Homeबुन्देली व्रत कथायेंGyaras Mata vrat Katha ग्यारस माता व्रत कथा

Gyaras Mata vrat Katha ग्यारस माता व्रत कथा

अपने इतैं की औरतें बड़े-बड़े कठिन व्रत उर उपास करतीं है । कछू – कछू तौ व्रत ऐसे हैं कि जिनमें चौबीस घन्टा नौ पानीअई नई पीनें आऊत । ऐसे व्रतन में तीजा, करवा चौथ उर निर्जला ग्यारस कौ Gyaras Mata vrat Katha जादां महत्व है।

उसै तौ कछू जनीं बारई मईना की ग्यासै उपासीं रत्तीं । पोथी सुनती फरार करती उर संयम नियम सैं रतीं । अकेलें सबसे जादाँ कठिन है, निर्जला ग्यारस कौ ब्रत । भर दुपरिया में चौबीस घंटा बिना अन्न पानी कै रैबौ कछू हँसी खेल नइयां । औरतें निर्जला ग्यारस की एक कानिया कन लगतीं हैं।

एक डुक्को नें एकदार बड़ी भाव भक्ति सैं निर्जला कौ ब्रत करो । डुक्को खौं बुढ़ापे में ब्रत करकैं का चानें तो । वे तौ अपने नाती नतन की सुक सुविधा कौ वरदान माँगवे खौं ब्रतकर रई तीं । वे अपनौ कर्रो जिऊ करकैं दिन भर तौ प्यास सार्दै रई । दिन कैं ग्यारस मइया कौ पूजन पाठकर बा पोथी सुनीं ।

पंडित जी खौं डबलन उर फलन कौ दान करो । दोंनन में भर-भर कैंबूरौ बाटों। फिर वे दो घन्टा नौ पानी में डरीं रई । खूबई पानी के करूला करें। बीसन दार नौं मौं धोव। तब तनक मनक साता पर पाई । घाम तौ चिल्लाटे कौ परऊ हतो । धर-धरी पै मौं सूक रओ तो। ऐसी कानात कन लगत कै छ: दूबरी उर दो अषाढ़, चरन गई दूर कौ हार एक तौ बुढ़ापौ उर जा जेठमास की गर्मी धरी-धरी पै अच्छे ज्वानन के मौं सूकन लगत, बुढापे की तौ हालतई अलग होत।

जैसे तैसे रो-धो के दिन तौ कट पाव । अब जे पहाड़ सीं राते कैसे कटतीं । हर-हर बेरऊ करोटा लेबै खाट पै । सौदार बायरै जाय उर भीतरै आँय । कन लगत कैंसत्य तौ सातई घरी कौ होत। कन्नो धीरज धरें वे । ग्यारस मइया खौं सुमरत रई बेकत रई ओ मताई हमाई लाज तौ अब तुमाई हाँतन में है। तुमई अब इत्तौं सत्य दै दिइयौ जीसैं जा रात शान्ति सैं कट जावै। अकेलै जब उनके प्रान सूकन लगे उर जिऊ खौं सातई नई परबै सोऊवे चिल्लया परी। अरे बचाव-बचाव मरे-मरे।

डुक्को को चिल्लयावौ सुनकें घर के नाती नता बऊयें बिटिया लरका उर पुरा परोसी जुर के उनकी खटिया के लिंगा पौंच गये, उर पूछन लगे कें काय बाई तुमें का हो गओ । तुमें बुढ़ापे में ब्रत की का औरी? ऐसी कानात कई जात कै- बाप राज खाय न पान, दाँत निपोरें कड़ गये प्रान । तनक देर में वे फिरकऊँ बोली अरे हम तो मरे – मरे । अरे छाती पै ठण्डे पानी को डबला धरो । नातियन नें दोंर कें छाती पें ठण्डे पानी कों डबला धरो । तब तनक साता पर पाई उर वे तनक झप गई ।

ग्यारस मइया ने सोसी कै है तो डुकरिया भौत कर्री । तोऊ तनक ईकै ब्रत की परीक्षा तो लेनईआय। वे आदी रात के कुकरा बनकै कुकरूकू करन लगी । कुकरा की टेर सुनकै डुकरो चिटपिटा केंउठी उर बायरैं कड़ कै देखो सो उर्ने क्याऊँ बादर में भुन्सरिया तरा नई दिखानौ। वे सोसन लगी कै जौ कुकरा कितै सें बोल परो । प्यासन के मारैं तनक मन तौ उनकौ डावा डोलतौ हतोई। वे पैलातौँ धीरज खोउन लगी फिर उन्हें सोसी केंहम तो व्रत पूरी करकै छाड़ै । चाय भलेई प्रान कड़ जाय।

जा सोस कै वे फिरकऊँ गुड़मुड़या कैं डर रई । घन्टाक में फिर एक नाटक भओ। एक हल्की सी मौड़ी शरबत गिलास लये बऊके मुड़ीछें आन ठाँढ़ी भई । उर जोर से बोली कै बाई उठौ भुन्सगँ हो गओ। उर मौं हात धोकै शरबत कौ गिलास पीलो । पैला तौ गिलास देखकें उनकौ जिऊ ललचानौ उर फिर तनकई देर में निर्जला व्रत की खबर हो आई । उर उन्ने कई कैं अबै हम कैसऊँ जौ शरबत नई पी सकत । उर वे चुपचाप जाँ की ताँ पर रई ।

फिर उनें ऐसौ लगो जैसे काऊने उर्ने पानी के कुआँ में पटक दओ होय । बड़ी देर नौ तौ वे ऊमे वे अपने हाँत पाँव चलाऊत रई । अकेलै उन्हें पानी कौ बूँदा मौ में नई जान दओ । उर वे डटके अपनो पूरौ ब्रत सादै रई । तनकई देर में कुजने कितै सै आग की झण्डार बरन लगी । भारी गर्मी बढ़ गई। प्यास के कारन प्रान कड़न लगे । अकेलै डुक्को कौ बार वाँको नई भओ । वे जाँ की ताँ मुसक्यात सी बैठी रई ।

तनक देर में बायरैं उजयारौ सौं दिखान लगो । जैसै भुन्सरा हो गओ होय । उन्हें बायरै कड़कै देखो सोऊ जान लई कै अबै तौ भुन्सारे में तीन चार घण्टा की देर है । जा जानकै वे शान्त होकै घूमन फिरन लगीं। ग्यारस मइया नें जा बात अब अच्छी तरा सै जान लई कै अब वे अपने ब्रत सै कैसऊ डिंग नई सकत। डुक्को के सत्य खौं वे पूरी तरा सैं जान गई ।

भुन्सरा होतनई उन्हें अस्नान करें भगवान कौ पूजा पाठ करो । ग्यारस मइया की पोथी सुनी। पंडितन खौं दच्छना दई उर उनके भोजन कराये। तब कऊँ उन्ने पानी पियो । पैल कन्यन के भोजन कराये फिर अपन पान्ने करें । ब्रत के प्रताप सैं उनकी आबरदा बढ़ गई । उनको घर परिवार हरो – भरो हो गओ । घर में नऊ तरा की कमती नई रई ।

नाती नता बऊये उर बिटियन सैं उनकी बखरी भर गई । उर फिर वे ओई दिना सैं बारई मईनन की ग्यारस कौ ब्रत करन लगी । ग्यारस मइया की कृपा सैं वे इतै हरतरा के सुख भोग कै सूदी बैकुण्ठे चली गई। ऐसौ है तुरतई फल देबे वारौ ग्यारस मइया कौ ब्रत। ओई समय सै घर-घर ग्यारस कौ ब्रत होन लगो । उर लोगन के दुःख दालुद्दर दूर होन लगे। कुलजुग में ई ब्रतकै जादा प्रभाव है । ई कारन सै ‘की ओरतें ई ब्रत खौं कभऊँ भूली नइयाँ । वे पंडितन सै ई ब्रत कौ समय पूछतई रती हैं।

भावार्थ

बुन्देलखण्ड की महिलाएँ अनेक प्रकार के कठिन व्रत किया करती हैं, कुछ ऐसे भी व्रत हैं जिनमें चौबीस घंटे पानी नहीं पीना पड़ता है । इस प्रकार के व्रतों में तीजा, करवाचौथ और निर्जला एकादशी का प्रमुख स्थान है । कुछ महिलाएँ तो बारह महीने एकादशी का व्रत रखती हैं।

उस दिन वे कथा सुनती हैं, फलाहार करतीं और संयम नियम से रहती हैं, किन्तु सबसे अधिक कठिन है निर्जला एकादशी का व्रत । उन दिनों बड़ी तेज धूप पड़ती है । उस भयंकर गर्मी के समय भूखा-प्यासा रहना, कोई साधारण कार्य नहीं है। महिलाएँ इस अवसर पर एक कथा सुनाने लगती हैं, जो इस प्रकार है –

एक बूढ़ी माँ ने एक बार निर्जला एकादशी का व्रत रखा, बड़ी ही भाव – भक्ति से पूजा- अर्चना की, उन्हें वृद्धावस्था में क्या बाधा थी? वे तो अपने पुत्र, पौत्रों की सुख-सुविधा के लिए व्रत रखने लगी थीं । वे दिन भर तो जरा कठोर मन करके अपनी प्यास को रोके रही। दिन में पूजा- पाठ किया, कथा सुनी और पंडित जी को मिट्टी के पात्र में भरकर पानी और ऋतुफल दान में दिए। दोना भर-भरकर बूरा वितरण किया। उन्हें गर्मी के कारण बहुत बेचैनी हो रही थी।

इस कारण से बड़ी देर तक पानी में पड़ी रही और पानी के कुल्ला करती रहीं, मुँह धोती रहीं तब कहीं थोड़ा बहुत धैर्य बँध पाया । धूप तो तेज पड़ ही रही थी, इस कारण बार-बार मुँह सूख रहा था । बूढ़ी माँ बहुत बेचैन हो रहीं थी । एक बुढ़ापा और दूसरे ये भयंकर गर्मी । वृद्धावस्था की स्थिति तो कुछ दूसरी ही प्रकार की होती है । जैसे-तैसे रो-धो के दिन कट पाया । अब पहाड़-सी रात सामने थी। उसका कटना बड़ा ही कठिन दिखाई दे रहा था ।

खटिया पर पड़े शांति नहीं मिल रही थी। वे बार- बार करवट बदल रही थीं। अनेक बार वे बाहर जातीं और भीतर आतीं। उन्हें घर के अंदर शांति नहीं थी। वे पड़ी-पड़ी एकादशी माता का स्मरण करती रहीं, वे कहती रहीं कि- हे माताजी ! आप मेरी लाज रखियेगा। आप ही मुझे शक्ति दे दीजियेगा, जिससे मैं भली-भाँति आपका व्रत कर सकूँ और ये पहाड़ सी रात शांतिपूर्वक व्यतीत हो सके ।

प्यास के कारण बूढ़ी माँ की बेचैनी तो बढ़ ही रही थी। उन्होंने धैर्य रखने का बहुत प्रयास किया, किन्तु सहनशीलता की सीमा टूट गई और वे घबड़ाकर एकदम चिल्ला पड़ीं । बोली कि बचाओ- बचाओ, बचाओ ! अम्मा का चिल्लाना सुनकर परिवार भर के नर-नारी बच्चे और पड़ौसी एकत्रित होकर बूड़ी अम्मा की खटिया के समीप पहुँच गये। सबने पूछा कि अम्मा जी आपको क्या हो गया है? आप क्यों चिल्ला पड़ी थीं। आप इस वृद्धावस्था में ये कठिन व्रत क्यों कर रही हैं ।

अम्मा जी ! शक्ति से ही भक्ति होती है । थोड़ी ही देर में वे फिर से बोलीं कि अरे ! हमारे तो प्राण ही निकले जा रहे हैं । मेरी छाती पर ठण्डे पानी का घड़ा रख दीजिये । नातियों ने दादी की छाती पर ठण्डे पानी का पात्र रख दिया । तब कहीं उन्हें थोड़ा बहुत आराम मिला और थोड़ी देर के लिए उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं ।

एकादशी माता ने सोचा कि ये बूढ़ी अम्मा है तो बहुत कठोर, जरा जाकर उसकी परीक्षा लेना चाहिए। वे आधी रात को मुर्गा बनकर टेर लगाने लगीं। मुर्गा की आवाज सुनकर दादी जल्दी से उठीं और बाहर जाकर आसमान की ओर देखा, किन्तु आसमान में कहीं उन्हें प्रात:कालीन तारा दिखाई नहीं दिया। वे सोचने लगीं कि ये मुर्गा क्यों और कैसे बोल गया है? उन्हें प्यास तो बढ़ ही रही थी।

थोड़ा बहुत उनका मन भी विचलित होने लगा था, किन्तु अंत में उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि मैं अब व्रत को पूर्ण करके ही छोडूंगी । चाहे भले ही मेरे प्राण निकल जांये । ये सोचकर फिर वे खटिया पर शिथिल होकर लेट गई। थोड़ी ही देर में एकादशी माता ने उनकी फिर से परीक्षा लेनी चाही। एक छोटी सी बालिका एक गिलास में शर्बत लेकर उनके सिरहाने खड़ी हो गई और जोर से बोली कि दादी जी सबेरा हो गया है ।

आप हाथ-मुँह धोकर शर्बत पी लीजियेगा। पहले तो शर्बत का गिलास देखकर उनका मन ललचाने लगा, किन्तु अचानक व्रत का स्मरण हो आया और उन्होंने सोचा कि मैं किसी भी प्रकार से अभी शर्बत नहीं पी सकती हूँ और वे शांतिपूर्वक अपनी खटिया पर लेट गईं। फिर थोड़ी ही देर में उन्हें ऐसा लगा कि जैसे किसी ने उन्हें पानी के कुँए में पटक दिया हो। वे बड़ी देर तक उस कुँए में हाथ-पाँव चलाती रहीं, किन्तु उन्होंने अपने मुँह में पानी की एक बूँद भी नहीं जाने दी और वे दृढ़तापूर्वक अपना व्रत पालती रहीं।

थोड़ी ही देर में न जाने कहाँ से सामने आग जलने लगी, जिससे भारी गर्मी बढ़ने लगी । प्यास के कारण प्राण निकलने लगे, किन्तु बूढ़ी अम्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ पाया। वे जहाँ की तहाँ मुस्कराती हुई सी बैठी रही। थोड़ी ही देर में बाहर प्रकाश दिखाई देने लगा । ऐसा लगा कि जैसे सवेरा हो गया हो ।

बूढ़ी अम्मा ने जब बाहर निकल कर देखा तो समझ गईं कि अभी सवेरा होने में तीन चार घंटे की देरी है। यह जानकर वे शांतिपूर्वक इधर-उधर घूमने फिरने लगीं । एकादशी माता ये बात अच्छी तरह से समझ गई कि ये बूढ़ी अम्मा किसी भी प्रकार से अपने व्रत से नहीं टल सकती है। वे उनके सत्यव्रत को अच्छी तरह से समझ गईं ।

सवेरा होते ही बूढ़ी माँ ने स्नान किया। भगवान का पूजन-पाठ किया, एकादशी माता की कथा सुनी। ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर भोजन कराया। तब कहीं उन्होंने जल ग्रहण किया । कन्याओं को भोजन कराने के बाद अम्मा ने भोजन किया । उस श्रेष्ठ व्रत के प्रताप से बूढ़ी अम्मा की आयु में वृद्धि हो गई। उनका घर परिवार हरा-भरा हो गया। घर में अब उनके कोई अभाव नहीं रहा। वे हर तरह के सुख-साधनों से संपन्न हो गईं ।

नाती नातिनों से उनका घर भर गया। और वे उसी दिन से बारह महीने की एकादशी का व्रत करने लगीं । एकादशी माता के व्रत के प्रताप से इस संसार में हर प्रकार के सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ धाम को चली गईं।

ऐसा है तुरंत फल देने वाला एकादशी माता का व्रत । उसी समय से संपूर्ण उत्तर भारत में यह व्रत प्रारंभ हो गया और लोगों के दुख दारिद्रय दूर होने लगे। कलयुग में यह व्रत अधिक प्रभावपूर्ण है। इस कारण से बुन्देलखण्ड की महिलाएँ आज तक इस व्रत को भूल नहीं पाई हैं। उन्हें इस व्रत को करने की विशेष इच्छा रहती है ।

मामुलिया – बुन्देली लोक पर्व 

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