Ramparak Lok Kavya लोक की आत्मा में रचा बसा है राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के कोश हैं। दोनों के ताने-बाने इस संस्कृति के ध्वज को फहराने में सफल रहे हैं। चाहे इस देश की आस्था का प्रश्न हो चाहे चिन्ता का, सिद्धान्त का चुनाव हो या आचरण का और मूल्य की समस्या हो या अस्मिता की, सब में राम-कृष्ण की भागीदारी रही है।
महत्व की बात यह है कि यह भागीदारी परम्परागत होते हुए भी हर युग के जीवन की प्रगति से जुड़ी रही है। राम या कृष्ण संस्कृति में कोई विरोध नहीं है। असल में, वे एक दूसरे की पूरक हैं। विचित्र तो यह है कि जहाँ जिसकी जरूरत है, वहाँ वह पहुँच जाती है। बिना किसी आग्रह या शर्त के। जाति, सम्प्रदाय, वर्ग और धर्म किसी की भी चिन्ता न करते हुए।
रामसंस्कृति: पृष्ठभूमि और प्रेरणा
बुंदेलखण्ड का अंचल रामसंस्कृति की दृष्टि से इसलिए विशेष है कि उसका प्रमुख केन्द्र चित्रकूट यहाँ का पवित्र तीर्थ है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम बनवास की अवधि में पहले यहीं ठहरे थे। राम और भरत का मिलन यहीं हुआ था, जिसने भ्रातृप्रेम और त्याग के लोकमूल्यों की प्रतिष्ठा की थी। अभि, शरभंग आदि ऋषियों के आश्रम यहीं थे, जिनसे आश्रमी संस्कृति फली -फूली थी।
इस अंचल के निवासी पुलिन्द, निषाद, शबर, रामठ, दाँगी आदि थे, जिनकी अटवी या वन्य संस्कृति अपने मूल्य, संस्कार और आचरण के कारण आर्य संस्कृति से भिन्न थी। राक्षस उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करते थे, इस कारण वन्य जातियों ने राम जैसे वीर का स्वागत करना अपने हित में जरूरी समझा था। इसी ऐतिहासिक घटना से रामसंस्कृति का बीज इस धरती की धरोहर बना था, जो धीरे-धीरे अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ।
मूर्तिकला का सबसे पुराना प्रमाण नचना (जिला पन्ना) में प्राप्त राम-सुग्रीव मित्रता, बन में वानर और राम-संबंधी घटनाओं के कलात्मक फलक हैं, जो पाँचवीं शती में निर्मित किये गए थे। इनसे प्रतीत होता है कि नचना में राम मंदिर था। देवगढ़ (जिला ललितपुर) के विष्णु मंदिर (छठवीं शती) में रामायणी दृश्यों का अंकन इतिहासप्रसिद्ध है। ये दोनों उदाहरणों से सिद्ध है कि भारतीय मूर्तिकला में रामचरित का उत्कीर्णन सबसे पहले इसी अंचल में हुआ था।
तीसरी-चैथी शती से लेकर बारहवीं शती तक पुराणों की रचना हुई थी, जिनमें से अधिकांश यहाँ के आश्रमों में लिखे गये थे। पुराणों में कथाओं के माध्यम से इतिहास, दर्शन, धर्म और नीति की अभिव्यक्ति आम आदमी के लिए सिद्ध हुई। उनकी दूसरी विशेषता एक समन्वयकारी देवत्व की प्रतिष्ठा थी, जिसने बहुदेववाद में फैली श्रेष्ठता की लड़ाई को हमेशा के लिए खत्म कर दिया।
पुराणों की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि उन्होंने लोकाचरण को धर्म के सूत्रों से बाँधकर समाज में एकता और दृढ़ता स्थापित कर दी। चैथी विशेषता यह थी कि पुराणों में रामकथा, रामचरित्र और उनकी महानता को उचित महत्व मिला, जिससे रामसंस्कृति धर्माचरण में सम्मिलित हो गयी और उसकी पहुँच जन-जन तक फैल गयी।
महाकवि बाणभट्ट कृत “कादम्बरी” में रामकथा के महत्व का साक्ष्य मिलता है। कवि लिखते है कि राम को प्रसन्न करने के लिए जाबालि आश्रम में रामायण का पाठ होता था। महाकवि भवभूति के प्रसिद्ध नाटकों- “उत्तररामचरित” और “महावीरचरित” में रामकथा-संबंधी कथानक ही हैं और दोनों का मंचन कालपी के सूर्यमंदिर में यात्रा या मेले के अवसरों पर हुआ था। स्पष्ट है कि सातवीं-आठवीं शती में रामकथा की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी थी।
चंदेल-युग में चंदेल नरेशों ने राम के “पुरूषोत्तम” को आदर्श मानकर उसे अपने शरीर में अंतर्भूत होना उत्तम समझा था। वे व्यक्तित्व की महानता के लिए अनिवार्य गुणों की खोज राम में किया करते थे। जहाँ तक भक्ति का प्रश्न है, राम की स्तुति विष्णु का एक नाम समझकर की गयी थी।
खजुराहो के मंदिरों में राम का अंकन दशावतार फलकों में हुआ है। कालंजर दुर्ग में सीता-शय्या नामक स्थान पत्थर काटकर बनाया गया है। इस युग में राम-सीता से अधिक उनके भक्त हनुमान सम्मानित हुए हैं। चंदेल सिक्कों में हनुमान या छत्रधारी हनुमान की मूर्ति मिलती है। खजुराहो में हनुमान जी की एक बड़ी मूर्ति के पादलेख से वह 922 ई. की ठहरती है और उससे पता चलता है कि हनुमान जी की पूजा यहाँ प्रचलित थी।
तोमर-युग में हिन्दी का पहला रामपरक प्रबन्ध रचा गया था। वैसे तो चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में रामावतार का वर्णन 38 छंदों में किया गया है, लेकिन विष्णुदास कृत “रामायन कथा” एक स्वतंत्र रामकाव्य है, जो 1442 ई. में लिखा गया था। महाकवि विष्णुदास कुँतवार (ग्वालियर) के निवासी थे और राजा डूँगरेन्द्रसिंह तोमर के आश्रित। नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होते हुए भी उन्होंने वैष्णव अवतार की वंदना की है-
स्वामी भुक्ति मुक्ति दातारू। प्रनऊँ रामदेव औतारू।। वे कुंभकर्ण के मुख से कहलाते हैं- तुम नाहीं जानत या भेव, रामचन्द्र नारायन देव।।
राम को नारायण की मान्यता देने का अर्थ यही है कि कवि राम के महत्व को पूरी तरह स्वीकारता है। असल में, रामकथा सुनने से रण में पराजय नहीं होती-
मन थिर बुद्धि सुनै जो कोइ, रन रावर महँ हार न होइ। इसीलिए विजातीय संस्कृति से संघर्ष करने के लिए राम को आदर्श माना गया था। नारियों को अपहरण और वैधव्य का सामना करना पड़ता था, इस कारण उनका आदर्श सीता का सतीत्व और पातिव्रत्य हुआ- ’अति सरूप सीता सम सती‘।
भक्ति-आन्दोलन की लहर गुजरात से चलकर सीधे बुंदेलखण्ड में प्रविष्ट हुई थी। दूसरे, रामानन्द की भक्ति का केन्द्र काशी बुंदेलखण्ड के निकट था और काशी से ही बुंदेले इस जनपद में आये थे।
उत्तर भारत में मुसलमानों की हिन्दूविरोधी नीति का आतंक था, जबकि इस प्रदेश में तोमर और बुंदेलों के स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित थे। अयोध्या के विनष्ट होने पर रामभक्तों के लिए चित्रकूट ही प्रमुख तीर्थ बचा था, जो बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित था। चित्रकूट की चेतना से प्रेरणा पाकर ही तुलसी ने ’रामचरित मानस‘ और अन्य ग्रंथों की रचना की थी।
दूसरा केन्द्र बना ओरछा जहाँ के नरेश मधुकरसाहि बुंदेला (1554-92 ई.) की पटरानी गणेशकुँवरि अयोध्या से राजा राम लाई थीं। बुंदेलों ने अपना राज्य उन्हीं के सुपुर्द कर दिया था, जिससे राज्य के सभी कागजों पर राम-राज्य की मोहर लगने लगी थी।
रामभक्ति का उत्कर्ष तुलसी की रामचरित मानस की देन है। मानस ने ही रामसंस्कृति की पुनर्रचना की थी और उसे ऐसी विराट मूर्ति के रूप में ढाला था, जो भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति बन सके। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि तुलसी की भक्ति और काव्य चित्रकूट के सम्पूर्ण परिवेश का सुफल है।
विनयपत्रिका में काशी के बाद चित्रकूट की वन्दना की गयी है, परन्तु काशी परमपद प्राप्ति के लिए शिवपुरी हैं, जबकि चित्रकूट रामपद चहिय प्रेम के लिए रामपुरी। अब चित चेत चित्रकूटहि चल नामक पद में कवि की अंतश्चेतना मानो सबकुछ छोड़ चित्रकूट से लिपटने लगती है।
तुलसी द्वारा चुनी हुई आदर्श रामसंस्कृति की आयोजना में बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति का योगदान रहा है। इस ऋण के बावजूद तुलसी का प्रदेय यह है कि उनकी मानस ने भक्ति के मूल्य को जीवन का सब-कुछ बना दिया। राम की उपासना ने समाज को नया आदर्श दिया। आदर्श व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य के लिए मर्यादा, त्याग, संयम, शील, कर्म, शक्ति और धर्म का जो स्वरूप जरूरी था, वह सब मानस ने कथा के घोल में मिलाकर इस तरह बाँटा कि जन-जन में बहुत गहरे पैठ गया ।
इस जनपद के हर वर्ग ने लाभ उठाया। लोक ने संघर्ष और संयम के संस्कार रामोपासना से लिये और एक बार सारी लोकसंस्कृति राममय हो गयी। लोककवि ललकार उठा-
कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये,
माथौ जनकजू कौ तब नबै जब साजन आये।
पहली पंक्ति में मध्ययुगीन राजनीति की झलक है। बड़े-बड़े किले, पर्वत और सिर शक्तिसमपन्न के सामने झुक जाते हैं, लेकिन लड़की के पिता का माथा तभी झुकता है, जब उसके समधी आते हैं। पिता का स्वाभिमान कितना ऊँचा है, पर यह आंतरिक ऊर्जा तभी आ सकी जब वह सीता का पिता जनक बना।
मध्ययुग में चम्पतराय (1587-1661 ई.) और छत्रसाल (1649-1731 ई.) बुंदेला का बुंदेलखण्ड की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष 1640 ई. से 1700 ई. तक लगभग 60 वर्ष निरंतर जारी रहना राष्ट्रीय चेतना के जागरण की अनोखी मिसाल हे। छत्रसाल ने तो विजयी होकर इस जनपद को सुव्यवस्थित किया था और उसे एक सबल सांस्कृतिक इकाई बनाया था।
संघर्ष की यह ऊर्जा और व्यवस्था के ये संस्कार उन्हें रामसंस्कृति से मिले थे। छत्रसाल ने एक छंद में लिखा था- अमित भरोसो मोय राम रघुरैया को। वे हनुमान जी से म्लेच्छों को नष्ट करने की प्रार्थना करते हैं। इस रूप में उनकी भक्ति राष्ट्रीय हो जाती है। अराष्ट्रीय तत्वों के लिए कवि ने ’असुर‘ का प्रयोग किया है। उसे यह मतलब नहीं कि असुर हिन्दू है या मुसलमान। चाहे जिस जाति या धर्म का हो, जो अराष्ट्रीय है, वह असुर है। इस प्रकार भक्तिकाल के असुर को धैर्य के खेमे से निकाल कर उसे सामाजिक और राष्ट्रीय संदर्भ प्रदान करना छत्रसाल का काम था।
योगमार्गी तपसी रामभक्तों की एक शाखा राठ (जिला हमीरपुर) के बड़ा मंदिर से संबद्ध है। महंत ब्रजवल्लभ दास के अनुसार उस स्थान की स्थापना 1575 ई. के लगभग हुई थी। महंत भीषमदास (1650 ई.), प्रीतमदास (1750ई.) और चेतनदास (1775 ई.) की बानियाँ मंदिर में उपलब्ध हैं। इन बानियों के अनुसार योगमार्ग के द्वारा रामभक्ति की प्राप्ति संभव है। छतरपुर में जानराय टौरिया का मंदिर है, जिसमें भगवान राम की आजानबाहु मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसकी स्थापना 1603 ई. में हुई थी, तब छतरपुर एक जंगल था।
जनश्रुति है कि इस अंचल के बनों में कई ऐसे केन्द्र थे, जिनमें रामभक्त तपसी योग-साधना करते थे और मौका पड़ने पर आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध भी करते थे। हर केन्द्र में एक अखाड़ा भी होता था, जो संदेश मिलते ही सक्रिय हो जाता था। इस प्रकार योगमार्गी रामभक्त तपसियों का यह अभियान एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है।
1783 ई. में गठेवरा का युद्ध हुआ जिसे बुंदेलखण्ड का महाभारत कहा जाता है। फल यह हुआ कि इस जनपद की ऊर्जा आपसी संघर्ष में डूब गयी, मूल्यों का हृास हो गया और संस्कृति रात के अंधेरों में घिरकर सिमट गयी। ऐसे संकट के समय राम और विशेष रूप में हनुमान की भक्ति उपयोगी सिद्ध हुई, पर वह वीर रस के कवि खनगाँय (जिला छतरपुर) निवासी खुमान “मान” कवि (1779-1821 ई.) के लक्ष्मण शतक, रामरासो, हनुमत पचीसी आदि ग्रंथों में मिलती है।
1857 ई. में आजादी की पहली लड़ाई इस जनपद के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। उसमें एक चमत्कारी घटना यह थी कि अंग्रेजों के विरूद्ध हिन्दू और मुसलमान एक हो गये थे। दोनों की एकता किसी अचानकता का परिणाम नहीं थी, वरन् एक सतत् उद्योग का सुफल थी। सन्तों ने हिन्दू-मुसलमान के समन्वय के लिए ’राम‘ को गया था। साकार राम निराकार होकर और भी असरदार हो जाते हैं।
19 वीं शती के प्रारम्भिक चरण के विख्यात मुसलमान सन्त एनसाईं (ऐनानन्द ’ऐन‘) भले ही इस अंचल के हों, पर उन्होंने राम के “सत्त” को जग की “खुसबोई” (सुगंध) माना था। सन्तों की तरह यहाँ के हरबोलों ने बीस-पच्चीस वर्षों तक गाँव-गाँव और घर-घर जाकर क्रान्ति के लिए जन-जन को जगाया था। ओज और ऊर्जा से भरा आख्यानक काव्य गा-गाकर। उस काव्य के नायक अतीत के वीर चरित थे- पौराणिक, ऐतिहासिक और आंचलिक।
पौराणिक आख्यानों में राम का मिथक ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण था। सैर और लावनी में नयी शक्ति भर गयी थी-
काऊ नें सैर भाषे, काऊ ने लाउनी। अबके हल्ला में फुँकी जात छाउनी।।
इसीलिए सैर और लाउनी में धनुष-यज्ञ, अंगदवाद, सीताहरण और युद्ध-प्रसंग लिखे गये, जो चुनौती, दृढ़ संकल्प, भारतमाता की दासता और जुझारूपन के प्रतीक लोकचेतना के अंग बन गये थे।
अंग्रेजों से सनदें पाकर बुंदेलखण्ड की रियासतें अपने वैभव-विलास में डूबने लगी थीं, क्योंकि उनकी रक्षा का भार अंग्रेजों पर था। राजा-रानी और उनके सामन्तों की मानसिकता एक तरफ भौतिक सुखों की तरंगायित उमंगों से उद्धेलित थी, तो दूसरी तरफ आध्यात्मिक साधना की कठोर भूमि से विचलित।
इस द्विविध स्थिति में रामरसिक भक्ति की धारा ने एक नयी दिशा प्रदान की, जिसके परिणामस्वरूप हर राज्य में भक्ति का एक नया ज्वार उठा। पन्ना, अजयगढ़, छतरपुर, बिजावर, चरखारी, टीकमगढ़, समथर, दतिया आदि रियासतों में रसिक भक्तों का सम्मान ही नहीं बढ़ा था, वरन् रामसखे, प्रेमसखी और कृपानिवास के प्रभाव से रानियाँ-महारानियाँ दीक्षित हो गयीं। इस रामरसिक भक्त रानियों ने जगह-जगह मंदिर बनवाये और भक्ति-उपासना के केन्द्र स्थापित किये।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल