गीत और नृत्यविधि की दृष्टि से ओड़िसा का मयूरभंज छऊ और बिहार का सेराएकला छऊ परस्पर संबद्ध हैं। परंतु बंगाल का पुरुलिया छऊ Puruliya Chhau एक संबद्ध परंपरा का एक अन्य पक्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । पुरुलिया छऊ में जहां मयूरभंज छऊ की भांति सैनिक वैभव और महाकाव्यात्मक शैली के दर्शन होते हैं, वहीं वह सेराएकला छऊ की भांति एक ऐसा नृत्य नाटक है जिसमें मुखौटों का उपयोग किया जाता है ।
मयूरभंज छऊ और सेराएकला छऊ की भांति यहां भी उस साहित्यिक संदर्भ सामग्री का अभाव है जो भारत की नाट्य विधाओं और नृत्य नाटक के रूपों को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस दृष्टि से ये तीनों रूप एक ही वर्ग के अंतर्गत आते हैं । ये इस बात का संकेत देते हैं कि किस प्रकार साहित्यिक शब्द और संरचनाबद्ध काव्य-विधा के न्यूनतम अंश के साथ महाकाव्यात्मक तत्व ग्रामीण और जनजातीय समुदायों में पहुंचे हैं। इनके विषय महाकाव्यों और पुराणों से लिये गये हैं और कुछ विषय काव्यों से भी लिये गये हैं, किंतु सस्वर पाठ और पद्य गायन इनके अभिन्न अंग नहीं हैं ।
सेराएकला छऊ के विपरीत पुरुलिया छऊ Puruliya Chhau की प्रस्तुति राजपरिवारों के सदस्यों द्वारा नहीं की जाती। इसकी प्रस्तुति ऐसे लोगों द्वारा की जाती है जिसे सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। आज इस वर्ग में ग्रामवासी, किसान, मजदूर और रिक्शाचालक शामिल हैं। परंतु इन्हें पिछड़ा वर्ग और रिक्शा चलाने वाले मजदूर कहने भर से बात पूरी नहीं हो जाती है। ये नृत्य और नाटक की एक समृद्ध और विकसित परंपरा से संपन्न हैं।
मुरों को मुंडा भी कहते हैं । यह वर्ग इस क्षेत्र का एक और महत्वपूर्ण जन समुदाय है । ये भी इस क्षेत्र के बहुत पुराने निवासी हैं। समुदाय के पुरोहित होने के कारण इन्हें अधिक प्रतिष्ठा मिली हुई है। मुरा सूर्य के पूजक हैं और मयूरभंज के निवासियों की रीति से ही वे सूर्यपूजा करते हैं। मयूरभंज के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि जनजातियों की सूर्यपूजा को क्षेत्र के शासकों की स्वीकृति प्राप्त थी जिसने आगे चलकर कोणार्क के सूर्य मंदिर के विशाल कर्मकांड का रूप ग्रहण किया।
मुरा जाति में सूर्य को ‘सिंग बोंग’ कहते हैं और भूमिजों में इसके लिए ‘धरम’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके साथ साथ रामायण और महाभारत की कथाएं भी प्रचलित हैं। ये कथाएं सुनाई जाती हैं और ये गायन तथा नृत्य का आधार भी बनती हैं । नृत्य की प्रस्तुति भूमिजों द्वारा की जाती है। नृत्य के शिक्षक मुरा जाति के व्यक्ति होते हैं जिन्हें ‘उस्ताद’ कहा जाता है । यह शब्द पिछले कुछ समय में ही उन्होंने ग्रहण किया होगा । यह असंभव नहीं है कि ये मंदिरों के नर्तकों के आदि गुरु रहे होंगे और समयांतर में जब मंदिरों से उनका संपर्क टूट गया होगा तो बालकों और वयस्कों को पुरुलिया छऊ की शिक्षा देने लगे होंगे ।
एक और वर्ग कुर्मियों का है। इन्होंने भी हिंदू धर्म की रीतियां और कर्मकांड स्वीकार कर लिये हैं, किंतु हिंदू धर्म की क्षीण परत के नीचे ऐसे अनेक मिथक, जनश्रुतियां और विश्वास मिलते हैं जिन्हें मानवशास्त्रियों ने प्राय: ‘जड़ात्मवादी’ कहा।
चौथा और अंतिम वर्ग डोमों का है जो बंगाली डोम और बिहारी डोम दो उपवर्गों में विभाजित हैं। बंगाली डोम पुरुलिया छऊ के पुश्तैनी संगीतकार हैं। डोमों का इतिहास 9वीं शताब्दी तक जाता है। नौवीं शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक के संबंध में ऐतिहासिक प्रलेखों से कम जानकारी मिलती है, किंतु 12वीं शताब्दी से लेकर बाद के काल तक के संबंध में निरंतर इस बात का प्रमाण मिलता है कि डोम सैनिक और योद्धा थे। ढोल बजाना कदाचित एक सैनिक व्यवसाय था जो बदल कर नाट्य क्षेत्र से संबद्ध हो गया ।
जहां भूमिज और मुरा जाति के लोग आंशिक रूप से खेती करते हैं, वहीं डोम भूमिहीन मजदूर हैं और संगीत के द्वारा या टोकरी बनाकर जीविका कमाते हैं। इस प्रकार वे बजनिया डोम और अंकुरिया डोम कहलाते हैं । जातिगत बहुलता और नृत्य के संदर्भ में प्रत्येक वर्ग के लिए नियत की गयी भूमिका से स्पष्ट हो जायेगा कि अनुसूचित जाति-जनजाति समाज में भी प्रत्येक वर्ग से कोई न कोई विशेष कार्य संबद्ध है। नाट्य अनुभूति इन उपवर्गों के बीच संवाद और संप्रेषण का अवसर प्रदान करती है ।
मयूरभंज, सेराएकला और पुरुलिया के भी सामंती मुखिए एक-दो शताब्दियों के दौरान इन नाट्य रूपों का पोषण करते रहे हैं। परंतु पुरुलिया में सामंतों का प्रभुत्व बहुत थोड़े समय तक रहा। अतः वहां आज इस नाट्य विधा का प्रचलन तथाकथित पिछड़े वर्गों में ही है। कई दृष्टियों से यह विधा ब्राह्मणों के कुटियट्टम, भागवतमेला और यक्षगान के साहित्यिक नाटकों से बहुत भिन्न दिखाई देगी। अन्य दृष्टियों से पुरुलिया छऊ और मयूरभंज छऊ उनके समतुल्य हैं ।
मयूरभंज छऊ और सेराएकला छऊ की भांति तथा यक्षगान जैसे नृत्य नाटक की भांति पुरुलिया छऊ की प्रस्तुति भी आकाश तले खुले वातावरण में होती है। इसके लिए कोई ऊंचा मंच नहीं बनाया जाता और केवल 20 फुट लंबा तथा 20 फुट चौड़ा खुला क्षेत्र घेर लिया जाता है जिसमें प्रवेश करने और निकलने के लिए 5 फुट चौड़ा रास्ता बना दिया जाता है । इस रास्ते की लंबाई 15 फुट से 20 फुट तक हो सकती है। 20 फुट चौड़ा खुला क्षेत्र अभिनय क्षेत्र का काम देता है ।
नृत्य क्षेत्र गोलाकार होता है जिसका व्यास लगभग 20 फुट होता है । संगीतकार एक साथ एक ओर बैठते हैं। यदि एक से अधिक मंडलियों द्वारा प्रस्तुति होती है तो प्रत्येक मंडली के अपने संगीतकार होते हैं जो प्रस्तुति करने वालों के निकट बैठते हैं।
दर्शक अभिनय क्षेत्र के तीनों ओर जमीन पर बैठते हैं। केवल महिला दर्शकों के लिए पार्श्व में ऊंचे मंच बना दिये जाते। भारत के अन्य भागों की भांति प्रस्तुति नौ-दस बजे रात में आरंभ होती है। सबसे पहले संगीतकारों का प्रवेश होता है, मुख्यतया ढोल बजाने वालों का, जो ढोल बजाकर और बोलों के लयात्मक उच्चारण द्वारा अपने कौशल का प्रदर्शन करते हैं ।
इसके पश्चात गणेश का मुखौटा पहने एक अभिनेता संकरे मार्ग के छोर पर प्रकट होता है। जैसे ही ढोल बजाने वाला थोड़े समय के लिए रुकता है और गायक गाने लगता है, दर्शकों का ध्यान इस पात्र की ओर आकृष्ट हो जाता है। गायक गणेश वंदना गाता है । गणेश की भूमिका निभाने वाला अभिनेता मुखौटे के साथ साथ अपनी पीठ पर लकड़ी के दो हाथ भी बांधे रहता है जिससे कि दर्शकों को चतुर्भुज गणेश का आभास हो सके।
लकड़ी के बाहु कुछ फूहड़ ढंग से पीठ पर बंधे होते हैं और इन कृत्रिम भुजाओं में जोड़ नहीं होते हैं। गणेश वंदना के दौरान अभिनेता लंबा मौन धारण किये रहता है मानो वह ऐसा अपनी पहचान बताने और दर्शकों की उत्सुकता बढ़ाने के लिए कर रहा हो। इसके पश्चात वह बिजली की सी तेजी से दौड़ कर अभिनय क्षेत्र में आ जाता है और द्रुत गति से नाचने लगता है। गणेश वंदना का गायन झूमर की शैली में होता है।
गणेश के प्रवेश से नाटकीय घटना आरंभ हो जाती है। फिर अन्य पात्रों के प्रवेश और प्रस्थान के साथ कथा तेजी से आगे बढ़ने लगती है। अभिनय क्षेत्र तक पहुंचने में प्रत्येक पात्र को एक दो मिनट लगते हैं। अन्य दो छऊ में जैसी मुद्राएं, चलने की विशेष रीति और गति दृष्टिगत होती है वैसी ही यहां भी दिखाई देती हैं।
भागवत की भांति ही यहां भी गायक एक या दो द्विपदी गाकर प्रत्येक पात्र का परिचय देता है, किंतु यह क्रम शीघ्र ही टूट जाता है क्योंकि सुषिर वाद्यों और ढोल की प्रचंड ध्वनियों में उसका स्वर डूब जाता है। फिर भी, पात्र का परिचय देने, दृश्य का वर्णन करने और दो घटनाओं को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य वह करता रहता है।
वाद्य संगीत, जिसका स्वरूप अधिकांशतः आवृत्तिपूरक होता है, नाटकीय कार्य व्यापार Activiti के साथ-साथ चलता रहता है । कथ्य के विकास के साथ नाटकीय कार्य व्यापार में गति आती हैं और दर्शक रोमांच और कुतूहल की अनुभूति से मंत्रमुग्ध – से हो जाते हैं । ‘छऊ ! छऊ !’ के नारे लगाकर वे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।
नाटक भोर तक चलता रहता है। अंत में नायक और राक्षस के बीच युद्ध होता है और सत्य के असत्य पर विजयी होने के साथ साथ नाटक समाप्त हो जाता है। यदि पूरी कथा एक रात में समाप्त नहीं होती तो उसका क्रम अगली रात भी चलता रहता हैं I
कभी एक ही मंडली द्वारा प्रस्तुति की जाती है और कभी कभी दो या तीन मंडलियां भी साथ साथ प्रस्तुति करती हैं, मानों परस्पर होड़ कर रही हों। और, कभी एक मंडली की प्रस्तुति के समाप्त होने पर दूसरी मंडली अपनी प्रस्तुति आरंभ करती है ।
यद्यपि एक सुस्पष्ट विधा के रूप में पुरुलिया छऊ का एक ही रूप है, फिर भी उसकी कुछ उप-शाखाएं हैं जैसा कि कथकलि और यक्षगान आदि की विभिन्न शैलियों में भी हम देखते हैं। स्थूल रूप से ‘बंद्योयन’, ‘बागमुंडी’ और ‘झलदा’ पुरुलिया छऊ की शैलियां हैं।
पुरुलिया छऊ ने अपने विषय अधिकांशतः रामायण और महाभारत से लिये हैं। साथ ही, कुछ पौराणिक प्रसंग भी लिये हैं । पुरुलिया छऊ में वाल्मीकि रामायण का नहीं अपितु 16वीं और 17वीं शताब्दी में लिखित कत्तिवास रामायण का अनुसरण किया जाता है । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि भारत के कुछ भागों में तुलसी कृत रामायण या विचित्र रामायण का पारंपरिक भारतीय रंगमंच अधिक अनुसरण किया जाता है। वाल्मीकि रामायण केवल एक आधार का काम देती है।
आंध्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल की भांति यहां भी वाल्मीकि रामायण से भिन्न अनेक प्रसंग मिलेंगे। बहुत थोड़े नाटक ही होंगे जो राजा दशरथ द्वारा ऋषि सिंधु के वध की घटना से आरंभ होते हों । पुरुलिया छऊ में इस प्रसंग को भी बहुत महत्व दिया गया है। साथ ही, उन प्रसंगों को भी बहुत महत्व दिया गया है जिनमें राम गुहक और अन्य निम्न वर्ग के व्यक्तियों से मिलते हैं ।) महाकाव्य की प्रस्तुति कभी तो एक रात्रि में ही समाप्त हो जाती है और कभी कई रातों तक निरंतर चलती रहती हैं। विषय, प्रसंग और निर्वाह पद्धति के चुनाव में क्षेत्रीय संस्कृति के मूल्यों की छाप स्पष्ट दिखाई देगी।
इसी प्रकार लगभग संपूर्ण महाभारत की भी प्रस्तुति की जाती है, किंतु स्वभावतः इसके लिए कुछ प्रसंगों का ही चुनाव किया जाता है। आरंभ की अपेक्षा ‘वन पर्व ‘ का अधिक महत्व होता है । अंतिम युद्ध की प्रस्तुति नाटकीय रीति से की जाती है। अभिमन्यु प्रसंग उत्तम अंश होता है जिसमें युवक अभिमन्यु अपने शक्तिशाली शत्रुओं से वीरता से लड़ता है। चक्रव्यूह, दक्षिणावर्त और वामावर्त अंगविक्षेप, गरदन और धड़ को तेजी से झटके देना और मोड़ना – ये सब मिलकर एक उच्च कोटि के नाटकीय दृश्य की सृष्टि करते हैं ।
महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाएं और अनेक संक्षिप्त प्रसंग पुरुलिया छऊ के विषय संग्रह में सम्मिलित हैं । जहां विजय की दृष्टि से इसकी मयूरभंज छऊ के साथ बहुत समानता है वहीं सेराएकला छऊ के साथ भी इसकी कुछ समानताएं हैं । नृत्य नाटक के अन्य रूपों की भांति पुरुलिया छऊ में भी कोई भूमिका नहीं रहती ।
पुरुलिया छऊ की राग योजना सीमित है। सामान्यत: पांच स्वरों के रागों का प्रयोग होता है। कभी कभार ही सात स्वरों के रागों का प्रयोग किया जाता है। हिंदुस्तानी संगीत से इसका संबंध बहुत थोड़ा है। वाद्य वृंद में एक धुन वाद्य और दो संघात वाद्य हैं। धुन शहनाई (हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शहनाई से एकदम भिन्न प्रकार की) और दो ढोलों पर बजायी जाती है । एक पीपे के आकार का होता है जो दोनों ओर से बजाया जा सकता है और इसे ढोल कहते हैं।
दूसरा है धुमसा, जो ताशे की तरह होता है । यह लकड़ी के एक समूचे टुकड़े से या धातु की चादर से तैयार किया जाता है। कभी कभी प्रत्येक वाद्य के एक से अधिक वादक होते हैं। धुमसा वादक जमीन पर बैठता है जबकि शहनाई वादक खड़ा रहता है। ढोल वादक की श्रेणी अलग होती है, क्योंकि वह प्रस्तुति का संचालन करता है और उसकी वही भूमिका होती है जो यक्षगान में भागवतर होती है । वह जाकर पात्र से मिलता है, उसके साथ साथ चलता है, उसका मार्गदर्शन करता है, उसे रोकता है और उसे यह तक बताता है कि उसका नृत्य क्षेत्र कहां तक है।
अंतिम व्यवस्था बहुत उत्तम युक्ति है, विशेषकर उन नर्तकों के लिए जो मुखौटा पहनकर नाचते हैं और मुखौटा पहनने के कारण जिनकी दृष्टि सीमित हो जाती है। यदि ढोल वादक अपने स्वरों और लयात्मक ध्वनियों से उनकी सहायता और मार्गदर्शन न करे तो वे आसानी से गिर सकते हैं। गायक की भूमिका के विषय में हम बता चुके हैं। लय संरचना जटिल होती है, यद्यपि हिंदुस्तानी कर्नाटक संगीत के तालों के समानांतर कोई योजना यहां दिखाई नहीं देती ।
पुरुलिया छऊ की नृत्य शैली और अन्य छऊ नृत्य शैलियों में कुछ समानताएं अवश्य हैं, किंतु समग्र रूप से पुरुलिया छऊ की अपनी विशिष्ट अंग संचालन पद्धति है जो अत्यधिक संरचनाबद्ध और कठिन है ।
स्थिर स्थिति में अर्धमंडली मयूरभंज छऊ और पुरुलिया छऊ दोनों में समान रूप से मिलती है। अनेक प्रवेश मुद्राएं या शस्त्र ग्रहण की रीतियां भी एक-सी हैं। परंतु समानताएं यहीं समाप्त हो जाती हैं। वस्तुतः इतना ही कहा जा सकता है कि दोनों में सामरिक स्वरूप की समानता है । विभिन्न पात्रों की चाल में वैसी ही विशिष्टता आवश्यक है जैसी कि यक्षगान में आवश्यक समझी जाती है ।
नायक, भगवान, आदिवासी, राक्षस, पशु और पक्षी – ये सभी रंगमंच पर आते हैं। प्रत्येक के लिए विशिष्ट मुद्रा और चाल है जो नाट्यशास्त्र के स्थान, मंडल और गति हैं। पशुओं का चारों पांव से चलना अन्य नृत्य शैलियों की अपेक्षा अधिक यथार्थ रीति से दिखाया जाता है। पक्षी फुदकते और कूदते हैं। शरीर के सभी अंगों से काम लिया जाता है । जहां महान व्यक्ति और भगवान तनकर खड़े होते हैं और लंबे तिरछे डग भर कर चलते हैं, वहीं राक्षस अक्खड़ और घमंडी होते हैं ।
शिकारी शिकार पकड़ने के लिए तिरछे और दबे पांव चलते हैं। परंतु अंग संचालन की विभिन्न इकाइयां पहचानी जा सकती हैं जो अन्य दो छउओं की उफली और टोपका से मिलती हैं। घुटनों के बल चलना, घुटनों के बल घिरनी खाना – यह क्रिया अन्य छउओं में नहीं दिखाई देती किंतु यक्षगान की मुंडी गति में मिलती है। इसके अतिरिक्त अन्य क्रियाएं हैं – मछली का लहराना, हंस का तैरना, कछुए का रेंगना, लहराना और गोता मारना जो मयूरभंज छऊ के ‘उस्का’ और ‘दुबा’ के अनुरूप हैं ।
हस्ताभिनय का प्रयोग कम से कम किया जाता है। संपूर्ण शरीर या टांगों के संचालन द्वारा भाषाभिव्यक्ति की जाती है । यह विशेषता तीनों छउओं में समान रूप से दृष्टिगत होती है। गति या चाल से ही विशेष चरित्रों से संबद्ध अंगविक्षेप की इकाइयां विकसित होती हैं। इनमें गणेश, दुर्गा, शिव, परशुराम, हनुमान, अर्जुन आदि के विशिष्ट अंगविक्षेप सम्मिलित हैं । क्रिया के द्योतक अंगविक्षेपों का एक अलग वर्ग है। आक्रमण और प्रतिरक्षा का द्योतन करने वाले अंगविक्षेप अनेक है। इनका सर्वाधिक प्रभावशाली प्रयोग नाटक के चरमोत्कर्ष की स्थितियों में होता है, जैसे- राम और रावण के अंतिम युद्ध में या अभिमन्यु के अंतिम युद्ध में ।
घिरनी खाने और घूमने की अनेक क्रियाएं निष्पन्न की जाती हैं और कूद तथा छलांग इस शैली की सर्वोत्कृष्ट विशेषताएं हैं। विस्मयकारी अभिनेता का छलांग लगाना और जमीन पर घुटनों के बल टिकना इस नृत्य नाटक की एक अनोखी विशेषता है। ऊपरी घड़ और धड़ के नीचे के अंगों का विक्षेप यहां मयूरभंज छऊ से एकदम भिन्न है।
जहां मयूरभंज छऊ में गत्यात्मक संप्रेषण के लिए टांग बढ़ाने और प्रभावशाली ढंग से घुटने मोड़ने का आश्रय लिया जाता है, वहीं पुरुलिया छऊ में गत्यात्मकता का आभास देने के लिए घुटने फैलाने, ‘चौक’ और ऊंची छलांग तथा कूद का आश्रय लिया जाता है ।
अर्ध-प्रकाश के वातावरण में ये सब मुकुटों की पन्नियों की चमक के साथ मिलकर एक पारलौकिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं । चमकते दमकते मुखौटे और मुकुट उन पोशाकों के एकदम विपरीत दिखाई देते हैं जो प्रायः बेल बूटों में खो जाते हैं । बहुधा दर्शक को केवल एक मुखौटे का आभास होता है जैसे वह आकाश से टपक पड़ा हो।
हाथ या मुख या गर्दन निष्पन्न किये जाने वाले कुछ लघु अंगविक्षेप भी हैं। इनमें से दो बहुत लालित्यपूर्ण हैं और छलांग तथा कूद से उत्पन्न प्रभावों को उतारने में सहायक हैं। उदाहरण के लिए, सिर की एक गति का उल्लेख किया जा सकता है जो बहुत नियंत्रित और नाजुक होती है। यह गर्दन और सिर की एक पाश्विक गति है जिसमें शरीर के अन्य अंग जानबूझ कर स्थिर और लगभग तने हुए रखे जाते हैं ।
नर्तक- अभिनेता के शरीर का शेष भाग जैसे एकदम अकड़ कर गतिहीन हो जाता है और केवल गर्दन और सिर की विशेष गति से विषाद और निःशब्दता के क्षणों की सृष्टि की जाती है। विद्वानों और कला आलोचकों ने इस गति के कारण ही पुरुलिया छऊ और बाली के नर्तकों के बीच समानताएं देखने का प्रयास किया है । परंतु यह कुछ दूर की कौड़ी लाने जैसी बात है, क्योंकि इन दो नृत्य परंपराओं में कोई अन्य समानता नहीं है । कोई भी अन्य अंग संचालन उस प्रकार से महत्वपूर्ण नहीं है जिस प्रकार सिर का और कंधों की गति में भी कंधे को गोलक और उल्खल संधि की गति द्वारा एक अत्यधिक नियंत्रित स्पंदन का निष्पादन किया जाता है।
वक्ष से भी कभी कभी काम लिया जाता है और इसमें धड़ को सधा तना हुआ रखने की बजाय जल्दी जल्दी और बार बार आगे पीछे किया जाता है जिससे पारंपरिक भारतीय रंगमंच उत्तेजना भाव की अभिव्यक्ति होती है। यह गति पर्शुका पेटी के निम्न भाग से आरंभ होती है और ऊपर वक्ष तक जाती है । इस प्रकार के अंग संचालन पुरुलिया छऊ के विशिष्ट अंग संचालन हैं जो भारत के अन्य नृत्य रूपों की अभिव्यंजना पद्धति में दिखाई नहीं देते।
मुखौटों की विशिष्टता का उल्लेख किये बिना इस शैली का सर्वांगपूर्ण विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। हम पहले कह चुके हैं कि सेराएकला और पुरुलिया छऊ दोनों में मुखौटों का उपयोग किया जाता है जबकि मयूरभंज छऊ में मुखौटों का उपयोग नहीं किया जाता । नृत्य नाटक की इन विभिन्न शैलियों में मुखौटे तैयार करने और उन्हें पहनने की विधियां तथा चरित्र के प्रकार भिन्न भिन्न हैं ।
सेराएकला छऊ के मुखौटे निष्कोण तथा चिकने शैलीकृत और भव्य होते हैं। इनमें एक प्रकार की परिष्कृति होती है जो संभवतः इस नृत्य शैली के विकास से संबद्ध सामाजिक-आर्थिक परिवेश की द्योतक है। चेहरे पर कोई झुर्रियां नहीं होतीं । खींची गयी रूपरेखाएं चिकनी और निष्कोण होती है। आंखों में अभिव्यंजकता होती है, यद्यपि उनका चित्रांकन यथावत् नहीं होता। नाक-नक्शे के अन्य पहलुओं के विषय में भी यही बात कही जा सकती । रंगों के प्रयोग में प्रतीकात्मकता होती है।
पुरुलिया छऊ में एक ही तरह के चरित्रों के लिए सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। इनके मुखौटे सजीव प्राणियों के नाक-नक्शे का आभास देते हैं। कभी कभी इनमें ऐसा अनगढ़ पुरुषत्व दिखाई देता है जिसमें कोई कोमलता या लालित्य नहीं होता । मुखौटे चुस्त और चेहरे पर कसे हुए होते हैं । आकार में बड़े नहीं होते । वस्तुतः देखने में वे चेहरे से कुछ छोटे ही दिखाई देते हैं । परंतु मूंछों, दांतों, बालों और ठुड्डी, माथे तथा अन्य भागों की रेखाओं के साथ अपनी भयावहता- में वे विचित्र रूप से वास्तविक प्रतीत होते हैं।
रावण का मुखौटा क्षैतिज क्रम से रखे दस सिरों से तैयार किया जाता है। इस प्रकार का मुखौटा पहनकर और इससे भी कुछ भारी मुकुट धारण करके छलांग लगाने और कूदने के लिए अभिनेता का निस्संदेह बहुत शक्तिशाली और संतुलन बनाये रखने की अद्भुत क्षमता से संपत्र होना आवश्यक है । इसी प्रकार कुम्भकर्ण मुखौटे में गंदे और घने बाल, गुर्राहट भरा मुंह और दाढ़ी आदि होते हैं जिनके कारण वह सचमुच एक राक्षस का चेहरा प्रतीत होता है ।
यक्षगान के राक्षस या मैसूर शैली के भूत का मुखौटा भी उतना ही डरावना होता है, तथापि दक्षिण भारत की नृत्य शैलियों की रूप सज्जा की विधियों की तुलना में पुरुलिया छऊ के मुखौटों में कुछ ऐसा तत्व है जो आदिम-सा प्रतीत होता है । स्वभावतः राम, अर्जुन और कृष्ण के मुखौटे सौम्य और शांत चेहरे का आभास देते हैं। यहां भी पेस्टल की हल्की, शांत आभा का प्रयोग नहीं किया जाता। राम, अर्जुन और कृष्ण के मुखौटे गहरे नीले रंग के होते हैं। जहां तक रंग की प्रतीकात्मकता का संबंध है दक्षिण भारत और पूर्वी भारत, विशेषकर पुरुलिया छऊ के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है ।
दक्षिण भारत के लगभग सभी नृत्य रूपों में उदात्त व्यक्तियों का धीरोदात्त नायकों के लिए हरे रंग का विधान है। यहां नीला ही आधारभूत रंग है। संभवतः इसका कारण यह मान्यता है कि विष्णु का रंग नीला था। शिव के लिए सफेद मुखौटे का प्रयोग किया जाता है। उनकी केश कुंडली वास्तविक प्रतीत होती है और सर्प कुंडली उससे भी अधिक वास्तविक । परिधान के रूप में यह केवल हिरण की खाल ओढ़े रहते हैं।
यह एक रोचक तथ्य है कि यद्यपि भारत के विभिन्न भागों में एक-से ही देवी देवता, राक्षस और उदात्त नायक तथा योद्धा हैं तथापि प्रत्येक क्षेत्र ने अपने अपने ढंग से उनकी व्याख्या और विश्लेषण किया है । इस प्रकार वे एक ऐसे विश्व दर्शन के द्योतक हैं जो समोद्भव तो हैं किंतु जिसमें समरूपता नहीं है । अन्य नृत्य नाटकों की भांति पुरुलिया छऊ में भी नारी पात्रों की प्रस्तुति सहज रूप से ही की जाती है और कभी कभी रूप सज्जा तो होती है, किंतु किसी मुखौटे का उपयोग नहीं किया जाता । कथकलि की भांति ही यहां भी साधारण चरित्रों से संबद्ध परिपाटियों का निर्वाह किया जाता है।
पुरुलिया छऊ में पशु, पक्षियों के पूरे शरीर के लिए मुखौटा या आवरण होता है। उदाहरण के लिए, वराह उसकी भूमिका करने वाले अभिनेता के चेहरे पर केवल सूअर का मुखौटा ही नहीं होता, वह पशु की भांति चारों पांव से चलता भी है और उसकी पीठ पर सूअर की खाल पड़ी रहती है। अन्य मिथकीय पशुओं, विशेषकर सांप और कछुए की भूमिका करने वाले अभिनेता केवल पशुओं की तरह चारों पांव से ही नहीं चलते। वे पेट के बल रेंग भी सकते हैं ।
पक्षियों की भूमिका करने वाले भी पंख, सिर और चेहरे के मुखौटे तथा ऐसी वेशभूषा धारण किये रहते हैं जिससे कि पक्षी के शरीर आभास हो सके। इस दृष्टि से पुरुलिया छऊ में एक ऐसी परंपरा मिलती है जो भारत के अन्य भागों से लुप्त हो चुकी है। नाट्यशास्त्र में एक पूरा अध्याय है जिसमें बताया गया है कि लोकधर्मी परंपरा में किस प्रकार मुखौटे और खाल ओढ़ कर पशु पक्षियों का अभिनय किया जाता है। पुरुलिया छऊ में हम जो कुछ देखते हैं वह संभवतः इसी परंपरा की निरंतरता है ।
मुद्राओं, प्रवेश और चालों की भांति ही अभिनेताओं के मुखौटों और मुकुटों में भी शैलीकरण और वैचित्र्य देखा जा सकता है । सेराएकला छऊ में विविध प्रकार के मुखौटे और अनेक चरित्र वर्ग हैं किंतु बड़े आकार के मुकुट या शिरोभूषण नहीं हैं। पुरुलिया छऊ में विभिन्न पात्र अलग अलग प्रकार के मुकुट पहनते हैं। यद्यपि ये मुकुट बनावट में यक्षगान या कथकलि के मुड्डियों की भांति जटिल नहीं होते, फिर भी इनकी अपनी विशिष्टता और जटिल बनावट होती है।
एक आधारभूत ढांचे में कृत्रिम पत्री के टुकड़े, मोती, रिबन आदि टांक दिये जाते हैं जो विभिन्न चरित्रों के लिए अलग अलग डिजाइन के होते हैं । अर्ध-प्रकाश के वातावरण में इन मुकुटों को धारण किये जब अभिनेता कंपन गति का प्रदर्शन करता है तो प्रकाश और छाया का एक अद्भुत प्रभाव उत्पन्न होता है। अभिनेता सदा ही इसका प्रयोग नाटकीय प्रयोजन से करता है।
पुरुलिया छऊ की पोशाकें एक और ही कहानी कहती हैं। यह है अनेक काल खंडों के सहअस्तित्व की कथा । जहां मुखौटे और मुकुट समयहीन आदिम तत्वों का आभास देते हैं, वहीं पोशाकें और वस्त्र निश्चित रूप से समय सापेक्ष हैं । छक पात्रों के ऊपरी वस्त्र बहुत अलंकृत होते हैं और 16वीं तथा 17वीं शताब्दी के वस्त्रों का आभास देते हैं।
दक्षिण भारत के कुछ नाट्य- रूपों के साथ भी ऐसा ही है, विशेषकर यक्षगान और मेलतुर भागवतमेला के आधुनिक रूपों में। ऐसा प्रतीत होता है कि 17वीं शताब्दी या 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरणों में नवाब और राजा जो वस्त्र धारण करते थे उनका पुरुलिया छऊ पारंपरिक भारतीय रंगमंच पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है और उसने इनको ही अपने प्रयोजन के अनुकूल कर लिया है।
घड़ पर पहने जाने वाले अलंकृत वस्त्रों से एकदम विपरीत स्थिति यहां दिखाई देती है । पट्टियों की धारियों का एक निश्चित स्वरूप होता है और उनमें प्रीताकात्मकता भी होती है। देवताओं और नायकों के वस्त्रों की धारियां हरी और पीली होती हैं, राक्षसों की काली और लाल और विश्वामित्र तथा हनुमान जैसे चरित्रों की सफेद ।
अत्यधिक बेमेल तत्वों का विचित्र मिश्रण दिखाई देता है। फिर भी, एक स्वतंत्र शैली विकसित होती है । पुरुलिया छऊ की यह विशेषता रंगमंच पर पहले पात्र के आते ही दर्शक को आकर्षित करती है। भारत के अन्य नृत्य रूपों तथा नृत्य नाटकों में भी इसी प्रकार के बेमेल तत्वों का मिश्रण हुआ है।