बुन्देलखण्ड मे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक जीवन शैली के आधार पर बेड़िया जाति अन्य जातियों से अलग विशेषता वाली जाति है। बेड़िया जाति की महिलाओं की विचित्र जीवनशैली Rai Aur Bediya लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध ‘राई नृत्य” Rai Danc बेड़िया जाति की औरतें करती हैं जिसे बेड़नी कहा जाता है। बुंदेलखण्ड की अपनी कला संस्कृति में लोक जीवन है। जिसमें लोकनृत्य, लोकनाट्य, लोकसाहित्य, लोकसंगीत है जिसे देखकर ही इसकी विशाल संस्कृति का आभास हो सकता है।
मध्य प्रदेश के सागर जिले में बेड़िया जाति बहुलता में निवास करती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक जीवन शैली के आधार पर बेड़िया जाति के संस्कार अन्य जातियों से अलग है। बेड़नी गाँव में नाचने वाली नर्तकियाँ होती है। जाड़े की रातों और विशेष रूप से होली के समय ये बेड़नी रातभर नृत्य करती है।
राई नृत्य बेड़िया महिलाओं का परम्परागत व्यवसाय है। ये अपने इसी व्यवसाय के कारण अपनी अलग पहचान बनाये हुए है और इसी नृत्य व्यवसाय से अपना भरण पोषण करती है। बेड़िया पुरूषों द्वारा सहजता से धन कमाने की लालसा ने बेड़िया महिलाओं को नाचने एवं देहव्यापार की ओर ले जाने में आगे किया है।
कुछ समय पहले तक बेड़िया समाज में महिलाओं का विवाह नहीं होता था। बेड़िया महिलायें संपत्ति समझी जाती थी। ये बेड़िया महिलायें नाच-गाने के व्यवसाय के द्वारा परिवार का भरण पोषण करती थी। धन प्राप्ति की लालसा के कारण इन्हें धनाढ्य पुरूषों की रखैल बनकर करना पड़ता था।
इस तरह से बेड़नी किसी पुरूष की रखैल स्त्री रूप में ही अपना जीवन व्यतीत करती थी। रखैल स्त्री का नियमानुसार सिरढका की रस्म अदा की जाती थी जो आज भी बेड़नी महिलाओं में प्रचलित है। सिरढका की रस्म करने वाला व्यक्ति बेड़नी को गुजारे के लिए एक निश्चित धन राशि देता रहता है।
बेड़िया जाति के विकास में उनकी अवैध संबंधों से उत्पन्न होने की पृष्ठभूमि है। चूँकि इस जाति की उत्पत्ति समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वैध संबंधों से उत्पन्न संतानों से नहीं है , इस लिए इस जाति को हेय दृष्टि से देखा जाता है। यही मानसिकता इस जाति के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण बनाती है। इस जाति की वंश परम्परा और पारिवारिक विकास सभी स्त्रियों ओर पुरूषों के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानों का है।
यही कारण है कि इस वर्ग को अन्य समुदाय के लोग सम्मान जनक दृष्टि से नहीं देखते है। अंग्रेजो के शासन काल में जमींदारी और मालगुजारी प्रथा ने इस जाति व्यवस्था की जड़ो को मजबूत किया। मुगल सम्राटों की भांति इन मालगुजारों एवं जमींदारों द्वारा अनेक उप-पत्नियाँ रखने के शैकीन हो गये। इस शौक ने बेड़िया महिलाओं को रखैल स्त्री का दर्जा दिया। इन बेड़िया रखैलों से मालगुजारों एवं जमीदारों की सामाजिक प्रतिष्ठा बनती थी।
उच्च सामाजिक स्थिति का परिचायक बन गयी थी। बेड़िया महिलायें भी अपने को इन मालगुजारों एवं जमीदारों की रखैल कहलाना पसंद करती थी और उन महिलाओं से अपने को श्रेष्ठ समझती थी जो रखैल नहीं थी। पुरूषों के इस अवैध संबंध से उत्पन्न संताने ही बेड़िया जाति के विस्तार में सहायक हुई।
स्वतंत्रता के पश्चात इस जाति में चेतना और जागृति आयी। लेकिन कुछ बेड़िया महिलायें आज भी सिरढका की रस्म जिसे एक तरह से बेड़नी द्वारा रखैल बनने की रस्म कहा जा सकता है। इस प्रथा के द्वारा धनाढय एवं उच्च प्रतिष्ठित पुरूषों के सहारे अपना जीवनयापन करती है। ये प्रतिष्ठित पुरूष जो काफी सम्पन्न होते है बेड़नी को रखैल के रूप में रखकर अपनी उच्च दबदबे की स्थिति का प्रदर्शन करते है।
इस तरह बेड़िया समाज अब परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और अन्य परंपरागत प्रथाओं के साथ ही इसमें विधिवत जाति गत विवाह होने लगे है और बेड़िया पुरूष महिलाए पारिवारिक जीवन जीने लगी है। इसके साथ ही बेड़नी अभी भी पर पुरूषों की एक रखैल के रूप में जीवन जी रही है।
मध्यभारत के बुन्देलखण्ड क्षेंत्र में निवास करने वाली राई नृत्यागंनाएं बेड़िया जाति से सम्बन्ध रखती है। बेड़िया जाति के सामान्य रीति रिवाज सामान्य हिन्दू परिवारों की ही भांति हैं। पारिवारिक रीति रिवाज बुंदेली संस्कृति के अनुसार ही होते है। उन परिवारों में जहां मुखिया पुरूष होता है तथा जिसने पारंपरागत रूप से विवाह कर परिवार का निर्वाह किया है।
वह उन परिवारों में कोई अलग तरह के विशेष रीति-रिवाज नहीं अपनाते है। जिन परिवारों में मुखिया महिला होती है और वह नाचने गाने तथा देहव्यापार के व्यावसाय में संलग्न होती है तो वहां पर कुछ अलग हटकर विशेष रीतियाँ प्रचलित है।
सागर जिले के अनेक गाँव तथा कुछ नगरो में बेड़िया या भांतू समुदाय के व्यक्ति निवास करते है। इस समुदाय की औरते नाच-गाना की आड़ में वेश्यावृत्ति करना इनका समाज स्वीकृत पेशा है। बेड़िया का घुमक्कड़ समुदाय की अन्य जातियां नट, कंजर तथा संसिया के साथ घनिष्ट सामाजिक सम्बन्ध है।
इनके प्रचलित दंत कथा के अनुसार बहुत समय पहले भरतपुर राज्य में सैन्यमूल तथा मुल्लानुर नमक दो भाई थे । सैन्य की संतान संसिया कहलाने लगे तथा मुल्लानुर की संतान वे खुद है। इसलिए बेड़िया और संसियो में वैवाहिक संबध नही होता है। यद्यपि वे एक दुसरे के यहाँ भोजन कर सकते है।
बेड़िया महिलायें जो वैवाहिक जीवन का चुनाव न करके परम्परागत नाच-गने का व्यवसाय करती है उन्हें (बेड़नी) कहा जाता है। ये “बेड़नी” अपना विवाह नहीं करती तथा 10 से 15 वर्ष की उम्र के बीच नाच-गाने के व्यवसाय में जुड जाती है। वयस्क होने पर ये बेड़नी पर पुरूषों से संबंध स्थापित कर सकती हैं पर पुरूषों से शारीरिक संबंध स्थापित करने को यह समुदाय हेय दृष्टि से नहीं देखता। प्रौढ़ बेढ़नी अधिकांशतः किसी धनाढ्य व्यक्ति की रखैल बनकर रहना पसंद करती है।
सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और जीवनशैली के आधार पर बेड़िया महिलाएं अन्य समुदायों की महिलाओं से कुछ अलग विशेषता रखती हैं। इस समुदाय की सभी बेड़िया महिलाएं बेड़नी नहीं होती, बल्कि वही महिलाएं बेड़नी कहलाती है जो नृत्य गायन करती है। कहा जाता है कि मध्यम आपराधिक कार्यो में लिप्त बेड़िया समुदाय सहजता से धन प्राप्त करने की लालसा से महिलाओं को नृत्य गायन और देह व्यापार के लिए प्रेरित किया गया।
कुछ पीढ़ी पहले बेड़िया महिलाओं का विवाह नहीं होता था। परिवार की सभी लड़कियां नृत्य गायन के व्यवसाय के लिए रखी जाती थी। धीरे-धीरे कुछ बेड़िया महिलाओं का विवाह होने लगा और परिवार में केलव एक लड़की ही नाच गाने के व्यवसाय में जाती है।
राई नृत्यागनाएं अर्थात ये बेड़नियां अपना विवाह नहीं करती तथा 10 से 15 वर्ष की आयु के बीच नाच-गाने के व्यवसाय में संलग्न हो जाती है। इस व्यवसाय का प्रशिक्षण गांव की युवा “बेड़नी” द्वारा दिया जाता है। इस प्रशिक्षण का कोई निश्चित समय एवं कार्यक्रम नहीं होता। बल्कि सीखने वाली लड़की अपने गांव की उन बेड़नी के साथ नाचने जाती है जो कि इस व्यवसाय में एक लम्बे समय से अभ्यस्त होती है।
कुछ समय के पश्चात् ये लड़कियां भी इस व्यवसाय में पारंगत हो जाती है। प्रायः एक परिवार में ज्यादातर एक बेड़िनी होती है, और पूरा परिवार उसी पर निर्भर रहता है उसकी लड़की घर पर नृत्य की शिक्षा लेती है और वह बड़े होने पर माँ के साथ नृत्य के मैदान में थिरकने लगती है। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी यह नृत्य कला चली आ रही है, जिसकी कोई पाठशाला नहीं होती।
व्यस्कता प्राप्त होने पर लड़किया प्रायः सम्पन्न व्यक्तियों की रखैल के रूप में रहने लगती है। सम्पन्न व्यक्ति रखैल बनाने के लिए सिर ढका की रस्म अदा करता है। इस रस्म में पुरूष बेड़नी को कुछ राशि देता है तथा सामाजिक रूप से उसे अपनी रखैल बना कर रखने का प्रस्ताव करता है। यदि बेड़नी को उस पुरूष की रखैल बनना स्वीकार होता है तो वह उस राशि को स्वीकार कर लेती है।
बेड़नी उस राशि में से गांव वालों को जाति भोज देती है। इस “जाति भोज” को भण्डारा कहा जाता है। भण्डारे में व्यय राशि के पश्चात् जो कुछ भी राशि बचती है वह बेड़नी की संपत्ति होती है। इस तरह बेड़नी को “सिर ढका” की रस्म एवं भण्डारा की प्रथाओं के द्वारा रखैल बनाने की सामाजिक स्वीकृत प्राप्त हो जाती है।
ऐसा मनमोहक नृत्य “राई” कब से प्रचलित हुआ यह खोज पाना कठिन है। वैसे तो बुन्देली के प्रथम कवि जगनिक के लोककाव्य आल्हाखण्ड (12 वीं शती) और परमालरासों के नाम से प्रकाशित अज्ञात कवि के रासों ग्रंथ में आल्हा उदल के जन्मोत्सव वर्णन में लोक नृत्य का उल्लेख है किंतु राई का कोई संकेत नहीं मिलता।
छिताई चरिंत्र ( 15 वीं शती) में नांद मृदंग कला परवीना। नाचहि चतुर प्रेम रस लीना। जायसीकृत पद्मावत् (16 वीं शती) में जानी जाती गति बेड़िन दिख राई। बाँह डुलाय जीउ लेई जई। और केशवकृत रामचन्द्रिका (17 वीं शती में) कहॅूं भाट भरयों करे मान पावे। काह कहूं बोलिनी बेड़िनी गीत गावे – से राई गीत और नृत्य के प्रसार का अंदाजा लगाया जा सकता है।
राई नृत्य के अर्थों की छानबीन भी अपनी अहमियत रखती है राई तीन शब्दों के ज्यादा निकट है- पहला प्राकृत का रागी (संस्कृत के रागिन से) जिसका अर्थ है- रागयुक्त। दूसरा राधिका जो प्राकृत में राइया और बुन्देली में राई हो गया। तीसरा राजसी जिससे राजाश्रय का भास होता है।
बुन्देलखण्ड में राई राजाओं और उनके सामन्तों, जागीरदारों के दरवारों और समाजों में आश्रय प्राप्त कर चुका था। कहा जाता है कि इन्हीं शासकों के दरबारों में सुन्दर युवतियों इस नृत्य को नाचकर सरदारों और सभासदों का मनोरंजन किया करती थी। रानियाँ भी कभी-कभी अपनी सहेलियों से राई नचवाकर उन्हें पुरस्कार देती थी।
कुछ लोगों का अनुमान है कि युद्ध लड़ते-लड़ते जब सैनिक थक जाते थे तब उनमें उल्लास, स्फूर्ति, उत्साह भरने के लिये रास्ते में ही राई नृत्य का प्रदर्शन होता था। इस लिए इस नृत्य को कहीं-कहीं राही नृत्य भी कहा जाता है दमोह जिले के ग्रामवासी इसे राही नृत्य कहते है।
कुछ विद्वानों के मतानुसार फिरकती मथनी अर्थात् राई की तरह नर्तकी थिरकती है और सम्भवतः इसी कारण इस लोकनृत्य को राई की संज्ञा मिली है। राई के एक शौकीन का मत है कि जैसे राई का छौंक (बघार) तेज होता है और छपाका देता है। यह नाच भी वैसे अनुभूति देता है। और इस कारण इसे राई कहते है।
तीसरा मत यह भी है कि सरसों राई के दाने थाली में बिखर कर द्रुतगति से घूमते, लुढकते है वैसे ही राई की नर्तकी के पैर थिरकते है और शायद इस चंचल गति साम्य के कारण बुन्देलखण्ड लोकजीवन में यह लोकनृत्य राई के नाम से प्रसिद्ध हो गयी है।
राई में बेड़नी (नर्तकी) की भूमिका प्रमुख है राई की नर्तकी मध्यकाल में नृत्य के लिये विख्यात रही है। राई के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में कई उल्लेख मिलते है। कुछ लोगों का कथन है कि बेड़िनी कंजर, गंधर्व, कबूतरी, रंगरेज, बेड़िया आदि में से होती हैं जिससे लगता है कि बेड़िनी कोई खास जाति नहीं थी, वरन् नृत्य करने वाली को ही बेड़िनी कहा जाता है।
महिलाओं का नाचना-गाना बेड़िया समाज में बुरा नहीं समझा जाता है। और इन परिवारों में सभी स्त्रियां बेड़िनिया भी नहीं होती। जिनका विवाह हो जाता है। वे अपनी ससुराल में पारिवारिक जिन्दगी व्यतीत करती है और जो बेड़िनी का काम करती है वे सिर ढका रस्म के जरिये किसी सम्पन्न धनाढ्य व्यक्ति से अपने संबंध जोड़ लेती है और उसकी रखैल होकर पूरी उम्र गुजार देती है उसे पति मानकर पतिव्रत धर्म का पूरा निर्वाह करती है।
यहां तक कि उसके नाम पर वे अपनी मांग में सिंदूर भरती है। उसकी आज्ञा से वे नृत्य करने जाती है और पति की मर्जी से ही वे पर पति से संपर्क करती है और पति की मृत्यु पर बैधन्य ग्रहण करती है। गाँव के बूढ़े पुराने लोगों का कथन है कि जो व्यक्ति कुंआरी नर्तकियों का सिर ढका करता था वह नख से शिख तक उसे सोने चाँदी के आभूषणों से ढक देता था और अपनी जमीन जायदाद भी बेड़िनी के नाम लिखा देता था।
ग्राम की इस लोक नर्तकी बेड़िनी का जीवन आज भी नैतिक मर्यादाओं से बंधा हुआ हैं जो अपनी वंशानुक्रम कला, परम्परा को बनाये हुये है। इस समाज में मातृ प्रधान परंपरा है। संतान अपनी माता के नाम से जाती है। बेड़िनी के यहां जब लड़की पैदा होती है तब वह अत्याधिक प्रसन्न होती है, पुत्र होने पर उतना नहीं, कयोंकि बेड़िनी के लिये लड़की कमाउ होती है और पुत्र ना कमाउ माना जाता है। इस लिये बेड़िनी प्रायः नियोजित परिवार के लिए विशेष ध्यान रखती है। वह एक या दो से अधिक संतान नहीं होने देती है। वह जानती है कि अधिक संतान होने से मेरी सुन्दरता नष्ट हो सकती है।
राई नृत्य सामूहिक भी है। और एकल भी? कई मेलों उत्सवों में कभी -कभी छः सात बेड़िनियाँ एकत्रित होकर एक साथ नृत्य करने लगती है। और कहीं-कहीं निमंत्रित एक ही बेड़िनी सारी रात नाचती है। अब तो वह नृत्य किसी भी समय कहीं भी नाचा जा सकता है। यह शौकीन, रसिक, कलापारखी लोगों पर ही निर्भर है। राई व्यावसायिक लोक नृत्य माना जाता है। बेड़िनी नृत्य के लिए कुछ अग्रिम राशि (व्याना) भी ले लेती है।
फिर वह निश्चित तिथि पर अपना नृत्य प्रस्तुत करता है। इन्हीं कारणों से राई ने राजाश्रय तक प्राप्त कर लिया था। रियासतों के सामंत, जागीरदार, जमीदार, मालगुजार, सभी विशेष त्योहारों पर राई को महत्व देते थे। शहर का आदमी इस लोकनृत्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखता आ रहा था। और बेड़िनी को वेश्या जैसी मानकर कतराता था। क्योंकि लोकनृत्य की रानी राई के कला पक्ष के अनिभिज्ञ थे। अब जहाँ भी राई नृत्य होता है वहां लोग संभाले नहीं संभलते हैं।
राई नृत्यांगनाएं नृत्य के समय माथे पर जागमगता बूंदा। सिर पर बेंदा – बिंदिया, शीशफुल कानो में डोलते कर्णफुल, नाक मे फूलवाली पुंगरिया, गले में सोने – चांदी की हंसुली, दोनों हाथ में चुड़ियों के साथ चूरा बंगारी कंगना, गजरा। कमर में चांदी की करधौनी और पावों में घुंघरू छमछमाते हैं। यौवन पर अंगिया – चोली चुनरिया ओढनी या साड़ी पोलका (ब्लाउज)।
16 हाथ का लहंगा सौ चुन्नटोदार घांघरा इसके नीचे चुस्त शोरड़ीदार पायजामा। आँखों में डोरीदार कपड़ा। भौंह से दोनों ओर की कनपटी तक सुनहली रंगीन टिपकियां और ओठो पर रची हुई पान की गुलाबी उसके सौन्दर्य को मोहक बाना देती है। बेड़नी का मुख घूघट में इस तरह ढंका होता है कि दर्शक उसके रूप सौन्दर्य का पूरी तरह आनंद ले सकता है। नर्तकी के दाहिने हाथ में फहराता हुआ एक रूमाल होता है जो कि नर्तकी की भावाभिव्यक्ति में क्रियाशील होता है। वैसे घूंघट और रूमाल दोनों ही मुस्लिम काल की सौगत है जो बेड़नी के नृत्य के अनिवार्य अंग बन गई है।
बेड़नी का नृत्य में साथ देने के लिए एक सौबत होता है जो वाद्य यंत्री द्वारा नृत्य में संगत करते है। इन्हें “राइया” भी कहते है। इनके सिर पर पंचगजा साफा, वदन में कुरता जाकिट होता है। कंधे पर एक तौलिया और घुटनों तक कांछ लगी सफेद धोती ग्रामीण वेशभूषा का परिचायक होती है।
बेड़नी को बुलाकर नृत्य कराने वाला व्यक्ति सौबत को आमंत्रित करने के लिए एक सप्ताह पूर्व कुछ खुले पान सुपाड़ी कथ्था लौंग, इलायची भेज देता हैं इसे सौबत आमंत्रण समझ लेता है और राई नृत्य में संगत के लिए तैयार रहता है। नृत्य के दिन नाच-गाने में मस्ती लाने के लिए इस सौबत को गांजा तम्बाकू और चिलम दी जाती है।
सौबत के सदस्य एक ही चिलम में गांजा और तम्बाकू एक साथ मिलकर बारी बारी से पीते हैं नृत्य स्थान के एक ओर अग्नि का कोंढा लगया जाता है जिसमें रात भर आग जलती रहती हैं इस कोढा से वाद्य वादक चमढे से मढे हुए वाद्यों को सेंकते है ताकि वे बेंसुरे न हो पावे।
यह नृत्य रात्रि में ही अपनी छटा बिखेरता है। एक या दो मशालची अपनी मशाल जलाये हुए नर्तकी के मुख के सामने हमेशा रहती है। शायद मुख का सौन्दर्य उजागर करने के लिए। मशाल के प्रकाश में ऐसा आभास होता है कि नर्तकी का घूंघट ढका मुख साफ कह रहा है कि मुझे मत देखो मेरी कला को परखो। यह नृत्य पूरी रात चलता है।
राई नृत्य सुमरनी गीत से प्रांरभ होता है। जिसमें आदि देवों से लेकर बुन्देलखण्ड के सभी देवताओं का स्मरण किया जाता है। इसके पश्चात लोकगीतों की रसीली भावभीनी कड़ियाँ गूंजने लगती है गीत की पंक्ति या तो गायक दल उठाता है। या नर्तकी तब नृत्य आरंभ होता है। नित्य प्रारंभ करते समय बेड़िनी सबसे पहले सभी वादद्यों को श्रृद्धा भाव से स्पर्श करती है।
फिर चारों ओर लोगों से घिरे हुए घेरे में घूम – घूम कर नृत्य प्रांरभ करती है। कई जगह बुन्देलखण्ड के लोक कवि इसुरी की चैकड़िया, पचकड़िया फागे अधिकांश गाई जाती है। जो रसीली श्रृंगरिक और मन को गुदगुदाने वाली होती है।
राई गीत प्रायः श्रृंगारिक होने के कारण रसिक लोगों को अधिक प्रिय लगते है। मौलिक धुन के ये गीत सभी के दिल दिमाग में आसानी से उतर जाते है। सभी वाद्य धुन में बजते रहते है, तभी बेड़िनी मशालची के साथ मुजरा की तरह फेरी लेने के लिए दर्शकों की ओर झूमती ठुमकती बलखाती हुई जाती है। बेड़िनी इन्हीं राई गीतों के माध्यम से रसिकों के दिलों को गुदगुदाती है।
उन पर अपनी अदायें बिखेरती हुई बायें कान पर बायाँ हाथ रखकर इस तरह गाती है। शेरों शयरी की तरह बेड़िनी इन राई गीतों को अदा के साथ गाती है। इन गीतों की लटक अपने आप में निराली है जो साजो-बाजों से अलग हटकर जवानी के जोश में सुरीले कंठों से गूंजते हुए जीवन के हर मोड़ पर खड़े हुए व्यक्ति को अपनी ओर रिझाकर भाव विभोर कर देते है।
यह लोक नर्तकी आकाश में स्वतंत्र छिटके तारों की तरह छिटक कर खुले मैदान में नाचती है और अपने दीवानों से रूपया पैसे लेने के लिये फेरी लगाती है। फेरी लगाते समय बेड़िनी के कुछ सिद्धांत भी होते है जिसकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए। जब कभी कोई रसिक प्रेमी बेड़िनी को चिढ़ाना चाहता है। तब वह अपने बांये हाथ की गदेली पर दस रूपये या सौ रूपये तक का नोट रख कर बार-बार दिखाता है।
बेड़िनी को उस नोट को छूना तो दूर रहा वह अपनी नजर भी नहीं डालना चाहती है। क्योंकि बायाँ हाथ का पैसा लेना वह अनुचित समझती है। वह तो मर्द की कमाई का सच्चा पैसा उसके दाहिने हाथ से ही लेना चाहती है भले ही वह किसी का दस पैसा क्यों न हो। फेरी के समय मृंदग वादक भी बेड़िनी के संग-संग कंधा से कंधा मिलाकर बेड़िनी को प्रोत्साहन देता राई गीत गाता चलता है। एक कवि की तरह उसका भी स्वर रसिकता को उभार देता है।
बेड़िया महिलाओं का परम्परागत व्यवसायिक नृत्य “राई” है। जिसके द्वारा बेड़नी शादी-विवाहों, पुत्र जन्म आदि के आयोजनों में लोगों का मनोरंजन करती है। इस नृत्य नाट्य में पुरषों के साथ बेड़िनी (वैश्या) का भी योग होता है। मालगुजार, सम्पन्न ठाकुर या ब्राहमण खुशी के मौके पर राई का आयोजन करते है और इसे देखने के लिए गाँव-गाँव के स्त्री पुरूष इकठ्ठे होते है। राई में प्रमुखतः श्रृंगारी गीत ही होते है।
बेड़नी के साथ मृदंग वादक टिमकी वादक अथवा तारें (बडे़ मंजीरा) होते हैं। तारें बजाने वाला नृत्य करता है। गायकों का दल सौबत कहलाता है। इसमें आठ से लेकर पन्द्रह तक लोग होते है। यह नृत्य नाट्य पूरी रात भर चलता है। स्वांग बीच-बीच में हंसी का वातावरण बनाने के लिए अथवा अवकाश भरने के लिए प्रस्तुत किया जाते है।
बुंदेलखण्ड की अपनी कला संस्कृति है लोक जीवन है। जिसमे लोकनृत्य, लोकनाट्य, लोकसाहित्य, लोकसंगीत है जिसमे पहुँच कर ही इसकी विशाल संस्कृति का आभास हो सकता है।
राई नृत्य एक जातिगत नृत्य है। पेशेवर लोंगों का। यह पूर्णतया पेशेवर है। यह नृत्य रात के अँधेरे में किया जाता है, मशाल की रोशनी में, ताकि कुछ लोग ही देखें यदि दिन की रोशनी में होता तो सम्पूर्ण इलाका देखता। पुरुष ही लोक वाद्य बजाने में भाग लेते हैं और कभी कभी राई नृत्य के साथ संगत करते हैं।
इस नृत्य को करने वाली जाति को बेड़िया कहते हैं और इसके कुछ गाँव बुंदेलखण्ड में वर्षो से स्थापित हैं जिस में भले समाज के लोग (सभ्य) नहीं रहते यदि जहाँ भी हैं तो बेड़िया जाति की लोगो की अलग से बस्तियां हैं जो काफी दूरी पर हैं, इनके साथ नृत्य करने वाले लोग मदिरा पान भी करते हैं।
प्रायः महिलाए इस नृत्य को नहीं देखती क्यों कि यह पेशेवर महिलाओं द्वारा किया जाता है, आज भी बुंदेलखंड समाज में पुत्रों एवं विवाहोत्सव आदि में राई का आयोजन होता है , किन्तु देवी पूजन में कभी भी राई आयोजित नहीं होती। आयोजनकर्ता धन का भुगतान करता है। यह पूरी तरह से पेशा है। इसी से ये अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण करते है। राई नृत्य को कुवाँरी कन्याएं या फिर जो सिर ढका की रस्म से रखैल बनाना स्वीकार किया हैं वही महिलाएं राई नृत्य करती हैं विवाह हो जाने के बाद इस पेशे में में भाग नहीं लेती ।
बुन्देलखण्ड की लोक नृत्य परंपरा
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल