Rajput Kalin Samajik Jivan में समाज वर्णों एवं जातियों के जटिल नियमों से बंधा हुआ था। उस समय जाति-प्रथा की कठोरता थी और समाज में सहिष्णुता की भावना का अभाव था। समाज परम्परा चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अतिरिक्त अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंटी हुई थी। अनेक जातियाँ अछूत समझी जाती थी। जिन्हें गाँवों एवं नगरों के बाहर निवास करना पड़ता था।
ब्राह्मणों का सदा की तरह इस युग में भी प्रतिष्ठित एवं सर्वोंच्च स्थान था। वे राजपूत शासकों के मंत्री एवं सलाहकार नियुक्त किए जाते थे। उनका मुख्य पेशा अध्ययन, यज्ञ, तप एवं धार्मिक कर्मकाण्ड कराना था। उनका जीवन पवित्र और पापरहित माना जाता था। वे मांस-मदिरा का प्रयोग नहीं करते थे। वैश्य जाति के लोग वाणिज्य व्यापार का काम करते थे जबकि शूद्र जाति के लोग कृषि, शिल्पकारी तथा अन्य वर्णों की सेवा का काम करते थे।
वैश्य तथा शूद्र जाति के लोगों को वेदाध्ययन एवं मंत्रोच्चारण का अधिकार नही था। इन दोनों जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अच्छी एवं सन्तोषजनक नहीं थी। इनके साथ प्रायः समाज में भेद-भाव किया जाता था। क्षत्रिय जाति के लोग युद्ध तथा शासन संचालन का काम करते थे।
इस काल के राजपूत उच्चकोटि के योद्धा होते थे। उनमें साहस, आत्मसम्मान, वीरता एवं देशभक्ति की भावनाऐं कूट-कूट कर भरी थी। वे अपने जीवन के अंतिम क्षण तक प्रतिज्ञा का पालन करते तथा शरणागत की रक्षा करना-भले ही वह जघन्य अपराधी ही हो-अपना परम कर्त्तव्य समझते थे। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ उनमें मिथ्याभिमान, अंहकार, व्यक्तिगत द्वेष-भाव, संकीर्णता आदि दुर्गुण भी विद्यमान थे।
राजपूत जाति
राजपूत अपने को शुद्ध रक्त का मानते थे। उन्होंने अपने वंशों की उत्पत्ति किसी न किसी देवी, देवता अथवा ऋषि से जोड़ रखी थी। राजपूत अपने को चन्द्रवंशीय एवं सूर्य वंशीय भी करते थे। इनके वंश के आधार पर राजाओं ने अपने लिए अनेक प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त कर लिए थे।
वंश तथा जाति का अभियान उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। वीरता की भावना का इन्होंने एक ऐसा आदर्श स्थापित किया था जैसाकि विश्व इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। हँसते-हँसते मृत्यु के मुख में चला जाना इनकी राजपूती शान थी। इन्हें अपने वचन और प्रतिज्ञा का भारी ध्यान रहता था और कभी भी अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करते थे।
राजपूत स्त्रियाँ
राजपूत स्त्रियाँ बड़ी पतिभक्त, धर्मपरायण और बहादुर होती थी। वे अपने सतीत्व की रक्षार्थ चिता में जीवित भष्म हो जाती थी। अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण करने पर जब राजदूतों ने जान लिया कि उनकी हार निश्चित है तो राजपूत केसरी बाना पहनकर हाथ में नंगी तलवार लिए शत्रु सेना पर टूट पड़े और एक-एक करके अनेक शत्रुओं को मार कर मर गए।
उधर वीर राजपूत स्त्रियाँ अपने वस्त्राभूषण पहन कर, महारानी पदमिनी के साथ विशाल जलती हुई चिता में कूद कर भष्म हो गई। राजपूत स्त्रियाँ भी युद्ध कला में पारंगत होती थी और युद्ध भूमि में भूखी सिंहनी की भांति शत्रुओं पर कूद पड़ती और उनका बुरी तरह संहार करती थी। पति की मृत्यु पर वे अपने स्वामी के शव के साथ चिता में बैठकर सती हो जाती थी। राजपूतों में बाल-विवाह की प्रथा भी चल पड़ी थी और विधवाओं को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा था।
वर्ण व्यवस्था
राजपूतों की एक अलग जाति बनने के अतिरिक्त हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था में और भी गहरे परिवर्तन हुए। जातियों के पारस्परिक सम्बन्ध पहले से भी अधिक जटिल हो गये। अन्तर्जातीय विवाह केवल राजघरानों तक ही सीमित रह गये। इसी युग में जातियों के विभाजन हुए और अनेक उपजातियाँ बन गई। जिनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
इस युग के अन्त तक हिन्दू समाज में काफी अनुदारता, असहिष्णुता और रूढ़िवादिता आ गई। इसका मुख्य कारण बौद्ध धर्म का पतन तथा पौराणिक, हिन्दू धर्म की पूर्ण विजय थी। शंकराचार्य आदि हिन्दू नेताओं ने वर्ण व्यवस्था को और अधिक बनाया और उसे दार्शनिक आधार पर खड़ा करने का प्रयत्न किया।
स्त्रियों की दशा
राजपूतकालीन भारतीय समाज में महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। राजपूत अपनी स्त्रियों को अत्याधिक सम्मान करते थे तथा उनकी मान-मर्यादा एवं सतीत्व की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहते थे। राजपूत कुलों में विवाह स्वयंवर प्रथा द्वारा होते थे जिसमें कन्याऐं अपना वर स्वयं ही चुनती थी। धनी और निर्धन सभी राजपूतों में यह प्रथा प्रचलित थी।
राजपूत स्त्रियाँ शिक्षित एवं कला के क्षेत्र में पारंगत होती थी। अलबरूनी के अनुसार ’’सभी स्त्रियाँ शिक्षित थी और सार्वजनिक कार्यों में प्रमुखता से भाग लेती थी। कन्याऐं संस्कृत पढ़ती, लिखती और समझती थी। वे खेल, नृत्य और चित्र बनाना सीखती थी।’’ कुछ स्त्रियाँ इतनी विदुषी थी कि वे किसी को भी विवाद एवं शास्त्रार्थ में हरा सकती थी। ब्राह्मण दार्शनिक शंकराचार्य को मण्डनमिश्र की ब्राह्मण पत्नी भारती ने परास्त किया था सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि, राजशेखर की पत्नी अवन्ति सुन्दरी अपनी विद्वता के लिए विख्यात थी।
इन्दूलेखा, मरूला, शीला, सुभद्रा, लक्ष्मी, विज्जिका, मोरिका, पदिमश्री और मदालसा राजपूतकाल में संस्कृत की प्रसिद्ध कवयित्रियाँ थी। सोलंकी राजा विक्रमादित्य की बहन अक्का देवी एक महान योद्धा एवं प्रशासिका थी। वह चार प्रान्तों की गर्वनर थी। उसने बेलगाँव जिले के दुर्ग के विरूद्ध चढ़ाई की और वहाँ घेरा डाला चालुक्यवंशी विजय भट्टारिका (7 वीं शताब्दी ई.) तथा कश्मीर की दो महिलाएं सुगन्धा तथ दिद्दा ( 10 वीं शताब्दी) ने कुशलतापूर्वक शासन का संचालन किया।
समाज के उच्च वर्गों की स्त्रियों में संगीत और नृत्य सर्वप्रिय विनोद थे। राजाओं और योद्धाओं की पुत्रियां भी अश्वारोहण में प्रशिक्षण लेती थी। उन्हें घुड़सवारी और हाथियों की सवारी का विशेष शौक होता था। वे आखेट में भी रूचि रखती थी।
वैवाहिक व्यवस्था
यद्यपि स्वजातीय विवाह अच्छा समझा जाता था, परन्तु अन्तर्जातीय तथा अन्तर्धार्मिक विवाह भी प्रचलित थे। अनुलोम विवाह के अनेक उदाहरण मिलते हैं। पश्चिमी भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय कन्या के साथ विवाह करते थे। ब्राह्मण कवि रामेश्वर ने चौहान राजकुमारी अवन्ति सुन्दरी से विवाह किया था। इस काल के धर्म शास्त्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है।
क्षत्रियों में राक्षस विवाह अर्थात कन्या को बलात् अपहरण कर ले जाना प्रचलित था। राजकुलों में स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। राजपूत कन्यायें स्वयंवर में अपनी इच्छानुसार मनचाहे पति को वरण करती थी। कन्नौज के राज राजचन्द्र की पुत्री संयोगिता ने स्वयंवर में अपने पिता के शत्रु, पथ्वीराज चौहान की स्वर्ण प्रतिमा के गले में जयमाला डालकर उन्हें वरण किया था। साधारण समाज में लड़कियाँ अपने माता-पिता द्वारा निश्चित किए गए वर के साथ ही विवाह करती थी।