Tang Nazar तंग नज़र

आज़ादी के सात दशक के बाद दुनियां कहां से कहां पहुच गई और हमारे देश ने भी बहुत प्रगति की, बहुत तरक्की की लेकिन किन्नरों के प्रति उनका नज़रिया आज भी दकियानूसी है आज भी उन्हे Tang Nazar से देखा जाता है ।

कल बसंत पंचमी थी। आज का मौसम भी मनभावन है। सुबह की स्वस्थ ताजी हवा की बयार में जंगली फूलों की सुगंध तैर रही थी। जैतपुर से कोई तीन किलोमीटर दूर स्थित इस छोटे से रेलवे स्टेशन के आस-पास प्रकृति अपनी बासंती छटा निःस्वार्थ भाव से लुटा रही थी। शहर से गाँव की आबो-हवा कितनी अच्छी है, परन्तु आज भी शहर के बाशिन्दों की तुलना में गाँव के लोगों में प्रगतिशीलता कोसों दूर है।

मैं इस समय अपना एयर बैग लिये जैतपुर रेलवे स्टेशन की एक खाली बैंच पर बैठी ट्रेन का इंतजार कर रही हूँ। आज से बीस वर्ष पूर्व, जब मैं चौदह-पन्द्रह वर्ष की थी, तब भी मैंने इसी तरह ट्रेन की प्रतीक्षा की थी। उस दिन भी मैं दृढ़-निश्चय के साथ अपना घर-परिवार-गाँव सदा के लिये छोड़ कर निकली थी।

बीस वर्ष बाद कुछ दिन पहले ही ख़ुशी-खुशी मैं अपने घर वापस आई थी। ढेरों मंसूबे बाँध रखे थे मैंने, पर परिस्थितियाँ मुझे उसी दृढ़-निश्चय के साथ पुनः घर से मुंबई वापस भेज रहीं थीं। समाज में बहुत कुछ बदल चुका है, पर अभी तक लोगों की किन्नरों के प्रति सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। अभी भी समाज के लोग किन्नर को नाचने-गाने, बिन बुलाये बधाई देने आ जाने वाले जबरदस्ती की व्याधि मानते हुए अश्लीलता के चश्मे से उन्हें देखते, परखते और स्वयं से दूरी बनाकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर रखने की कोशिश करते हैं।

वर्षों पहले भी घर छोड़ने का कारण मेरी ‘अधूरी देह’ थी और कमोबेश यही कारण आज भी है। इन बीस सालों में बहुत कुछ बदला, पर लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ। मेरी देह की बनावट, जो न लड़की जैसी थी और न ही लड़के जैसी, जिसके कारण गाँव मुहल्ले के लोगों से लगभग रोज ही अपमानित होते अपने पिता का उदास चेहरा मुझे देखना पड़ता था। उफ़्फ़! मेरे पिता! मेरे बाबू! मुझे देख ‘आह’ भरने लगते थे।

मैं ‘बाबू’ कहती थी उन्हें। बचपन से ही मुझे भी अन्य भाई-बहनों की तरह अम्मा-बाबू से भरपूर लाड़-प्यार मिला। सब कुछ ठीक चलने के बावजूद एक मेरे अधूरेपन की वजह से परिवार में सदा मायूसी-सी छाई रहती थी। कभी किसी के द्वारा मुझे लेकर बाबू को ताने सुनने पड़ जाते थे, लानत-मलानत झेलनी पड़ जाती थी, तब मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो जाती और फिर एक दिन मैंने आजिज आकर इसी रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ी और सदा के लिये घर-गाँव छोड़ देने का जो निश्चय किया वह मुंबई महानगर पहुँच कर पूरा हुआ।

घर से बाहर के संसार में मेरी युवा होती मादा देह पर आमादा बीसियों नर शिकारी थे। भला हो लखनऊ की ट्रेन से उतरे आदित्य रंजन मिश्रा जैसे देवतुल्य इंसान का, जो मुझ अकेली को मुंबई के दादर रेलवे स्टेशन में भटकते देख, मुझ पर तरस खाकर अपने घर ले आये और मुम्बई जैसे महानगर में पहला ठिकाना दिया। उन्होंने मुझे अपने घर में ही घरेलू कार्य के लिये रख लिया। पहले तो वह भी मुझे लड़की समझ रहे थे, परन्तु जल्दी ही मैंने मिश्रा दम्पति को अपनी असलियत बता दी थी कि, ‘मैं एक किन्नर हूँ।’

मेरी असलियत पता हो जाने के बाद भी मिश्राजी व उनकी धर्मपत्नी की नेकनीयती व कृपा मुझ पर बनी रही। बाद के वर्षों में मिश्रा दम्पति से अनुमति लेकर मैं पूजा गुरु माई के डेरे में आ गई थी। लम्बी चौड़ी और स्वस्थ बुचरा किन्नर पाकर, मैं पूजा माई की कुछ महीनों में ही चहेती बन गई और उनकी मृत्यु के बाद मुझे गुरु पद प्राप्त हुआ। जिंदगी ठीक चल निकली थी। शुभ उत्सवों में बधाई के अलावा मैं किन्नर अखाड़ा से जुड़कर अपने डेरे में भजन, कीर्तन, अखण्ड रामायण पाठ का आयोजन कराने लगी।

सनातन धर्म के लिए कार्य कर रहे किन्नर अखाड़ा की मैं जल्दी ही मंडलेश्वर बना दी गई, जिसके कार्यक्रमों में मैं मुम्बई से बाहर भी जाने लगी। प्रयाग अर्द्ध कुम्भ मेला में भी मैंने पूरे एक माह किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर आचार्य श्रीयुत लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के सानिध्य में कल्पवास किया और उनके निर्देश में दिए गए दायित्वों को भली-भाँति निभाया। वर्षों बीत जाने के बाद मैंने बड़े भैया के नाम से एक पत्र अपने गाँव जैतपुर के लिये पोस्ट कर दिया था, जिसमें मैंने अपनी कुशलता के साथ अपना मोबाइल नम्बर भी दिया था।

पत्र पोस्ट करने के पाँचवे दिन ही बड़े भैया का फोन मेरे पास आ गया था। बड़े भैया मुझसे देर तक बतियाते रहे, ‘बाबू-अम्मा’ मेरी याद और मेरी प्रतीक्षा करते स्वर्ग सिधार चुके थे। पट्टीदारों से बँटवारे को लेकर हुई मुकदमेबाजी से परिवार की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई। दो-दो बेटियाँ ब्याहने को हैं। तीनों बेटे पढ़ाई कर रहे हैं, किसी तरह घर-गृहस्थी चल रही है। मझले व छोटे भैया गुजरात में किसी मिल में मजदूरी करते हैं।

खुद कमाते-खाते हैं, वे दोनों कई वर्ष से गाँव नहीं लौटे, बल्कि उनके बारे में तो यह भी सुना है कि दोनों ने वहीं पर अपनी शादी कर ली है और खुशहाल हैं। अपना खा कमा रहे हैं। आर्थिक मदद के नाम पर उन्होंने एक धेला की भी कभी मदद नहीं की। दोनों अकेले अंतिम बार बाबूजी की तेरहवीं में आये थे। सही बात तो यह है कि उन दोनों के पास स्वयं के खर्चे के लिये पैसा नहीं बचता, तो मेरी मदद कैसे कर पाते? ऐसा वह कहते हैं, आगे भगवान जाने आदि आदि।

मेरी बड़े भैया से अक्सर फोन पर बात होने लगी। घर द्वार के हालचाल मिलने लगे। उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति को समझते हुए भतीजे-भतीजियों की पढ़ाई-लिखाई के नाम पर मैं जब-तब उनके माँगने या न माँगने पर भी उनकी आर्थिक मदद करने लगी। बड़े भैया मुझसे घण्टों बात करते। मुझे अपनी सारी समस्याएं सुनाते। मेरी मदद का उल्लेख करते, मुझे बच्चों के रिजल्ट की सूचना खुश होकर देते। मुझे श्रेय भी भरपूर देते पर पता नहीं क्यों वह मुझे गाँव आने को कभी नहीं कहते। इस सन्दर्भ में एक दो बार मेरे संकेत को भी वह टाल गए।

बड़ी भतीजी गुंजा के ब्याह के लिये बडे भैया ने मुझसे दो लाख रुपये की मदद माँगी। मैंने जोड़-तोड़ कर रुपये भिजवा दिए। रुपये पहुँच जाने पर भरे गले भैया के बोल सुनने को मिले, ‘रानी! गुंजा को आशीष देने आ जाना।’ बड़े भैया के बोल मेरे कानों में मिश्री-सी घोल गए, वर्षों-वर्ष बाद मेरे कानों में ये अमृत शब्द पड़े थे। भाव विह्लल मैं घण्टों रोती रही। मन होने लगा बड़े भैया के पास उड़कर जैतपुर पहुँच जाऊँ।

वह नियत तिथि भी जल्दी आ गई। पूरे घर परिवार के लिये कपड़े-गहने-रुपये जो बन पड़ा, मैं बटोर लाई। मेरा गाँव अब गाँव नहीं रहा, कस्बा हो चुका था। अनेक कच्चे घर पक्के मकानों में तब्दील हो चुके थे। जहाँ बरसात भर कीचड़ रहता था, वहाँ पक्की सड़क बन चुकी थी। लोगों के रहन-सहन में भी समृद्धता दिख रही थी। मोबाइल तो लगभग सभी के हाथ की शोभा बन चुका है।

कन्या ब्याह के घर में खूब चहल-पहल थी। गाँव-मोहल्ले भर को मेरे आने की खबर लग चुकी थी। मुझसे मिलने आने वाले मेरा मुम्बई जीवन पूछते, मेरे जेवरों को निहारते और चलते समय बहुधा फीकी मुस्कान या अजीब सा मुँह बना लेते जैसे कह रहे हों…’ऊह हो तो आख़िर एक किन्नर ही।’ बारात आने के पहले घर आँगन, फिर बाहर द्वार पर अन्य स्त्रियों-लड़कियों संग मैं भी नाचने लगी । “वो गुलाबी साड़ी जो पहने है, हिजड़ा है क्या?” नृत्य करते मेरे पैर थम गए। बोलने वाले ने बोल दिया पर कान मेरे फट गए, जैसे मेरे कानों में किसी ने पिघला शीशा भर दिया हो। मर्माहत हो मैं घर के अंदर चली आई।

हद तो तब हो गई, जब ऐन विवाह मंडप के नीचे बड़ा भतीजा राकेश मेरे बाएं कान में फुसफुसा गया, “रानी बुआ! विनती है, अपने कमरे में रहना। बारात आ रही है। वरमाला में रहोगी, तो लड़के वाले हमारे खानदान के बारे में  क्या सोचेंगे?…. हमारी फजीहत होगी, नाक कट जाएगी, सबके सामने कहेंगे कि कन्या की बुआ तो….” आगे मैं नहीं सुनना चाहती थी। मैंने अपने दोनों कान ढाँप लिए थे। मेरी ओर देख रहे कुछ दूर खड़े बड़े भैया ने अपने हाथ जोड़े लिए, यानि वह भी यही चाह रहे थे।

गुंजा की विदाई हो जाने के पहले तक मैं अपने कमरे में पड़ी रही। रात भर माँ-बाबू के चित्र के सामने रोती रही। विदाई के बाद की गहमा-गहमी के दौरान मैं सुबह-सबेरे एयरबैग लिए पिछले दरवाजे से पैदल ही रेलवे-स्टेशन आ गई हूँ। अपने साथ लाया बहुत-सा सामान, जिसमें मेरे जेवर भी थे, मैं वहीं छोड़ आई थी। इस भाव के साथ कि बड़े भैया को बेटी ब्याह देने के बाद कोई आर्थिक तंगी न हो, परन्तु जिस तंग नजर से मेरा वास्ता हुआ था उसकी पुनरावृति मैं किसी कीमत में नहीं चाहती हूँ। ट्रेन आ चुकी है। मैं एक बार फिर अपने घर-परिवार-गाँव कभी वापस न आने के दृढ़-निश्चय के साथ ट्रेन में बैठ चुकी हूँ ।

महेन्द्र भीष्म

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