Dhola-Maru Ko Rachhro मे ढोला और मारू की बचपन मे शादी हो जाती है। जब दोनो बडे होते हैं तो मरू अनेक संदेश ढोला को भेजती है। जब ढोला अपनी पत्नी मारू को लेने जाता है तो अनजाने मे दोनो के बीच वाद-विवाद हो जाता है।
बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा ढोला-मारू कौ राछरौ
बुन्देलखण्ड की यह महाभारत कालीन लोक गाथा है। ऐसा कहा जाता है कि ढोला महाभारत कालीन नरवरगढ़ नरेश राजा नल के पुत्र थे। राजा नल को चैपड़ के पाँसे सिद्ध थे। उन्हें द्यूत-क्रीड़ा में कोई पराजित नहीं कर सकता था। प्रायः ऐसा कहा जाता था-‘राजा नल के पाँसे, जब परें साँसे के साँसे।’ समय तो परिवर्तनशील है।
एक बार द्यूत-क्रीड़ा में राजा नल अपने भाई ‘पुष्कर’ से पराजित हो गये और जुए में सारा राज-पाट हार गये। उन्हें नरवरगढ़ छोड़कर महारानी सहित परदेश जाना पड़ा। कुछ विद्वानों का मत है कि राजा नल भटकते-भटकते सिंहल द्वीप पहुँच गये थे और वहाँ जाकर गंगू तेली के यहाँ नौकरी कर ली थी। गंगू के माध्यम से उनका परिचय सिंहलद्वीप के राजा ‘बुध’ से हुआ। उनके परिचय में इतनी घनिष्ठता हुई कि शैशवकाल में उनके पुत्र ढोला का विवाह मारू के साथ हो गया।
कुछ विद्वान इस मान्यता को नकारते हुए यह मानते हैं कि राजा नल निर्वासित होकर ‘मारवाड़’ (राजस्थान) चले गये थे। वहीं महारानी ‘दमयंती’ से ‘ढोला’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था और वहीं शैशव-काल में मारवाड़ के राजा की राजकुमारी ‘मारवी (मारू)’ के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था।
‘ढोला-मारू दूहा’ नाम से राजस्थान की सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय लोक गाथा है। राजस्थान की सम्पूर्ण गाथा दोहा छंद में वर्णित है। इसी कारण से नाम के साथ ‘दूहा’ जुड़ा हुआ है। बुंदेली लोक गाथा भी दोहा छंद में ही वर्णित है।
ऐसा कहा जाता है कि पिंगल देश के राजा बुध और राजा नल में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। उन दिनों दोनों राजाओं की महारानियाँ गर्भवती थीं। उन दोनों ने आपस में निर्णय लिया कि यदि हमारे यहाँ राजकुमार और आपके यहाँ राजकुमारी उत्पन्न होती है तो आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर देंगे। अंत में ऐसा ही हुआ और दोनों का पालने में ही विवाह सम्पन्न हो गया।
राजा नल का प्रवास काल समाप्त होने के बाद वे अपनी पुत्र-वधू ‘मारू’ को पिंगल देश में छोड़कर अपनी रानी और ढोला को साथ लेकर नरवरगढ़ लौट आये। और इधर मारू पिता के घर में बढ़कर युवती हो गई और उसे बार-बार पूर्व विवाहित पति का स्मरण होने लगा। इधर राजकाज में व्यस्त होने के कारण राजा नल अपनी पुत्र-वधू मारू को भूल गये। ढोला का तो पालने में ही विवाह हो गया था। उन्हें अपनी पूर्व विवाहिता पत्नी का कोई स्मरण नहीं था।
पिंगल देश का मार्ग बहुत ही कठिन और दुर्गम था। उधर मारू अपने पूर्व विवाहित पति से मिलने के लिए लालायित रहने लगी। एक दिन एक हिरण और हिरणी के जोड़े को मृत पड़ा हुआ देखकर भाभी से प्रश्न किया-
बधत न देखे पायछे भौजी, घलत न देखे बान।
हम पूछें प्यारी भौजी तोसें, इनके कौन बिध कड़े प्रान।।
भाभी तुरंत ही उत्तर देती हैं-
जल धीरे नेहा लगे, लगी न समुद की धार।
तू पी तू पी कर दुई मरें, इनके ऐई विध कड़े प्रान।
उसने अपनी भाभी से फिर पूछा-
कै पिता कुल टाँचरे, कै दामन के बल हीन।
मोरी ज्वानी वय भई, बाबुल करे न ब्याव रे अलबेले……
भाभी उसे सान्त्वना देती है-
ना पिता कुल टाँचरे, ना दामन के बल हीन।
डल्ली-डल्ला तोरी भांवर परी, सो ढोलन के साथ रे।
यह जानते ही मारू व्याकुल होकर ढोला से मिलने का उपाय सोचने लगी। उसने हंस-हंसी के जोड़े द्वारा अपने प्रियतम ढोला के समीप प्रेम संदेश प्रेषित किया और वह रात-दिन प्रिय के वियोग में जलने लगी। रात-दिन उसकी आँखों से आँसुओं की धार प्रवाहित हुआ करती थी-
रोज रसोइया रे मारू तपै, धुंआना के मिस रोय।
जब सुध आबै प्यारे छैल की, मन धरत नइयाँ धीर रे।
दूसरी बार तोते के द्वारा संदेश भेजकर वह रो-रोकर कह रही है-
काहे की कलमें करों, काहे की मसि जोत।
इसका उत्तर तोता देता है-
आँचर चीर कागज करों, नैनन की मसि जोत।
सो पैंती चीर कलमें करों, सो लिखों ढुलन के नाम रे।
मारू का संदेश लेकर तोता उड़ गया। उसे उड़ता हुआ देखकर मारू कहने लगती है-
उड़तन तौ गंगा ऐसे लगें, धरें न पाँव पछाँव।
खबर मोरी लै जइयों, जब गंगाराम कहाँय।
तोता उड़कर नरवरगढ़ पहुंच गया। उस समय ढोला एक वाटिका में विचरण कर रहे थे। तोता उन्हें पहिचानकर उनकी भुजा पर बैठ गया। ढोला ने उसके गले में बंधे हुए पत्र को पढ़ा। तब उसे अपनी पूर्व विवाहित पत्नी मारू का स्मरण हो आया। हालाँकि ढोला का विवाह रेवा के साथ हो चुका था।
ढोला ने अपनी पत्नी रेवा से स्पष्ट कह दिया कि यह तोता मेरी पूर्व पत्नी मारू का प्रेम संदेश लेकर आया है। तुम इसे प्रेमपूर्वक रखना। इतना कहकर तोते को रेवा को सौंपकर शिकार खेलने के लिए जंगल में चले गये। रेवा उसे अपनी सपत्नी का तोता समझकर उससे ईर्श्या करने लगी। वह अवसर पाकर तोते को मार डालना चाहती थी। एक दिन वह ढोला का रूप धारण करके तोते के समीप पहुँची। तोते ने उसके सारे षड्यंत्र को समझकर कहा-
बोले गंगा जा कबैं, सुन ले राजा बात।
ऐसे राजा न तकें, जीके माथे पै बेंदी होय।
इतना कहकर तोता उड़ गया। कुछ समय बाद रेवा फिर भेष बदलकर पहुँची। उसे देखकर तोता फिर बोला-
बोले गंगा जा कबैं, सुन ले राजा बात।
ऐसे राजा न तके, जीकै नाक पुंगरिया होय।
कुछ समय बाद रेवा फिर उसके सामने पहुँचती है तो फिर तोता कहने लगता है –
बोले गंगा जा कबै, सुनले राजा बात।
ऐसे राजा हम न तकें, जीकी छाती गुमरियां होय।।
इतना कहकर तोता दूर भाग गया। रेवा अपने प्रयास में विफल हो गई और तोता उड़कर पिंगल देश पहुँच गया। मारू ने तीसरा संदेश एक व्यापारी के द्वारा प्रेषित किया। मारू व्यापारी से प्रश्न करती है-
कोने देस जनमन रे तैंने धरे, कोना धरे औतार।
नाम सार दैरे भूमि कौ, फिर सारों धनी के नाम रे।
ना तौ हम तोरे ससुराल गैं, सुन लो लाला बात।
चीर भांवर कौ लै जाइयों, सो दिइयों स्वामी के हात।
व्यापारी चीर लेकर चल दिया और नरवरगढ़ जाकर ढोला को सौंप दिया। मारू ने चैथा संदेश ढाँडू कक्का के द्वारा प्रेषित करते हुए कहा-
अँगना तौ सूके रे सूकनौ, वन सूकैं कचनार।
मारू धनिया सूकैं मायकें, जैसें हीन पुरुष की नार।
ढाँडू कक्का जात हौ, राजन कौं दियो समझाय।
जैसी तोरे रेवा बनी, तैसी मारू की लगी पनिहार।
ढाँडू कक्का जात हौ, राजन कौं दियो समझाय।
जैसी तोरी रेवा बनीं, मारू के तरवा होय।।
ढाँडू कक्का जात हौ, कंता कौं दियो समझाय।
मारू कलुरिया हो गई, लै लठिया चले आव।
अनेक संदेश प्राप्त होते ही ढोला, मारू से मिलने के लिए आतुर हो उठा। अंत में अपने पिता राजा नल की सहायता और देवीजी की कृपा से वह सकुशल पिंगल देश पहुँच गया और अपनी पूर्व विवाहिता रानी मारू को अपने साथ ले आया।
इस गाथा में मारू के आदर्श और उत्तम चरित्र का चित्रण किया गया है। मारू एक भारतीय आदर्श चरित्र नारी थी। बाल-विवाहिता होते हुए भी उसने पातिव्रत और सतीत्व की रक्षा की थी। इस प्रकार की नारियाँ नारी समाज के लिए प्रेरणा होती हैं।
कुछ विद्वानों ने इसी गाथा के दूसरे रूप को प्रस्तुत किया है। राजकुमार ने जब होश सँभाला, तब उसे ‘चंद्रावती’ रानी के साथ विवाह होने का पता लगा। वे अपने एक प्रिय मित्र को साथ लेकर घोड़ों पर सवार होकर अपनी ससुराल के नगर की ओर चल दिये।
चलते-चलते वे अपनी ससुराल के नगर के समीप पहुँच गये। वहाँ उन्हें तालाब के समीप एक अत्यंत सुंदर नारी दिखाई दी। राजकुमार उसे देखकर मोहित होकर बोला-
प्रीतम पाँव पलोंटियों गोरी, कर केसन की छाँव।
हमको गैल बताइयों गोरी, ऊंची करकैं बाँय।।
शीतल छाँह वाले गैल के वृक्ष खड़े हैं। उन्हीं के नीचे से गाँव की गैल जाती है। आप उसी के नीचे से चले जाइयेगा। मेरी बाँह में पीड़ा है, इस कारण से मैं अपनी बाँह नहीं उठा पा रही हूँ। राजकुमार को ऐसा उत्तर देकर वह घड़ा उठाकर चली गई। कुछ समय बाद वही पनिहारी राजकुमार को दूसरे कुआँ पर घड़ा लिये हुए दिखाई दे गई। राजकुमार ने उस पर व्यंग्य बाण छोड़ते हुए कहा-
बंद कुआं मुख साँकरों, उर अलबेली पनहार।
आँचर डारैं जल भरें, का हीन पुरुष की नार।।
ऐसे व्यंग्य वचन सुनकर सहमते हुए पनिहारी ने उत्तर दिया, जो घुड़सवार के व्यंग्य वचनों से अधिक तीखा था, जिसे सुनकर राजकुमार लज्जित होकर बिना जल ग्रहण किये आगे बढ़ गया। पनिहारी ने कहा-
पीने होय पानी पियो, उर बोलौ वचन समार।
हम हंसन की हंसिनी, तुम कागा गैल गमार।।
अपने को हंस की हंसिनी और राजकुमार को काग कहने पर कुंवर साहब मन ही मन क्रोधित हो गये, किन्तु कर ही क्या सकते थे? क्रोध का घूँट पीकर रह गये। कुछ समय बाद चलते-चलते अपनी ससुराल के दरवाजे पर जाकर खड़े हो गये। कुछ देर बाद वही पनिहारी घड़ा लिए हुए वहीं पहुँच गई। घुड़सवार को दरवाजे पर खड़ा देखकर वह पिछवाड़े के दरवाजे पर खड़ी होकर खेप उतारने के लिए टेर लगाई। और वह मन ही मन सोचने लगती है-
जेइ घुड़ला तालन मिले, भौजी जेइ कुआं के पार।
जेइ घुड़ला दुआरैं ठाँढ़े, भौजी खिरकिन गगर उतार।
अपनी ननद की बात सुन विहँसती भाभी जी पाहुँने की पहुंनाई में लगी थी। वह जल्दी आई और ननद के सिर से गगरी उतारकर बोली-
चकई को चकबा मिले री ननदी, कमल सूरज की कोर।
आये तुमारे पाँवने री ननदी, जानें परहै भोर।।
इस संदेश को सुन ननदी आश्चर्य में पड़ गई और घुडसवार पुरुष को अपना राजा मान उसके साथ किये गये व्यवहार पर मन ही मन पछताने लगी। भाभी ने पाहुँने की आवभगत कर ठहराया और कुशलक्षेम पूछी। रात होते ही भाभी ने ननदी को चाँदी के थाल में छप्पन भोजन सजाकर राजा की बैठक में ले जाने को भेजा।
वहाँ राजकुमार ने जब जान लिया कि तालाब और कुआँ पर मिली औरत ही उसकी रानी है, तो उसके व्यवहार से क्षुब्ध होकर उसको उसकी सजा देने की ठान बैठा था। इतने में उसकी रानी भोजन का थाल लेकर बैठक के द्वार पर खड़ी होकर कहने लगती है-
चंद्र वदन मृग लोचनी, राजा ठाँढ़ी आकैं द्वार।
कर जोर विनती करें, राजा खोलौ झँझर किवार।।
स्वयं अपने मुँह से अपने रूप का वर्णन करके पति के गुस्से को शांत करना चाहती थी। किन्तु राजा उसके अपमान से इतने अधिक आहत हो चुके थे कि क्रोध के कारण फिर किवाड़ ही नहीं खोला और न ही उसके हाथ का भोजन किया। और गुस्सा होकर कहने लगे-
तुम हंसन की हंसिनी, हम कागा गैल गमार।
तुम महलन मोती चुनों, हम जूठन करें अहार।।
रानी तो अच्छी तरह से समझ गई कि राजा हमारे व्यंग्य वचनों से क्रोधित हैं। किन्तु सच पूछा जाय तो उसकी कोई गलती नहीं थी। उसने तो परपुरुष जानकर ही ऐसे वचन कहे थे। वह बेचारी अपने पति को अच्छी तरह से पहचानती नहीं थी, किन्तु राजा को तो पुरुषत्व का घमंड था। उन्होंने नारी की विवशता को समझने का प्रयास नहीं किया। फिर भी अनजाने में अपनी भूल पर खेद व्यक्त करते हुए रानी ने फिर निवेदन किया-
अनजाने की बात कौ, राजा तुमई करो निरधार।
बीती ताय बिसार कैं, राजा खौलौ झँझर किवार।
इतना सब कुछ कहने के बाद भी राजा ने हठवश किवाड़ नहीं खोले तो रानी भोजन का थाल लेकर अंदर चली गई। भाभी उसको उदास देखकर पूछती है-
कैसे सुअना अनमने, उर कैसे वदन मलीन।
का भेटैं नईं साजना, जासों मुख-दुत छीन।।
ननद बिलकुल शांत बनी रही। अपनी भाभी को कोई उत्तर नहीं दिया। वे अपने मन की पीर को चुपचाप पीकर रह गईं। सबेरा होते ही राजकुमार रानी की विदा कराकर चल देते हैं और रास्ते भर रानी से कोई वार्तालाप भी नहीं करते। चलते-चलते एक एकांत बगीचे में डोली को उतरवा कर रखवा देते हैं और कोई बहाना लेकर डोली को वहीं छोड़कर चले जाते हैं।
ये नारी के साथ पुरुष की निष्ठुरता है। रानी का रंचमात्र भी अपराध नहीं था, फिर भी राजकुमार उसे जंगल में छोड़कर चले गये। रानी बहुत समय तक प्रतीक्षा करती है, किन्तु जब वे लौटकर नहीं पहुँचते तो रानी समझ गई कि राजा तो मुझे छोड़कर चले गये। बड़ी देर तक रोती रही। प्रतीक्षा करते-करते शाम हो गई।
इसी बीच में उसे घोड़े की टाप सुनाई दी। तब कुछ आशा बढ़ी, किन्तु वह घुड़सवार उस बगीचे के राजा का सैनिक था, जो उस डोले में बैठी सुन्दरी का पता लगाने आया था। पूछने पर उसने सारी व्यथा कथा कह सुनाई-
कहाँ जाउं कैसी करों, कहा रची करतार।
निरजन वन में छोड़कैं, मोय गये भरतार।
राजा ने रानी की व्यथा सुनकर धैर्य धराया और उनसे राजमहल चलने का आग्रह किया। किन्तु वह सच्ची पतिव्रता नारी थी। जहाँ उसका पति छोड़ गया था, वह वहाँ से जाना नहीं चाहती थी। उसे विश्वास था कि मेरा पति अपनी भूल को ध्यान में रखकर एक न एक दिन यहाँ अवश्य ही आयेगा।
अंत में ऐसा ही हुआ अपने मित्र के समझाने पर राजकुमार ने अपनी गलती स्वीकार कर ली और अपनी रानी को देखने के लिए बेचैन हो जाता है। वह अपने मित्र के साथ रानी को खोजने के लिए निकल पड़ते हैं। मार्ग में एक भीलनी के लकड़ी के गट्ठे को उठाने का प्रयास करते हैं। भीलनी उन पर व्यंग्य बाण छोडती है –
धरत हुइयौ कैसें कंधन तुम, दीन प्रजा कौ भार।
उठत नईं तुमसें कं जो, एक नार कौ भार।
हम डाँगन की भीलनी, उर नैंची जात गमार।
देखत में मौंको लगें, तुम दो राजकुमार।
हँसी करत में रम गये, रस में रस सरसाय।
सोंस-समझ ऐसी जगाँ, करों मस्करी आय।।
इस लोक गाथा में पुरुष की झूठी जिद और नारी के साथ किये गये अन्याय का चित्रण है, जो सारे पुरुष वर्ग को कलंकित करती है। रानी का सतीत्व और पातिव्रत सम्पूर्ण नारी समाज के लिए आदर्श और अनुकरणीय चरित्र है।
परित्यक्ता होते हुए भी उसने पर-पुरुष की ओर आँख उठाकर देखा नहीं था। साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से लोक गाथा मूल्यवान है। इस प्रकार की लोक गाथाओं को पढ़कर और सुनकर समाज प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त