Rai ki Fag राई की फाग

राई नृत्य के साथ या तो राई गीत गाये जाते हैं या Rai ki Fag। राई की फाग श्रृंगारिक होती है, भले ही वह रूप-सौन्दर्य का चित्रांकन करे या दाम्पत्यपरक संबंधों का। वह मध्य लय और दादरा ताल में गायी जाती है, पर धीर-धीरे उसकी लय द्रुत हो जाती है।

मृदंग, ढोल, टिमकी, मंजीरा, रमतूला आदि लोकवाद्य उसकी संगत करते हैं। राई की फाग अतिकतर सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलों में गायी जाती है। यह राई गीत से मिलती-जुलती है।

अरे काँ गये रे ऊदल मलखान, अरे काँ गये रे बछेरा रसबेंदुला।

राई शब्द कहाँ से आया, यह खोज का विषय है। मैं समझता हूं कि वह संस्कृत के रागी (रागिन्)  शब्द से व्युत्पन्न है। रागी का अर्थ है- रागयुक्त अथवा रंजन करने वाला और ’राई‘ गीतयुक्त नृत्य भी है, जिससे मनोरंजन भी होता है। अतएव ’राई‘ से दोनों अर्थ निकलते हैं- एक राई नृत्य में गाया जाने वाला गीत और दूसरा राई गीत में अनुसरित होने वाला नृत्य।

बुन्देली में राई-दामोदर प्रचलित है, जिसका अर्थ होता है, राधाकृष्ण। ’राई‘ फिर राधिका से आया होगा और राधिका के नृत्य (रास) से ’राई‘ नृत्य, जिसमें केवल राधा नृत्य करती हो, कृष्ण या अन्य नहीं। तदुपरान्त राई नृत्य में गाया जाने वाला फाग गीत ’राई‘ कहलाने लगा होगा। बुंदेली पर प्राकृत का जितना प्रभाव है, उतना अपभ्रंश का नहीं।

बज रई आधी रात, बैरिन मुरलिया जा सौत भई।
बन सें तू काटी गयी, छेदी तोय लुहार।
हरे बाँस की बाँसुरी, मनो निकरो नईं सार।
बैरिन मुरलिया जा सौत भई।
पोर पोर सब तन कटे, हरे न औगुन तोर।
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित बटोर।
बैरिन मुरलिया जा सौत भई।

उपर्युक्त राई की गायन शैली वही रही है, जो आज की राई की है। वर्तमान राई से दोहा लुप्त हो गया है, केवल टेक की पंक्ति ही पूरा गीत बन गई है। उदाहरणार्थ ऊपर की राई से दोनो दोहे अलग हो जाने पर शेष रहती है- ’बज रई आधीरात, बैरिन मुरलिया जा सौत भई।‘ एक प्रकार से यह सखयाऊ फाग की लटकनिया है, जो इस रूप में स्वतन्त्र अस्तित्व बना सकी है। ’बज रई आधी रात‘ में 11 मात्राएँ हैं, जो दोहे का अवशेष है और ’बैरिन मुरलिया जा सौत भई‘ वही लटकनिया।

राई बुंदेलखण्ड का प्रसिद्ध फाग-नृत्य है। राई गीत के साथ ढोलक या मृदंग, नगड़िया, झाँझ और झींके के समवेत तालों पर बेड़िनी नृत्य करती है। नृत्य को गति देने के लिए एक ही पंक्ति दुगुन और चौगुन में गायी जाती है। एक उदाहरण देखिए-

सपने में दिखाय, सपने में दिखाय
पतरी कमर बूंदावारी हो।
राई (ताल दादरा)
नि सा रे रे ग – रे रे सा सा
सा नि
स प ने ऽ में ऽ दि ऽ खा ऽ
ऽ य
रे रे रे रे रे – रे रे सा सा
सा सा
प त री ऽ क ऽ म र बूँ ऽ
दा ऽ
नि नि नि सा सा –
वा ऽ र हो ऽ ऽ
म म – म – म म म – म
– म
प ऽ ने ऽ में ऽ दि ऽ खा
ऽ य
म म म ग ग म म रे रे रेसा
– –
सा प ऽ ने ऽ में ऽ दि ऽ ख
ऽ य
रे रे रे रे रे – रे – सा, सा स
– रे
प त री ऽ क ऽ म र बूँ ऽ
दा ऽ
नि नि – सा – –
वा ऽ ऽ हो ऽ ऽ

नोट:- उक्त पंक्ति नृत्य गीत को देने के लिए द्विगुन और चौगन में गायी जाती है।

ईसुरी की चौकड़ियाँ 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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