षष्ठी देवी Shashti Devi लोक में यह पूजा छठी नाम से जानी जाती है । शिशु जन्म के छठवें दिन यह पूजा महिलाएँ ही करती हैं। इसमें दीवाल पर गेरू से एक पुतरिया बनाकर पंचोपचार पूजा कर गुड़ आदि का भोग लगाया जाता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार यह बाल रक्षक मातृका एवं सिद्ध योगिनी है, जो सदा बालकों की रक्षा करती हैं। तंत्र शास्त्रानुसार मृत वन्ध्या आदि दोषों की शान्ति एवं बालकों के विविध कष्टों की निवृत्ति के लिए इनकी उपासना फलप्रद है ।
प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही तीन ऋण लेकर उत्पन्न होता है। ये तीन ऋण- देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण हैं। देवोपासना, धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन, ऋषियों-मुनियों के निर्देशों का अनुसरण और ब्रह्मचर्य का पालन करने से देव और ऋषि तृप्त होते हैं। पिता की जीवित अवस्था में उनका अनुसरण करना, आदर सम्मान करना मृत्यु के बाद श्राद्धकाल में ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराना तथा गया धाम में पिण्डदान कराना- ये तीन मुख्य कर्त्तव्य, पुत्र के अपने पिता के लिये हैं, जिसका पालन करने से मनुष्य पितृऋण से मुक्त होता है।
पितृलोक को मुक्ति एवं सद्गति प्रदान करने के लिये उत्तम पुत्ररत्न अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त समाजिक दृष्टि से भी संतानसुख अत्यन्त महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में सन्तान प्राप्ति के लिये अनेंको विधान एवं उपाय बताये गये हैं। उनमें से यहां षष्ठी देवी की साधना विधि प्रस्तुत की जा रही है।
जिनको विवाह के वर्षोंपरान्त् भी सन्तान सुख नहीं मिल पाता, उनके लिये षष्ठी देवी की मंत्रोपासना लाभकारी है। संतान प्राप्ति हेतु यह साधना शुभ व शीघ्र फलदायी है। मूल प्रकृति के छठें अंश से प्रकट होने के कारण इन्हें ‘षष्ठी’ देवी कहा जाता है।
ये बालकों की अधिष्ठात्री देवी हैं, इन्हें ‘बालदा’ और ‘विष्णुमाया’ भी कहा जाता है। संतान के इच्छुक पति-पत्नी दोनों मिलकर इनकी उपासना करें तो शीघ्रफल प्राप्त होता है।
जब तक कार्य सिद्ध न हो तब तक सवा लाख जप का अनुष्ठान करते रहें। अगर शक्ति हो तो प्रत्येक बार अनुष्ठान के अंत में होम आदि कर्म का भी आयोजन करें या करवायें। पूर्ण विधि से दैवीयकर्म सम्पन्न किया जाये, तो कार्य शीघ्र सिद्ध होता है। गर्भ का न ठहरना, गर्भपात दोष, प्रसवपीड़ा या संतान का जन्म के बाद समाप्त हो जाना, इन सभी दोषों के निवारण के लिये विधिवत षष्ठी देवी की उपासना करनी चाहिये।
इनकी सेवा से पुत्र की इच्छा रखने वालों को पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होती है और इसके अतिरिक्त जन्म के उपरान्त् बालक के ऊपर किसी भी प्रकार की व्याधि या संकट नहीं आता , शारीरिक या मानसिक रोग हो तो इनकी उपासना से सब दोष समाप्त हो जाते हैं। निरन्तर इनकी भक्ति करने से घर में धन-धान्य का आगमन होता है और समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है।
सुश्रुत संहिता में छोटे शिशुओं में जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें ग्रहों से उत्पन्न बताया गया है। स्कन्दग्रह, स्कन्दापस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, अन्धपूतना, शीतपूतना, मुखमण्डिका और नैगमेय (पितृग्रह)- ये नौ ग्रह शिशुओं से सम्बन्धित बताये गये हैं।
इन ग्रहों से पीड़ित बालक के लक्षण अलग-अलग होते हैं। लक्षणों के आधार पर यह ज्ञान हो जाता है कि बालक किस ग्रह से पीड़ित है। नवजात शिशु की शारीरिक तथा मानसिक शक्ति शून्य के बराबर होती है। इसलिये उनकी समस्त प्रकार से रक्षा हेतु माताओं को भगवती षष्ठी देवी के साथ उनके स्वामी कार्तिकेय की उपासना करनी चाहिये। अगर माता-पिता दोनों अपने पुत्र के निमित्त संकल्प लेकर इनकी उपासना करते रहें, तो उस बालक का पूर्ण जीवन संकटों से मुक्त होकर सौभाग्यशाली रहता है। तेज, बुद्धि और विद्या में भी अद्भुत लाभ होता है।
शालग्राम शिला, वटवृक्ष के मूल में अथवा भगवती दुर्गा के समक्ष इस साधना को सम्पन्न किया जा सकता है। मंत्रोपासना के साथ प्रत्येक माह की षष्ठी तिथि में इनके व्रत का भी विधान है। इसके अतिरिक्त धार्मिक कर्म, जैसे- गौ के साथ उसके बछड़े और निर्धन एवं अनाथ बच्चों की सेवा तथा सहायता करने से शीघ्र ही दैवीय सहायता मिलती है।