बुन्देलखंड अंचल ग्राम संस्कृति और भावनात्मक भाषा से समृध भूभाग मे Santosh Singh Bundela जैसे रचना कार ने जन मानस के भावों का चित्रण अपनी कविता के माध्यम से करके जीवंत कर दिया।
प्रकृति प्रेम और जन भावनाओं के रचनाकार संतोष सिंह बुंदेला
श्री संतोष सिंह बुंदेला जी का जन्म 1 फरवरी 1930 को पहाड़गाँव, बिजावर मध्यप्रदेश मे हुआ था। श्री संतोष सिंह बुंदेला आधुनिक काल के बुंदेली कवि थे। जमीन से जुड़े हुए कवि थे। आपकी अधिकतर रचनाएँ समकालीन जन-जीवन से जुड़ी हुई थी, ग्राम जीवन से जुडी हुई गांव के परिवेश में रची बसी स्नेह और प्रेम को दर्शाती है।
स्त्री का जीवन व उनके जीवन की कठिनाइयों का इतने सरल तरीके से प्रस्तुत किया है जिसे पढ कर ऐसा लगता है कि ये तो मेरे बहुत करीब है। साथ ही वे देश प्रेम, प्रकृति प्रेम,पर्व-त्योहार को भी अपनी रचनाओं में दर्शाते थे। श्री संतोष सिंह बुंदेला ने अपनी लेखनी से समाज में व्याप्त बुराइयों को अपनी मनमोहक रचनाओं के माध्यम से अपने भावों को जमीन पर उतार देते थे।
श्री संतोष सिंह बुंदेला बुंदेली काव्य के आधुनिक काल के कवि थे, और इस काल के कवि समकालीन समाज, संस्कृति और राजनीति के प्रति काफी जागरुक थे। यही विशेषताएं संतोष सिंह बुंदेला जी की रचनाओं की भी थी। उन्होंने जन मानस के भावों को देखा, समझा, अनुभव किया और उन्ही अनुभवों को रचना के माध्यम से साकार रूप दिया जिसे जन-मानस ने हृदय से लगा लिया।
संतोष सिंह बुंदेला की कुछ चर्चित रचनाएँ…।
1 – मिठुआ है ई कुआ कौ नीर
2 – जबसे छोडो है अपनो गांव
3 – लमटेरा की तान
4 – बापू अबै न आए!
5 – बिटिया
6 – दुखिया-दीन गमइयाँ
7 – गौरीबाई
संतोष सिंह बुंदेला की काव्यगत विशेषताएँ
श्री संतोष सिंह बुंदेला आधुनिक काल के कवि थे और इस काल के कवि समकालीन कवियों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल के कवि आशावादी थे और भविष्य के नए सपनो को अपनी रचनाओं में दर्शाते थे। इनकी रचनाओं में आधुनिक युग की पूरी झलकियाँ दिखती थी।
श्री संतोष सिंह बुंदेला बुंदेली काव्य के दिग्गज रचनाकार थे। आप एक प्रगतिवादी कवि थे। खड़ी भाषा में रचनाऐं लिखते थे। आधुनिक चेतना को बुन्देली में लिखने वाले कवि थे। वे जन मानस के कवि थे उनकी रचनायें जनमानस के मनोभावों ओतप्रोत रहती है उनकी रचना के केंद्र मे बेटी होती है और सारा ताना-बाना बेटी के इर्द गिर्द ही घूमता है ।
बिटिया तो है कपला गाय,
न अपने मुख सें कछु वा काय,
जमाने के सब जुलम उठाय।
बिटिया की व्यथा के भावों का चित्रण कितनी खूबसूरती से किया कि वो चाहे मायके मे हो या ससुराल मे हो, वो कपिला गाय की भांति सीधी कितने भी कष्ट मे हो कुछ बोलती नही सब सह लेती है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचना
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी॥
की तुलना संतोष सिंह बुंदेला की रचना से करें तो भावों का सम्प्रेषण कहीं कम नही हैं ।
आज दिवारी के दिन नौनी लगै रात अँधियारी,
मानों स्याम बरन बिटिया नैं पैरी जरी की सारी॥
कवि ने अपने मनोभाव से कल्पना को रचना मे कैसे बांधा है ? केंद्र बिंदु बिटिया है और ताना-बाना दिवारी की रात है।
दिवारी गाबैं क-कर सोर, कि भइया बिन बछड़ा की गाय।
बिन भइया की बहिन बिचारी गली बिसूरत जाय॥
भाई दौज आई है,
कि टीका लाई है॥
यहां भी रचना के केंद्र में बेटी है लेकिन भाव बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है और ताना-बाना भाई दूज का त्यौहार है। वह बहन जिसका भाई नहीं है फिर भी वह अपने भाई की राह देख रही है।
है आ गओ सावन कौ त्यौहार कि भइया राखी लेव बँदाय।
माँगैं भाबी देव, नौरता खाँ फिर लियो बुलाय॥
और कछु नइँ चानैं,
हमें इतनइँ कानैं॥
इस रचना में भी केंद्र बिंदु में बेटी ही और उसका ताना-बाना रक्षाबंधन के त्यौहार के रूप में है और भावनाओं को बहुत खूबसूरत तरीके से संप्रेषित किया गया है कि पहले रक्षाबंधन का त्योहार है और उसके बाद नवरात्रि में नौरता का त्यौहार है यहां बेटी की भावनायें दोनों त्यौहार में मायके आने की हैं।
आप बेटी और उसके प्रेम-भावों को अपनी रचनाओं के द्वारा खड़ी भाषा में व्यक्त करते थे। बुंदेली काव्य पिछले सात सौ वर्षो से अधिक पुरानी एक परम्परा है। बुंदेली काव्य हिंदी के एकदम समतुल्य है, जिसमे साहित्य का सम्पूर्ण निचोड़ मिला हुआ है।
लमटेरा की तान
हमारे लमटेरा की तान,
समझ लो तीरथ कौ प्रस्थान,
जात हैं बूढ़े-बारे ज्वान,
जहाँ पै लाल धुजा फहराय।
नग-नग देह फरकबै भइया,
जो दीवाली गाय॥
दिवारी आई है,
उमंगै लाई है।
आज दिवारी के दिन नौनी लगै रात अँधियारी,
मानों स्याम बरन बिटिया नैं पैरी जरी की सारी।
मौनियाँ नचै छुटक कैं खोर,
कि जैसें बनमें नाचैं मोर॥
दिवारी गाबैं क-कर सोर, कि भइया बिन बछड़ा की गाय।
बिन भइया की बहिन बिचारी गली बिसूरत जाय॥
भाई दौज आई है,
कि टीका लाई है।
आन लगे दिन ललित बसन्ती फाग काउ नैं गाई।
ढुलक नगड़िया बजी, समझ लओ कै अब होरी आई॥
बजाबैं झाँजैं, झैला, चंग,
नचत नर-नारी मिलकें संग,
रँगे तन रंग, गए हैं मन रंग, कहरवा जब रमसइँयाँ गाय।
पतरी कम्मर बूँदावारी, सपनन मोय दिखाय॥
अ र र र र होरी है,
स र र र र होरी है।
गाई चैतुअन नैं बिलवाई, चैत् काटबे जाबैं।
सौंने-चाँदी को नदिया-सी पिसी जबा लहराबैं॥
दिखाबैं अम्मन ऊपर मौर,
मौर पर गुंजारत हैं भौंर,
कि मानौ तने सुनहरे चौंर, मौर की सुन्दर छटा दिखाय।
चलत लहरिया बाव चुनरिया, उड़-उड़ तन सैं जाय॥
गुलेलें ना मारौ
लँयँ का तुमहारौ!
गायँ बुँदेला देसा के हो, ब्याह की बेला आई।
ब्याहन आए जनक जू के घर, तिरियन गारी गाई॥
करे कन्या के पीरे हाँत,
कि मामा लैकें आए भात,
बराती हो गए सकल सनात, बिदा की बेला नीर बहाय,
छूट चले बाबुल तोरे आँगन, दूर परी हौं जाय॥
खबर मोरी लैयँ रइयो,
भूल मोय ना जइयो।
बरसन लागे कारे बदरा, आन लगो चौमासौ।
बाबुल के घर दूर बसत हैं, जी मैं लगो घुनासौ॥
उमड़ो भाई-बहिन कौ प्यार,
कि बिटिया छोड़ चलीं ससुरार।
है आ गओ सावन कौ त्यौहार कि भइया राखी लेव बँदाय।
माँगैं भाबी देव, नौरता खाँ फिर लियो बुलाय॥
और कछु नइँ चानैं,
हमें इतनइँ कानैं।
दुखिया-दीन गमइयाँ
हम हैं दुखिया-दीन गमइयाँ,
जिनकौ कोउ जगत में नइयाँ।
फिरैं ऊसई चटकाउत पनइयाँ, कहाबै अपढ़ा देहाती,
दो रोटन के लानें मारें रात-दिना छाती॥
तौऊ ना मिल पाबै,
न सुख सैं खा पाबै।
गइयन-बछलन की सेवा कर हमनें धोई सारै,
दूध-दही की सहर-निवासी मारैं मस्त बहारैं॥
हम खुद समाँ-बसारा खात,
तुमैं गैहूँ-पिसिया दै जात।
नाँन भर बदले में लै जात, बनाबैं खुदई दिया-बाती,
दिया लैं संजा कैं उजयार, नहीं तौ लेत नकरियाँ बार॥
गुजर हम कर लइए,
लटी-नौनी सइए।
तिली-कपास करै पैदा हम, तुमनें मील बना लए,
जब हम उन्ना लैबे आए, दो के बीस गिना लए॥
बराई होय हमारे खेत,
और तुम सुगर मील कर लेत,
सक्कर कंटरौल सैं देत, बात कछु समझ नहीं आती,
महुआ बीन-बीन हम ल्यायँ, तुम्हारी डिसलरियाँ खुल जायें॥
सदाँ श्रम हम करबै
तुमारे घर भरबै।
हम खुद रहैं झोपड़ी में और तुमखाँ महल बनाबै,
कैसौ देस-काल आओ, हम तौउ गमार कहाबैं॥
अपनी दो रोटिन के हेत,
पेट हम अनगिनते भर देत,
हक्क न हम काहू कौ लेत, चोरी हमें नहीं भाती,
हम सें कोउ कछू कै जाय, तौउ हम माथौ देत नबाय॥
अनख ना मन लेबैं,
मधुर उत्तर देबैं।
जो कछु मिलै ओइ मैं अपनी, गुजर-बसर कर राबैं,
छोड़ पराई चुपरी, अपनी सूखी सुख सें खाबैं॥
हमैं ना कछू ईरखा-दोस,
हमैं है अपने पै सन्तोस,
और ना हम ईमान-फरोस, भई सम्पत कीकी साथी,
रखत हैं मन में एक बिचार, बनैं ना हम भारत कौ भार॥
चाहे सर कट जाबै,
चाहे जी कड़ जाबै।
तिली, कपास, अन्न, गन्ना, घी, लकड़ी, मिर्च मसाले,
पत्थर ईंट, चून, बाबूजी, देबैं गाँवन वाले॥
जितै हम देत पसीना डार,
उतैबस जात नओ संसार।
सजै धरती माँ कौ सिंगार करै कउवा दूधा-भाती।
सजें जब खेत और खरयान, उतै औतार लेत भगवान॥
भूख-ज्वाला भागे,
नओ जीवन जागै।
देखौ बाबू जी, तुम मन सें, ओर हम तन सें काले,
इतने से अटन्तर पै तुम खाँ, हम देहाती साले॥
परोसी कौ सुख-दुख निज मान,
देत हम एक दूजे पै जान।
हमारें नइयाँ स्वार्थ प्रधान, सहर में को कीकौ साथी।
परोसी कौ मर जाबै बाप, रेडियो खोलें बैठे आप॥
गरब जी कौ तुमखाँ।
बुरओ है ऊ हलखाँ।।
चहत चौंच भर नीर चिरइया, सागर कौ का करनै,
दो रोटी के बाद सुक्ख सैं, सतरी में जा परनै॥
किबारे खले डरे रन देत,
जितै चाहौ मन, सो चल देत,
हमारी चोर बलइयाँ लेत, कछू ना चिन्ता मन राती।
सम्पत आउत में दुख देत, जात में तौ जीरा हर लेत,
अरे बाबा छोड़ी।
तुमारी तीजोड़ी॥
बिटिया
बिटिया तो है कपला गाय,
न अपने मुख सें कछु वा काय,
जमाने के सब जुलम उठाय,
ओंठ सें बोल न दो बोले,
महा जहर खाँ भी अन्तर में,
अमरित-सौ घोले।
सान्ति की सूरत है,
सील की मूरत है।
अन्तर में होंय आग तौउ बा सीतल बानी बोले,
नौनी-बुरइ सबइ की सुनबै भेद न मन कौ खोले
खुसी में थोड़ौ मुसक्या देत,
लाज सें दृग नीचे कर लेत,
न ईसें आगें उत्तर देत, मन की चाहे धरा डोले।
करत है जब कोऊ ऊकी बात,
तौ नीचौ सर करकें उठ जात,
लाज भर नख-सिख सें,
कछू ना कह मुख सें।
सावन की सोभा है बिटिया और दोज कौ टीकौ,
न्यारौ-न्यारौ रूप है ईको मात-बहिन-पतनी कौ।
ईकौं केवल कन्यादान,
होत है कोटन जग्य समान,
दओ जिन उनके भाग्य महान, भाग्य दोऊ कुल के खोले।
सजाबै अपनों घर संसार,
प्यार कौ लै अपार भंडार,
जात घर साजन के,
छोड़ सँग बचपन के।
कर दए पीरे हाँत, पराए हो गए बाप-मताई,
छूटे पौंर, देहरी, आँगन, पनघट गली-अथाई।
चली तज बाबुल कौ घर-गाँव,
और माँ की ममता की छाँव,
परबस जात पराए ठाँव, चली डोली होले-होले।
याद कर भाई-बहिन की जंग,
संग सखियन के बिबिध प्रसंग,
नैन भर-भर आबैं,
सबइ छूटे जाबैं।
पलकन की छाया में राखो, सुख-सनेह सें पालो,
ऐसी नौनी रामकुँवर पै, परै न राम कसालो।
रात-दिन दुआ करै पितु-मात,
सौंप दओ जीके हाँत में हाँत,
संग में ऊके रहै सनात, नाथ की सेवा में हो ले।
जराबै संजा कैं नित दीप,
धरत है तुलसीधरा समीप,
बड़न के पग लागै,
कुसल पतिकी माँगै।
लरका जग में एकइ कुल कौ, कुल-दीपक कहलाबै,
‘पुत्रि पवित्र करे कुल दोऊ’ रामायन जा गाबै।
कन्या कुलवंती जो होय,
तौ ऊसें जस पाबें कुल दोय,
अपने मन मानस में धोय,
तौल कें फिर बानी बोले।
करत है हरदम मीठी बात,
मनौ होय फूलन की बरसात,
कि जीमें समता है,
हिये में ममता है।
गौरीबाई
मिठउवा है ई कुआ कौ नीर,
छाँयरी पीपर कौ गंभीर,
मिटा ले तनिक घाम की पीर, ओ पानी पीले गैलारे,
तनिक बैठ के तुम सुस्ता लेव, जानै फिर जा रे।
क्वाँर कौ घामौ हे,
औ सूरज सामौ है।।
को ठाकुर तुम आए कितै सें, और तुम्हें काँ जानें,
मोखाँ ऐसौ लगत, होव तुम जैसें जानैं-मानैं,
पसीना बैठौ बिलमा लेव,
और दो-दो बातें कर लेव,
न आँगें पानी मिलै पसेव,
हौ प्यासे मजलन के मारे।
और हम का करिए सत्कार,
गाँव के मूरख अपढ़ गँवार,
गड़ई भर जल हाजिर,
करै तुम खाँ सादर।।
हम तौ हैं ग्वालन की बेटी, हार-पहारन रइए
गइयन-बछलन सें बाबू जी, मन की बातें कर लइए,
हमारे गुइयाँ छ्योल-सगौन
करै बातैं हम बे रएँ मौन,
दुक्ख मन कौ जानत है कौन, रहैं मन ऐसइँ समझा रे।
आज जानें का मन में आई, और तुमसें इतनी बतयाई।।
लाज सब टोरी है,
करी मुँहजोरी है।।
माँजी गड़ई निकारो गगरा जब बा पानी ल्याई,
मैंने पूछौ- ‘नाव तुम्हारौ’, बोली- गौरीबाई,
न देखे ऐसे निछल सनेह
जा मैंने जब सें धरी है देह,
उमड़ आए आँखन मैं मेह, तौ टेढ़ौ मुँह करकै टारे।
बोली ‘तुम-सौ लम्बौ ज्वान, हतो भइया मोरौ मलखान।
पुलिस नें माड़ारो,
दुखी घर कर डारो।।
फिर मैं बोलो, बिन्ना तौरौ ब्याव भओ कै नइयाँ?
झुक गए नैन, तनिक मुसक्यानी, फिर भर दई तरइयाँ,
तुरत मैं बोलो-‘गौरीबाई,
आज सें मैं हौं तोरौ भाई’
नेह की नदिया-सी भर आई, खुसी सैं नैना कजरारे।
चूम लए मैंने ऊकैं पाँव, बताओ अपनौ नाँव औ गाँव,
और बा लिपट्याई,
फिर बोली हरखाई।।
‘मोरी उमर तुमैं लग जाबै, भाभी रहै सुहागन,
दूधन-पूतन फलौ, खेलबैं चन्दा-सूरज आँगन,
लौट आई मोरे घर दोज
मनाहौं मैं अब सावन रोज,
मोरी जनम-जनम की खोज, करो तुम पूरी भइया रे।
रहत तो औरन के मन भार, बिना सारे की है ससुरार।।
दुक्ख सब मिट गए हैं,
कैं भइया मिल गए हैं।।
बापू अबै न आए
ओरी बापू अबै न आए,
अबै लौ खैबे कछू न ल्याए,
सुनत दृग माता के भर आए,
बोली तनिक लाल गम खाव,
बेई करै का तीन दिना सें, परै न कछू उपाव,
बचन माता कए हैं।
अबइयाँ बे भए हैं।।
कोड़ी-काड़ परो है जाड़ौ, तन पै उन्ना नइयाँ,
अब तौ उनकी लाज-बचइया, तुम हौ राम गुसइयाँ,
ऊसइँ रातैं हतो बुखार
उनैं, फिर भारी परो तुसार,
मरे खाँ मारत है करतार,
भँजा रओ जनम-जनम के दाव।
तरा ऊमैंसें गए ते छोड़
कातते ल्याय सिंगारे तोड़,
तला के चोरी सें,
चाहे सैजोरी सें।।
भुंसारौ हो गओ, छुटक गई, गेरऊँ-गेर उरइयाँ,
जानें काए तुमाए बापू, आए अबै लौ नइयाँ,
बहन लागो आँखन सें नीर,
छूट रओ माँ-बेटा कौ धीर,
ओरी चली तला के तीर, उतइँ कछु पूँछौ पतौ लगाव।
माए बापू भर आ जायं, हम ना खैबे कभउँ मगायँ,
चलौ माता चलिए,
पतौ उनकौ करिए।।
गतिया बाँध दई पटका की, लरकै करो अँगारें,
चिपका लए हाँत छाती सें, खुद निग चली पछारें,
पूछन लागी नायँ और मायँ,
कछू आपस में लोग बतायँ,
तौ बड़कै पूछो मात अगायँ, ”भइया साँची बात बताव।
करत हौ तुम जा कीकी बात मोरौ जियरा बैठो जात,
बता दो साँसी-सी,
लगी है गाँसी-सी।
”आज तला के पार डुकरिया मर गओ एक बटोई,
परदेसी-सौ लगत संग मैं ऊके नइयाँ कोई,
सिँघारे लएँ तनिक-से संग,
ककुर गओ है जाड़े में अंग,
तन को पर गऔ नीलौ रंग” सुनतन लगो करेजें घाव।
जाकें चीन्हीं पति की लास, मानौ टूट परो आकास,
झमा-सौ आ गओ है,
अँधेरौ छा गओ है।।
कितै छोड़ गए बापू मोखाँ, तुम काँ जातों मइया
गेरउँ गेर हेर कै रोबै मनौ अबोध लबइया,
थर-थर काँपै और चिल्लाय,
हतो को जो ऊखाँ समझाय?
देख दुख धरती फाटी जाय,
देख दुख दुख कौ टूटौ चाव।
जौ लौ खुले मात कै नैन,
बाली लटपट धीरे बैन,
‘न बेटा घबराओ,
आओ एंगर आओ।।
बापू नें तौ मौखाँ छोड़ो, मैं तोय छोड़ चली हौं,
तोरे नाजुक हाथ लाड़ले, अब मैं सौपौं कीहौं?
माँ धरती, बापू आकास,
तुमारे, करौ उनइँ की आस,
जौ लौ बाबा ईसुरदास आ गये, बोले, ना घबराव।
उठा कै बालक बाले, ”मात, करौ ना चिन्ता कौनउँ, भाँत,
न दुख हूहै ईहौं,
कै जौ लौ मैं जी हाँ।।