बुन्देलखण्ड के अनेक लोक नृत्यों में Rai-Bundelkhand Ka Lok Nritya का भी अपना शास्त्र है, जिसके बिना राई राई नहीं कही जा सकती। राई भले ही पहले लोकसुलभ नृत्य रहा हो, लेकिन अब व्यावसायिक लोकनृत्य है, इसलिए उसमें साज-सज्जा, श्रृंगार और नृत्य कौशल की अधिक आवश्यकता है।
सबसे पहले बेड़िनी को नृत्य के लिए ’साई‘ (बयाना) के रूप में खुले पान, सुपाड़ी और कुछ धनराशि दिये जाने का चलन है। निश्चित तिथि को मंच तैयार किया जाता है। किसी भी लम्बे-चैड़े मैदान के बीच में धूलरहित समतल भूभाग को चारों ओर रस्सी से घेर देते हैं, ताकि दर्शक संयमित रहें। घेरे के एक तरफ गायकों का दल अपने लोकवाद्यों-मृदंग, ढोलक, टिमकी, मंजीरा, नगड़िया, झाँझ, झींका, किंगरी और रमतूला के साथ संगत के लिए तैयार रहता है और उसी के पास मृदंग, ढोलक, नगड़िया सेंकने के लिए आग सुलगती रहती है।
शेष तीनों तरफ दर्शकों की भीड़ प्रतीक्षा करती है। रोशनी के लिए पहले मशालें जलती थीं, अब पैट्रोमैक्स या विद्युत का प्रकाश और भी रौनक बाँध देता है। शहरोंमें तो ऊँचे सजेधजे मंचों का प्रचलन है, जहाँ ’राई‘ एक सीमा में बँधकर सिकुड़ जाती है। वस्तुतः राई के मंच की बनावट और सज्जा-शृंगार के लिए गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि सीमित मंच में राई की नर्तन और वादन की होड़ मर जाती है, जो नृत्य की आत्मा है।
बेड़िनी सराई (चुस्त चूड़ीदार पैजामा) पर बीस हाथ का सौ चुन्नटोंवाला घाँघरा या लहँगा और अँगिया या चोली पर चुनरिया या साड़ी पहने, आँखों में कानों की ओर बढ़ती काजल-रेखा, भौहों से कनपटी तक रंगीन टिपकियाँ सजाये और अधरों पर पान की लाली रचाये जब उतरती है, तो दर्शकों की निगाहें वहीं ठहरी रहती हैं।
माथे पर बिन्दी या बूँदा, सिर पर बेंदा या बिंदिया, कानों में कनफूल या ऐरन, नाक में सितारे जड़ी फूलदार पुँगरिया, गले में सोने या चाँदी की हँसुली, दोनों हाथों में चूड़ियाँ, चूरा, ककना और गजरा, कटि में चाँदी की करधौनी और पाँवों में बजते घुँघरू बेड़िनी की गाँव की नचनारी बना देते हैं। होती भी है वह गाँव की, इस कारण इस श्रृंगार में उसे रूचि रहती है।
कुशल बेड़िनी का मुख घुँघट से ढँका रहता है, इसलिए कि दर्शक मुख की सुंदरता पर न रीझकर कला की बारीकियों को परखें। इससे दर्शकों के मन में जिज्ञासा का सागर उमड़ता रहता है। नर्तकी के हाथ में फहरता एक रूमाल भले ही मध्यकाल की देन हो, पर नर्तकी की अभिव्यक्ति में सदैव क्रियाशील बना रहता है।
घूँघट और रूमाल, दोनों मुगल काल की सौगात हैं और इस लोकनृत्य के अनिवार्य अंग बन गये थे, पर अब मुख से घूँघट हट गया है और मुख में अंकित भावों की अभिव्यक्ति के लिए रास्ता खुल गया है। भारतीय नृत्यों में मुखाभिव्यक्ति का विशेष महत्व है। मुगल काल में अपहरण के भय से घूँघट अनिवार्य हो गया था। वर्तमान में लोकनृत्यों में निहित कलात्मकता का महत्व बढ़ा और मुख से घूँघट हट गया।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल