मैंने पत्र लिखने के मूड से लेटरपैड खोला ही था कि नीचे से गंगा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बड़ी अम्मा, sukkhan पगलिया गाड़ी के तरे कट के मरेगे।’’ ‘‘सुक्खन गाड़ी के नीचे कटकर मर गयी।’’ एक-एक शब्द मेरे अन्दर गूंजा। मैं कमरे से छत पर आ गया। नीचे आंगन में बड़ी अम्मा के पास खड़ी, पानी भरने वाली ढीमर ‘गंगा’ उन्हें सुक्खन के बारे में बता रही थी।
किशोरीलाल की तरह सुक्खन को अपनी हवस का शिकार अब तक बना चुके होंगे।
बड़ी अम्मा दुःख मिश्रित भाव से दिवंगत आत्मा को शोक-संवेदना अपनी भाषा में दिए जा रही थी। मैं वापस अपने कमरे में आ गया और कुर्सी पर बैठ गया। पत्रा लिखने का मूड हवा हो चुका था। दिमाग में सुक्खन गूंजने लगी। उसका शरीर रेल की पटरी पर पड़ा ठिठुर रहा है, ट्रेन आ रही है, जो सुक्खन को अपने वजनी पहियों तले रौंदते हुए बिना कुछ घटे जैसे भाव के साथ झकपक-झकपक करती गुजर रही है।
इलाहाबाद से पिछले सोमवार को मैं इसी ट्रेन से अपने गांव आया था। गांव के लंगोटिया मित्रा मोहन, जो स्टेशन से घर आते समय रास्ते में मिल गया था, ने मुझे गांव की ताजा सूचना देते हुए बताया था, ‘यार राजेश इस बार तो गजब हो गया।’ अपनी पूरी रस्में करा लेने के बाद उसने सहज में ही आगे बताया था कि ‘सुक्खन के साथ गांव के फलां-फलां आवारा लड़कों ने बलात्कार किया।’ सुक्खन की वही गति हुई, जिसकी मुझे आशंका थी।
पिछले तीन वर्ष पहले मैं यहीं गांव के इंटर कालेज का छात्रा था और इसी कमरे में बैठकर अध्ययन किया करता था। मकान के दूसरे खंड में बने इस कमरे में बाहर सड़क की ओर वाली खिड़की, ठीक मेरे सामने पड़ती थी, जिसमें हमेशा पर्दा पड़ा रहता था। मेरे घर के सामने बेनी बुआ का कच्चा घर था, जिसमें वह अपनी इकलौती लड़की के साथ रहती थी। गांव-भर की बेनी बुआ को मैं बचपन से देखता आया हूं, परन्तु फूफाजी को मैंने कभी नहीं देखा। कोई कहता कि वे सब छोड़-छाड़कर हरिद्वार चले गये। कोई कहता कि उन्होंने बेनी बुआ को छोड़कर दूसरी शादी कर ली। खैर! कुछ भी हो, इस समय बेनी बुआ मुहल्ले के देवालय की पुजारिन थी।
गांव-भर से प्राप्त सीधे से मां-बेटी की गुजर-बसर चलती थी। उनकी खेती की जमीन चाचा के लड़कों ने हड़प ली थी। रहने को मकान के रूप में कच्चे दो कमरे मिल गये थे, उसी पर सन्तोष कर रही थीं। कब से रह रही थीं, यह पता नहीं था। एक दिन दोपहर में, मैं इसी कमरे में सोया हुआ था, जब नथुआ की आवाज ने मुझे जगा दिया था।
मैंने खिड़की से बाहर देखा, सामने बेनी बुआ के घर के दरवाजे पर नथुआ टिका हुआ था। भरभराई आवाज में बड़ी कोशिश करने के बाद, उसके मुंह से बोल फूट रहे थे, ‘माऽऽई…मि…ल…जाय।’ अपनी ताकत-भर नथुआ चीख रहा था, परन्तु जेठ मास की तेज धूप से भरी दोपहर में जब अधिकांश लोग सो रहे होते, उसकी करुण पुकार को सुन नहीं पा रहे थे। ‘माऽऽई…मि…ल…जा…य।’ नथुआ की कारुणिक पुकार दोबारा आई।
मैं कुछ देर सोचने के बाद नीचे उतर कर सड़क पर आ गया। मैंने देखा, नथुआ सड़क पर गिरा पड़ा है। मैंने उसके पास जाकर, उसे टटोला, परन्तु उसके शरीर में कोई हलचल नहीं हुई। मैं उसे उठाकर छाया में ले आया। अन्दर से स्वयं पानी लाकर उसके मुंह पर छींटे मारे, फिर भी उसका चेहरा निस्तेज रहा, तभी मैंने उसकी नाड़ी टटोली। नाड़ी बंद थी। वह मर चुका था। फिर कुछ देर बाद वहां उसे लू लगी और मर गया।
भीड़ कुछ तय कर पाती, इसके पहले मैंने देखा कि भीड़ को ठेलती हुई एक नवयुवती बिलखते हुए नथुआ की लाश के ऊपर गिरकर विलाप करने लगी। उसके रुदन से माहौल गमगीन हो गया था। कोई फुसफुसाकर बोला, ‘यह नथुआ की घरवाली है।’ ‘नथुआ भरी जवानी में मर गया। अब इस बेचारी का क्या होगा? पिछले महीने ही तो इसका गौना हुआ था।’ भीड़ में कोई कह रहा था। ‘एक महीना हुआ था बस।’ मैंने सोचा, ‘नथुआ तो छोटे से ही पागल था,उसकी शादी?’ मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था।
बाद में हमारे साना मजबूत दद्दा ने मुझे बताया था, ‘नथुआ की शादी लड़की वालों को धोखे में रखकर कराई गयी थी, इस खयाल से कि शायद वह शादी के बाद ठीक हो जाएगा। लड़की के मां-बाप ने कोई खोज-खबर नहीं की और लड़की के बोझ से छुटकारा पा गये। लड़की का क्या, वह तो गऊ होती है। जहां मां-बाप बांध देंगे, वहीं बंध जाएगी।’
नथुआ की घरवाली का क्या नाम था? तब मुझे मालूम नहीं था, परन्तु उस समय मेरे मन में यह टीस जरूर उठी थी कि, ‘इतनी सुन्दर लड़की किसी पागल की घरवाली कैसे हो सकती है?’ सस्ती साड़ी और सस्ते गहनों में ही वह बहुत सुन्दर लग रही थी। मैं किशोर-वय का लड़का। बहुत दिन इसी बात को सोचता रहा था। फिर कुछ महीनों के बाद ही सुनने में आया कि नथुआ की घरवाली सुक्खन भी पागल हो गई है। तब पहली बार ‘सुक्खन’ का नाम सुना था।
फिर नथुआ की तरह वह भी अक्सर गांव में घूमती-फिरती दिख जाती थी। पता करने पर ज्ञात हुआ कि ससुराल वाले उसे उसके मायके छोड़ आए थे। मायके वाले उसे फिर ससुराल छोड़ गये। ससुराल वालों ने उसे यातनाएं दी, भूखे रखा। परिणामस्वरूप वह पागल हो गयी, यानी जिन्दा लाश। फिर गर्मी से बरसात, बरसात के बाद जाड़े के दिन शुरू हो गये थे। मैं अपनी अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। रात्रि के लगभग ग्यारह बज रहे थे। सोने से पहले मैंने खिडकी बंद करनी चाही, परन्तु मैं खिड़की बंद न कर सका।
बाहर जो देखा, वह शर्मनाक था। हमारे मुहल्ले के सेठ किशोरीलाल, जिनके घर के बाहर बरामदे पर पड़े तख्त पर सुक्खन सो रही थी, उसके पास सेठ किशोरी लाल खड़े थे और उस पगलिया को भगाने के उपक्रम में उसकी गोरी पिंडलियों पर हाथ फेर रहे थे। यह नहीं कि सेठ को समाज का डर नहीं था, वह अपनी तोंद तक ओढ़े शाल को सम्भाले हुए चारों तरफ देखता भी जा रहा था कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है किन्तु लैम्प-पोस्ट की मद्धिम रोशनी उसके इस कुकृत्य को उजागर कर रही थी। अपने दरवाजे का बल्ब वह पहले ही बुझा चुका था।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ यह सब देखे जा रहा था। सफेदपोश थुलथुल शरीर वाला साठ वर्षीय सेठ किशोरीलाल ऐसी घिनौनी हरकत भी कर सकता है, मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। सेठ की हरकतें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थीं। उसके हाथ सुक्खन के शरीर पर यहां-वहां ठिठोली कर रहे थे। पागल अभागिन सुक्खन आराम की नींद में डूबी ठंड के कारण सिकुड़ी सो रही थी। लैम्प-पोस्ट की मद्धिम रोशनी में उसकी पिंडलियां स्पष्ट चमक रही थीं।
मोटे सेठ ने उसे अपने ऊपर उठाने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु वह सुक्खन का भार उठा न सका। उसकी नीयत अंधेरे में जाने की भांपकर मैं सकते में आ गया। मैंने मेज पर रखे लोटे से पानी लेकर कुल्ला करते हुए खिड़की के बाहर फेंकना शुरू कर दिया, साथ ही साथ कनखियों से सेठ की बाउंड्री की ओर भी देखता रहा। मेरी इस प्रक्रिया से सेठ घबरा गया। कहीं मैंने उसकी हरकतें देखी तो नहीं, इस भय से वह तेज स्वर में, अब सुक्खन को झकझोर कर जगाने लगा था।
मैंने देखा, सुक्खन जाग चुकी थी। वह कुछ देर अपने पास खड़े सेठ को देखती रही और फिर अचानक उस पर झपटी और पलभर में उसका ऊनी शाल छीनकर बाउंड्री से बाहर निकल भागी। सेठ किशोरीलाल उघारे बदन चिल्लाते रह गये। उस दिन की घटना को मैंने अपने तक ही सीमित रखा था। सुक्खन भी मुझे कई दिनों तक दिखाई नहीं दी। मैंने अनुमान लगाया; वह पास के गांव अपने मायके चली गयी होगी। शायद पागल लोग भी इतना ध्यान रखते हैं कि वापस आने पर उनके द्वारा छीना सामान उनसे भी छिन सकता है। सुक्खन को मैं लगभग भुला चुका था क्योंकि अब गांव छूट चुका था।
इलाहाबाद से गांव कभी-कभी ही आना सम्भव हो पाता था। अभी जब मैं दीपावली के अवकाश में पिछले सोमवार को गांव आया, तब पुनः ‘सुक्खन’ उभरकर मेरे सामने आ गयी थी। जब मोहन ने बताया कि वह वहशी दरिन्दों का शिकार हो गयी, दरिंदे पकड़े गये और बात खुली। मैं सोचता रहा कि न जाने कितने सफेदपोश सेठ किशोरीलाल की तरह सुक्खन को अपनी हवस का शिकार अब तक बना चुके होंगे।
शायद इसी खयाल से आज सुबह, जब मैं अकेले घूमने निकला, तब मेरे मन में द्वन्द्व छिड़ गया था। जब मैंने सुक्खन को गांव के बाहर रेलवे लाइन पर निश्चिंत सोते हुए देखा था, तब मैंने अनुमान लगाया था कि वह पिछले चार घंटे पूर्व पैसेंजर ट्रेन आने के बाद पटरी पर आकर लेटी होगी। अब सुबह छह बजे दूसरी ट्रेन का समय था। मैं इस द्वन्द्व में फंस गया था कि सुक्खन को पटरी से हटाऊं या नहीं। ‘उसे पटरी से हटा देने से एक जान बच जाएगी, न हटाने से उसे मुक्ति मिल जाएगी, इस वहशी सफेदपोश संसार से, जहां उसका अपना कोई नहीं है।
दूसरा भाव मेरे अन्दर जोर पकड़ता चला गया और मैं सुक्खन को उसी हालत में छोड़कर वापस घर आ गया था। मेरी आत्मा ने सुक्खन को मर जाने के लिए सहमति दे दी थी और…मैंने अपनी आत्मा के अनुरूप ही किया। ‘‘चाचा, सुक्खन ट्रेन से कटकर मर गयी।’’ मेरा दस वर्षीय भतीजा पीछे से आकर मुझसे बोला। मैंने उसकी ओर देखा। मेरी उंगलियों में फंसे खुले पेन की निब लेटर पैड पर गड़ चुकी थी। अपने भतीजे से मैंने कहा, ‘‘हां बेटे! सुक्खन ट्रेन से कटकर मर गयी।’’ पेन की निब मेरे हाथ का दबाव सह न सकी और टूट गयी। ‘सुक्खन को मेरी कलम ने भी मौत की स्वीकृति दे दी थी, परन्तु बहुत देर बाद।’
कथाकार – महेंद्र भीष्म