21वीं सदी ‘बुंदेली’ के लिए वरदान साबित हो रही है। 21वीं सदी में Vibhinna Kshetron Men Bundeli चलन बढ़ा है । इस सदी में बुंदेली ने प्रमुख भारतीय भाषाओं के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। आज, 21वीं सदी में बुंदेली का समाज, बोलचाल, साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता, सिनेमा, सोशल मीडिया और राजनीति के माध्यम से व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है और बुन्देली विश्व पटल पर नए कीर्तिमान स्थापित करने जा रही है। ‘21वीं सदी में विभिन्न क्षेत्रों में बुंदेली’ का विवेचन नीचे किया जा रहा है ।
21वीं सदी में समाज में बुंदेली / बोलचाल में बुंदेली
21 सदी में बुंदेली भाषा का जहाँ एक ओर विश्व स्तर पर दखल बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर अखंड बुंदेलखंड़ गॉंवों, कस्बों और छोटे नगरों में ‘बुंदेली’ का समाज और बोलचाल में प्रयोग मुख्य रूप से हो रहा है यानी देहाती बुंदेलखंड़ की मुख्य भाषा ‘बुंदेली’ ही है लेकिन अखंड बुंदेलखंड़ के शहरों और महानगरों में समाज और बोलचाल में ‘हिन्दी’ और ‘अंग्रेजी’ का प्रयोग मुख्य रूप से हो रहा है और ‘बुंदेली’ का प्रयोग गौण रूप में हो रहा है परंतु यहाँ भी अपनी बुंदेली माटी और संस्कृति के सच्चे रक्षक जैसे – किसान, मजदूर, स्त्रियाँ, साहित्यकार, छोटे व्यापारी, आदिवासी और कुछेक युवा-युवतियाँ बोलचाल में बुंदेली का ही प्रयोग कर रहे हैं।
देहाती बुंदेलखंड़ के समाज / बोलचाल में प्रयोग होने वाली बुंदेली के नमूने को शोधार्थी द्वारा 13 मार्च 2024 को अपने घर जिला झाँसी के जरबौ गॉंव में लिया गया। इसमें जरबौ गॉंव के किसान जुगलकिशोर पाल ‘जुगल कक्का’ और किसान नेता पीताराम कुशवाहा ‘पत्तू नन्ना’ (शोधार्थी के दादाजी) के बीच हुए संवाद को दर्ज किया गया। भाषाविज्ञानियों के अनुसार झाँसी जिला शुद्ध बुंदेली या मानक बुंदेली भाषी क्षेत्र है।
देखिए, जुगल कक्का और पत्तू नन्ना के बीच हुआ संवाद –
जुगल कक्का : राम-राम भज्जा। (भुंसारें, चैत की कटाई खों खेत पे जात बेरां।)
पत्तू नन्ना : राम-राम। कक्का! का हो रओ और? (अपने दुआएं दालान में दातुन करत भए।
जुगल कक्का : भज्जा! चैतई काट रए। कल्लई कुसभज्जा की पिसी की कतनन्नी सें फुरसत भए उर काबरे जा रए जबा काटबे। भुंसरियाँ के छै मजूर चलाए हैंगे। तुमाई काकी तो मजूरन खों लिबाकें कड़ गई। हम भी पौंच रए अब, ढोर-बछेऊअन की उसार में नेक अबेर हो गई। तुम चैत सें फुरसत हो गए का?
पत्तू नन्ना : अबे कायखों कक्का। यी बढ़ाई बाए खेत के चना कट गए ते तौ उनें परौं अपने कैलास सेठ खों छप्पन सौ के कौंनटल के भाओ सें बेंच आए। साढ़े नौं कौंनटल निकरेते। अबे पूरे तीन चक्क ठाँढे कटबे खों। सबरो घर जुरौ है काटबे खों, सात-आठ मजूरन खों लेकें। अगले हफ्ता फुरसत हो जें। कल्ल के बादर नें तो दिमागई खराब कर दओ।
जुगल कक्का : यी बादर की कछू न कओ भज्जा। जब पानूँ की जरूरत होत तबे बरसत नईंयाँ उर यी चैत की बेराँ हम किसानन खों मारबे पे तुलौ। अपने इतै तौ तेज हबा में गरजत-गरजत निकर गओ, बरसो नईंयाँ तौ ठीक रई। नईं तो अपन औरें बेमौत मर जाते। बाली-बच्चन के लानें खाबे खां कनूका उर बिनकी पढ़ाई-लिखाई के लानें करजा लेंने परतो फिर।
पत्तू नन्ना : कक्का! बिलकुल सई कै रए तुम। कल्लई हमनें अखबार में पढ़ी ती के बमीना ताएँ भौत औरे परे, पूरी फसल खेतई में बिछ गई। भगवान नें अपन खों बचा लओ।
जुगल कक्का : अपनों पुन्न-धरम आडें आ रओ। भज्जा! अब चल रए, काकी बाटहैररई हुज्जे।
पत्तू नन्ना : ठीक है कक्का। राम-राम।
अतः इस प्रकार 21वीं में सदी में समाज / बोलचाल में बुंदेली के प्रयोग की पुष्टि की जा सकती है।
21वीं सदी में साहित्य में बुंदेली
21वीं सदी में ‘साहित्य में बुंदेली’ का प्रयोग बहुतायत हो रहा है। यानी पर्याप्त बुंदेली साहित्य रचा जा रहा है। यह सदी बुंदेली साहित्य के इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ साबित हो रही है। इस सदी का बुंदेली साहित्य के इतिहास में युगान्तकारी कदम ‘बुंदेली गद्य’ के सृजन को साहित्य की मुख्यधारा में लाना है। 12वीं सदी के महाकवि ‘जगनिक’ (आल्हा चरित, परमाल रासो) से लेकर 21वीं सदी के आरंभिक 4-6 वर्षों तक ‘बुंदेली काव्य’ का सृजन मुख्य रूप से होता रहा है और ‘बुंदेली गद्य’ का सृजन गौण रूप में हुआ है। इस दौर तक ‘बुंदेली काव्य’ को ही ‘बुंदेली साहित्य’ माना जाता रहा है।
21वीं सदी में पर्याप्त मात्रा में बुंदेली साहित्य रचा गया है। इस सदी में ‘बुंदेली साहित्य’ को विशेष रूप से ‘बुंदेली काव्य’ और ‘बुंदेली गद्य’ में विभाजित करके पठन-पाठन की परंपरा विकसित हुई। 21वीं सदी में ‘बुंदेली काव्य’ की विभिन्न विधाओं जैसे – लोकगीत, चौकड़िया, 7मुक्तक, खंडकाव्य, महाकाव्य और गजल आदि में साहित्य सृजन हुआ है।
इस सदी के बुंदेली कवि और उनकी काव्य रचनाओं में महाकवि अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ (बुंदेल भारती), रतिभानु तिवारी ‘कंज’ (गॉंव के गलियारे), दुर्गेश दीक्षित (सीता चली मायकें), डॉ० अवध किशोर ‘जड़िया’ (कारे कन्हाई के कान लगी है), साकेत सुमन चतुर्वेदी (सन्नाटो सौ खिंचौ खूब है), राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’ (बेर-मकुईयाँ), महेश कटारे ‘सुगम’(अब जीवै कौ एकई चारौ), प्रतापनारायण दुबे (फगवारे), श्याम बहादुर श्रीवास्तव (बुंदेला सपूत हरदौल), राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ (उकताने), सतेंद सिंघ किसान ‘कुशराज’ (सब बिरोबर होएं), अभिषेक बबेले (वीरगति) के नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। अवधेश जी की बुंदेली भाषा पर प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं –
लिखतन बुंदेली अखरी सी, बोलत में मिसरी सी।
ब्रज संस्कृत की बड़ी बहिन, प्राकृत की छुकरी सी।
कोट कोट हिरदे में बस के, अधरन पै बिखरी सी।
कयें अवधेश मका की रोती, नैंनू सी चिपरी सी।
21वीं सदी में ‘बुंदेली गद्य’ की विभिन्न विधाओं जैसे – कहानी, नाटक, एकांकी, उपन्यास, निबंध, यात्रावृत्त, व्यंग्य और आलोचना आदि में साहित्य सृजन हुआ है। इस सदी के बुंदेली कहानीकार और उनकी कहानियों में हरिविष्णु अवस्थी (अहाने के बहाने), डॉ० रामनारायण शर्मा (पगली), डॉ० दुर्गेश दीक्षित (दो पाटन के बीच), डॉ० रामशंकर भारती (पंचनदे कौ मेला), लखनलाल पाल (रमकल्लो की होरी), राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ (हमाओ पैलो प्यार), वीरेंद्र खरे ‘अकेला’ (अब का हुइए), जयंती सिंह (उम्मीद), जहीर ललितपुरी (मास्साब), लक्ष्मी शर्मा (सूखो कर्जा और किसान), डॉ० श्याम बिहारी श्रीवास्तव (आपुसी जंग), डॉ० प्रेमलता नीलम (गाँव की दुलइया), डॉ० दया दीक्षित (चिंता न्यारी न्यारी) और कुशराज (रीना) के नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
लखनलाल पाल की कहानी ‘रमकल्लो की होरी’ का अंश अवलोकनीय है- “रोहू लला सबेरे से दो देर रंग डार गए। मैंने कछु नई कही का कहती? होरी की त्यौहार साल में एक देर आउत, झिड़क खें काहे त्योहार खराब करती लला कहत ते कि भौजी भइया नहियों तो मोसें होरी खेल लै। तुम्हाए बिना मोखें होरी कहाँ अच्छी लगत।
इस सदी के बुंदेली नाटककार और उनके नाटकों में, आरिफ शहडोली (ढ़डकोला), डॉ० श्यामसुंदर दुबे (मोरी बहु हिरानी है), कैलाश मडबैया (बुंदेल केसरी छत्रसाल), डॉ० गंगाप्रसाद बरसैयां (बदलाव) और स्वामी प्रसाद श्रीवास्तव (रैंन की पुतरिया) के नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। डॉ० श्यामसुंदर दुबे के नाटक ‘उजयारो भओ गॉंव में’ का अंश अवलोकनीय है –
बऊ : जो काय कर रये। नें जान नें पैचान। हमाई झाडू छीन लई। जो तो बताओ ऐसी कौनसी सी बात भइ के हमाई झाडू झपट के तुम लगाउन लगे । तुम आव कौ !
नेता : बऊ ! हम बलराम आँयं! करिया गाँव के।
बऊ : हुईयो करिया गांव के हमखों का परी चाय तुम करिया के होइ चाय तुम गुरिया के ! हमाई झाडू हमैं देव- देर हो रही है।
डॉ० एम० एम० पांडे (संपादक) , बुंदेली दरसन, नगर पालिका परिषद हटा, दमोह, 2018
डॉ० एम० एम० पांडे (संपादक) , बुंदेली दरसन, नगर पालिका परिषद हटा, दमोह, 2019, पृष्ठ 76
इस सदी के बुंदेली उपन्यासकार और उनके उपन्यासों में डॉ० रामनारायण शर्मा (जय राष्ट्र) का नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। ‘जय राष्ट्र’ उपन्यास का प्रकाशन सन 2008 में हुआ था, इसे ‘बुंदेली का प्रथम उपन्यास’ माना जाता है। इस सदी के बुंदेली निबंधकार और उनके निबंधों में आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल (आंगना में बसरत जुन्हैया) और कैलाश मडबैया ( संपादन ‘मीठे बोल बुंदेली के’ – 2007), डॉ० रामनारायण शर्मा (पेज तीन – 2010), डॉ० सुश्री शरद सिंह (बतकाव बिन्ना की – 2023), सतेंद सिंघ किसान (राम बिराजे – 2024) के नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय है।
इस सदी में संस्मरण, व्यंग्य, डायरी, यात्रावृत्त और अनुवाद जैसी गद्य की गौण विधाओं में भी सृजन हुआ है। डायरी लेखन में डॉ० राम नारायण शर्मा (डायरी एक साहित्यकार की – 2019) और गिरजासंकर कुसबाहा ‘कुसराज झाँसी’ (बुंदेलखंडी युबा की डायरी – 2022) का नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ की पुस्तक ‘बुंदेलखंड़ की घुमक्कड़ी’ (2021) का यात्रा-संस्मरण की महत्त्वपूर्ण रचना है। जीवनी और आत्मकथा विधा में अभी तक कोई रचना नहीं लिखी गई है। साहित्यकार जीवनी और आत्मकथा लिखकर बुंदेली साहित्य के इतिहास में नया अध्याय जुड़वा सकते हैं।
21वीं सदी के बुंदेली आलोचकों में प्रो० नर्मदा प्रसाद गुप्त (बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – 2001), डॉ० रामनारायण शर्मा (बुंदेली भाषा और साहित्य का इतिहास – 2001), डॉ० लोकेंद्र सिंह नागर (ईसुरी का फाग साहित्य – 2004), डॉ० बहादुर सिंह परमार (बुंदेलखंड़ की छन्दबद्ध काव्य परंपरा – 2005, बुंदेली लोक साहित्य, बुंदेली कविता परंपरा – 2024), डॉ० आरती दुबे (बुंदेली साहित्य का इतिहास – 2011) के नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
बुंदेलखंड़ केसरी महाराजा छत्रसाल की 375वीं जयंती के उपलक्ष्य में डॉ० रामबहादुर मिश्र के संपादन और प्रो० पुनीत बिसारिया के अतिथि संपादन में लखनऊ से प्रकाशित ‘अवध ज्योति’ त्रैमासिक पत्रिका का अप्रैल-जून 2024 अंक ‘बुन्देली विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित हुआ है। जिसमें सन 1181 में जन्मे जनकवि जगनिक (आल्हा) के रचयिता से लेकर सन 2000 में जन्मे युवा कवि अभिषेक बबेले समेत कुल 172 बुंदेली कवि और महाकवि अवधेश से लेकर सन 1999 में जन्मे युवा कथाकार कुशराज समेत कुल 21 बुंदेली कहानीकार शामिल हैं।
21वीं सदी के बुंदेली साहित्य के इतिहास में यह ‘बुंदेली विशेषांक’ महत्त्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है। 21वीं सदी ‘बुंदेली साहित्य’ ने युगान्तकारी विकास किया है क्योंकि गद्य और पद्य दोंनो में बुंदेली साहित्य बहुतायत रचा जा रहा है और बुंदेली पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइट- बेवपोर्टलों और सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों तक पहुँच रहा है और पुस्तकों का प्रकाशन भी पर्याप्त हो रहा है। अतः इस प्रकार 21वीं सदी में साहित्य में बुंदेली की पुष्टि होती है।
संदर्भ –
डॉ० आरती दुबे, बुंदेली साहित्य का इतिहास, साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल, सन 2011, पृष्ठ 186
डॉ० आरती दुबे, बुंदेली साहित्य का इतिहास, साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल, सन 2011, पृष्ठ 187
डॉ० कामिनी, बजीर की गारियों में लोकरंजन एवं समसामयिक बुंदेलखंड़, बुंदेली झलक, 28 फरवरी 2022
डॉ० रंजना मिश्रा, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ 71, 63, 65, 32, 72, 80, 80, 80, 80, 32, 36, 74, 32