Bundelkhand ka Rahas  बुन्देलखंड का रहस  

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By admin

बुन्देलखंड मे रासलीला को रहस नाम से पुकारा जाता है। Bundelkhand ka Rahas  बुन्देली लोक नाट्य का ही अलग रूप है। जो बृज और बुंदेली संस्कृति से मिलकर बना है। बहुत पहले रास (रासलीला) के लिए बृज की मंडलियाँ यहाँ आने लगीं जिनका अनुकरण यहाँ के कलाकारों ने किया और धीरे-धीरे बुन्देलखण्ड मे भी रासलीला की मंडलियाँ स्थापित होने लगीं । यहां के लोक कलाकारों ने बृज और बुन्देली को मिलाकर रास /रहस को नया रूप प्रदान किया । 

बुन्देलखंड का रहस  (रासलीला) 

Bundelkhand ka Rahas (Rasleela)

रहस परम्परा का उद्भव
बुन्देलखंड में कृष्ण भक्ति का विकास गुप्तयुगीन स्तम्भों के नीचे आधार फलकों पर उकेरे गये कृष्ण लीला -विषयक दृश्यों के रचनाकाल (300-600  ई.) से रेखांकित किया जा सकता है और यह निश्चित है कि कृष्ण भक्ति का सम्प्रदाय मुक्त स्वरूप यहाँ 15वीं शती के पूर्व विद्यमान था। कृष्ण काव्य की यह धारा इस बुन्देलखंड भूभाग में 19वीं शती के अन्त तक निरन्तर प्रवाहमान रही और उसमें ‘रासलीला’ को महत्त्व भी खूब मिला।

इससे स्पष्ठ है कि रहस-परम्परा के लिए वहाँ पर उपयुक्त वातावरण  एवं प्रेरक परिप्रेक्ष्य सदैव मौजूद रहे। गोपगिरि (ग्वालियर) गोप-संस्कृति का केन्द्र रहा है। रहसलीला (1676 ई.),  प्रेमदास  गहोई  (1770-97 ई.)  की  भगवतबिहार  लीला और  नवलसिंह प्रधान-रचित रहसलावनी (1869  ई.) रास या रहस के ही लीलानाट्य हैं। इससे स्पष्ट होता है कि रहस इस युग (16वीं से 19वीं तक) में बहुत लोकप्रिय थे।

सांगीत: एक लोकनाट्य-परम्परा पुस्तक मे रामनाराण अग्रवाल ने जिस लीलानाटक-परम्परा का ब्रज में प्रचलन 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में माना है, वह बुन्देलखंड में 18वीं शती के पूर्वार्द्ध में प्रारम्भ हो चुकी थी। उन्होंने वाजिदअली शाह के लीलानाटक राधा कन्हैया का किस्सा से जिस रहस की परम्परा का उदय माना है, वह संगीत नृत्य परक नौटंकी ही था।

इसी समय बुन्देलखंड की अनेक रियासतों (झाँसी, चरखारी आदि) में रंगशालाएँ स्थापित हुई थीं, पर यहाँ की रहस परम्परा संगीतनृत्य प्रधान होते हुए भी सांगीत या नौटंकी में परिणत नहीं हुई। बुन्देलखंड में रहस की परम्परा तीन रूपों में मिलती है। 

1- ब्रजबोली की रास-परम्परा
2- बुन्देली की रहस-परम्परा
3- लीलानाट्य-परम्परा।

ब्रजबोली की रासलीला यहाँ बहुत पहले से प्रचलित रही है। ब्रज में रासलीला-मंच 16वीं शती के प्रारम्भ में संगठित किया गया, वह ओरछा में आया स्वामी हरिराम व्यास से जुड़कर फिर ‘रास’ के लिए बृज की मंडलियाँ यहाँ आने लगीं जिनका अनुकरण यहाँ के कलाकारों ने किया। बाद में उनकी प्रकाशित पोथियाँ भी मंच का आधार बनीं।

आज भी इस परम्परा के मंच पर ब्रजी में ही गीत-संवाद होते हैं, केवल बुन्देली स्वर या टोन का प्रभाव छाया रहता है अथवा गद्य में बुन्देली सहजतः प्रवेश कर लेती है। रियासतों में रासलीला का निर्देशन और अभ्यास कराने वाले ब्रज से बुलाए जाते थे और वे ब्रजी में लिखित लीलाओं का पाठ ही कलाकारों से कराते थे।

छतरपुर-नरेश विश्वनाथ  सिंह  (1867-1932   ई.)  के  समय  में  ब्रज  के  कलन्दर  सिंह  रासलीला  के  स्वरूपों  को अभिनय-गायन की शिक्षा देने के लिए नियुक्त हुए थे। यह परम्परा बीसवीं शती के प्रथम चरण तक चलती रही। बुन्देली की रहस परम्परा भी रास-परम्परा के समान्तर चलती रही।

यह निश्चित है कि वह ब्रज की रासलीला से प्रेरित होकर 17वीं शती में उत्थित हुई और दो रूपों में पल्लवित हुई, कई कतकारियों की रहस-लीला, जो हर कार्तिक में कतकारियाँ स्वयं खेलती हैं और दूसरा लीलानाट्य जो कार्तिक में या दूसरे अवसरों पर मंडलियों द्वारा मंचित होता है। दोनों को रहस ही कहा जाता है।

कतकारियों का रहस
कतकारियों का रहस बुन्देलखंड की व्रत-परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करनेवाली कतकारीं गोपी-भाव से जितने क्रिया-व्यापार करती हैं, वे सब रहस की सही मानसिकता बना देते हैं। इस कारण शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन (कहीं-कहीं चार-छह या आठ दिन) रहस का सही समय होता है। अधिकतर दधिलीला, चीरहरन, माखनचोरी, बंसीचोरी, गेंदलीला, दानलीला रहस आदि अभिनीत की जाती हैं।

मंच खुला हुआ सरोवर-तट, मन्दिर-प्रांगण, नदी-तट पर विशिष्ट स्थान और जनपथ होता है। मंच सज्जाविहीन किन्तु स्वच्छ अपनी प्राकृतिक स्थिति में रहता है और कतकारीं वस्त्रों में थोड़े से परिवर्तन के साथ पुरुष एवं स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकतर पद्य में होते हैं, गद्य की एकाध पंक्ति ही बीच-बीच में गुँथी रहती है। पात्रों को छोड़ शेष कतकारीं और अतकारीं (अन्य) दर्शक रहती हैं।

सभी उपकरण प्राकृतिक होते हैं, जैसे चीरहरन में सरोवर या नदी का तट, तट के किनारे का वृक्ष और कतकारियों द्वारा लाए वस्त्र। बुन्देलखंड में कतकारीं छैंकबे (रोकने) कौ प्रसंग (दानलीला) बहुत महत्त्वर्पूण है। कहीं-कहीं उसकी तिथि अष्टमी या कोई अन्य नियत होती है।

जनपथ में गातीं हुई जाती कतकारियों को कुछ ग्वाल-बाल बने पुरुष पात्रा रेखा खींचकर या रस्सी से छेंकते हैं और फिर दोनों दलों में एक दल होता है गोपियों और राधा के रूप में उपस्थित कतकारियों का और दूसरा प्रश्नोत्तर शैली में संवाद होते हैं।

कृष्ण और ग्वालबालों के रूप में आए पुरुषों का प्रश्नों का उत्तर गोपियाँ या ग्वाल-बाल कभी-कभी वहीं तुरन्त बनाकर देते हैं। इस प्रतियोगिता की घड़ी में उत्तर देना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। अतएव इस चुनौती-भरी लीला देखने के लिए दर्शकों की भीड़ लग जाती है।

ग्वाल -धन्न-धन्न है घरी आज की भलें मिलीं ब्रजबाला।
चन्दमुखी तुम ठाँड़ी रइयो टेरत हैं। नन्दलाला।।
गोपी -काए छैंकी गैल हमारी का है अपनो काम ?
कौन देस के हौ तुम राजा का है अपनो नाम ?
कृष्ण – ब्रज गोकुल के हम रहवैया किसन हमारो नाम।
दान दई को लेत सबई सें एई हमारो काम।।
गोपी – बिन्द्राबन की कुंज गलिन में छेड़त नार पराई।
बने फिरत हो ब्रज के राजा करत रए हरवाई।।
कृष्ण – हर हाँके सें अन्न होत है हर की घर-घर पूजा।
तीन लोक चैदा भुवन में हर समान नईं दूजा।।

लीलानाट्य के रूप में मंडलियों द्वारा अभिनीत ‘रहस’ अधिकतर कार्तिक व्रतों के अवसर पर अथवा उत्सव और मेला में होते हैं। मंच या तो मन्दिर का विस्तृत प्रांगण, गाँव-नगर की चैपाल और रासचैंतरा होता है,  या फिर विशिष्ट रूप में  तैयार किया गया सज्जित  तख्तों का मंच। बुन्देलखंड की रियासतों में अधिकतर रासचैंतरा निर्मित किए गए थे जिनकी एक तरफ राधाकृष्ण  आदि के लिए पक्के सिंहासन थे और पूरे चबूतरे में पक्का फर्श था।

हर जगह निश्चित तिथि पर रासलीला होती है। कृष्ण-राधा बननेवाले पात्र ‘सरूप’ कहे जाते हैं और वे उस अवधि में पूज्य माने जाते हैं। रियासतों में उनके लिए भोजन, वस्त्रा और विदाई की सुविधाएँ थीं। वे बग्घी पर डंका-निशान के साथ ले जाए जाते थे। इसी तरह अन्य मंडलियों के सरूप भी सदा सम्मान पाते रहे हैं।

बुन्देली प्रदेश विस्त त होने के कारण अनेक मंडलियों के लिए विख्यात रहा है, यहाँ तक कि छतरपुर के आस-पास के ग्रामों ब्रजपुरा, सौंरा, सरसेड़ आदि तक की मंडलियाँ भ्रमण करती रहती हैं। इनमें कुछ व्यावसायिक हैं जो निश्चित धनराशि लेती हैं। कभी-कभी टिकिट से भी लीला करती हैं। इनके मंचों में एक या दो परदों की व्यवस्था होती है।

रंगभूमि में मंच की एक तरफ मृदंग एवं पखावज के बदले अब ढोलक या तबला, हारमोनियम और सितार, मंजीरे आदि वाद्यों के साथ भजन होता है। फिर समाजी या सूत्राधार लीला की प्रस्तावना करता है। पहले राधा-कृष्ण की आरती और प्रार्थना होती है, फिर मंगलाचरण  के उपरान्त लीला प्रारम्भ पर सखी (गोपी) कृष्ण से रास या लीला के समैया (समय) की सूचना देकर उसमें  सम्मिलित होने का निवेदन करती है और कृष्ण राधाजी से अनुरोध करते हैं।

सभी संवाद पद्यबद्ध होते हैं, गद्य का उपयोग कम-से-कम होता है। कथा गतिशील करने के लिए समाजी पद्य में ही वर्णन न करने का उपक्रम करते है। मनसुखा विनोदी विदूषक के रूप में गद्य का प्रयोग करने की छूट रखता है। बीच-बीच में गोपियों के साथ अकेले कृष्ण या राधा-कृष्ण का मंडलाकार नृत्य अनिवार्य-सा है। लीला-अभिनय में हाव-भाव प्रधान हैं जिनके प्रदर्शन में सभी पात्रा प्रगल्भ होते हैं।

अन्त में सरूपों की आरती के बाद मांगलिक कामना-स्वरूप पद या गीत के साथ पटाक्षेप होता है। किसी विशिष्ट लीला के बीच कथा-विस्तार के लिए कभी-कभी कुछ छोटे-छोटे रुचिकर प्रसंग संयोजित कर दिए जाते हैं। गोदोहन का एक प्रसंग प्रस्तुत है।
गोपी – हमारे मनमोहन प्यारे, चलौ लगाउन गैया।
चलौ-चलौ हे कुँवर कन्हाई, कबसैं तुमें बुलाउन आई,
देखौ तरसत घरै लवाई, दिना दसक को ब्यानी गैया।
तने ऐन हुमकत बा ठाँड़ी, दूजो को है हाँत धरैया।। हमारे.।।
कृष्ण -तुमरे घरै न जैबी ग्वालिन, तुम हौ चंट चमकनूँ जालिन,
झूँटो रच-रच देव उरानौ, घर खिसयाबे मैया।। हमारे.।।
गोपी –  सई तुम हो कारे-कारे, मूड़ैं-काँधे कम्मर डारे,
तनक-मनक हौ तुम बिचकैया, कछुक बिचकनूँ गैया।। हमारे.।।

कृष्ण -विषयक रहस के समान रामरसिक भक्तों ने राम-विषयक रहस की रचनाएँ की हैं। ये रहस बुन्देलखंड में ‘महली’ भक्ति-भावना के अंकुर हैं और इनका अभिनय राजमहल के अन्तःपुर या क्रीड़ा-उद्यानों में किया जाता था। 18वीं शती में रामरसिक भक्ति के उत्कर्ष-काल में इन ‘रहसों’ का मंचन कृष्ण-विषयक ‘रहस’ के अनुसरण पर शुरू हुआ था, जो बीसवीं शती के तीसरे दशक तक चलता रहता है।

इन रहसों की तकनीक रासलीलाओं की तरह ही है,  अन्तर इतना है कि ये राजसी सज्जा और शिष्टाचार से बँधे हैं, इसलिए इनमें सहजता का अभाव-सा है। दूसरे, लोक में  राम-सीता की परिकल्पना मर्यादा की धुरी  पर घूमती रही है,  इस वजह से उनका मंच सीमित ही रहा, लोक में व्यापक और प्रिय नहीं हो सका।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देलखण्ड की लोक नाट्य परंपरा 

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