बुन्देलखण्ड की कुछ गाथाओं में पातिव्रत, प्रेम, भ्रातृप्रेम और लोक संस्कृति का अटूट भण्डार दिखाई देता है। भ्रातृप्रेम के क्षेत्र में ‘Sant-Basant’ नाम की लोक गाथा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बुन्देलखण्ड में कुछ ऐसी आदर्श प्रधान गाथाएँ हैं, जिनसे नई पीढ़ी को भाई-भाई के प्रेम की शिक्षा प्राप्त होती है। इस गाथा में दो राजकुमारों के शौर्य और साहस का वर्णन है। जिसमें लोक कथानक का स्वरूप परिलक्षित होता है।
बुन्देलखण्ड की लोक- गाथा संत-बसंत Folk Saga Sant-Basant
बुंदेलखंड की इस लोक गाथा में विधि का विधान बड़ा विचित्र है। संत-बसंत नाम के दो अत्यंत सुंदर राजकुमार बाँसों के झुरमुट के बीच से अवतरित हुए थे। नगर के राजा की बेटी का विवाह था। विवाह का मंडप बनाने के लिए बाँस काटने को राजा के अनुचर जंगल में गये। वे एक बाँस के झुरमुट को काटने लगे। उसी बीच झुरमुट के अंदर से बच्चों का रूदन सुनाई दिया। कटाई बंद करके ध्यानपूर्वक देखा तो वहाँ दो अत्यंत सुंदर बालक पड़े हुए दिखाई दिए।
राजा के अनुचर दोनों बालकों को उठाकर राजा को समर्पित कर गये। राजा उन्हें प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए और उन्हे अपने पुत्रों के समान पालन-पोषण करके बड़ा किया। किन्तु ईर्ष्या और द्वेष के कारण महारानी को यह बात अच्छी नहीं लगी और उसने षड्यंत्र रचकर दोनों राजकुमारों को देश-निकाला करवा दिया। वन में भटकते हुये दोनो राजकुमार एक वृ़क्ष के नीचे बैठ गये।
इस गाथा में सुक और सारो का एक मार्मिक प्रसंग जोड़ दिया गया है, जिससे कथानक में रोचकता आ गई है। अचानक दोनों भाई फिर किसी कारण वश अलग हो जाते हैं। संयोगवश बड़ा भाई पड़ोस के राज्य का राजा बन जाता है। फिर अपने छोटे भाई को खोजने का प्रयास करता है।
अंत में दोनों भाईयों का सुखद मिलन हो जाता है। लोकगाथा के कुछ अंश…….
काठी जान कुठार से, कपट न डारों अजान।
पूरब पु य ओतरे, संत-बसंत सुजान।।
आगे पग न बढ़ाइयो, राजन के दरबार।
अपनी प्यास बुझाइयो, बन के रूख मझार।।
देश निकाला (राजाज्ञा)
जित उपजे तित जाहु जू, कहा इतै है काम।
बाँसन के झाड़न तरें, बिलमा लीजे घाम।
वन के पंक्षी साथिया, संगी वन के रूख।
कंद मूल फल फूल सें, तिरपत करियों भूख।
पंछी सत्कार धन्य पखेरू रूख के, धन्य भयों सत्कार।
प्रान-दान कर देत हों, भूखन कौ आधार।
बनकैं ताल घिनौचिया, सीतल छाँयन आम।
जल-झारी दुरकाइयौ, महलन सौं का काम।
बिछुडकर पुनर्मिलन हरे-हरे बाँसन औतरे, संत-बसंत कुमार।
ऐसे घर भागन परे, जितै कुलच्छन नार।
दोष कौन को दीजिये, बड़े भाग की मार।
राजा-रानी रूठिया, घर सौं दये निकार।
भूखे प्यासे जाहु जू, अमराई की छाय।
सारो-सुअना बन गये, कुंवरन बाबुल माय।
एक दिना आखेट में, बिछुर गयो दोउ भाय।
दीजौ कोउ संत खौं, बहुरि बसंत मिलाय।
इस गाथा के कई पहलू विचारणीय हैं । ऐसा लगता है कि यह गाथा, गाथाकाल के अंतिम चरण में लिखी गई है। दूसरे इसमें सुक-सारो का संवाद और बलिदान का जो प्रसंग आया है, वह पौराणिक सा प्रतीत होता है। पेड़ पर बैठे पक्षियों को पता लगता है कि पेड़ के नीचे दो भूखे राहगीर बैठे हैं। पेड़ पर बैठे दोनों पक्षी नीचे जलती हुई आग में गिरकर मर जाते हैं, जिन्हें खाकर दोनों भाई अपनी भूख मिटा लेते हैं।
प्राण -दान सर्वश्रेष्ठ दान है। पक्षियों तक में परोपकार और अतिथि सम्मान की भावना है। यह बुंदेली संस्कृति का मूलाधार है, प्राचीन बुंदेली साहित्य में इसका भण्डार भरा पड़ा है। इस प्रकार की गाथाओं से मानव जाति को परोपकार, करुण और पर-कल्याण करने की शिक्षा मिलती है।
जब पक्षियों तक में करुण और अतिथि सम्मान करने के भाव जाग्रत हो जाते हैं, तो फिर मनुष्य की तो बात ही अलग है। इसी प्रकार की अन्य प्रेरणास्पद लोक गाथाओं का प्रचलन है, जिसमें हिंसक पशुओं में भी मानवीय गुण दिखाई देते हैं।
‘सुरहिन की लोक गाथा’ लोक भावना का प्रतीक है। सिंह जैसे हिंसक पशु को भी सम्बन्ध भावना का ज्ञान है। वह मामा और बहिन के पवित्र सम्बन्ध को भलीभाँति जानता है और वह उनके कल्याण के लिए जंगल को छोड़कर चला जाता है। पशुओं की सदाशयता को देखकर मनुष्य को लज्जित होना चाहिए।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’