Banafari Kahavate बनाफ़री कहावतें-बाँदा जिले की कहावतें

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By admin

कहावतें तो हर भाषा हर बोली में काही जाती है पर लोक भाषा बुन्देली और बुन्देली की उप बोलियों मे कहावतों का अद्भुत कोश है । लोक जीवन की हर स्थिति और परिस्थिति मे कहावतों का अपना महत्व है । किसी को समझाना है या किसी पर व्यंग करना है तो कहावतों का सहारा लिया जाता है । यहाँ चर्चा करते हैं  Banafari Kahavate कोश की।

अंधरे का दिखावे कहे दुइ दाँत है।
अंधे को बैल दिखाया तो कहा कि दो दाँत हैं। अयोग्य से परामर्श  करना व्यर्थ हैं। वह तो अपनी अयोग्यता को छिपा कर गलत सलाह देगा।

अंधरे सियार का पिपर सेवा।
अंधे सियार के लिए पीपछ का फल ही भेवा के समान है।

अगवानू का घोर नहीं फेर का महापात्र का देय का है?
अगवानी के लिए घोड़ा नहीं तो कया महापात्र को देने के लिए है ? मरने पर महापात्र या ब्राह्मण को वस्तु दी जाती है।

अघान बकुली तीस सहरी।
बगुली का पेट भरा हो तो भी तीस मछली खा जाती है।

 अभिटै पहार मा  घर के सिलौटी फोरें
टकराये पहाड़ से और घर की सिलोटी पर गुस्सा उतारें।

अहिरे धोबिये कौन मिताई । ओहके गधा न ओहके गाई ॥
अहीर और धोबी की क्या मित्रता  न उसके पास गधा और न उसके पास गाय। अर्थात मित्रता बराबरी वालों से ही संभव है।

आँधर घोड़ बहिर सवार, दे परमेसुर ढूंढ़ेदार।
अंधा घोड़ा और बहिरा सवार, हें भगवान्‌ ढूँढ़नें वाला दे ।

आँधर पाइस पनही फिरे खुझार खुझार।
अंधे को जूती मिली तो पहिन कर रास्ता-कुरास्ता फिरने लगा।

आँधर राजा, बहिर पतुरिया, नाचे जा परतीते है।

अंधा राजा के सामने और बहिरी नर्ततकी नाचें जा रही है , विश्वास ही है कि बहुत अच्छा है नाच रही है।

आई रही माँड़ का, थिरकइ लागी भात का
माँड़ लेने आई  और थिरकने लगी भात के लिए।

आधा न तियाव, बाबा का बियाव।
घर में तो कुछ है नहीं फिर भी बाबा का विवाह ।

आन के माथे नौठौ पतरी।
दूसरे के सिर नौ पत्तल ।

आपन खेत पराये बरदा । खेत करें का सरदी मरदा।
अपना खेत और दूसरों के बैल, फिर क्या, खेती करने को मर्द हैं ।

आपन लोह खोट तो लोहारे कौन दोस।  
अपना लोहा ही खोदा तो लुहार को कया दोष दिया जाय ।  

आये चेतवा फूले गाल। गये चेतवा बई हवाल।
चेत की फसल खाकर गाल फूल गयें। उसके बाद फिर वही हाल।

एक को गड़ही, एक को गंगा।
किसी के भाग्य में पोखरे के स्नान बदे होते हैं और किसी के भाग में गंगा के।

एक तो आँधी दूसर बेनवा बाँधे।  
एक तो आँधी, फिर ऊपर से पंखा बाँधे  चल रहे हैं।

एक नीबी सकल गाँव सितलहा।
एक नीम का वृक्ष  और सभी शीतला रोग (चेचक ) से ग्रस्त ।

कनवाँ होय कोंच जाय।
जो काना होता है वह तुरन्त तिनक उठता है। काना को काना कहिए तो चिढ़ जाता है।

करें का कुकरम एकादशी उपासी हैं ।
करती कुकर्म हैं और एकादशी का ब्रत करती हैं।

कलेवा न बियारी, मारे का महतारी।
खाने-पीने को घर में कुछ नहीं, मारने को माँ।

गुई खाँय का परी, कान छिदाये का परी।
गुड़ खाना पड़ेगा और कान भी छिदाने पड़ेंगे।

गोड़ी गाड़ कर बेठना।
धरना देकर बैठना।

गौरँया बाबा गुहार लाग, कहै महीं उतान परा हों।
गौरेया बाबा मेरी पुकार सुनिये, तो कहा–मैं ही चित्त पड़ा हूँ । तुम्हारी क्या सुनूँ ? अपनी विपत्ति का ही निबेरा नहीं कर पाता ।

घर का धान पयारे मा सान ।
घर का धान पुआल में मिलाना।

चल न पावे, कूद नार।
चल तो पाता नहीं, और नाला फाँदना चाहता है।

चिरई का धन चोंच।
चिड़िया के लिए चोंच ही सबसे बड़ी संपत्ति है क्योंकि उसीसे वह खाती है ।

छेरी न बताई तो छेरीवा का गोड़ तो बताई।
बकरी नहीं बतायेगी तो बकरी की टाँग तो बतायेगी ! अर्थात्‌ किसी बात का कुछ न कुछ पता-सुराख तो चलेगा।

जब तक रहो कुठलिया धान । पुवा छाँड़ न खावह आन ।  
जब तक खाने को रहा तब तक खूब मौज उड़ायी।

जबरा करे जबरई, अबरा करे न्याव।
जबदस्त तो अन्यांय करता है और कमजोर न्याय की माँग करता है।

जबे जाय तीन पाव भीतर। तब सुझे देव पितर।
पेट भरे होने पर ही देव और पितर सूझते हैं ।

जोते का हर, गावे का बिरहा।
करते तो किसानी और गाते बिरहा हैं।

जेत्ता पुरखा  दान दीन, गदेलन उत्ता भीख मांगिन।
पुरखों ने जितना दान दिया, लड़कों ने उतनी भीख माँगी! बाप-दादों के नाम को कलंकित किया।

डेरा न डंडी , बदौसा अँधियार।
(बदौसा=बाँदा जिले का एक बड़ा क़स्बा।) नाम बड़े दर्शन थोड़े।

तेंदूँ की लकड़ी चरमर होय, पहुने के जान पपरी होय।
किसी के घर पाहुना आया। भीतर चूल्हे में तेंदू की लकड़ी जल रही थी जो कि जलते समय चरमर करती है। उक्त आवाज को सुन कर पाहुने ने समझा कि कोई पपड़ी खा रहा है और सोचने लगा मुझे भी खाने को मिलेगी ।

दीने ने खाय, फिर बीन बीन चबाय।
हाथ से दी हुई वस्तु तो खाता नहीं, बाद में जमीन पर गिरी हुई को बीन-बीन कर चबाता फिरता है।

नाव मोतीकुंवर, जोती बिनोरी अस नहीं।
नाम तो मोती कुँवर और चमक बिवोले जैसी भी नहीं।

भटवा के घोरी, घर घर जजमानी।
भाट के पास घोड़ी हो तो क्या पूछना ? घर-घर में जजमानी के लिए जाता है। |

मंगनी के तेले मां मुगोरा नई बनत।
मँगनी के तेल में मुंगौरा नहीं बनते।

मर बढ़िया, बछवा बिया।
बढ़िया मरी, बछड़ा पैदा हुआ। हिसाब-किताब बराबर।

महुवा न सहुवा, बेठाव डोभरी’
डोभरी =चावल या सिमई के साथ महुओं को पका कर बनाया गया भोजन का पदार्थ ) महुआ इत्यादि तो कुछ है नहीं, कहते हैं डोभरी बनाओ ।

मूस मुटाई तो मुरगी अस होई।
चुहा बहुत मोटा होगा, तो मुरगी जितना हो जायेगा ।

रोज रोज लछोखरी का बियाव।
रोज रोज वही बात।

बुन्देलखण्ड की लोक नाट्य परंपरा 

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