Rajput Kalin Dharmik Jivan में हिन्दू तथा जैन धर्म देश में अत्यन्त लोकप्रिय थे। बौद्ध धर्म का अपेक्षाकृत कम प्रचलन था और वह अपने पतन की अन्तिम अवस्था में पहुँच गया था। हिन्दूधर्म के अन्तर्गत भक्तिमार्ग एवं अवतारवाद का व्यापक प्रचलन था। विष्णु, शिव, सूर्य, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की उपासना होती थी। इनकी पूजा में मंदिर तथा मूर्तियाँ बनाई जाती थी।
भक्ति सम्प्रदाय के आचार्यों में माधवाचार्य का नाम उल्लेखनीय हैं। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रसार किया जिसके अनुसार ब्राह्म ही एकमात्र सत्ता है, संसार मिथ्य है तथा आत्मा और ब्राह्म मे कोई भेद नहीं है।
इसके विपरीत रामानुज ने विशिष्टाद्वैत का प्रचार किया, जिसके अनुसार ब्राह्म एकमात्र सत्ता होते हुए भी सगुण है और वह चित्त और अचित्त शक्तियों से युक्त हैं। उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए भक्ति को आवश्यक बताया। हिन्दू धर्म में बहुदेववाद की प्रतिष्ठा थी और अनेक देवी-देवताओं की उपासना की जाती थी।
हिन्दू धर्म की उन्नति के साथ ही राजपूताना तथा पश्चिमी और दक्षिणी भारत में जैन धर्म भी उन्नति कर रहा था। राजपूताना में गुर्जर-प्रतिहार तथा दक्षिणी-पश्चिमी भारत के चालुक्य नरेशों ने इस धर्म की उन्नति में योगदान दिया। प्रतिहार नरेश भोज के समय एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया गया था। आबू पर्वत पर भी जैन मंदिर का निर्माण हुआ।
चन्देल शासकों के समय खुजराहों में जैन तिर्थंकरों के पॉच मंदिरों का निर्माण कराया गया। गुजरात के चालुक्य (सोलंकी) शासकों ने तो इसे राजधर्म बनाया। इस वंश के शासक कुमार पाल के समय में जैन धर्म की अत्यधिक उन्नति हुई। उसने प्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्र को राजकीय संरक्षण प्रदान किया था। राजपूत युग में बौद्ध धर्म अवनति की ओर अग्रसर था।