Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यPadmashri Awadh Kishor Jadiya Ki Rachnayen पद्मश्री अवध किशोर जड़िया की रचनाएं

Padmashri Awadh Kishor Jadiya Ki Rachnayen पद्मश्री अवध किशोर जड़िया की रचनाएं

महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में बुंदेली भाषा के लिए अनेक वर्षों से Padmashri Awadh Kishor Jadiya Ki Rachnayen एम.ए. पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं । पद्मश्री अवध किशोर जड़िया का जन्म हरपालपुर में 17 अगस्त 1948 को आलीपुरा स्टेट के राजवैद्य श्री ब्रजलाल जी के घर हुआ।

इनके पिताजी स्वयं अच्छे ज्योतिष के ज्ञाता, वैद्य तथा साहित्य मर्मज्ञ रहे। उन्हीं से साहित्यिक संस्कार डॉ. जड़िया को प्राप्त हुए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा हरपालपुर में ही हुई तथा चिकित्सीय स्नातक डिग्री बी.ए.एम.एस. ग्वालियर विश्वविद्यालय से स्वर्णपदक के साथ 1970 ई. में प्राप्त थी। आपको 2021 मे पद्मश्री सम्मान से भारत सरकार ने सम्मानित किया ।

श्री कृष्ण
अम्बर में कलित कलान कौ करैया होय,
चाँदी कैसो पैया होय अमृत झरैया होय।

रसिक रिसैया होय, ललित मनैया होय,
मानिवे में चाहे कितनी हू हा हा दैया होय।।

आस पास खाश मकरंद कौ दिबैया होय,
सुघर लिवैया कै पराग कौ पिवैया होय।

नेह बरसैया होय और वर शैय्या होय,
झुकी सी डरैया होय चूमत कन्हैया होय।।

आकाश में सोलहों कलाओं में विचरण करने वाला कलाधर चाँदी के पहिया के समान (पूर्ण रूप में) हो तथा जिससे अमृत झरता हो अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण चन्द्र आकाश में हँस रहा हो। रसिया (प्रेमी) रूठने वाला हो और मनाने वाला मनोहर (मनचाहा) हो फिर मनाने और मानने की मनोभिराम प्रक्रिया में कितने ही प्रकार से नायिका की विलास चेष्टायें आदि चोचले हों।

चारों ओर रस से परिपूर्ण पुष्प हों जिन्हें रस-पान कराने की चाह हो और उस पराग को पीने की चाह से युक्त भ्रमर की भ्रमण कर रहा हो। उत्तम शैय्या पर स्नेह की निरन्तर वर्षा करने वाला प्रियतम हो और झुकी हुई डाल को कन्हैया चूम रहा हो अर्थात् प्रेम की आतुरता से श्रीकृष्ण ही में लीन प्रेयसी के नेह-रस का पान कन्हैया (श्रीकृष्ण) कर रहे हों।

कैसो लगै मोरन को मुकुट तिहारे शीष,
तिलक तिहारे भाल कैसो सुसुहात हैं।

कलित कपोल कैसे नासिका निहारी नहीं,
कुण्डल बिहारी के कैसें दरसात हैं।।

कुंद सम दशन मुकुंद के सुने हैं किन्तु,
अधर अरुणारे जाने कैसे लखात हैं।

तेरी मुसकान जाल डाल जात गोपिन पै,
तनक दिखा तो भला कैसे मुसकात है।।

हे कन्हैया! हम देखना चाहते हैं कि तुम्हारे सिर पर मोर पंखों का मुकुट और माथे पर तिलक कैसा लगता है? हमने नहीं देखा कि तुम्हारे गालों का लालित्य कैसा है और तुम्हारी नासिका कितनी सुन्दर है। कानों में कुण्डल पहिनने पर कैसी शोभा बढ़ जाती है? हमने नहीं देखा सुना तो अवश्य है कि तुम्हारे दाँत कुंद के समान श्वेत आभा युक्त है लेकिन अरुणिम अधरों की छटा कैसी दिखती है? यह नहीं मालूम। तुम्हारी मुस्कान गोपियों पर जाल डाल देती है ऐसी अनोखी मुस्कान की उस छटा की एक झलक के दर्शन हमें भी कर दीजिये।

दिवारी
दीपदान दैबे कारी कारी सारी धारी सोई,
मावस की प्यारी अँधियारी आज हो गई।

मौनियाँ सौ मौन साधें, हास फुलझड़िया सौ,
रूप के पटाखा सी नियारी आज हो गई।।

साक्षात लक्ष्मी सी गुण गरवीली लगै,
देखि देखि मति ये पुजारी आज हो गई।

देह दुतिमान अंग अंग दीप प्रतिमान,
ज्योतिमान् नायिका दिवारी आज हो गई।।

नायिका को दीपावली के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए कवि कहता है कि नायिका ने दीपदान करने की चाह हृदय में रखकर काले रंग की साड़ी पहिन ली है मानों अमावस्या की प्यारी कालिमा छा गई हो। दिवारी में मौनियों की साधना की तरह वह मौन धारण किये हुए हैं और कभी हँसकर फुलझड़ियों का दृश्य दरशा देती है।

कभी उसके रूप की आभा से पटाखों का दीप्तिमय प्रदर्शन हो जाता है। सद्वृत्ति की उत्कर्षता और गुण की गहनता से वह प्रत्यक्ष लक्ष्मी जी का रूप लगती है। जिन्हें देखकर मेरी बुद्धि भी उनकी पुजारी बन गई। द्युतिमान (दीप्तियुक्त दिखना) शरीर का प्रत्येक अंग दीपक का प्रतिरूप दिखाई देने से वह प्रकाशमान नायिका दीवाली बन गई है।

बिंदिया है लाल, औ कपोल ज्यों गुलाल,
रेख काजर की कारी हुरयारी जैसी हो गई।

होंठ लाल लाल लागै पान कौ कमाल आज
मानिए दशहरा की त्यारी जैसी हो गई।।

वैसे तो समस्त त्योहारों का प्रतीक मंजु,
रूप देख मति मतवारी जैसी हो गई।

अंग अंग रत्नज्योति छोड़वें अनूठी, जिससे
ये दिव्य देह ही दिवारी जैसी हो गई।।

नायिका के माथे पर लाल रंग की बिन्दी है, गालों की लालिमा से लगता है जैसे गुलाल लगी हो और आँखों में काजल की काली रेखा से उसका समन्वित रूप एक होली खेलती नायिका सा लग रहा है। होठों की लालिमा से लगता है जैसे पान खाने के कारण लाली आई हो और दशहरा मनाने जैसा लग रहा है। उसके शरीर के अंगों और इसकी सजावट के सुन्दर प्रतीकों से सभी त्यौहारों को उसमें देखा जा सकता है। फिर भी, उसके प्रत्येक अंग पर सुशोभित रत्नों का विलक्षण प्रकाश उसकी अलौकिक देह पर दिवाली के समान हो गया है।

अनावृष्टि पर बादलों  से दो शब्द

आये न पयोद तुम मोद में न मोर हुई,
कृषक कसक से कराह भरने लगे।
तुमने न एक बिन्दु दान में दिया है,
उस पै दिनेश कर का उगाह करने लगे।।
अब तो अभाव को हुआ है अहसास,
अब प्राणियों के प्राण परवाह करने लगे।
लक्ष-पतियों को तो मिलेंगे नये नये लक्ष्य,
किन्तु दीन हीन त्राहि त्राहि करने लगे।।

हे मेघ! तुम्हारा आगमन नहीं हुआ जिससे मोरों के मन में प्रसन्नता नहीं आई और किसान लोग हृदय की पीड़ा से हाय-हाय करने लगे। तुमने एक बूँद पानी की दान नहीं की जबकि सूर्यदेव अपनी तपन से कर के रूप में जल वाष्पित कर उगाही कर रहे हैं। अब पानी के अभाव का सभी को पता लगने लगा है और प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गये हैं। लखपति लोगों को तो नवीन मार्ग लाभ के लिये मिल जावेंगे किन्तु दीन दुखी जन रक्षा के लिये चिल्लाने लगे हैं।

होरी

होरी के ठाठ कौ लाग्यो ठटा सो नहीं ठिठकें ठस ठेलती हैं।
कछु दूरहिं सों ललकें ललना, कछु गाल गुलाल सों मेलती हैं।

झकझोरीं गई कछु सो झिझकें झुकि लाज समाज की झेलती हैं।
बन कें बिगरीं बनिता बृज कीं तनकें तन श्याम के खेलती हैं।

होली की धूमधाम और उत्साह से मनाने के लिये झुंड के झुंड लोग एकत्रित हो गये हैं। कुछ के मन में कोई संकोच या डर नहीं है वे सबके बीच में घुसकर एक दूसरे को ढकेलती हैं। कुछ सुन्दरियाँ दूर से ही अपनी लालसा को भावों में व्यक्त कर रही हैं (दूर से ललचा रहीं हैं) और कुछ गालों में गुलाल को लगा रहीं हैं। कुछ ललनायें भय के कारण होली खेलने में संकोच कर रहीं हैं क्योंकि वे पहिले से ही लोगों से बुरा भला सुन चुकी हैं और यही कारण है कि नम्र होकर समाज की मर्यादा में विवश होकर रह रहीं हैं। ब्रज की वनितायें जान-मानकर बिगड़ गई हैं और गर्व से श्रीकृष्ण के शरीर के साथ खेल रही हैं।

ग्रामीण नायिका

चार बजे सें चलै चकिया स्वर चारु चुरीन में गाउतीं नौनीं।
प्रात सों सूर्य की स्वर्णछटा बिच, घूँघट घाल कें डारें ठगौनीं।

दौनी चलीं करिवे कर दौनी ले औ कटि बीच कसें करदौनीं।
पैज न काहु सों पाँवन पैजना गाँवन बीच चली है सलौनीं।

प्रातः चार बजे से आटा पीसने की चक्की चलने की आनंददायक ध्वनि आने लगी और चक्की के मुँह दाना डालते हुए सुन्दरी मोहक स्वर में गा रही है। प्रातःकाल सूर्योदय की स्वर्णिम किरणों के फैलने तक के मध्य काल में घूँघट डाले-डाले ठगौनी उरैन डालती हैं। इसके बाद गाय का दूध दुहने के लिये हाथ में दौनी (गाय का पैर बांधने की रस्सी) लेकर और कमर में करधौनी पहिने हुए जाती हैं। गाँव के बीच में जाती हुई कमनीय सुन्दरी के पैरों में पड़े पैजनों (पैरों का आभूषण) की किसी से बराबरी नहीं हो सकती।

चीकने हाँतन-चीकनो गोबर लीपत है अँगना अँगना।
लीपत है करकें करकें, थपथोरत में खनके कँगना।

चारु से चौक में चौक सुचारु लगी ढिक पोतनी कौ पुतना।
भोरी सी गोरी यही जनवै सजना के लिये ही सदा सजना।

ग्रामीण नायिका अपने चिकने हाथों से प्रांगण में चिकने गोबर का लेपन कर रही है। लेपन की क्रिया वह युक्ति से हाथ कड़ा करके करती है। इसमें थपथपाने (गोबर हाथ से निकालने हेतु धरती पर पटकना पड़ता है) से हाथ में पहिने हुए कंगन आपस में टकराकर मधुर ध्वनि करते हैं। सुन्दर प्रांगण में रुचि-रुचि कर उत्तम चौक बनाने के लिये वह सुन्दरी सफेद माटी से किनारें बना रही है। वह भोली-भाली यौवना यह जानती है कि सभी श्रृँगार एवं साज-सज्जा अपने प्रियतम के लिये ही किये जाते हैं।

हाथन बीच लसै कलशा, सिर पै गगरी पै धरी गगरी।
मंद सी चाल अमंद चले दृग हेरत है अपनो मग री।

डगरी भर देखत है धनिया धनिया बस देखत है डग री।
द्वारे पै घूंघट खोलै तौ लागत शोभा समूल परै बगरी।

ग्रामीण नायिका पानी भरकर लाती है। उसके हाथों के बीच एक कलशा सुशोभित है और सिर के ऊपर एक घट के ऊपर दूसरा घट रखे हुए है। वह धीरे-धीरे चल रही है किन्तु उनके नयन तीव्रता से चल रहे हैं, वह अपना सीधा मार्ग देख रही है। मार्ग में सभी लोग उस सुन्दरी को देख रहे हैं किन्तु वह केवल अपना रास्ता देखती है। घर के द्वार पर जब उसने अपना घूँघट खोला तो ऐसा प्रतीत होता था मानो सम्पूर्ण रूप से सुन्दरता यहाँ बिखर गई हो।

मंडित मोद मठा मद मोरिवे को महि पै रखि कै मटकी।
भावनों लागै सुभावनों तापै कड़ैनियाँ की छवि हू छटकी।

हाथ चलैं तौ बजैं चुरियाँ सँग डोलै किनारी हू घूँघट की।
डोलन देख कें डोलै जिया मटकी हित नारी फिरै मटकी।

आनंद विभोर हुई नायिका दही मथने के लिये जमीन पर मटकी (बड़ा घट) रखती है। मथने की क्रिया करते समय वह बहुत अच्छी लग रही है और मथानी में लिपटी रस्सी का छिटक कर घूमना अनोखी शोभा दे रहा है। जब मथते समय हाथ चलते हैं तो उसकी चूड़ियाँ मधुर ध्वनि में बजती हैं और घूँघट की किनार भी साथ में घूँमती हुई मनोहर लगती है। सुन्दरी मथानी को सम्हाल कर चलाती है ताकि मटकी में मथानी टकरा न जाय इसके लिये उसे स्वयं घूमना पड़ता है इस डोलने की शोभा को देखकर हृदय में भी कम्पन होने लगता है।

रोटी पै साजी सी भाजी धरी पुनि भाजी पिया हित घाल कछौटा।
जूनरी रोटी पै चूनरी ढाँकि कैं हाथ लियें जलपान कौ लोटा।

भाल दिठौनों औ काजर आँख में काँख में दावै सलोनो सौ ढोटा।
मेंड़न पै फुँदकात चली अली नाहीं किशोर सनेह कौ टोटा।

ग्रामीण नायिका रुचिकर बनी भाजी को रोटी (चपाती) पर रखकर अपने प्रियतम को देने भागती है। ज्वार की रोटी पर अपनी चुनरी ढाँके हुए है और हाथ में पानी भरा लोटा लिये है। अपनी बाँह के बीच में अपने छोटे से सुन्दर पुत्र को लिये है जिसके माथे पर काजल का काला दिठौना और आँखों में काजल लगा हुआ है। वह खेत में ऊँचे किनारों पर कूदती-इठलाती चली जा रही है उसकी तरुणाई और स्नेह में किसी प्रकार की कमी नहीं है।

देख्यो धना के धनी नें धना कों सुआवै चली पग देत उतालें।
मैन जगायिवे पैजना बोलत नेह जगायवे घूघटा घालें।

प्रेम बढ़ायिवे कों जलपान औ नेह कौ गेह सुछौना सम्हालें।
आवत है हिय में हुलसी जिय में जुग जानो परेवा से पालें।

प्रियतम ने अपनी प्रियतमा को देख लिया है, जो शीघ्रता से पग रखते हुए आ रही है। कामदेव को जागृत करने के लिये उसके पैजना (पैरों के आभूषण) मधुर ध्वनि कर रहे हैं और हृदय में स्नेह की तरंगें उत्पन्न करने के लिये घूँघट डाले हुए हैं। प्रेम को अधिकाधिक अभिव्यक्त करने के लिये हाथ में जलपान की सामग्री है और साथ में सम्हाल कर बेटे को लिये हुए हैं जो दोनों के लिये स्नेह का घर (केन्द्र बिन्दु) है। वह हृदय में उल्लास लिये हुए और छाती में दो परेवा से पाले हुए आ रही है।

ग्राम्य गरिमा
जागन लागीं हैं गाँव की गोरीं दुलैयां औ भागन लागी तरइंयाँ।
बोलन लागे हैं लाल शिखा के औ खोलन चोंच कों लागी चिरइयाँ।

आयो उजास अकाश पै थान पै देखो रँभान लगीं सगीं गइयाँ।
जैसहि आये दिनेश तौ गाँव के पेड़न की परीं पीरीं डरइयाँ।

आकाश में तारे डूबने लगे (प्रातःकाल की बेला का आगमन) और गाँव की सुन्दर नव वधुएँ जागकर उठने लगीं। मुर्गा बोलने लगा और चिड़िया मुँह खोलने लगीं। आकाश में प्रकाश दिखने लगा और थान (बंधने के स्थान) से गायें लगने के लिये रंभाने (चिल्लाने) लगीं। सूर्य भगवान का जैसे ही आकाश में आगमन हुआ गाँव के पेड़ों की डालों पर पीले रंग की आभा दिखाई देने लगीं।

कौनउँ गेह में बैलन के गले में घनी घंटियाँ बोलती हैं।
कौनउँ गेह में चार बजे चकियाँ अपने मुख खोलती हैं।

दोहनी के समै दूध के पात्र में दूध की धाराएं बोलती हैं।
और कहूँ कहूँ मंजु मथानी मठा मथिवे कों कलोलती हैं।

किसी घर में बैलों के गले बंधी हुई घंटियों की ध्वनि सुनाई देती है और किसी घर में प्रातः चार बजे से आटा-चक्की चलने लगतीं हैं। गायों-भैसों का दूध निकालने का समय होने पर दूध के पात्र में धार के गिरने से होने वाली मधुर ध्वनि सुनाई देती है और कहीं कहीं पर (कुछ घरों में) दही बिलोकर मट्ठा (छाछ) बनाने की क्रिया में पात्र के भीतर चलती मथानी से कल्लोने की मनोहर ध्वनि सुनाई देती है।

ढीलन ढोर किशोर चले कोउ सार उसार कौ फेंकत कूरा।
कोउ जयराम प्रणाम् करै अरु देखो बटोरत पुण्य कौ पूरा।

गइयन कों कोउ जात चरावन, शीष पै पाग कलाई में चूरा।
और बृज की रज सी मुख पै, यह धेनु के पाँव की पावन धूरा।

किशोर अवस्था के बालक जानवरों को छोड़ने के लिये चल दिये, कोई पशुशाला की सफाई करके कूड़ा-कचड़ा बाहर फेंकते हैं। कुछ लोग मंदिर जाकर भगवान को प्रणाम करते हुए पुण्य लाभ ले रहे हैं। कुछ लोग सिर पर पगड़ी और हाथ कलाई में सुन्दर कड़े (हाथ के आभूषण) पहिन कर गायों चराने के चल देते हैं और बृज-राज के समान पावन बुन्देलखण्ड की पावन धूल जो गायों के चरणों को छूकर निकल रही है वह इन गाय चराने वालों के मुख पर लग रही है।

छोटी सी है बखरी बखरी कों भरोसो है बख्खर के बल कौ।
हल कौ रहै साथ तौ भार विशाल किसान कों लागत है हलकौ।

कल कौ रखवारौ है रामधनी इतै कौनउँ काम नहीं छल कौ।
इनकों है सहारौ धरा कौ, समीर कौ, साँई कौ जाह्नवी के जल कौ।।

गाँव का एक छोटा सा परिवार है। उस परिवार के लोगों को अपने बख्खर की शक्ति से ही आशा बंधी है। यदि हल (भूमि जोतने का एक प्रसिद्ध उपकरण) का साथ ठीक से रहे तो किसान को जीवन का भार भी बहुत कम लगने लगता है। भविष्य की रक्षा के लिये ईश्वर साथ में है, ये लोग निश्छल मन के हैं और इनकी ईश्वर में पूरी आस्था है। इनका आश्रय यह धरती, यह हवा, गंगा जी का जल और परमात्मा है।

बोझ कों बाँधि धर्यो सिर पै, अरु काँख में दाबि चली चट छौनों।
छैल सों कै गई आतुर आवे की, नैंन सों मारि गई कछु टोनों।

चाल चलै कछु बोझ हलै चमकै हँसिया दुति देवै सलोनों।
मानहुँ बद्दल के दल बीच सों झाँकत दोज मयंक कौ कोंनों।

गाँव की गोरी ने गट्ठा बाँधकर वह बोझ (वजन) सिर पर रख लिया फिर तुरंत ही बगल में हाथ से अपने बच्चे को ले लिया। अपने प्रियतम से शीघ्र आने के लिए कहते हुए नयनों की बांकी दृष्टि से कुछ जादू सा कर दिया। उसके चलने पर सिर का भार हिलता है और उसमें लगा हुआ हंसिया सुन्दर दीप्ति दे देता है। घूँघट के बीच से दिखता उसका सुन्दर माथा ऐसा लगता है मानो बादलों के बीच से द्वितीया का चन्द्रमा झांक रहा हो।

थान पै डारि कें चारौ सुजान औ जानि कें साँझ सो आई घरै।
दीप उजारत डारि सनेह सनेह सों गेह में दीप्ति भरै।

दीपक एक प्रजारि प्रमोद पगी तुलसी घरूआ पै धरै।
अंचल ले कर सम्पुट में पिय के हित हेतु प्रणाम करै।

ग्रामीण सुन्दरी जानवरों को चारा डालकर एवं सायंकाल का समय देखकर वह तुरंत घर आ गई। तेल डालकर उसने दीपक जलाया और घर के भीतर प्रेम से उजेला कर दिया। एक दीपक जलाकर आनंद और श्रद्धा के साथ तुलसी जी के सामने रखती है और फिर अपनी साड़ी के आंचल को हाथ में मोड़कर अपने प्रियतम के हित के लिये तुलसी जी को प्रणाम किया।

खेत सों आयो किसान सो शान सें सान कें सद्य बना दइ सानी।
बैलन के हित पानी धर्यो पुनि आयो इतै जितै बैठी सयानी।

ज्यों पदचाप सुनी प्रिय की त्यों मयंकमुखी मुरि कैं मुस्क्यानी।
ब्यारी की त्यारी करी तबही अखियाँ जब भूखीं भुखानीं दिखानीं।

अच्छे से मिलाकर सानी (जानवर का भोजन) बना दी। उसके बाद अपने बैलों के लिये पानी रख दिया फिर उस तरफ आया जहाँ उसकी चतुर प्रेयसी बैठी हुई थी। जैसे ही प्रियतम के पैरों के चलने की आहट प्रिया ने सुनी तो उस चन्द्रमुखी ने पीछे मुड़कर देखा और मुस्कराई। फिर उसने आँखों में देखा कि प्रियतम की आँखें भूख की आकुलता प्रकट कर रही है तब उसने रात्रि के भोजन की तैयारी करना प्रारंभ किया।

पूस की रात में फूस के धाम में कामिनी हो गई तूल रजैया।
बंक निशंक ह्नै कंत के अंक में सोहत मानहु दोज जुनैया।

काम करै दिन रात जो खेत में रात में वाम सुकाम करैया।
भोर भयो पर्यंक सों हो गइ लाड़िली मानहु भोर तरैया।

शीत ऋतु में पौष माह की रात्रि है और फूस (चारे-कांस आदि) की मड़ैया (झोपड़ी) बनी है। इसमें प्रियतम के साथ नव यौवना आनंद विहार करते हुए रजाई का भी सुख दे रही है। प्रियतम की गोद में निडर मन से बैठी ऐसी शोभा पा रही है जैसे द्वितीया तिथि का चन्द्रमा हो। जो खेत में रात-दिन परिश्रम करता है उसे विश्राम के क्षण पत्नी के साथ रात्रि में ही मिल सकते हैं। प्रातः होते ही पलंग से हटकर वह प्रियतमा भोर के तारे की तरह हो गई।

गोरी ने पारो चँगेर में चेनुआ बैठ गई उत आम की छैंया।
छैल ने रोक दये हलबैल औ गैल पसेउ गिरै भुइँ-मैंया।

बालम कों लखि कें मुस्क्यात उतै झट दौरत आवत सैंया।
सो श्रम वक्ष पै आतुर ह्नै झट प्रीति नें डार दई गलबैंया।

सुन्दरी ने अपने छोटे बच्चे को चंगेर (बाँस का बना हुआ एक बर्तन) में लिटा दिया और स्वयं आम के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गई। प्रियतम ने अपने हल-बैल छोड़कर रख दिये उसके शरीर का पसीना बहकर जमीन पर गिर रहा है। प्रियतम को उसने देखा कि वह हँसते हुए तुरन्त ही उसी की तरफ दौड़ता आ रहा है। आतुरता में आते हुए उसकी छाती पर श्रम बिन्दु झलक रहा था, तभी तुरन्त प्रिया ने प्रेम से गले में बाहें डाल दीं।

पौंछत स्वेद पियारी तथा श्रमहारी पियारी बयारी करै।
रोटी धरी पट सों पट पै चट सों चटनी की तैयारी करै।

भोजन बीच हँसै तरुणी अरु प्रीति की रीति नियारी करै।
छैल हँसै लखि दोउन कों उत छौना परो किलकारी करै।

प्रियतमा अपने प्रियवर का पसीना पोंछती है, थकान मिटाती है और रात्रि के भोजन की तैयारी भी करती जा रही है। उसने जल्दी से पट के ऊपर रोटी रखी फिर चटनी तैयार की। जब भोजन प्रियतम ने प्रारंभ कर दिये तो नवयौवना बीच-बीच में हँसती जाती है और प्रेम की कुछ क्रियायें भी साथ में होती जाती हैं, प्रियतम को भी हँसी आ रही है। इन दोनों की प्रसन्न मुद्रा को देखकर लेटा हुआ छोटा बालक भी किलक कर हँस रहा है।

देश की शान किसान ने भोजन पाय के जायके खेत निहारो।
और किसान की मानिनी नें हँस के हँसिया कर बीच सम्हारो।

मंत्र बिचारो है गो-तृण को सो लगी झट मेंड पै काटवे चारौ।
चूरा चुरीनन में अटकै खटकै स्वर मैन मरोरन बारौ।

देश का गौरव किसान भोजन करने के बाद तुरन्त अपने खेत को देखता है और उसकी प्रियतमा ने हँसकर अपने हाथ में हँसिया लिया फिर घास काटने का निश्चय करके तुरन्त खेत की मेंड़ पर पहुँची, चारा काटने लगी। घास काटते समय चूड़ियों के बीच पहिना हुआ चूरा चूड़ियों से टकराता है और उससे कामदेव की पीड़ा उत्पन्न करने वाली मोहक ध्वनि निकलती है।

एक मुठी में पुरी पुरी चारे की एक में नृत्य करै हँसिया।
गोरी के एक इशारे पै चारे बिचारे के प्रान हरै हँसिया।

कोमल हाथ के साथ में आयि कें पाप करै न डरै हँसिया।
गोरी हँसै हँसिया सठ पै लखि गोरी कों हास भरै हँसिया।

गाँव की उस सुन्दरी के एक हाथ में घास का गट्ठा बंधता जाता है और दूसरे हाथ में हंसिया नृत्य कर रहा है। सुन्दरी के संकेत मात्र से हंसिया चारे (घास) के प्राण ले लेता है। इन कोमल हाथों के सम्पर्क में आने पर हंसिये का डर समाप्त हो गया है, वह लगातार चारे के प्राण लेने का पाप करता जा रहा है। सुन्दरी दुष्ट हंसिया के कृत्य पर हँसती है और हंसिया सुन्दरी की हँसी को देखकर उसके मन की पूर्ति कर रहा है।

रतिप्रीतिका नायिका

वाल कर दीपक बाल बैठी रतिभौन, मौन,
सौन से शरीर सों प्रभा हू सरती रही।

हिय हुलसंत कंत आये पा इकंत तिन्हें,
उनके हिय में अनंत प्यार भरती रही।।

चढ़ि पर्यंक प्रिय अंक बीच जायि बैठी,
दीपक बुझाय तम स्वयं हरती रही।

लंकन सों ठेलि प्रतिघातन कों झेलि झेलि,
अंगन सकेलि रस-केलि करती रही।।

नवयौवना रति भवन में दीपक जलाकर चुपचाप बैठी है उसके स्वर्णिम शरीर से मनोहर आभा बिखर रही हैं। एकान्त पाकर प्रियतम हृदय में उत्साह लिये हुए आ गये। प्रियतमा ने उसके हृदय में नेह की धारा आराम से प्रवाहित कर दी। फिर पलंग पर चढ़कर प्रियतम की गोद में जाकर बैठ गई। उसने दीपक शान्त कर दिया और प्रेम के प्रकाश से प्रियतम के हृदय को प्रकाशित करती रही। रति क्रिया के घात-प्रतिघातों को आनंदित मन से सहते हुए कमर की ठेलम-ठेल की क्रीड़ा चलती रही। वह अपने सभी अंगों को सिकोड़कर काम क्रीड़ा का रस लेती रही।

प्रेम की पियासी थी प्रिया की पिया बाँह गही,
मुँइयाँ छुई तौ छुइमुइ सी कुम्हला गई।

होठन की चोटन ने ऐसे कपोल करे,
देख जिन्हें कंजन की लालिमा लला गई।।

चंचल दृग निमिष में ही लगे निमीलित कंज,
कुच पै करन की कला सी सी कहला गई।

वसन वधैया उन डोरन की छोरन तौ,
तन के सब छोरन कों छन में छला गई।।

प्रियतमा के हृदय में प्रेम की प्यास जागी और उसने अपने प्रियतम का हाथ अपने हाथ में लेकर इस चाह की अभिव्यक्ति की। प्रियतम ने उसके मनोहर चेहरे को छुआ ही था कि छुई मुई की तरह वह संकोच में कुम्हलाने लगी। फिर प्रियतम ने अपने होठों से क्रीड़ा के बीच ही नायिका के गालों पर चुम्बन आदि की चोटों से इतना लाल कर दिया कि कमल की लालिमा भी फीकी लगने लगी। क्षण भर में ही चंचल नेत्र बंद होते कमल की तरह निमीलित होने लगे और स्तनों पर प्रियतम के हाथों की क्रियाओं ने प्रियतमा के मुँह से सी-सी की मोहक ध्वनि निकल गई। वस्त्रों को बाँधने वाली डोरी खोले जाने पर शरीर के सभी बंधन खुल गये और क्षण मात्र में प्रियतमा का तन प्रियतम का हो गया।

पद्मश्री अवध किशोर जड़िया का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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