत में आदर्श परक हो जाने के कारण अपनी यथार्थता खो देते हैं। तात्पर्य यह है कि बुन्द. ली स्वांग अपनी अभिनय मूल वक्ता और यथार्थता परक व्यंगात्मकता के आधार पर विशुद्ध स्वांग की प्रतिष्ठा रखता है और इसी खास पहचान की वजह से अन्य जनपदों के स्वांगों लोक नाट्यों के बीच उसका व्यक्तित्व सदैव स्मरणीय रहेगा।
बुन्देलखण्ड का स्वांग जो कि राई के मध्य में होता है, राई तो श्रृंगारिक गीतों से सजती है जिन्हें ख्याल कहते हैं पर स्वांग सदैव युग सापेक्ष होता है लोक जीवन को सरस रखने के उद्देश्य से हास्य का आयोजन स्वांग के माध्यम से होता है स्वांगीय विधि प्रतिभा के व्यक्ति होते हैं व दर्शकों को वाकपटुता, पारिवारिक वर्तालाप, और अभिन्य से ऐसी संवेदना जागृत करते हैं जो सामाजिक विरूपता के दूर करने के साथ एक जीवन दृष्टि विकसित करने में सहायक होती है स्वांग हमारे सांस्कृतिक जीवन की ऐसी कसौटी है जिसमें समयानुसार परिवर्तन और नवीनता का आग्रह होता है।
पुराने लोगों के अनुसार ललितपुर टीकमगढ़ के पास के गांव में लगभग 60-70 वर्ष पहले गोवर्धन नाम का एक व्यक्ति व उसके साथी का एक स्वांग दल था। ऐसा सुनने में आता है कि वह व्यक्ति एक चलता फिरता स्वांग था समाज की फैली बुराई को वह स्वांग के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत करता था।]
बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )
डॉ हिमांशु द्विवेदी
हाउस नंबर- 556,
बुंदेलखंड नाट्य कला केंद्र, सिद्धेश्वर नगर,आईटीआई, झांसी (उत्तर प्रदेश),
पिन- 284003
मोबाइल = 9779508255/9340382358
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