बुन्देलखण्ड में Shivaratri Chaudas शिवरात्रि चऊदस व्रत कौ भौतई महत्त्व है । लागत फागुन की चऊदस खौं होत । ई व्रत खौं इतै की सबसै जांदां औरतई करत हैं । दिन भर शंकर जी की पूजा रचा करीं जात, उर रात कैं शंकर जी के ब्याव में जागरन करती । कछू-कछू पुरुष सोऊ सेवराँतरी चऊदस उपासे रत। अकेलें औरतन की संख्या सबसे जादा होत ।
रात भर मन्दिर के आँगन में बैठ कै बनरा गाऊती । पंडित जोर -जोर से मंत्र पढ़ – पढ़ कै भाँवरे पराऊत । कायदे सें टीका होत उर पाँव पखरई कराई जात। कितऊँ-कितऊँ तौ शंकर जी की बरात कड़त । हाती, घुरवा, ऊँट सबई होत ऊ बरात में फिर पछारी सै शंकर जू के गणन की टोली कड़त । उदनाँ लोगन को खूबई मनोरंजन होत। उदनाँ मौड़ी मौड़न के मूँढ़ने होत उर दूसरे दिना शंकर जू खौं मलीदा चढाव जात ।
उदनाँ औरतें उपासी रतीं उर व्रत की एक कानियाँ कन लगती तीं। ऊकानिया में एक शिकारी के कामन में इकदम कैसें अंतर आ गओ । ऊपै शंकर जू की कैंसे इत्ती जादा कृपा हो गई, जे सब बातें ई कानिया में बताई गई है । जा एक भौत पुरानी किस्सा है…. ।
एक जंगल के किनारे एक शिकारी बहेलिया रत्तो । वौ हमेसई धनुष बान टाँगे जंगल में घूमत रत्तो। उतै जौन जानवर आबड़ में बिदो वौ ओइयै मारकै टाँग ल्याउततौ। उर ऊकौ माँस राँदकै खात रत्तो। ऊके बाल बच्चा ओई माँस सैं अपना पेट भरत रत्ते । कोनऊ ना कोनऊ शिकार उ रोज मिलई जात तो।
एक दिना वौ पूरे जंगल में भटकत रओ, उर कोनऊ सिकार हातें नई लगो । फिरत-फिरत कौ बुरईतरा सैहार गओ । उर हारो थको एक तला के किनारे सुस्तान लगो । पैलाँतौ ऊने तला कौ ठण्डो पानी पियो, उर तनक देर नौ उतई बैठो रओ । उतै किनारे पै एक बेल कौ बिरछा ठाढ़ो तो । बेल के नैचे एक बड़ी संकर जी की पिण्डी बिराजी ती । बहेलिया खौं ऊसें कछू नई लैने देने तौ । बेल में फल उर हरीरे पत्ता देखकै ऊके मन में आई कै हम ऐई पेड़ पै बैठकै आराम करे । उर वौ उचक के पेड़ पै चढ़ गओ ।
ऊके चढ़ें सै बेल के पत्ता गिर- गिर कै शिव जी की पिण्डी पै अवढ़ाये चढ़न लगे। भोला भोलई है बेल पत्ती चढ़ाये सै खुस हो गये, उर वौ अनजाने में भोला कौ भक्त बन गओ । उर वौ ओई बेल के पेड़ पै बड़ी रात नौ बैठो रओ । रातई में एक ग्यावन हिन्नी ऊ तला में पानी पीवे आई । उयै देखतनई ऊने उपै तीर कौ निसानौ सादौ उयै तीर ताने देखतनई हिन्नी ने कई कै भइया तुम हमें कछू दिना और जियन दो हमाये पेट में बच्चा है। बच्चा के होतनई तुम हमाव शिकार कर लियौ ।
संकर जू की कृपा सै बहेलिया खौं हिन्नी पै दिया आ गई, उर ऊने उयै छोड़ दओ । वौ परेसान सौ तौ हतोई उर फिर वौ ऊ बेल के पत्ता टोर-टोर कै नैचे झारन लगो उर वे पत्ता पिण्डी पै गिरन लगे । जैसे-जैसे पत्ता पिण्डी पै गिरत ते सो शंकर जू प्रसन्न होत जातते । इतेकई में एक और हिन्नी तला में पानी पीवे खौं पौची।
बहेलिया तौ ताक में बैठऊ हतो । ऊने जईसै ऊपै निसानौ सादन जाव, सो बोली कै भइया अबै हम मइना से हैं। कजन तुम हमाई हत्या कर दैव तौ तुमें भौत बड़ो पाप लगे । सुनतनई ऊनें तीर खौँ टाँक पै धर लओ । उर सांत हौकै रै गओ । हिन्नी हरौँ – हराँ चली उर ओई जंगल में बिला गई। ऐसई ऐसे पेड पै चढ़ें – चढ़ें उयै आदी रात हो गई ।
बहेलिया चिन्ता में बैठो बेल के पत्ता टोर- टोर कें मेंकत जा रओ तो, उर ऊके मनमें दया उर प्रेम उपजत जा रओ तो । भीतर-भीतर कछू धुना बीदी सी लगी ती कै आज कौ दिन बेकारई चलो गओ । कोनऊ सिकार नई मिल पाव । हमाये बाल बच्चा भूके डरे हुइयै । वौ ऐसी सोसत जाय उर बेल पत्री टोर-टोर के नैचे डारत जाय। संकर जी कौ अनजाने में वौ भौत बड़ो भक्त बन गओ तो ।
इतेकई में तीन छौनन खौं संगै ‘लुआ कै एक हिन्नी पानी पीवे खौँ आई । बहेलिया ने फिर कऊ निसानौ साधो । हिन्नी बोली कै भइया ई हमाये बच्चा अबै भौतई हल्के है । पैला हमे इने इनके बाप के लिंगा पौचा आन दो। फिर तुम हमाव सिकार कर लिइयौ । बहेलिया कौ मन तौ बदलई गओ तो, ऊने उयै छौड़ दओ । ऐसई ऐसे भुन्सरों हो गओ उर ऊके हाते कोनऊ सिकार नई लगो । वौ सोस – सोस भौत हैरान हतो कै आज कौ हमाओ दिन बेकार चलो गओ । अब हम घरै जाकै का जबाब देंय ।
इतेकई में उयै एक मोटो ताजौ हिरन पानी पियत दिखानौ। वौ तौ तैयार बैठऊ हतो । ऊने निसानौ सादन चाव सो बोलौ कै देखौ भइया हम सबई हिन्नन के रच्छक है। हमाये मरे सैं सबई की दुर्गत हो जैये । ईसै भइया तुम हमें छोड़ दो। बहेलिया कौ मन पसीज गओ उर ऊने ओइयै छोड़ दओ । देखौ उदनाँ शिवरात्रि चऊदस कौ पर्व हतो सो उदना बहेलिया कौ दिन उर रात कै उपास हो गओ ।
रात में जागरन हो गओ । उर जाने अनजाने बेपत्त चढ़ा-चढ़ा शिव जी कौ पूजन हो गओ । अब सोसो कै शंकर जू ऊपै खुस कायनई हुइयै। ऊ बहेलिया के मन पै ऐसौ परभाव परो कै उदनई सै ऊने सिकार करबो छोड़ दओ । उर मैनत मजूरी करकै अपने परवार को भरन पोसन करन लगो । जौ उपास तौ अनजाने में हो गओ तो । अब वौ पापी जीव हर सालै सेवरात्री कौ उपास करन लगे । उर सुक भोगत भोगत अंत में सिवलोक खौं चलो गओ ।
भावार्थ
बुन्देलखण्ड में इस व्रत का बहुत महत्त्व है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। इस व्रत को बुन्देलखण्ड की महिलाएँ विशेष महत्त्व देती हैं। महिलाएँ दिन भर शिवजी की पूजा-अर्चना में व्यस्त रहती हैं और रात्रि शिवजी के विवाह के अवसर पर जागरण करती हैं। कहीं-कहीं पुरुष वर्ग भी व्रत और उपवास करता है, किन्तु इस उपवास में महिलाओं की सर्वाधिक भागीदारी होती है।
शिवजी के विवाह के अवसर पर वे रातभर मंदिर के प्रांगण में एकत्रित होकर विवाह के गीत गाती हैं। पंडित लोग जोर-जोर से मंत्रोच्चारण करते हैं । विधिवत द्वारचार और पाँव पखरई होती है। कहीं-कहीं तो बड़ी धूमधाम से शिवजी की बारात भी निकाली जाती है, जिसमें हाथी घोड़ा और ऊँटों को शामिल किया जाता है। साथ ही शिवजी के विकराल गण भी उछलते-कूदते हुए दिखाई देते हैं।
अनेक मनोरंजन के साधन भी एकत्रित किए जाते हैं। खूब नाच-गान और मनोविनोद होता है। बच्चों का मुण्डन संस्कार किया जाता है। शिवजी को मलीदा का प्रसाद लगाया जाता है । उस दिन महिलाएँ उपवास करती हैं और पूजा के अवसर पर व्रत के महत्त्व पर आधारित कथा भी सुनाई जाती है । उस कथा में बताया गया है कि एक हिंसक शिकारी के स्वभाव में शिवजी की कृपा से कैसे परिवर्तन आ जाता है। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन उस लोक कथा में किया गया है।
एक जंगल में एक हिंसक बहेलिया शिकार करता था । वह रोज कंधे पर धनुष टाँगे हुए जंगल में विचरण करते हुए पशुओं का शिकार करता रहता था। उसे जंगल में जो भी पशु दिखाई देता था, वह उसे मारकर टाँग लाता और उसका माँस पकाकर खाता रहता था। सच पूछा जाय तो वह भयंकर आसुरी वृत्ति का व्यक्ति था। उसे रोज कोई न कोई शिकार मिल ही जाता था ।
एक दिन वह पूरे जंगल में भटकता रहा, किन्तु उसे कोई शिकार नहीं मिला। फिरते-फिरते वह बुरी तरह से थक गया और थका मांदा एक तालाब के किनारे विश्राम करने लगा। उसने तालाब का ठंडा पानी पिया और थोड़ी देर तक वहीं सीढ़ियों पर बैठा रहा । उसी तालाब के किनारे पर एक बेल का वृक्ष खड़ा हुआ था । उसी बेल के नीचे एक बड़ी सी शंकर जी की मूर्ति स्थापित थी।
उस बहेलिए को उस मूर्ति से कोई मतलब नहीं था । उस बेल में लगे हुए फल और हरे पत्ते देखकर उसके मन में उस वृक्ष पर बैठकर विश्राम करने की इच्छा जाग्रत हुई और वह उछलकर उस वृक्ष पर चढ़ गया, जिसके कारण बेल के पत्ते अपने आप टूट-टूट कर शिवजी की पिण्डी पर गिरने लगे। आखिर भोले तो भोले ही हैं । बेल के पत्ते अपने आप गिरने से शिवजी बहेलिए से प्रसन्न हो गए। इस प्रकार वह बहेलिया अनायास ही शिवजी का भक्त बन गया। वह बहेलिया आधी रात तक उसी वृक्ष पर बैठा रहा ।
रात में ही एक गर्भिणी हरिणी उस तालाब में पानी पीने के लिए पहुँची । उसे देखते ही उस बहेलिए ने उस पर तीर का निशाना साधा। बहेलिए को तीर चढ़ाए देखकर हिरणी ने कहा कि भइया मुझे कुछ दिन और जीने दीजिए, क्योंकि मेरे पेट में बच्चा है । बच्चा उत्पन्न होने के बाद आप हमारा शिकार कर लेना । भगवान शंकर की कृपा से बहेलिए के मन में दया उत्पन्न हो गई और उसने हरिणी को छोड़ दिया।
बहेलिया परेशान तो था ही, वह बेल के पत्ते तोड़-तोड़ कर नीचे गिराने लगा और वे पत्ते शिव जी की पिण्डी पर अपने आप चढ़ने लगे। जैसे-जैसे वे पत्ते पिण्डी पर गिरते थे, शिवजी बहेलिए से प्रसन्न होते जाते थे । इसी बीच में एक दूसरी हरिणी उस तालाब में पानी पीने के लिए पहुँची ।
बहेलिया तो शिकार के लिए तैयार बैठा ही था। बहेलिया ने उस पर निशाना साधना चाहा, तब वह बोली कि भइया इस समय मैं मासिक धर्म से हूँ। यदि आप मेरा वध कर देंगे तो आप पर बहुत बड़ा पाप चढ़ जायेगा । सुनते ही उसने धनुष को रख दिया और शांति से बैठ गया। हरिणी प्राण बचाकर जंगल में विलीन हो गई ।
इसी तरह बेल के वृक्ष पर बैठे- बैठे उसे वहीं आधी रात हो गई । बहेलिया समय काटने के लिए अब करता ही क्या, बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंक रहा था और वे पत्ते पिण्डी पर चढ़ते जा रहे थे । बहेलिए के मन में दया और प्रेम के भाव उत्पन्न हो रहे थे। साथ ही उसके मन में चिन्ता भी थी कि आज का दिन बिलकुल बेकार चला गया। आज तो मुझे कोई शिकार भी नहीं मिला। अब मैं अपने बच्चों को क्या खिलाऊँगा?
वह इन सब बातों को सोचता जा रहा था और पत्ते तोड़-तोड़कर डालता जा रहा था और अनजाने में वह शंकर जी का परम भक्त बन गया। इसी बीच में तीन बच्चों को लिए हुए एक हरिणी पानी पीने के लिए पहुँची । उसे देखकर बहेलिया ने निशाना साधा। हरिणी ने कहा कि भइया अभी ये हमारा बच्चा बहुत छोटा है। पहले हमें इन बच्चों को इनके पिता के समीप भेज आने दीजिए, फिर आप मेरा वध कर देना । बहेलिए का मन तो शिवजी की कृपा से बदल ही चुका था।
उसने उस हरिणी को छोड़ दिया । इसी तरह बैठे-बैठे सवेरा हो गया और उस दिन उसे कोई शिकार नहीं मिल पाया। वह सोच रहा था कि अब मैं घर जाकर क्या उत्तर दूँगा । इसी बीच में एक मोटा ताजा हरिण वहाँ पानी पीने के लिए पहुँच गया। उसने उस पर निशाना साधना चाहा। तब वह बोला कि भइया हम सभी हरिणों के रक्षक हैं। हमारी मृत्यु होने से सभी हरिण निराश्रित हो जायेंगे।
इस कारण से आप हमें छोड़ दीजिये । यह सुनकर बहेलिए को दया आ गई और उसने उसे छोड़ दिया। संयोगवश उस दिन शिवरात्रि का पर्व था और उस बहेलिए का अनायास ही उपवास हो गया। रातभर का जागरण हो गया । और अनजाने शिवजी पर बेलपत्री चढ़ाकर उनका पूजन हो गया। इन समस्त अनायास क्रियाओं से अब शिवजी उस पर प्रसन्न क्यों नहीं होंगे, अवश्य ही होंगे ।
उस बहेलिए पर उस वातावरण का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उस दिन से उसने हिंसा करना छोड़ दिया और परिश्रम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगा । उपवास तो उससे अनायास ही हो गया था, किन्तु शिवजी की कृपा से वह पापी एक सात्विक प्राणी बनकर शिवजी का परम भक्त बन गया। व्रत और उपवास करके सुख भोगता हुआ अंत में शिवलोक को चला गया। ऐसा होता है शिवजी के व्रत का प्रभाव ।