Sakhi Ki Gayki एक प्रकार का दोहा छन्द है बुंदेली के दिबारी लोकगीत केवल दोहे छंद में हैं, जबकि सखियाऊ फाग दोहे में लटकनिया लगाकर बनी है। जहाँ तक गायकी का प्रश्न है, उसके दो ही आधार मुख्य हैं- एक दिवारी गायकी, जो अधिकतर अहीरों की गायकी और देवीगीत की साखी गायकी, जो लोक में प्रचलित रही हैं और दूसरी कड़खा गायकी, जो अधिकतर चारणों द्वारा युद्ध के पूर्व सैनिकों को प्रेरित करने के लिए गायी जाती थी।
इन दोनों में कौन पुरानी है, यह निश्चित करना कठिन है। वैसे लोकभाषा प्राकृत में बौद्ध काल से (ईसा से 5 शती पूर्व) गाथा या गाहा की लोकगायकी प्रचलित हुई और दीर्घकाल तक जीवित रही। उस गायकी के स्वर-संदर्भ और लय की प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती, पर इतना निश्चित हैकि उसका प्रभाव दिवारी और साखी लोकगायकी पर पड़ा है।
इससे दिवारी एवं साखी गायकी की प्राचीनता सिद्ध है। बुन्देलखण्ड में चंदेलों के राज्य की नींव 9 वीं शती में पड़ी, लेकिन इसके पूर्व उन्हें यहाँ की पुरानी जातियों से लोहा लेना पड़ा। इन जातियों में अहीरों की संख्या काफी थी, क्योंकि चेदि जनपद-काल में यहाँ यादवों का राज्य रहा।
इस कारण बुंदेलों की दिवारी गायकी बुंदेली के जन्मकाल (9 वीं शती) से प्रारंभ हो गई थी, जबकि कड़खा गायकी रण की गायकी है और मुस्लिम आक्रमणों के समय (लगभग 11 वीं शती से) उत्कर्ष पर रही। दोनों तार सप्तक में गायी जाती हैं, पर दिवारी की लय विलम्बित को स्पर्श करती मध्य लय (विलम्बित-मध्य) और कड़खा की द्रुत होती है।
आल्हा गायकी में साथी का प्रयोग मंगलाचरण और घत्ता दोनों रूपों में हुआ है। बुन्देलखण्ड में अधिकतर मंगलाचरण के रूप में शारदा, दुर्गा या स्थानीय देवता या फिर गायक के इष्ट देव की वंदना, कथ्य के रूप में प्रसंग की सूचना और अंत के विराम पर साखी गायी जाती है। दतिया गायकी में तोड़ या घत्ता की तरह ही साखी को स्थान मिला है।
बुन्देलखण्ड अंचलों में दतिया का अनुसरण नहीं किया गया है, वरन् परम्परति गायकी की तरह ही साखी का उपयोग हुआ है। गायकी की दृष्टि से साखी का गायन साखी लोकधुन में होता है और महोबा गायकी में वह दिवारी गायकी की तरह गेय है। बुन्देलखण्ड की महोबा गायकी में तार सप्तक को स्पर्श करते हुए अधिकतर मध्य सप्तक के स्वरों का प्रयोग होता है, जबकि यहीं की दतिया गायकी में अधिकतर मध्य सप्तक के स्वर होते हैं।
अन्य लोकभाषाओं की साखी गायकी में प्रायः मध्य सप्तक के स्वर लगते हैं। साखी की लय अधिकतर विलम्बित मध्य रहती है और मृदंग या ढोलक पर ठेका बजाया जाता है। छः-छः मात्राओं के तीन विभागों अर्थात् 18 मात्राकाल में ताल पूरा होता है, पर साखी गायकी को शास्त्रीय ताल और राग से जाँचना उचित नहीं है। बाद की कुछ साखियाँ कहरवा की मध्य लय में पूरी करते हुए उसी के साथ आल्हा छंद की गायकी जुड़ जाती है, केवल दतिया गायकी में साखी के तोड़ में मध्य लय का दादरा बजाया जाता है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल