Panvare परमार वंशीय, क्षत्रियों के पौरुष के आधार पर रचे गये हैं। पंवारों का नामकरण परमार वंशीय क्षत्रियों की लोक गाथाओं के आधार पर हुआ है। ये गाथाएँ प्रारंभ में परमार वंशीय क्षत्रियों तक सीमित रही होंगी। धीरे-धीरे ये हर वीर क्षत्री के शौर्य के वर्णन के लिए लिखी जाने लगी। पंवारों में मुख्यता: यश गाथाएँ गाईं जाती हैं। हर भजन में आदि-शक्ति की महिमा का गायन किया जाता है।
बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा पंवारे
Folk-Saga Of Bundelkhand
पंवारे की परंपरा
पंवारे के संबंध में यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि यह शब्द कहाँ से आया है? ब्रज-अंचल में पंवारे का अर्थ झगड़ा या झंझट है। इसे युद्ध का पर्याय भी कहा जा सकता है। कुछ विद्वानों ने पंवारे को परमार वंश से संबंधित माना है। परमार वंशीय क्षत्रियों का प्रमुख कार्य युद्ध ही था। वे युद्ध करते-करते सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देते थे और अंत में वीरगति को प्राप्त हो जाते थे।
धीरे-धीरे उनकी जाति युद्ध का पर्याय बन गई और उनकी वीर गाथाओं का नाम पंवारे पड़ गया। अतः अब यह निश्चित ही किसी वीर के शौर्य का वर्नन किया जाता है। कुछ समय बाद यह शब्द युद्ध के अर्थ में रूढ़ हो गया। परमार वंश के पश्चात हर क्षत्रिय के शौर्य का वर्णन पंवारों के रूप में होने लगा। ये सबकी सब ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी जाने वाली लोक गाथाएँ हैं। इनमें जिन पात्रों का वर्णन होता है वे पात्र ऐतिहासिक ही होते हैं। कल्पना के मिश्रण से उनको रोचक बनाया जाता है।
जब कभी इनका ऐतिहासिक विश्लेषण किया जाता है, तो कल्पना अधिक होने के कारण अप्रामाणिक से प्रतीत होने लगते हैं। इसमें गाथाकार दोषी नहीं है। कल्पना और लोक रूचि के कारण इस प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। कुछ घटनाएँ और कुछ तिथियाँ इतिहास से तालमेल नहीं खाती। पंवारों की संख्या अनेक हैं। किसी भी क्षत्रिय की शौर्य गाथा का नाम पंवारा रख दिया गया, जबकि पंवारों का नामकरण परमार वंशीय क्षत्रियों की लोक गाथाओं के आधार पर हुआ है।
ये प्रायः वीर क्षत्रीय शक्ति के उपासक रहे हैं। माँ शक्ति की ही कृपा से उनमें शौर्य और शक्ति का संचार हुआ था। आल्हा- उदल माँ हिंगलाज के भक्त थे। छत्रपति शिवाजी और महाराज छत्रसाल युद्ध में जाने से पहले शक्ति की आराधना किया करते थे। उन दिनों पशुबलि और नरबलि की प्रथा थी। कभी-कभी कोई भक्त माँ के चरणों में अपना शीश भी काटकर चढ़ा देता था।
ब्रज और बुंदेलखंड में जगदेव कौ पंवारों बहुत ही लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। जगदेव ने देवी जी को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर काटकर चढ़ा दिया था। किन्तु देवी जी की कृपा से उनके धड़ में से नया सिर उत्पन्न हो गया था। बुन्देलखण्ड के पंवारे में तो यह कहा गया कि जगदेव के धड़ पर जब सिर रखा गया, तभी वह जीवित हुआ था।
किन्तु पंवारे में तो यह बताया गया कि जगदेव के धड़ में से नया सिर उत्पन्न हुआ था। उसका सिर तो हवन कुण्ड में जलकर भस्म हो गया था। जगदेव देवी जी का अनन्य भक्त था। इसी कारण से जगदेव के पंवारे का गायन देवी जी के गीतों के साथ किया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगदेव के अतिरिक्त अमरसिंह, अमानसिंह और सुजानसिंह के पंवारे गाये जाते हैं। कारसदेव की गोटों के साथ कारस की वीर गाथा भी पंवारे का ही रूप हैं।
ब्रज में जगदेव, अमरसिंह, बलवंत, जयमाल, फतेहसिंह और होमपाल नाम के पंवारे गाये जाते हैं। ये सब के सब वीर रस के उत्तम उदाहरण हैं। इनमें युद्ध कौशल का सुंदर चित्रण है। ये गाथाएँ प्रारंभ में परमार वंशीय क्षत्रियों तक सीमित रही होंगी। धीरे-धीरे ये हर वीर क्षत्री के शौर्य के वर्नन के लिए लिखी जाने लगी। इन पंवारों का गायन प्रायः नवरात्रि के अवसर पर किया जाता हैं।
बुन्देलखण्ड के काछी, लोधी और बुनकर जाति के लोग नवरात्रि के अवसर पर ढोलक, नगरिया, झेला, झाँझें आदि लोक वाद्यों के साथ गाया करते हैं। लोग इन्हें ‘भक्तें’ या भजन कहते हैं। हर भजन के अंत में ‘राजा जगत से माँ भले हो माँय’ कहा जाता है। नवरात्रि के अवसर पर जवारे बोये जाते हैं। रोज रात्रि में गाँव के लोग एकत्रित हो जाते हैं और गाते-गाते नाचने भी लगते हैं।
कभी-कभी घुटनों के बल खड़े हो जाते हैं। इनके गायन के लिए एक विशेष लोकध्वनि निश्चित होती है। दूर से सुनकर लोग अनुमान लगा लेते हैं कि अमुक स्थान पर भक्तें हो रहीं हैं। पंवारों में देवी जी के भक्तों की गाथाएँ होती हैं। उनमें कभी पाण्डवों, कभी आल्हा- उदल और कभी राजा जगदेव की यश गाथाएँ गाईं जाती हैं। हर भजन में आदि-शक्ति की महिमा का गायन किया जाता है।
पंवारे की उत्पत्ति और विकास
कुछ गाथाओं का नामकणर जाति-विशेष के आधार पर किया जाता है। पंवारे ‘परमार वंशीय’, क्षत्रियों के पौरुष के आधार पर रचे गये हैं। राजपूत काल में क्षत्रियों का मुख्य कार्य युद्ध करना था। अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए राजपूत घमासान युद्ध करते रहे हैं। अपनी आन-बान और मर्यादा की रक्षा के लिए राजपूत क्षत्राणियाँ जौहर करतीं रहीं हैं। सच्ची वीरांगना बनकर युद्ध में शत्रुओं के छक्के छुड़ाती रही हैं।
उन महान वीरों की पौरुष गाथाएँ आज किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं। मौखिक परंपरा और कल्पना की उड़ान के कारण ऐतिहासिक तत्त्व विलीन सा हो गया है। लोग उन्हें कोरी कल्पना कहकर उपेक्षित दृष्टि से देखने लगे हैं, किन्तु वे सबकी सब किसी न किसी रूप में इतिहास से संबंधित अवश्य हैं। इन सबके विकास क्रम का आकलन कालों के आधार पर किया जा सकता है।
महाभारत काल
समस्त महाभारत कौरवों और पाण्डवों की कथाओं से भरा पड़ा है। यह कथाओं का महासागर है। यह प्राचीन इतिहास का एक प्रमुख ग्रंथ है। यह युद्ध का पर्याय है। इसमें युद्धों का सर्वाधिक वर्णन है। कुछ विद्वान इसे अनीति पर नीति की विजय और अधर्म पर धर्म की विजय मानते हैं। भगवान कृष्ण की कूटनीति के कारण कौरवों के कुचक्र पर पानी फिर गया और अंत में महाभारत युद्ध हुआ, जिसमें भारी जन-धन की हानि हुई, किन्तु अंत में धर्म की ही विजय हुई।
अनाचार और अनीतियों के प्रतीक कौरवों का सर्वनाश हुआ था। मुख्य कथा के अतिरिक्त अन्य लघुकथाओं का महासागर है यह ग्रंथ सैकड़ों महाकाव्यों, नाटकों, उपन्यासों और कथाग्रंथों का रचनाकार है, यह विशाल ग्रंथ महाभारत। फिर यह सारा लोक साहित्य इससे अछूता कैसे रह सकता है। हर अंचल के हजारों लोकगीत, लोक कथाएँ और लोक गाथाएँ इस मूल्यवान सामग्री से भरी पड़ी हैं। महाभारत के अन्य कथानकों के आधार पर सैकड़ों लोक कथाएँ और लोक गाथाएँ सारे उत्तर भारत में बिखरी पड़ी हैं।
मौर्य काल
ऐतिहासिक दृष्टि से इसका समय ईसा-पूर्व चैथी सदी माना गया है। जैन जनश्रुति के आधार पर कुछ विद्वानों का कथन है कि चन्द्रगुप्त एक ऐसे गाँव के प्रधान की कन्या का पुत्र था, जहाँ मुख्य रूप से मौर्य निवास करते थे। इसी कारण से उस वंश का नाम मौर्य रखा गया है। मौरिय का संस्कृत रूप मौर्य है। मौर्यों का राज्य कोलियों के राज जनपद और मल्लों की राजधानी कुशीनगर के मध्य स्थित था।
मध्यकालीन ग्रंथों में भी मौर्यों को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। इस वंश का सबसे अधिक पराक्रमी और शक्तिशाली राजा चन्द्रगुप्त मौर्य हुआ है। वह तत्कालीन श्रेष्ठ अर्थशास्त्री एवं राजनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य को अपना गुरू मानता था। वह अपने पिता के हत्यारे नंद से बदला लेना चाहता था, उसने अपने शौर्य के द्वारा नंद का वध किया और मगध का सम्राट बन गया।
उसी समय विश्व विजेता बनने की महत्वाकांक्षा लिए सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया। चंद्रगुप्त तो गुरूदेव जी के मार्ग दर्शन में युद्ध के लिए तैयार ही था। उसने प्राणों की बाजी लगाते हुए वीर सिकंदर का सामना किया और उसके प्रधान सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके पीछे लौटा दिया। वह एक सहज राष्ट्रभक्त और महावीर सिद्ध हुआ।
सेल्यूकस, चंद्रगुप्त से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी पुत्री कोर्नलिया का विवाह उसके साथ कर दिया। इस प्रकार दो संस्कृतियों का समन्वय हुआ और मेगस्थनीज भारतीय राजदूत के रूप में भारत में ही निवास करने लगा। अनेक कवियों, नाटककारों और उपन्यासकारों ने चंद्रगुप्त मौर्य की राष्ट्रभक्ति और समन्वयवादी सिद्धांतों को साहित्यिक स्वरूप प्रदान किया है। समस्त उत्तर भारत में उनसे सम्बन्धित लोक गाथाएँ भरी पड़ी हैं।
गुप्तकाल
ऐतिहासिक दृष्टि से इस काल का समय तीसरी शताब्दी माना गया है। इस साम्राज्य का संस्थापक चंद्रगुप्त था। गुप्तों को इतिहासकार क्षत्रिय मानते हैं। वे लिच्छिवि वंश के क्षत्रिय थे। चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद समुद्रगुप्त शासक बना। वह एक महान विजेता था। उसकी दिग्विजयों के कारण ‘विंसेन्ट स्मिथ’ ने उसे भारतीय नेपोलियन की पदवी से सुशोभित किया था।
वह स्वयं एक महान विद्वान और अपने दरबार में विद्वानों का सम्मान करता था। वह कवि था। जन-कल्याण के लिए सुंदर कविताओं की रचना करता था। वह श्रेष्ठ शास्त्रीय संगीत का पंडित था। उसकी मुद्राओं में वीणा के चित्र अंकित थे। प्रेम, करुणा और उदारता की वे जीती-जागती प्रतिमा थे। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उनका पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय सिंहासन पर बैठा। उस समय उसे अनेक शत्रुओं से जूझना पड़ा।
उन्होंने अपनी शक्ति और शौर्य के बल से अपने राज्य का विस्तार किया। उनका राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी तक, उत्तर में हिमालय की घाटियों तक, पूर्व में बंगाल से लेकर काठियावाड़ तक फैला हुआ था। वे चंद्रगुप्त-विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध थे। वह एक न्यायप्रिय, विद्वान और प्रजापालक शासक थे। उनके दरबार में विद्वानों का मेला लगा रहता था। उनके दरबार के नवरत्न प्रसिद्ध थे, जिनमें भवभूति, कालिदास और धन्वन्तरि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
उन्होंने अपने राज्य की राजधानी उज्जयिनी को बनाया था। सारा का सारा संस्कृत साहित्य उनकी यश गाथाओं से भरा पड़ा है। सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी और विक्रम चरित्र नाम के ग्रंथ तो उनके ही चरित्र के आधार पर लिखे गये हैं। देश का आंचलिक साहित्य उनसे बहुत प्रभावित रहा है। न जाने कितनी लोककथाएँ, लोकगाथाएँ उनके चरित्र को उजागर करती हैं।
बुन्देलखण्ड में ऐसी अनेक लोक कथाएँ और लोक गाथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें विक्रमादित्य के चरित्र की विशेषताओं का वर्णन है। विक्रम कौ सिंहासन, विक्रम कौ न्याय, विक्रम और कालिदास के प्रसंगों पर आधारित अनेक गाथाएँ प्रचलित हैं। इस क्षेत्र में ऐसे अनेक लोकगीत गाये जाते हैं, जिनमें विक्रम की उदारता, दया और परोपकार के उदाहरण भरे पड़े हैं।
वर्धनकाल
ईसा की छठी शताब्दी में वर्धन साम्राज्य का शुभारंभ हुआ। गुप्त साम्राज्य के पश्चात् भारत में बहुत समय तक ऐसी सार्वभौम सत्ता का अभाव रहा है, जो भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने में सक्षम होती। अनेक वर्षों के बाद भारत में वर्धनकाल आया, जिसका संस्थापक ‘पुष्पभूति’ था। वह शिव का उपासक था।
इसके बाद उसका पुत्र ‘नरवर्धन’ राज्य सिंहासन पर बैठा। आदित्य वर्धन की मृत्यु के बाद प्रभाकर वर्धन नाम का यशस्वी और शक्तिशाली राजा हुआ, उसने थानेश्वर को अपनी राजधानी बनाई थी। उसे महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया था। उसकी सभा में संस्कृत के श्रेष्ठ कथाकार विद्यमान थे, जिनमें बाणभट्ट का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सन् 605 में प्रभाकर वर्धन की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय थानेश्वर के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। उसने अनेक युद्ध किए और अपने राज्य का विस्तार कान्यकुब्ज से लेकर बंगाल तक कर लिया। अंत में कुचक्रों में फंसकर उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उनका लघु भ्राता ‘हर्षवर्धन’ थानेश्वर के राज्य सिंहासन पर बैठा।
वह एक प्रतापी राजपूत वीरों के शौर्य और क्षत्राणियों की जौहर गाथाओं से भरा पड़ा है। अवध प्रान्त में अवधी लोक-गाथाओं के आधार पर सूफी काव्य की संरचना हुई है। राजस्थान में ऐसी अनेक गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें राजपूतों के शौर्य और आत्म बलिदान का विस्तृत वर्णन है। बुन्देलखण्ड की मथुरावली, ब्रज की चंद्रावली, भोजपुरी की कुसुमादेवी और राजस्थान की भगवती देवी की बलिदान गाथाएँ राजपूत काल से ही संबंधित हैं।
इस काल में प्रतिहार, गहरवार, चैहान, चंदेल, चालुक्य, कलचुरी और परमार वंश के क्षत्री राजा विशेष प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रतिहारों में महेन्द्रपाल, गहरवारों में जयचंद, चैहानों में दिल्लीपति पृथ्वीराज चैहान, चंदेलों में राजा परमाल, चालुक्यों में पुलकेशी, कलचुरियों में लक्ष्मी कर्ण और परमारों में धार नरेश भोज बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। इन समस्त वीरों की लोक गाथाएँ सारे उत्तर भारत के अंचलों में गाईं जाती हैं।
आदिकालीन रासो ग्रन्थ भी लोक गाथाओं के ही स्वरूप हैं। उनकी रचना उन दिनों चारण और भाट कवियों ने की थी, जो दरबारी कवि थे। चंद्रबरदायी ने पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह ने वीसलदेव रासो और जगनिक ने परमाल रासो की रचना की थी। ये मूलतः आंचलिक गाथाएँ हैं, जो थोड़े बहुत अंतर के बाद रासो ग्रंथों के रूप में प्राप्त होती हैं।
मौखिक परंपरा और कल्पनिकता के कारण उनकी ऐतिहासिकता कुछ विद्रूप सी हो गई है। कुछ लोकगाथाएँ जातीयता के आधार पर निर्मित हुई हैं। जैसे चंदेलों के शौर्य पर आधारित आल्हाखण्ड, चैहानों की वीरता के आधार पर पृथ्वीराज रासो और परमारों की वीरता पर आधारित जगदेव के पंवारे की रचना की गई थी।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’
मुझे संपादन में अभी कमियाँ महसूस हो रही हैं और शोध साहित्य में क्रोनोलॉजी से सम्बंधित भी कुछ दिक्कत नज़र आ रही है. जब तक मूल को उसकी क्रिटिकल एनालिसिस के साथ प्रस्तुत नहीं किया जायेगा तब तक यह सब एक जगह इकट्ठा किया हुआ दोहराव ही होगा. इसके साहित्यिक और संस्कृत मूल्य के संवर्द्धन के लिए नयी दृष्टि से काम करेंगे तो इसका अकादमीय मूल्य बेहतरीन होगा.
जी आदर्णीय मुझे भी यही कमी महसूस हो रही है पहले दिन से …मै साहित्यकार नही हूँ बस कुछ पुस्तकों से संग्र्ह किया है. मै जल्द ही सारी पोस्ट को रिव्यू कर बेहतर सम्पादन की कर प्रस्तुत करूंगा. आपने लिखा मुझे बहुत खुशी हुई. इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें …..धन्यवाद