एक राजा था। उसका लड़का बड़ा विद्याप्रेमी था। वह गुणी लोगों को हजारों रूपया देकर उनसे गुण सीखा करता था। राजकुमार ने Teen Lakh Ki Teen Baten विद्वानों से सीखी इस विद्याप्रेम की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। अनेक गुणी पंडित उसके पास आने लगे। राजकुमार उन सबको मुँह मांगा रुपया देकर उनसे हुनर सीखने लगा। कुछ समय में वह अनेक विद्याएँ सीख गया।
एक दिन मंत्री ने राजा से रिपोर्ट की कि राजकुमार सब खजाना खाली किए देता है। राजा ने राजकुमार के खर्चे का हिसाब मांगा। लाखों रूपया हर महीने का खर्च देखकर राजा ने उसे देश निकाले का हुक्म दे दिया। राजा सोचने लगा कि अगर राजकुमार कुछ दिन और रहेगा तो वह खजाना खाली कर देगा। ऐसे पुत्र को
घर रखना ठीक नहीं है। रानी को पुत्र के देश निकाले का समाचार सुनकर बड़ा दुःख हुआ। उसने कलेवा के बहाने तीन लड्डुओं में तीन लाख की कीमत के जवाहरात भर दिए। उसने सोचा ये जवाहरात परदेश में पुत्र के काम आयेंगे। कलेवा के लड्डुओं को एक डिब्बे में रखकर दरबानियों को देते हुये रानी ने कहा- ‘जब राजकुमार शिकार खेलकर आयें, तब उसे पहले यह कलेवा का डिब्बा देना। पीछे राजा का दिया हुआ हुक्म।
दरबानियों ने कहा- ‘मालकिन का हुक्म सिर आँखों पर। ठीक दोपहर के समय राजकुमार घोड़ा दौड़ाता घर आया। वह पसीने से लथपथ हो रहा था। घोड़े-पर से कूदकर उसने घोड़ा सईस को सौंपा और महल में घुसने लगा। उसी समय दरबानियों ने पहले तो रानी का दिया हुआ कलेवा का डिब्बा उसे दिया और बाद में तुरन्त ही राजा का दिया हुआ देश निकाले का हुक्म। देश निकाले का हुक्म पढ़कर राजकुमार एकदम पीछे लौट पड़ा और सईस से अपना घोड़ा लेकर उस पर सवार हो गया। फिर घोड़े को एक जोर की ऐड़ लगाई। घोड़ा हवा से बातें करने लगा।
राजकुमार घोड़ा दौड़ाता हुआ चला जा रहा था। उसने निश्चय कर लिया कि जब इस राज्य की सीमा से बाहर निकल जाऊँगा तब अन्न-जल ग्रहण करूँगा। रात-दिन चलते-चलते दूसरे दिन सबेरे वह किसी दूसरे राज्य के एक शहर में जा पहुँचा और बस्ती के बाहर तालाब के किनारे ठहर गया। घोड़ा एक पेड़ की डाल से बांध दिया। फिर उसने स्नान करके कलेवा का डिब्बा खोला। सोचा, थोड़ा-बहुत खाकर पानी पी लेना चाहिये। खाने के लिये ज्यों ही एक लड्डू फोड़ा, उसमें से बहुत से जवाहरात निकल पड़े।
राजकुमार सोचने लगा ये तो करीब एक लाख की कीमत के जवाहर हैं। उसने क्रम से तीनों लड्डू फोड़े, तीनों में तीन लाख के जवाहरात निकले। लड्डू खाकर राजकुमार शहर घूमने के लिये निकला। शहर में इधर-उधर घूमते हुये उसे एक अजीब बात दिखाई दी। एक चौराहे पर एक बड़ा शानदार मकान बना हुआ था उसके बाहरी दरवाजे पर एक सफेद कपड़े का परदा पड़ा था। परदे के बाहर एक आदमी खड़ा डुगडुगी पीटकर कह रहा था-
यह अक्ल की दुकान है। जिसे अक्ल खरीदना हो खरीदे। सौ रुपये की एक बात, हजार रुपये की एक बात, और लाख रुपये की एक बात यहाँ बताई जाती है। जिसे जिस दर की जितनी अक्ल चाहिये, भीतर जाकर खजाने से खरीद ले। पर सौदा हमेशा पेशगी कीमत लेकर किया जाता है।
राजकुमार ने डुगडुगी वाले का बयान ध्यान से सुना। वह मन में सोचने लगा, मैंने विद्या सीखने में अनगिनत रुपया पानी की तरह बहाया है, आज इस अक्ल दुकान की परख करना चाहिये। देखें इसका माल चोखा है या खोटा। इस समय मेरी जेब में तीन लाख के जवाहरात रक्खे हुये हैं। यदि इनको आज अक्ल खरीदने में खर्च न करूँगा तो फिर ये किस काम आयेंगे। ऐसा सोचकर उसने डुगडुगी वाले से कहा-‘मैं आपकी दुकान से कुछ अक्ल खरीदना चाहता हूँ, मुझे भीतर अक्ल के खजाने के पास पहुँचा दो।
डुगडुगी वाला राजकुमार को परदे के भीतर ले गया। वहाँ एक साफ-सुथरे कमरे में नीचे कीमती फर्श बिछा हुआ था। ऊपर सफेद कपड़े की छत बंधी हुई थी। मकान में और कोई वस्तु नहीं थी- बिलकुल खाली था। बीच में एक गलीचे पर तकिए के सहारे एक बुड्ढा मनुष्य सफेद कपड़े पहने हुए बैठा था। उसकी बगल में एक तिजोरी रखी हुई थी। डुगडुगीवाला राजकुमार को उस वृद्ध मनुष्य के पास पहुँचाकर फिर बाहर चला गया। बुड्ढे ने ग्राहक को अपने गलीचे पर बिठाकर पूछा- क्या आप अक्ल खरीदने आए हैं? कहिए, कितने की बात बतलाऊँ, हजार की या लाख की।
राजकुमार ने कहा-‘पहले नमूने के तौर पर एक लाख की एक बात बतलाइये।’ बुड्ढे ने कहा-महाशय, इस दुकान का नियम है- पहले दाम पीछे काम। सो पहले एक लाख रुपया दाखिल कीजिये, तब बात बतलाई जायेगी। राजकुमार ने एक लाख रुपये के जवाहरात बुड्ढे के सामने रखते हुये कहा-‘लीजिये, ये एक लाख के जवाहरात हैं।
बुड्ढे ने उन्हें अच्छी तरह परख-परखकर तिजोरी में रखते हुये कहा-ठीक है सुनो, मैं तुम्हें एक लाख की एक बात बताता हूँ- हजार काम छोड़-कर समय पर भोजन करो। राजकुमार ने सोचा, यह तो मामूली बात है। सभी जानते हैं। अब एक लाख और खर्च करके दूसरी बात सुनना चाहिये। यह सोच उसने एक लाख के जवाहरात फिर सामने रखकर कहा-‘लीजिये, दूसरी बात की पेशगी कीमत जमा कीजिये और एक लाख की एक बात और भी बताइये।
बुड्ढे ने फिर जवाहरों को परखकर तिजोरी में रखते हुये कहा-अच्छा, दूसरी बात भी सुनो। यह भी लाख रुपये की है। समय पड़े परख हो जायेगी। ‘किसी का व्यभिचार देखो तो उस पर परदा डाल दो। समझे? राजकुमार ने कहा- बहुत ठीक। अब मेरे पास एक लाख के जवाहर और बचे हैं। इन्हें भी लीजिये और एक बात और बतला दीजिये।
बुड्ढे ने उसी प्रकार तिजोरी में जवाहर रखते हुये कहा-‘सुनो, यह बात सवा लाख रुपये से कम की नहीं है। पर तुम थोक खरीददार हो सो तुम्हें एक लाख रूपये में ही बतलाए देता हूँ। ‘जो आदमी कान का कǔचा हो उसकी नौकरी न करो।
इन तीन बातों को सीख राजकुमार बाहर आया। थोड़ी देर और भी शहर घूमकर एक सरांय में जाकर उसने अपना डेरा जमा दिया। सोचा, अब कुछ दिन इसी शहर में रहना चाहिये। सरांय के ठीक सामने दूसरी ओर एक सेठ जी की दुकान थी। सेठ जी का कारोबार बहुत बड़ा था। राजदरबार में भी उनकी बड़ी इज्जत थी। नगर में दीवानी, फौजदारी के सभी बड़े-बड़े मुकदमें उन्हीं के यहाँ आते थे। उनको फाँसी तक का अधिकार था।
राजकुमार को कुछ काम तो था नहीं। सरांय में पड़े-पड़े सेठ जी की दुकान का हाल देखा करते थे। इनकी याददाश्त बहुत तेज थी। एक बार जो बात सुन लेते, उसे कभी न भूलते। इस कारण सेठ जी के कुछ बही-खातों का हिसाब, उनके सब असामियों के नाम बगैरह उन्हें जबानी याद हो गए।
एक दिन सेठ जी दोपहर के समय एक असामी को साथ लिए हुए दुकान पर पहुँचे। देखा, दुकान बंद है। दुकान के मुनीम, कारिन्दा बगैरह सब रोटी खाने अपने-अपने घर चले गए थे। असामी कहता था कि आप इसी समय मेरा खाता दिखलाइये। मैं आपका कुछ देना चुकता करता हूँ। आध घंटे बाद मैं अपने देश को चला जाऊँगा और फिर न लौटूँगा। आध घंटे का समय है। इस दरम्यान आप मेरा हिसाब बतलाकर रुपया ले लीजिये। आधे घंटे बाद मैं किसी तरह नहीं ठहर सकता हूँ। जरूरी काम से अभी जा रहा हूँ।
सेठ जी को इतना मालूम था कि इस असामी से बहुत रुपया लेना है और वह आज चला जायेगा तो फिर रुपया वसूल न होगा। इस कारण वे बड़ी चिंता में थे। कभी दुकान का ताला टटोलते थे और कभी किसी दरबान को पुकारते थे। परंतु उस समय यहाँ कोई नहीं था।
राजकुमार सरांय में पड़े-पड़े यह सब हाल देख रहे थे। उन्हें दुकान की चाबी रखने का स्थान मालूम था। मुनीम नित्य उसी जगह पर चाबी रख जाता था। दुकान के कारिंदों में से जो पहले आता था, वही उस स्थान से चाबी उठाकर दुकान खोल लेता था। इसलिये राजकुमार ने सेठ जी से कहा-‘दुकान की चाबी अमुक खंभे की कड़ी के ऊपर एक छेद में रखी है। ऊपर हाथ डालकर टटोलो, मिल जायेगी।
सेठ जी के होश उड़ गये। वे सोचने लगे कि इस परदेशी की दुकान की चाबी मालूम थी, इसने दुकान का सब माल उड़ा दिया होगा। बतलाए हुए स्थान से चाबी उठाकर सेठ ने दुकान का ताला खोला और भीतर जाकर देखने लगे। वहीं सैकड़ों बहियाँ रखी हुई थी। सेठ जी के फरिश्ते भी नहीं जान सकते थे कि इस असामी का खाता किस बही में है। सेठ जी कभी यह बही उठाते और कभी वह। सेठ जी को झंझट में पड़ा हुआ देखकर सरांय में से राजकुमार ने पूछा-‘सेठ जी आपके इस असामी का नाम क्या है?
सेठ ने बतला दिया-राजकुमार ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘आप व्यर्थ तकलीफ मत कीजिये। इस असामी का खाता हरी बही के अमुक पन्ने में है। उठाकर देख लीजिये। उस पर आज की मिती तक 1542 रुपये) बारह आना बाकी निकलते हैं। सेठ ने सोचा वह मुसाफिर क्या बकता है? इसे इतने पते की बात कैसे मालूम हुई? उन्होंने हरी बही का वही पन्ना खोलकर देखा तो उस असामी के नाम सचमुच उतना ही रुपया बाकी निकलता था।
सेठ जी सन्नाटे में आ गए। सोचने लगे, इतनी पते की बात बिना बही-खाता देखे तो खुद मुनीम भी नहीं बतला सकता है, जिसके हाथ का लिखा हुआ यह खाता है। उन्होंने असामी से रुपया लेकर उसे फारखती लिख दी। असामी चला गया। सेठ जी दुकान बंद करके सरांय में मुसाफिर के पास पहुँचे और मुसाफिर से कहने लगे-
भाईसाहब! आप कहाँ से पधारे हैं? आज आपसे मुझे बड़ी मदद मिली। इसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मुझे इस बात का भी बड़ा भारी अचरज हो रहा है कि आपको मेरी दुकान की इतनी पते की बातें कैसे मालूम हुई। क्या आप कोई गुप्त विद्या जानते हैं।’
राजकुमार ने कहा-‘सेठ जी इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। मैं जादू बगैरह कुछ नहीं जानता हूँ। बात यह है कि मैं एक बार जिस बात को सुन लेता हूँ, वह मुझे याद हो जाती है। आपकी दुकान के सामने बैठे-बैठे मैं सब बातें सुना करता हूँ। इसलिये वे मुझे मालूम है।’
सेठजी ने मुसाफिर के रूप, रंग और बातों के ढंग से जान लिया कि वह कोई बड़ा आदमी है। उसकी बुद्धिमानी की बानगी तो उन्हें मिल ही चुकी थी। इसलिये उन्होंने आग्रह करके उसे अपनी दुकान का मुनीम बना दिया। राजकुमार पहले तो राजी नहीं हुआ, परन्तु जब सेठ जी ने बहुत समझाया, तब उसने बात मंजूर कर ली। सोचा, कुछ दिन नौकरी करके भी देखनी चाहिये। सेठ ने नये मुनीम के रहने के लिये एक अच्छा सा मकान, कई नौकर-चाकर, बैठने को घोड़ागाड़ी और भेंट में एक कीमती दुशाला दिया।
सेठ जी की दुकान के सब गुमाश्ते कारिंदा बगैरह ने नये मुनीम की नियुक्ति का हाल सुना। सबके कान खड़े हो गए। वे आपस में कानाफूसी करने लगे। बुरा हुआ, वह अजनबी आदमी, सुना है बड़ा होशियार है। बिना देखे बही-खातों का हिसाब जबानी बतला देता है। किसी ने कहा- अजी जनाब, वह जादू जानता है जादूँ अब सबको अपने-अपने मुँह में मुसीका लगाना होगा। ऐसी बहुत बातें होती रहीं।
राजकुमार दुकान का काम संभालने लगा। उसकी चतुराई से दुकान की आमदनी बढ़ गई। सेठ जी खुश हुये और मुनीम की तरक्की कर दी। सेठजी का एक कारिंदा सेठ की स्त्री से फँसा हुआ था। एक दिन सेठ जी कहीं बाहर गए हुए थे। किसी काम के लिये राजकुमार उनके घर गया। वह वहाँ का हाल देखकर चकित रह गया। उसने देखा सेठानी और कारिंदा एक पलंग पर पड़े हुए हैं।
दोनों के इस व्यभिचार को देखकर पहले तो उसे क्रोध आया। सोचा, दोनों को इसका मजा चखाऊँ, परन्तु तभी उसे एक लाख की बात की याद आ गई। बुड्ढे ने बतलाया था कि कभी किसी का व्यभिचार देखो तो उस पर परदा डाल दो। इसी बात के लिये एक लाख रुपया खर्च किए हैं। आज मौका आ गया है तो उसे आजमा कर देखना चाहिये। ऐसा सोच राजकुमार ने अपने कंधे का दुशाला लेकर उन पर डाल दिया और तुरन्त वहाँ से लौट आया।
इस विषय में उसने किसी से कुछ नहीं कहा। वहाँ जब सेठानी और उसके कारिंदा ने देखा कि हम दोनों के व्यभिचार को बड़े मुनीम साहब ने देख लिया है, तब उनके प्राण सूख गए। सोचने लगे हम लोगों की बदनामी होगी ही, परंतु जो सेठ जी के कानों तक यह बात पहुँच जायेगी तो ताज्जुब नहीं है कि हम दोनों के प्राणों से भी हाथ धोना पड़े।
सेठानी जी ने घबड़ाकर कहा-‘अब क्या करना चाहिये। अपनी रक्षा का कोई उपाय भी है? यार ने कहा-‘हाँ, एक उपाय है। देखो, मुनीम साहब अपना दुशाला हमारे ऊपर डाल गए थे। इसे तुम अपने पास रख लो। रात को जब सेठ जी घर आयें तब तुम उनके सामने रो-रोकर कहना कि तुमने यह कहाँ का परदेशी मुनीम रक्खा है। कल अकेले में जबकि आप गाड़ी पर बैठकर कहीं बाहर गए थे, वह हमारी आबरू लेने आया था।
वह मुझसे छेड़छाड़ करने लगा, तब मैंने उसका यह दुशाला छीन लिया। शोरगुल होने पर मुश्किल से वह भागा। ऐसा कहकर खूब रोना और खाना-पीना सब छोड़ देना। यदि तुम इतना करोगी तो सब काम बन जायेगा। हम सेठ जी के स्वभाव को अच्छी तरह जानते हैं। उनके ऊपर पहले पहल जो रंग चढ़ा दो वही चढ़ जाता है। उपाय सुनकर सेठानी जी को कुछ धीरज बंधा।
रात को जब सेठ जी आए, तब सेठानी जी ने रो-रो कर अपने यार की बतलाई हुई सब बातें विस्तार के साथ कह सुनाई। अंत में उसने वह दुशाला सेठ के सामने फेंकते हुए कहा-तुम्हें विश्वास न हो तो पहिचान लो, यह किसका दुशाला है। जब तक उस पाजी को पूरी-पूरी सजा न मिल जायेगी, तब तक मैं रोटी-पानी कुछ भी नहीं छुऊँगी।
सेठ जी ने सेठानी को धीरज बंधाते हुये कहा-‘कल उसे अपनी करनी का फल मिल जायेगा, अब तुम चिंता मत करो। ऐसा कहकर सेठ सो गए। दूसरे दिन सबेरे दस बजे सेठ जी स्नान-पूजा से निपटकर दुकान पर पहुँचे। वहाँ जाते ही उन्होंने एक चिट्ठी शहर कोतवाल के नाम लिखी। चिट्ठी में लिखा-‘यह चिट्ठी, मैं जिस आदमी के हाथ आपके पास भेज रहा हूँ, उसने एक भयंकर अपराध किया है। जल्लाद के द्वारा फौरन ही उसका सिर कटवा दो और कटा हुआ सिर तुरंत मेरे पास भेजो।
चिट्ठी लिखकर एक लिफाफे में बंद कर दी और उस पर अपने नाम की मुहर लगा, बड़े मुनीम को बुलाकर कहा-‘तुम इस चिट्ठी को लेकर अभी शहर कोतवाल को दे आओ। मुनीम ने चिट्ठी लेते हुये कहा-‘बहुत अच्छा , अभी जाता हूँ। दोपहर का समय हो चुका था। मुनीम कारिन्दा सब अपना- अपना काम बंद कर घर को आए। मुनीम साहब ने अपनी गाड़ी बुलवाई और उस पर सवार हो गए। सोचा, मालिक के हुक्म की तामील अभी कर आना चाहिये।
कोतवाली को जाने का जो रास्ता था, उसी पर एक दूसरे सेठ जी का मकान था। उनके यहाँ लड़के की शादी थी। नगर के सभी चुनिंदा आदमी और नौकर-चाकरों का उनके यहाँ न्यौता था। मुनीम साहब भी बुलाये गये थे। भोजन का समय हो गया था। सब आदमी जुड़ गए थे। इसी समय मुनीम साहब की गाड़ी दौड़ती हुई उनके दरवाजे से निकली। लोगों ने गाड़ी को रोककर कहा- कहाँ जाते हो। भोजन का समय हो गया है। सब आदमी आप ही की राह देख रहे थे। इतने में सेठ भी भीतर से निकलकर आ गये। उन्होंने मुनीम से कहा-अब आप कहीं नहीं जा सकते हैं। पहले भोजन कर लीजिये, फिर जाइये।
मुनीम ने कहा-पहले मुझे अपने मालिक के काम के लिये शहर कोतवाल के पास जाना है। उसको एक चिट्ठी देना है। मैं चिट्ठी देकर अभी आता हूँ। आप लोग भोजन कीजिये। मैं दूसरी पंक्ति में बैठ जाऊँगा। लोगों ने कहा-अजी, ऐसा क्या जरूरी काम है? खाना खाकर चले जाना। इतना मान-मनौबल क्यों करवाते हो। मुनीम ने उत्तर दिया-आज मालिक ने खुद मुझे चिट्ठी दी है, इससे मालूम होता है कोई बहुत जरूरी काम होगा।
वहाँ पर कारिंदा भी, जो सेठानी से फँसा था, भोजन करने आया था। उसने आगे बढ़कर कहा-‘मुनीम साहब, सब लोग कह रहे हैं तो आप भोजन कीजिये। चिट्ठी मुझे दीजिये। मैं इसी समय शहर कोतवाल को दिए आता हूँ। जब तावेदार मौजूद है, तब आपको तकलीफ उठाने की क्या जरूरत है।
राजकुमार को उस समय उस बुड्ढे की एक लाख वाली बात की याद आ गई। बुड्ढे ने कहा था-‘हजार बात छोड़कर समय पर भोजन करो। आज इस बात की भी परीक्षा करनी चाहिये। उसने अपनी जेब से चिट्ठी निकालकर कारिंदा को दे दी और आप गाड़ी से उतरकर सबके साथ भोजन करने के लिये बैठ गये। कारिंदा मुनीम साहब की गाड़ी में बैठकर शहर कोतवाल के पास चला गया।
कारिंदा ने जाकर शहर कोतवाल को सेठ जी की चिट्ठी दी। चिट्ठी पढ़ते ही कोतवाल ने सिपाहियों को हुक्म दिया-‘इस शख्स को गिरफ्तार कर लो। फिर जल्लाद को बुलाकर कहा-‘इस आदमी का सिर काट लाओ। जल्लाद कारिंदा का सिर काट लाया। कोतवाल ने उस कटे हुये सिर को एक कपड़े में रखकर सवार को दिया और कहा कि इसे अमुक सेठ को दे आओ। सवार कटा हुआ सिर लेकर चला।
यहाँ मुनीम साहब भोजन करके उठे थे कि इतने में कटा हुआ सिर लिए हुए सवार उधर से निकला। सवार ने सेठ जी के बड़े मुनीम को देखते ही सलाम करके कहा- मुनीम साहब, कोतवाल साहब ने सेठजी के पास यह सिर भेजा है। आप पावती लिखकर सिर ले लीजिये। मुनीम ने पावती लिखकर सवार को दी और सिर ले लिया।
राजकुमार तुरन्त सब मामला समझ गया। वह मन-ही-मन कहने लगा- आज बड़ी कुशल हुई। सेठजी ने तो आज मेरा सिर कटवा ही दिया था, पर परमेश्वर ने बचा लिया। उस बुड्ढे की बातें सच निकलीं। उसी की शिक्षा पर परखने में मेरी जान बची। ऐसा सोचते हुये वह सिर लेकर सेठजी के घर की ओर चला।
सेठजी के पास पहुँचते ही उन्होंने राम-राम कहते हुए कहा- लीजिये, यह सिर कोतवाल साहब ने भेजा है। ऐसा कहकर उन्होंने कपड़े से सिर निकालकर सेठ के सामने रख दिया। सेठजी भौचक्के होकर रह गये। सोचने लगे, यह क्या हुआ। किसका सिर कटवाना चाहा था और किसका कट गया। वह बार-बार कारिंदा के उस कटे हुए सिर और मुनीम की ओर देखने लगे।
सेठ जी की यह हालत देखकर राजकुमार ने कहा-‘सेठजी, अचंभा मत कीजिये, आपने तो बिना बिचारे मेरा सिर कटवा लेना चाहा था। अपराधी को अपराध का उचित फल मिल गया। इतना कहकर उन्होंने कारिंदा और सेठानी के व्यभिचार की बात खोलकर सुना दी। सेठ को अपनी गलती पर दुःख हुआ। उसने कहा-‘मुनीम साहब, मुझसे गलती हुई। माफ कीजिये। राजकुमार ने अपने देश निकाले से लेकर नौकरी करने तक का कुल किस्सा सुनाकर कहा-
मैंने अक्ल की दुकान से तीन लाख रूपये में तीन बातें खरीदी थीं। आपके-यहाँ नौकरी करते समय मुझे इन तीनों बातों की सच्चाई प्रकट हो गई। मैंने ये बातें एक-एक लाख रूपये में खरीदी थी, परन्तु सच पूछा जाये तो उनमें की एक-एक बात कई-कई लाख रुपये की निकली।
अब मैं आपकी नौकरी नहीं करूँगा। आप कान के कच्चे हैं। सेठानी के झूठ-मूठ कहने पर बिना बिचारे आप दूसरे की गर्दन कटाने को तैयार हो गये। सेठ ने माफी मांगते हुये राजकुमार से कुछ दिन और भी काम करने को कहा। परन्तु राजकुमार यह कहकर कि अब मैं अपने देश को जाऊँगा, वहाँ से चला आया।