यह लोकगाथा बुन्देलखण्ड की चरागाही संस्कृति पर आधारित दाम्पत्य-परक समस्या को केन्द्र में रखकर चलती है। Dharmasanvari Lokgatha चिड़िया धरमासांवरी और चिड़वा दंग रिछरिया का विवाद बच्चों के बँटवारे को लेकर है। । जो एक अदभुत प्रेम कहाँनी है। चिड़िया का तर्क है कि जंगल में आग लगने पर चिड़वा पलायन कर जाता है और चिड़िया आग की परवाह न कर अपने अंडों की सुरक्षा में पंख फैलाए भूखी-प्यासी बैठी रहती है।
एक समय की बात है, बीजावन नामक जंगल में एक चिड़ा और चिड़िया रहते थे । एक बार जंगल में आग लग गयी। बीजावन में एक अखेबर के पेड़ के नीचे चिड़िया ने अण्डे दे रखे थे। जंगल में चारों ओर आग लगी थी। जब चिड़ा ने देखा कि आग बहुत तेजी से बढ़ रही है, तब चिड़ा ने चिड़िया से कहा कि हम लोग इस बीजावन से कहीं और भाग चलें, लेकिन चिड़िया ने उसकी बात नहीं मानी।
चिड़िया ने चिड़ा से विनती की कि, तुम्हें भागना हो तो भाग जाओ, मैं अण्डों को छोड़कर नहीं जाऊँगी, मैं अपने अण्डों पर प्राण त्याग दूँगी । चिड़ा ने कहा कि अगर हम दोनों ज़िन्दा रहे तो बहुत-से बच्चे हो जायेंगे। चिड़िया तो अपनी जिद पर अड़ी रही, वह तो अखेबर के पेड़ के नीचे अपने अण्डों पर बैठी रही। इतनी बात सुनकर चिड़ा ने उड़ान भरी और वह जूनागढ़ पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर मौज से रहने लगा।
यहाँ चिड़िया ने अन्न-पानी त्याग दिया। वह अण्डों पर बैठकर ईश्वर का ध्यान कर रही थी । चिड़िया की तपस्या से इन्द्र भगवान का इन्द्रासन डोलने लगा, शम्भू का कैलाश भी डोलने लगा, वासुकि का फन डगमगाने लगा, अर्थात् एक चिड़िया के तप से इतने देवतागण संकट में पड़ गये। नारद मुनि को बुलाया गया, उनसे पूछा कि ऐसा कौन- – सा तपस्वी इस कलयुग में हो गया कि जिससे हमारे सिंहासन हिल उठे हैं।
नारद ने कहा कि एक चिड़िया बीजावन में अपने अण्डों पर बैठी तपस्या कर रही है। उस वन में चारों तरफ से आग लगी हुई है । वह चिड़िया अपने अण्डों की खातिर अपने प्राणों की बलि देने को तैयार है, सो हे प्रभु! वही तपस्वी चिड़िया है जिसके तप से आपका सिंहासन हिल उठा है। नारद मुनि ने कहा कि – प्रभु ! यदि पानी बरस जाये तो अग्नि शान्त हो जायेगी, चिड़िया के अण्डों को हानि नहीं हो पायेगी ।
भोलेनाथ ने डमरू बजा दिया। मेघों को जैसे खबर लगी, उन्होंने वर्षा की झड़ी लगा दी, आग शान्त हुई । चिड़िया तो यह देख फूली नहीं समायी। वह अण्डे फोड़ने लगी । अण्डों से बच्चे निकले और वे अपने घोंसले में बैठे थे। चिड़िया ने उड़ान भरी और बच्चों को दाना ले आई तथा बच्चों को दाना खिलाने लगी। कुछ समय पश्चात् जब बच्चे उड़ान भरने लगे तो चिड़िया ने बच्चों समेत रमना की तरफ उड़ान भर दी । रमना में पहुँचे तो चिड़ा को खबर लगी, वह फौरन आ गया, उसे आया देख चिड़िया ने मुँह फेर लिया।
उन दोनों प्राणियों में लड़ाई होने लगी, चिड़ा अपने बच्चों को लेने आया था । अन्त में चिड़िया ने कहा कि- हम बीजावन में वापस चलें, वहीं राजा की कचहरी में न्याय माँगेंगे। ये सब उड़ान भरकर बीजावन में राजा भोज की कचहरी में पहुँचे । कचहरी में राजा मौजूद थे, चिड़िया ने राजा से प्रार्थना की कि – महाराज ! मेरी अर्ज सुनें, मैंने अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है, जब ये अण्डे थे तो संकट की घड़ी में यह चिड़ा हमें छोड़कर भाग गया था। अब वह अपने बच्चे लेने आ गया है।
महाराज ! इसका न्याय आप करिये ? पंचों ने विचार किया और चिड़िया को फैसला सुना दिया कि- चिड़ा – चिड़ा सब चिड़ा के और चिड़िया – चिड़िया सब चिड़िया के हैं, आपस में बाँट लो, यह तुम्हारा हमारा है । चिड़िया ने कहा कि फैसला को आप ताम्रपत्र पर लिखकर दे दें। समस्त पंचों ने पत्र पर दस्तखत किये और चिड़िया को पत्र थमा दिया। चिड़िया ने पत्र अपने पास रख लिया । वह दुखी मन से वहाँ से उड़ान भरकर चल दी।
रास्ते में उल्टी- सीधी उड़ानें भरती जा रही थी । उसने एक सपील से अपना सिर दे मारा, सोचा कि मेरे साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है, इस दुनिया में कहीं न्याय नहीं है। जब मेरे बच्चे ही मुझसे छिन रहे हैं तो मैं ज़िन्दा रहकर क्या करूँगी । उसने सपील में अपना सिर दे मारा और मर गयी । राजा भोज की रानी छज्जे पर बैठी यह सब देख रही थी । उन्होंने विचार किया कि किसी दिन इसी तरह मुझे भी प्राण देने पड़ेंगे। उन्होंने खट पाटी ली और रूसे महल में जाकर रूठ गई।
यहाँ की बातों को यहीं छोड़ो और चिड़ा का हाल सुनिये ! उसने देखा कि चिड़िया ने अपने प्राण दे दिए हैं, चिड़ा ने सोचा कि अब मैं भी बिना चिड़िया के ज़िन्दा रहकर क्या करूँगा । चिड़ा ने भी सपील से अपना सिर दे मारा, वह भी मर गया, उन दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये।
चिड़ा और चिड़िया का अगला जन्म हुआ जलेसर नामक शहर में । चिड़िया ने बानासुर के घर जन्म लिया, उस कन्या का नाम ‘धर्मा साँवरी’ रखा गया । चिड़ा ने गोबर गाँव के सुकल अहीर के घर जन्म लिया, उसका नाम ‘दंगरिछरिया’ रखा गया। दंगरिछरिया दिन दूने- -रात चौगुने बढ़ने लगे। बचपन में ही उनके सिर से माँ – बाप का साया उठ गया था। कुछ बड़े हुए तो स्कूल पढ़ने जाने लगे।
दंगरिछरिया की नौ सौ नवासी गायें थीं, एक मलनियाँ साँड था, एक गंगाराम तोता था। वे अस्तबल से अपनी गायों को निकालकर चराने जाने लगे । यहाँ धर्मा साँवरी भी बड़ी होने लगी, वह स्कूल पढ़ने जाने लगी। सोलहपाटी तक की पढ़ाई उसने कर ली। एक बार उसने घोड़े खरीदे और नगर में छोड़ दिये, पूरे नगर की घोड़ियाँ गर्भ से हो गयीं ।
एक वर्ष बाद घोड़ियों के बच्चे हुए । यहाँ से दंगरिछरिया चले, उन्होंने सारे शहर की घोड़ियाँ मँगवा लीं। बस्ती के लोग इकट्ठे होने लगे, पंचायत हुई लोगों ने पूछा कि हमारी घोड़ियों को क्यों मँगाया गया है? पता चला कि धर्मा साँवरी के हुक्म से घोड़ियाँ दंगरिछरिया द्वारा लाई गईं । जब धर्मा साँवरी से पूछा तो उसने पिछले जन्म का वह ताम्रपत्र निकालकर पंचों को बतला दिया । यह देख उसकी माँ ने राजा से कहा कि अब हमारी बेटी सयानी हो गई है, उसका विवाह कर देना चाहिए ।
नाई, ब्राह्मण को बुलाया गया कि जाकर कहीं अच्छा घर-वर ढूँढ़ों हमारी बेटी लिए। नाई, ब्राह्मण ने सारे मुल्क में लड़के देखे लेकिन कहीं लड़का नहीं मिला । नाई और ब्राह्मण, दोनों वापस लौट आये। दंगरिछरिया एक दिन नदी से नहाकर बाहर निकला और अपने बालों में कंघी की, उसके कुछ बाल टूटे तो उन्हें एक पत्ते में रखकर नदी में छोड़ दिये। नीचे के घाट पर धर्मा साँवरी स्नान कर रही थी, उसने उस बहते पत्ते को उठा लिया और अपने घर का रास्ता पकड़ा। घर आकर माँ से कहा कि जिसके ये बाल हैं, मैं उसी से अपना विवाह करूँगी।
माँ ने घर में सबको बतला दिया। नाई, पंडित उसकी खोज में निकल पड़े। एक दिन घाट पर दंगरिछरिया से भेंट हो गयी, वह नहाकर अपने बाल सम्हाल रहा था, उसकी माँग लहरिया ले रही थी । ब्राह्मण रिछरिया से बोले कि तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ है? रिछरिया ने कहा कि गोबर गाँव में मेरा जन्म हुआ था, मैं उसी गाँव में रहता हूँ, अपनी गायें चराता हूँ । रमना में पंडित ने उनके ब्याह के बारे में प्रस्ताव रखा तो उन्होंने कह दिया कि मेरे घर में कोई नहीं है, न माँ-न बाप-न कुटुम्ब परिवार, बस अकेला हूँ।
पंडित ने अनुरोध किया कि आप शादी के लिए हामी तो भर दें। गंगाराम तोते ने पंडित से कहा कि मैं अपने भाई का ब्याह कराऊँगा । नाई, ब्राह्मण घर लौटे। रिछरिया को पंडित लड़की देखने के लिए बुला गये थे । उन्होंने अपनी गायों को उनके स्थान पर पहुँचाया, बजर सिला से अस्तबल को बन्द किया और विवाह की रस्म करने को गये । वे अपने हाथ में लुहांगी लिये थे, होने वाली ससुराल में पहुँचे, उनकी आवभगत हुई। बेटी देखने के पश्चात् ससुर को जैसे पता चला कि ये अकेले हैं और अकेले ही बेटी देखने आये हैं, तो उन्होंने रिछरिया से कहा कि अगर अब से अकेले आओगे तो मैं तुम्हारी खाल खिंचवा कर उसमें भूसा भरवा दूँगा ।
रिछरिया इतना सुनते ही वहाँ से भाग लिये, अपने घर वापस आ गये । सामने गंगाराम का पिजड़ा टंगा था। इनको सामने आया देख गंगाराम बोले कि – भैया ! अकेले ही आप लड़की देख आये, विवाह हो जाने पर तो हमें भूल ही जाओगे ! रिछरिया ने तोते को समझा लिया और आगे से तोते को ही सर्वेसर्वा बना दिया, कहा कि- तोतेराम ! तुम्हारे बिना कैसे विवाह होगा। जब रिछरिया की लग्न आनी थी, उसके पहले तोते ने सब तोतों को बुला लिया ।
एक बर्तन में चूना घुलवा दिया, तोतों ने अपने पंख चूने में डुबोकर दीवाल पर पुताई की, इस तरह से घर की सजावट उन्होंने कर दी। जब लग्न आई तो दुर्गाजी अपनी सातों बहनों को ले आयीं, लग्नोत्सव पर उन्होंने मंगलगीत गाये। लग्न के पश्चात् तोते ने रिछरिया से कहा कि- एक कागज़ पर आप निमंत्रण-पत्र लिख दीजिये, मैं बावन गढ़ी (राज्यों) में विवाह का नेवता देकर आ जाऊँगा ।
धीरे-धीरे विवाह का दिन आ गया, रसोई तपने लगी । विवाह में देवाधिदेव महादेव अपने नंदी सहित पधारे । इन्द्र ऐरावत हाथी पर आये, बासक समाज सहित पधारे । बारात चल पड़ी, रास्ते में आतिशबाजी चल रही है, बड़े ज़ोर-शोर से बारात आ रही है । बारात आने का समाचार जब राजा को मिला तो उन्होंने दूर से शोर-शराबा देखकर उनकी हालत बिगड़ने लगी, बोले- इतनी बड़ी बारात को खाना तो क्या इन्हें मैं पानी भी नहीं दे सकूँगा, क्या होगा? घबराने लगे। बेटी ने राजा को समझाया कि नदी पर बारात रुकवा देना और मेरी शीघ्र भाँवर पड़वाकर भोर में ही विदा कर देना ।
रिछरिया ने सुना तो बोले- खाने को तो मैं तुम्हारे बाप से ले लूँगा, मुझे क्या समझते थे? विवाह की रस्में होने लगीं। फिर विवाह के पश्चात् वहाँ एक बेड़नी (जादूगरनी) आई और उसने अपनी एक शर्त रखी कि मैं एक बाँस दरबार के बीचों-बीच गाड़ रही हूँ, यदि रिछरिया इस बाँस के ऊपर छलांग लगा दें तो ये जो कुछ भी शर्त रखेंगे, वह मैं पूरी करूंगी और यदि ये बाँस को नहीं कूद पाते तो मैं इनकी नाक में कौड़ी पहनाकर बारह साल तक इनको अपनी कैद में रखूँगी और इन्हें अपने पड़ों का बरेदी बनाकर रखूँगी ।
रिछरिया ने शर्त मंजूर कर ली। दरवाजे पर बाँस गाड़ा गया, जब ये बाँस पर छलाँग लगा रहे थे, उस समय उस जादूगरनी ने अपने से बाँस को बड़ा कर दिया जिससे ये उसके पार नहीं कूद सके और जब वह बेड़नी बाँस कूदने लगी तो उसने जादू से उसे छोटा कर दिया था । वह शर्त जीत गई। अब शर्त के अनुसार इनकी नाक में कौड़ी पहनायी गयी तथा बेड़नी के नौ सौ नवासी पड़ों का चरवाहा बनने की उसकी बात माननी पड़ी।
बेड़नी ने रिछरिया को कौड़ी पहनायी, पड़ा हाँकरने को हँकना दिया और इन्हें जूनागढ़ ले गई। वहाँ धर्मा साँवरी पर तो आपत्तियों का पहाड़-सा टूट पड़ा। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? कुछ लोगों ने सलाह दी कि रिछरिया के बहन के घर जाओ, शायद वहाँ तुम्हारी कोई मदद कर दे । रानी वहाँ चल दी। रास्ते में उन्हें किसी ने बतलाया कि तुम्हारी ननद के लड़का हुआ है। इन्होंने एक पालना-कपड़े आदि रास्ते में खरीदे और उन्हें लेकर ननद के घर पहुँची।
उन्हें आया देख ननद कुछ नाराज़गी हुई, लेकिन धर्मा साँवरी ने कहा कि- मैंने सुना था कि आपके लड़का हुआ है, सो मैं बधावा लेकर आयी हूँ । आप निमंत्रण करिये, मैं रस्म पूरी करूंगी। सबके जाने के पश्चात् इन्होंने अपनी सारी कहानी सुना दी। अपनी ननद से अनुरोध किया कि आप मुझे अपना लड़का दे दीजिए, मैं इसे पालूंगी, इसी के सहारे मैं अपना दुख भूली रहूँगी । ननद ने हामी भर दी। इन्होंने लड़के को गोद में लिया और वापस चल दीं।
ये उस नवजात को रुई के फोहे से दूध पिलाने लगीं। घर, गोबर गाँव पहुँचकर बच्चे की अच्छी तरह से परवरिश शुरू कर दी । धीरे- धीरे बच्चा बढ़ने लगा। कुछ समय पश्चात् वह बच्चा जिसका नाम ‘परसा’ रखा गया था, खेलने जाने लगा। बस्ती के लोगों ने समझाया कि- बेटा ! तुम्हारे मामा तो धनुष-बाण चलाते थे, तुम क्या ये छोटे-मोटे खेल खेलते हो? परसा घर आ गया और अपनी मामी से बोला कि – मेरी बात सुनिये, मुझे मामा का धनुष-बाण खेलने को चाहिए, वह मुझे ढूँढ़ दो।
धर्मा साँवरी ने घर की बावन कोठरियाँ (कमरे) खोलीं, धनुष-बाण ढूँढ़कर परसा को दे दिया। परसा ने देखा कि बाण की नोंक कुछ मोटी हो रही है, परसा लुहार की दुकान पर गये, उससे बोले- मामा! ज़रा बाण की नोंक को बना दो। लुहार ने बाण की नोंक बना दी। परसा उसे लेकर कुएँ की तरफ गये, सारी बस्ती की महिलाएँ पानी भर रही थीं ।
परसा एक तरफ बैठकर तीर चलाने लगे, पनहारिनों के घड़ों के निशान साधकर सैकड़ों घड़े फोड़ डाले। बस्ती के लोगों ने परसा को समझाया कि तुम्हारे मामा की नौ सौ नवासी गायें एक अस्तबल में बन्द हैं, तुम उन्हें निकालो और गायें चराने का काम शुरू कर दो। उन गायों को अस्तबल में बारह वर्ष बीत गये हैं, इतने बड़े समय में तो उनकी हड्डियाँ ही अस्तबल में बची होंगी।
परसा ने इतनी बात सुनी तो वह सीधा धर्मा साँवरी के पास गया और कहा कि- मैं खोंड़ा से गऊएँ निकालना चाहता हूँ और अब से मैं गऊएँ ही चराने जाऊँगा । उसे बहुत समझाया लेकिन उसने एक न मानी। धर्मा साँवरी ने कहा कि- भैया! तुम्हारे कानों के कुण्डल बड़े खूबसूरत लग रहे हैं, मेरे कानों में भी तरुकला है, भैया! मेरी और तुम्हारी जोड़ी बड़ी सुन्दर जोड़ी है । परसा तड़प उठा, मामी से बोला कि – अधर्म की बात मत कहो, तुम मेरी धर्म की माँ हो, अरे ! तूने मुझे रूई से दूध पिलाकर पाला है।
तू अब मेरी बात ध्यान से सुन, मुझे अस्तबल का रास्ता बतला दे । धर्मा साँवरी ने कहा कि जहाँ आँगन होगा उसी जगह अस्तबल होगा । रानी परसा के साथ गई और खिरका में पहुँच गई। खिरका (किनारे) में उन्हें ठांटिया (देवता) मिल गये, रानी ने उन्हें प्रणाम किया। जहाँ अस्तबल का रास्ता है, वहाँ पर दुर्गाजी का मन्दिर स्थापित है ।
जब रानी के साथ परसा दुर्गादेवी के स्थान पर पहुँचे, तब दुर्गाजी प्रकट हो गईं। पाँच वर्ष की कन्या रूप में परसा को गोदी में उठा लिया। दुर्गाजी ने परसा के ऊपर हाथ रखा, उसकी काया बज्र की कर दी । वहाँ से आगे चले तो अस्तबल मिल गया, परसा ने अस्तबल का एक चक्कर लगाया, सामने देखा कि बज्रशिला लगी हुई है। रानी वहीं पर खड़ी हो गई । परसा जब शिला हटाने लगे तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे तीन लोक का भार इस शिला में रख दिया हो, वह पसीने से लथपथ हो गये ।
रानी ने देखा कि ऐसे काम नहीं चलेगा, उसने परसा को समझाया कि यहाँ पर पूजन करना ज़रूरी है। पूजन का सामान, नारियल, अठवाई, बलि के लिए बकरा, यह सब सामग्री आ गई। उन्होंने समस्त देवताओं का पूजन किया, दुर्गाजी का पूजन किया फिर बज्रशिला को उठा लिया। शिला के हटाते ही वहाँ से डायन (जादूगरनी) निकली और परसा पर झपट पड़ी, उसे बकरा दे दिया। अस्तबल के भीतर पहुँचे तो देखा कि मामा की नौ सौ नवासी गायों की हड्डियों के ढाँचे पड़े हैं, वहाँ पर केवल सुरहन गाय और मलरियाँ साँड खड़ा था, उनकी नज़र जब परसा पर पड़ी तो उन दोनों की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी ।
अस्तबल में आकाशवाणी हुई कि – भनेज! तुम अपनी एक अँगुली का रक्त निकालकर इन हड्डियों के ढाँचे पर छिड़क दो तो वे सब जीवित हो उठेंगे। परसा ने अँगुली चीरकर अँगुली का रक्त निकालकर इन हड्डियों के ढाँचे पर छिड़क दिया तो वे सब जीवित हो उठीं और रंभाने लगीं । मलनियाँ साँड ने कहा कि- अब क्यों आये हो? अरे! हमारी तो आखिरी साँस चल रही थी, अगर थोड़ी देर बाद आते तो अच्छा होता। परसा ने उसे समझा-बुझा दिया ।
परसा वापस घर आये और रानी से कहा कि- मामी ! मुझे नाश्ता बना दो, मैं गायें चराने जाऊँगा । परसा से तोते ने कहा कि गायों को जंगल ले चलो, वहीं पर इनका दाना-पानी मिलेगा। परसा के लिए बारह कुरैया (दो क्विंटल) की रोटी बनायी और तेरह की दाल बनाई। परसा सब चट कर गये, परसा की भूख फिर भी पूरी नहीं हुई । परसा ने रानी से कहा कि- अगर तुम मुझे अनब्याही गाय के दूध की खीर बनाकर खिला दो तो मेरा पेट भर जायेगा।
धर्मा साँवरी ने कसेंड़ी (पानी का छोटा पात्र) ली और उनके पैर छुए। उसने विनती की कि माँ अगर मैं सत्य पर हूँ तो आप मेरी लाज रखना । गाय का दूध दुहा और लेकर वापस आ गई। खीर बनी, परसा ने डटकर खीर खाई और कहा कि अब मेरा पेट भरा है । परसा रानी के पास आये और उनसे कहा कि- मामी ! अब मुझे आज्ञा दो, जिससे मैं गायों को ले जाऊँ। सुनकर धर्मा साँवरी की आँखों से आँसुओं की धार लग रही थी, वे चुपके से उठीं और परसा को पान लगाने लगीं।
पान में उन्होंने जादू भर दिया और पान लगाकर मचला (पात्र) में रख दिये। परसा से कहा कि जहाँ तुम्हें मुसीबत आये, वहाँ एक पान खा लेना । परसा ने पान लिये, तोते का पिंजड़ा लिया, अपने मामा की मुरली ली तथा उनकी लुहांगी (शस्त्र) भी ले ली। गायों को अस्तबल से निकाला। नौ सौ नवासी गायों के साथ मलनियाँ साँड और सुरहिन गाय भी थे। जाते समय रानी ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा कि- तुम सब ध्यान से सुनो! मेरा लाड़ला भानजा, जिसने कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी है, मैं तुम सबकी जिम्मेदारी पर भेज रही हूँ, इसका ध्यान रखना।
उन सबने कहा कि- माता ! जैसा तुम्हारा भानजा है वैसे ही हमारा भानजा है, जहाँ उसका पसीना गिरेगा, वहाँ हमारा खून बहेगा । रानी ने कहा कि जिस चारागाह में तुम्हें तुम्हारे बरेदी चराने जाते हैं वहीं पर तुम जाना, जहाँ पानी पीते थे वहीं पर पानी पीना। इतनी ज़्यादा संख्या में मवेशी थे कि चलते-चलते रास्ते में एक डुबना नाम का पड़ा पीछे छूट गया । परसा ने देखा कि बाकी गायें बहुत आगे निकल गयी हैं, अब कैसे उन तक पहुँचेंगे ?
डुबना ने कहा कि- बेटा ! तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें उन तक शीघ्र ही पहुँचाता हूँ। तेरह दिन, तेरह रातें बीत गयीं, तब कहीं जाकर अपने साथियों से डुबना जा मिला। परसा उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ उसका मामा दंगरिछरिया अपनी गायें चराया करते थे ।
वहाँ पहुँचकर परसा ने अपने मामा के बैठने का चबूतरा धोया, उस पर बैठ चैन की बंसी बजाने लगा। थोड़ी देर में गायें प्यासी हो गयीं, उन्हें पानी पिलाने को जामन झौर ले जाना पड़ा। परसा पानी पीने को पास में ही एक स्रोत पर गया, उस स्रोत पर एक लमाने की बेटी रहती थी । परसा ने उससे कहा कि मुझे पानी पिला दो, वह बोली कि – पहले मेरा मुगदर घुमाकर दिखाओ तब पानी मिलेगा। परसा ने मुगदर घुमा दिया।
वहाँ से आगे चले तो कुछ समय पश्चात् गायें पुनः प्यासी हो गयीं । उन्होंने जंगल की एक नदी का रास्ता पकड़ा, लेकिन उस नदी में एक धोबी कपड़े धो रहा था जो कि बड़ा बलशाली था। कपड़े धोते समय उसकी सिसकारी की आवाज़ बारह कोस तक सुनाई पड़ रही थी। उस घाट पर किसी का जाना वर्जित था, लेकिन गायें तो वहाँ पहुँच ही गयी थीं। धोबी ने पहले मना किया, फिर परसा से लड़ने लगा ।
परसा ने उसे मार डाला और उसी पत्थर पर सुला दिया, जिस पर वह कपड़े धोता था । यहाँ से उस धोबी की पत्नी अपने पति को खाना लेकर आ रही थी। एक गधे पर रोटियों को लादे थी और दूसरे गधे पर दाल। लेकिन वह घर से चली तो शुरू में ही एक काले नाग ने रास्ता काट दिया, फिर खाली घड़े लिये पनिहारी मिली। रास्ते में अपशगुन हो रहे हैं, उसे धोबी की सिसकारी भी सुनाई नहीं पड़ रही।
आगे चली तो घाट के समीप गायों का झुण्ड मिला, फिर बरेदी भी बैठा दिखा। धोबिन ने बरेदी से पूछा कि – यहाँ पर मेरा मरद (धोबी) कपड़े धो रहा था, वह कहाँ है? बरेदी ने कहा कि- रात का जागा था, इसलिए सो रहा होगा। धोबिन घाट की तरफ गयी । उसने जिस शिल पर धोबी सोया था, उसके पाँच परिक्रमा लगाकर घबराकर भागी । बरेदी से उसका अता-पता पूछा । वहाँ से सीधी अपने धोबी के मित्र के पास पहुँची, उसे सारा हाल कह सुनाया ।
उससे कहा कि- देखो, देवर एक बरेदी ने तुम्हारे भाई को मार डाला है, मैं तुम्हें उनका वास्ता देती हूँ कि तुम उनके खून का बदला लो। वह तैश में आ गया, बोला- देखता हूँ भाभी ! कि ऐसा कौन – सा वीर हमारे भाई के घाट पर आया और उसे मार डाला, मैं अभी जाकर उसे अपनी जादू की पनही पहनाता हूँ फिर उसके सिर पर सांत (शस्त्र) पटक दूँगा।
इस तरह से उसे मारकर अपने भाई के खून का बदला दूँगा। यह कहकर उसने अपने घर का रास्ता पकड़ा। उसकी घरवाली को जब पता चला कि ये क्या करने जा रहा है तो वह बोली कि – स्वामी ! हमारा अभी-अभी विवाह हुआ है, अभी तक मेरे पैरों का महावर भी नहीं छूटा है, हल्दी का रंग भी अभी तक मौजूद है, मेरी तेल की फरिया अभी तक ज्यों की त्यों रखी है, और आप नदी के घाट पर अपने प्राण देने जा रहे हैं? ज़रा अपने बारे में भी तो सोचिये?
उन दोनों की बातें धोबिन सुन रही थी, उसने कहा कि- अपनी औरत की बातों में आ गया, , ये भी नहीं सोच रहा कि भाई घाट पर मरा पड़ा है, उसकी तो कोई खबर नहीं, यहाँ औरत के सिखाने में आ गया।
परसा वहाँ से अपने मवेशी लेकर सीधा नीमा शहर आ गया, वहाँ एक नदी के घाट पर पहुँचकर वहाँ स्नान किये। जैसे ही नदी में डुबकी लगाई, वैसे ही उस नदी के पानी का रंग मटमैला हो गया। वहाँ पर एक बरौनी खड़ी थी, वह यह सब देख रही थी । परसा ने स्नान किये और फिर सुख की मुरली बजाने लगा । बरौनी का ध्यान उसमें ऐसा लगा कि अपनी सुध भूल गई। जब उसे कुछ याद आया तो वह सीधी राजा की बेटी के पास पहुँच गई।
बेटी दूसरे घाट पर स्नान कर रही थी, उसने बरौनी से पूछा कि – अभी तो आषाढ़ की पहली फुहार भी नहीं पड़ी और नदी के पानी का रंग कैसे मटमैला हो गया? बरौनी ने कहा कि- एक चरवाहा वहाँ स्नान कर रहा है, उसके गुणगान व रंग की चर्चा सुनकर राजकुमारी परसा के पास गई, उससे कहा कि- मुझे अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ । परसा ने कहा कि- मैं एक ज़रूरी काम से जा रहा हूँ, तुम मेरा यहाँ इन्तज़ार करना, मैं लौटकर आऊँगा, तुम्हारे साथ भाँवर पाहूँगा, फिर तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा।
परसा ने वहाँ से विदा ली और आगे चला, सीधा राजा भोज के राज्य की सरहद में पहुँच गया । राजा के बाग में गायें रोकीं और वहीं पर विश्राम करने लगा। परसा वहाँ छ: महीने की नींद में सो गया। इसके सोते में ही किसी ने जादू चला दिया। परसा जहाँ पर सो रहा था, वहाँ पर एक खाई बन गई, उसमें मगरमच्छ तैर रहे थे। परसा की जब नींद खुली तो वह बगीचे के चारों तरफ चक्कर लगाने लगा, परन्तु उसे रास्ता नहीं मिल रहा था। उसे परेशान होता देख मलनियाँ सांड परसा से बोला कि मैं इस खाई में लेट जाता हूँ, अपनी गायों समेत तुम निकलो ! मेरी चिन्ता बाद में करना, पहले तुम सब निकल जाओ। परसा अपनी गायों समेत निकल गया।
आगे जाकर इनकी सुख की मुरली बजने लगी। राजा भोज ने परसा पर चढ़ाई कर दी। राजा की तोपें चलने लगीं, गोला-बारूद की लड़ाई भी शुरू हो गयी । परसा निहत्था था। दुर्गादेवी ने अपनी छत्रछाया से परसा की एवं गायों की रक्षा की, फिर आदिशक्ति बोलीं कि- अब तुम भी राजा को अपना जौहर दिखा दो । परसा ने लुहाँगी घुमाई और मारकाट शुरू कर दी। राजा देखकर आश्चर्यचकित रह गये ।
राजा ने अपनी हार मान ली। परसा से संधि करने को तैयार हो गये। परसा से कहा कि- मैं तुम्हें अपना दामाद बनाना चाहता हूँ। परसा तैयार हो गये, राजा की बेटी का परसा के साथ विवाह हो गया । चार भाँवरें पड़ने के बाद परसा ने गठजोड़ा काट दिया, कहा कि लौटकर बाकी की भाँवरें पाऊँगा । वहाँ से आगे चले तो रास्ते में एक बकरियों का झुण्ड लिए एक बरेदी मिला, उसने परसा से कहा कि- अपनी गायें एक तरफ कर लो ! मेरी बकरियों को निकलना है । परसा ने कहा कि मेरी गायें बैठी हैं, तुम अपनी बकरी अलग रास्ते से ले जाओ। दोनों की बातों ही बातों में हाथापाई की नौबत आ गयी ।
परसा ने बरेदी को एक मुक्का जड़ दिया, वह वहीं तालाब के किनारे लड़ते-लड़ते मर गया । फिर दुर्गाजी का स्मरण किया कि इन्हें ज़िन्दा कर दो, मैं तुम्हें बकरे की बलि दूँगा । वह जीवित हो गया। वहीं तालाब पर एक कनका नाम की लोदन स्त्री बैठी थी । लोदन ने परसा से पूछा कि- बरेदी ! तुम कहाँ के रहने वाले हो, कहाँ जा रहे हो? परसा ने कहा कि- मैं रोरी गाँव का हूँ, अपने मामा को छुड़ाने जूनागढ़ जा रहा हूँ । लोदन ने कहा कि- देखो, मेरे कानों में तरुकला और तुम्हारे कानों में कुण्डल बड़े अच्छे हैं, हमारी – तुम्हारी बड़ी सुन्दर जोड़ी होगी। मैं तुम्हारी गायों की सेवा करूँगी, गोबर डालूंगी, तुम मुझसे विवाह कर लो ।
परसा ने जवाब दिया कि – देखो लोदन! मैंने तीन विवाह तो पहले ही कर लिये हैं और अब चौथा नहीं करना चाहता । कनका लोदन ने कहा कि- अच्छा ! इस तालाब में मेरी छोड़ी हुई तुमरिया पकड़ कर बतलाओ, तो तुम्हें जाने दूँगी। परसा ने उसकी शर्त मान ली। लोदन ने जादू की तुमरिया तालाब में छोड़ी, परसा ने पानी में छलाँग लगा दी, बहुत कोशिश की लेकिन नहीं पकड़ सके । हार – थककर वापस आ गये ।
कनका लोदन ने विवाह का प्रस्ताव फिर रखा, परसा ने मना कर दिया। लोदन ने उसे नहीं जाने दिया । परसा को लोदन ने जादू से पकड़ लिया और एक काँटों वाली थूबर (झाड़ी) मँगाई, परसा को उस पर लिटा दिया और ऊपर से थूबर डाल । परसा का तोता पिंजड़े में फड़फड़ा रहा था कि पिंजड़े की सींक खुल जाये तो मैं कुछ मदद कर सकूँ, लेकिन सींक नहीं खुली। दुर्गादेवी अपने मन्दिर से निकलकर धर्मा साँवरी के पास पहुँची, वह सो रही थी, दुर्गा देवीजी ने एक थप्पड़ मारकर उसे जगा दिया।
अरी बावली ! तू यहाँ सुख की नींद सो रही है, वहाँ परसा मुसीबत में फँसा है । यह सुन धर्मा साँवरी के आँसू टपकने लगे, बोली- मैंने पहले ही मना किया था लेकिन मेरी एक न मानी। धर्मा साँवरी ने पूरा जादू लिया और उसके पास चल दी । रास्ते में दौड़ती जा रही है, अपनी चिन्ता छोड़ पूरा ध्यान परसा पर लगा है। शारदा माई को स्मरण किया, मसान बुला लिये, चौंसठ जोगन बुला लीं, फिर वह चील बनकर उड़ चली ।
चलते-चलते तालाब के पास पहुँच गई, उसने अपना भेष बदला, वह बूढ़ी औरत बनकर परसा को ढूँढ़ने लगी । आखिरकार उसने परसा को ढूँढ़ ही लिया, उसके काँटे निकाले, उसे मछली बना दिया । बगले (बगुले) ने मछली को पकड़ लिया। वह बगला मछली रूपी परसा तुमरिया को पकड़कर उसकी मामी धर्मा साँवरी के पास आ गया। यह देख लोदन ने हार मान ली और धर्मा साँवरी के चरणों में गिर गई ।
धर्मा साँवरी ने उसे उठाया और गले लगा लिया। लोदन ने उससे कहा कि- माँ ! आपके कानों में कुण्डल बड़े शोभायमान हो रहे हैं, इसी तरह से मेरे कानों के तरुकला (कर्णफूल) हैं, माँ! मेरी और आपकी जोड़ी खूब जमेगी। माँ! आप अपने भानजे के साथ मेरी भाँवरें पड़वा दें । यहीं कीरत सागर पर बड़े सोचने-समझने के पश्चात् वे विवाह करने को तैयार हो गई। परसा ने वहीं अपनी लुहाँगी गाड़ दी।
विवाह के लिए कीरत पर ही मण्डप बना लिया, परसा और लोदन की भाँवरें पड़ गयीं। विवाह के पश्चात् परसा वहाँ से भाग निकला। जाते समय मामी से कहा कि- एक बहू रमना में बैठी है, राजा भोज की पुत्री एक नदी पर बैठी है, एक जामन झौर पर हमारी प्रतीक्षा में बैठी है। धर्मा साँवरी को पता चला कि उसकी चार-चार बहुएँ हैं । परसा अपनी गायों को लेकर चल दिये। जूनागढ़ की ओर सुख की मुरली बजाते जा रहे थे, पीछे-पीछे गायें चल रही थीं। रात-दिन का सफर करके परसा जूनागढ़ की सरहद में पहुँच गये ।
इन्होंने एक मैदान में अपनी गायों को रोक दिया, लेकिन उसी मैदान में नौ सौ नवासी पड़ा चर रहे थे, इनकी गायों को आता देख वे पड़ा भागने लगे । उनका बरेदी भी अपनी मुरली बजा रहा था, परसा भी अपनी मुरली बजाने लगे। पहले बरेदी ने मुरली की आवाज़ सुनी तो विचार करने लगा कि वह आवाज़ तो मेरी मुरली की लगती है, बारह वर्ष पूर्व मैं वह मुरली अपने अस्तबल में रखकर आया था, इतने वर्षों बाद मेरा तोता तो मर ही गया होगा, मेरी गायें भी कहाँ से जीवित होंगी – वह सब याद करके रोने लगा।
यह बरेदी उस बेड़नी द्वारा गुलाम दंगरिछरिया था, जिसे विवाह के पश्चात् बेड़नी शर्त में जीतकर ले गई थी । इन्हें अपने पड़ों के जाने की आहट मिली तो इन्होंने परसा से कहा कि- अपनी गायें हमारे पड़ों से दूर रखो, हमारे पड़ा भागे जा रहे हैं। परसा ने कहा कि- तुम ही अपने पड़ा ले जाओ। धीरे-धीरे बात बढ़ गई और दोनों की कुश्ती होने लगी। इन दोनों का मल्लयुद्ध चार पहर चला, लेकिन दोनों में कोई भी हार मानने वाला नहीं था ।
दोनों अपनी-अपनी देवी का स्मरण कर रहे थे। अन्त में दंगरिछरिया ने ही पूछा कि- बरेदी ! तुम कहाँ के रहने वाले हो, तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ ? परसा ने कहा कि- रोरी गाँव में मेरा जन्म हुआ है, जब मैं बहुत छोटा था तो मेरी मामी मुझे ले आयी थी, उन्होंने रुई से दूध पिलाकर मुझे पाला है। मुझे मेरे मामा की खबर लगी थी उन्हें कोई बेड़नी जादू से हराकर ले आयी है, और मेरे मामा को बारह वर्ष के लिए बरेदी बना लिया है।
मैं अपने मामा को उसकी कैद से छुड़ाने आया हूँ, मेरी मामी जो मेरी माँ भी है, अभी तक अपने हाथ में विवाह का कंकन बाँधे हुए है। ये नौ सौ नवासी गायें मेरे मामा की हैं, ये जो मुरली मैं बजा रहा था, वह भी उन्हीं की है । परसा की बात सुनकर दंगरिछरिया की आँखों में आँसुओं की झड़ी लग गई । परसा की बाँह पकड़कर, उसे कलेजे से लगा लिया, मेरे बेटे ! मैं ही तेरा मामा हूँ, मेरी खातिर तूने और तेरी मामी क्या – क्या मुसीबतें न झेली होंगी। मामा ! तुम अब चलने की तैयारी करो ।
परसा को भी अपार खुशी हुई। उसने अपने मामा से कहा- कर लो। रिछरिया ने कहा कि- मैं बेड़नी को उसका सामान सौंप दूँ, फिर चलता हूँ। वह बेड़नी के पास गया, उसे हंकना दिया, उसका कम्बल दिया और कहा कि- ये तुम्हारे पड़ा हैं, मेरा समय पूरा हो गया है, अब मैं अपने घर जाता हूँ । बेड़नी ने रिछरिया को नाश्ता बनाकर रख दिया, कहा कि तुम जाओ। उस नाश्ते में कुछ ऐसा जादू था कि सब दिन चलने के बाद दंगरिछरिया शाम को फिर वापस बेड़नी के पास पहुँच जाते थे।
यह देख परसा ने अपने मचल से चार पान निकालकर मामा को दिये और कहा कि- तुम यहाँ रुको, वहाँ पर तीन चबूतरों पर तीन पान रख दिये और एक आप स्वयं खा लेना, उसका जादू नहीं चलेगा। रिछरिया पड़ा लेकर लौटे, सामने बेड़नी थी, उसने सारा भेद जान लिया । उसने भी अपनी चौंसठ जोगनी को मना कर करुवादेव मसान को बुला लिया, गुरैयादेव को भी बुला लिया और वह स्वयं चील बनकर उड़ने लगी।
परसा ने जैसे ही अपनी गायों को लौटाया, बेड़नी जादू पढ़कर उसके ऊपर कंकड़ फेंकने लगी और वह अप्सरा जैसी सुन्दर स्त्री बन गई, उसने अपने जादू से सबको पाषाण का बना दिया। यहाँ धर्मा साँवरी को जैसे ही खबर लगी तो उसने अपनी चारों बहुओं को साथ लिया और कहा कि- तुम सब अपने-अपने जादू से बेड़नी के जादू खतम कर देना । रानी अर्थात् धर्मा साँवरी ने भी अपना सारा जादू साथ में ले लिया, उसने जादू पढ़कर उड़द फेंके तो सब गायें पाषाण से मुक्त होकर अपने असली रूप में आ गयीं, मामा-भानजा भी जादू मुक्त हो गये ।
अपनी गायों को लेकर आने लगे। थोड़े आगे चले कि बेड़नी ने फिर से जादू किया, लेकिन वहाँ से कनका लोदन (बहू) आ गई, दूसरी बहू राजा भोज की बेटी थी, वो भी आ गई। बेड़नी ने रमना में फिर से जादू चलाकर मामा-भानजे को मय गायों के पाषाण का बना दिया । कनका लोदन एवं राजा भोज की बेटी ने अपना जादू चलाकर इन्हें पूर्ववत् कर लिया । फिर जामन झौर पर ये पहुँचे तो बेड़नी ने फिर जादू चला दिया, वहाँ लमाने की बेटी अर्थात् परसा की बहू ने दही की मटकिया में से अमृत छिड़ककर इन सबको जीवित कर दिया।
मामा-भानजा अपनी-अपनी गौंखर लेकर फिर चल पड़े। परसा ने समझाया कि- मामा ! अब देरी न करना, अबकी बेड़नी का पाला मामी से पड़ने वाला है, अब उसकी बराबरी से चल रही हैं। उन्होंने रात-दिन का सफर किया और घर पहुँचे, उनके साथ में बेड़नी और रानी अर्थात् धर्मा साँवरी भी पहुँचीं। रानी ने परसा से कहा कि- तीर-कमान लेकर उसका निशाना साधो, जैसे ही परसा ने निशाना साधा, उसी समय वह चील बनकर उड़ने लगी।
रानी को बड़ा गुस्सा आया, वह भी काले रंग की चील बन गई। रानी ने परसा को समझाया कि काली चील को छोड़कर कबरी (सफेद रंग पर काले दाग) चील को बाण मारो। परसा ने निशाना साधकर तीर मारा, वह चील रूपी बेड़नी को लगा, बेड़नी नीचे गिर गई, उसके प्राण पखेरू उड़ गये । इस तरह से बेड़नी का साथ छूट गया। परसा ने नाई को बुलाकर पूरे नगर में निमंत्रण देकर सबको बुलवा लिया । मामा-मामी के विवाह की बाकी रस्में पूरी कीं, उनका कंकन छुड़वाया। इधर मामा-मामी ने मिलकर परसा की चारों बहुओं से विधिवत् ब्याह करवा दिया। पूरे नगर में खुशियाँ मनायी गयीं। घर में भी खुशियों का माहौल उत्पन्न हो गया।
शोध एवं शब्द विन्यास – डॉ. ओमप्रकाश चौबे