मध्यप्रदेश के पूर्व निमाड़ जिले में खण्डवा – इंदौर सड़क एवं रेल मार्ग पर मोरटक्का स्थल से 12 कि.मी. पूर्व में सड़क मार्ग से जुड़ी शिव की नगरी ओंकारेश्वर Onkareshwar अपनी गौरव गाथा समेटे हुए हैं। नर्मदा अपने उत्तर तट पर विंध्याचल को काट कर एक द्वीप का निर्माण करती है ।
शिव कन्या पूर्व से बहती-बहती आती हैं और यहाँ आकर विंध्याचल से उसके छोटे पर्वत खंड को अलग कर उसके चारों ओर लिपट जाती है। वह दो भागों में बँटती है, तथा नीचे जाकर फिर संगम बनाती है । यह पर्वत-खंड विंध्य का ही एक भाग है, जिस पर मौजूद वर्तमान खंडहर बताते हैं कि यहाँ कभी एक विशाल नगर रहा होगा। नर्मदा द्वारा यह रचा गया द्वीप, आकार में ‘ॐ’ सरीखा है, जिसे चारों तरफ से नर्मदा अपनी अँजुरी में रखे हुए है।
नर्मदा के उत्तर एवं पहाड़ी के दक्षिण तट पर प्राण – प्रणव ओंकार की मूर्ति एवं विश्व प्रसिद्ध शिव मंदिर स्थित है। नर्मदा यहाँ बहुत गहरी है । मंदिर एकदम किनारे पर है। ऐसा लगता है – बहुत गहरे पर्वत के नीचे तक नर्मदा प्रवहमान है और यह मंदिर जल में ही खड़ा है । कहते हैं, विंध्याचल का सबसे ऊँचा भाग ‘जानापाव’ है, जहाँ से चंबल निकलती है और सबसे नीचा गहरा भाग ओंकार मांधाता है । नर्मदा से घिरे ‘ॐ’ आकार के इस पर्वत का नाम ‘वैदूर्यमणि’ है । इस पर अनेक मंदिर हैं।
यहाँ नर्मदा का नाभि स्थल है। दूसरी बात, यह चारों धामों के भी बीच में ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रख्यात है । जिस पर यह स्थित है, वह वैदूर्य पर्वत ‘ॐ’ आकृति का है। जिसकी वजह से उसके दो शिखरों पर चारों ओर पत्थरों की विशाल दीवारें बनी हुई हैं, जो प्राचीन किले की हैं। कहीं-कहीं उसकी मोटी और ऊँची दीवारें वाले प्रथम शिखर की चहारदीवारी में पाँच प्रवेश द्वार हैं।
पूर्व में भीम अर्जुन द्वार हैं। पश्चिम के द्वार का नाम लुप्त है । उत्तर में चाँद-सूरज द्वार है । दक्षिण में भैरव द्वार । मध्य में हाँडी-कुँडी द्वार है । दूसरे शिखर पर सात द्वार हैं, जिनके नाम सही है । समय ने उनके नामों पर सियाही फेर दी है। ये भी अब नष्ट प्राय होते जा रहे हैं। पहाड़ी पर किले के भीतर पाँच विशाल मंदिर हैं, पूर्व में सिद्धेश्वर या सिद्धनाथ, दक्षिण में ऋण मुक्तेश्वर, उत्तर में धावड़ी मठ, दक्षिण में ऋद्धेश्वर तथा मध्य में गौरी सोमनाथ मंदिर है।
इनमें से सिद्ध मंदिर अपने अवशेषों में वैभव बाँधे खड़ा है। सन् 1905 में इसे देखने वाइसराय लार्ड कर्जल आए थे । इससे प्राप्त ताम्रपत्र अब नागपुर अजायबघर में मौजूद है। इसके चारों ओर सभामंडप हैं, जिसमें 76 खम्भ हैं। यह मंदिर स्थापत्य-कला का उत्कृष्ट नमूना है। इसके शिखर पर से माँडव के द्वीप दिखाई देते थे। दक्षिण का ऋणमुक्तेश्वर मंदिर अपना मूल स्वरूप खो चुका है। उत्तर का धावड़ी मठ भी वीरान पड़ा है तथा दक्षिण में सिद्धेश्वर मंदिर खंडहर अवस्था में पत्थरों का ढेर बना है । यह ओंकारेश्वर मूल मंदिर के ठीक पहाड़ी के ऊपर है ।
मध्यभाग में स्थित गौरी सोमनाथ का विशाल मंदिर है। इसमें विराट शिवलिंग है। इसे मामा-भांजे की कोठी भी कहते हैं । बराबर के दो पुरुष इसे अंकवार में भरना चाहें तो भी यह नहीं समाता और यदि बराबर के मामा-भांजे इसे बाँहों में लें तो आ जाता है और दोनों के हाथ आपास में मिल जाते हैं। किंवदंती है कि इस शिवलिंग में से प्रथम तीन जन्मों के रूप दिखते थे। अब वह चरित्र समाप्त हो गया। इसके सामने विशाल नंदी की प्रतिमा है, जो सम्पूर्ण रूप से एक ही पत्थर की बनी हुई है। यह मंदिर तिमंजिला है। ऊपर से पत्थर खिसकने की फिराक में है, इसलिए ऊपरी ओंकारेश्वर मंजिलों में प्रवेश निषेध है ।
नर्मदा घाट से ओंकारेश्वर के मुख्य मंदिर तक कोटेश्वर, हाटकेश्वर, राजराजेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, गायत्रेश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रेश्वर शिव लिंगों के साथ-साथ भूरेश्वर और कालिका भवानी के छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर सबसे पहले पंचमुखी गणेश की विशाल प्रतिमा है। सीढ़ियाँ चढ़कर नंदी के दर्शन होते हैं । यहाँ दो नंदी हैं । प्राचीन नंदी नीचे फर्श पर खुरदरे काले पत्थर का बना है, तथा विशाल संगमरमर का नंदी, देवी अहिल्या बाई होलकर ने इन्दौर से बनवाकर प्रतिष्ठापित किया था ।
द्वार पर ही द्वारपालेश्वर एवं घंटेश्वर के स्थान हैं । मुख्य मंदिर ओंकारेश्वर के भीतर शिव लिंग न होकर ‘ओंकार प्रणव’ निराकार रूप में ही है। सृष्टि का निर्माण प्रणव से है । यह शिव का पार्थिव रूप न होकर निराकार ‘ॐ’ रूप है । साकार में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव हैं । प्रणव निराकार है । ओंकार पर्वत का स्वरूप भी निराकार है। यह ओंकार का प्रतिबिम्ब है ।
यह ओंकार रूप इक्ष्वाकु-वंश के राजा मांधाता की तपस्या पर प्रकट हुआ था, जिसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं है । न इसका आकार शून्य है और न ही लिंगाकार । ओंकार पिण्ड के दक्षिण में पार्वती विराजित हैं। पूर्व में अनादि काल से अखंड ज्योति जल रही है । उत्तर में राजा मांधाता का ओटला है, जहाँ बैठकर उन्होंने तपस्या की थी । ओटले के पीछे ही उत्तर में शुकदेव की प्रतिमा है । पश्चिम में प्रवेश और निर्गम द्वार हैं। मंदिर के पाँच स्तर (मंजिलें ) हैं ।
प्रथम ओंकारेश्वर, द्वितीय महाकालेश्वर, तृतीय सिद्धनाथ, चतुर्थ केदारनाथ और पंचम गुप्तेश्वर महादेव के नाम से विख्यात है। मंदिर के प्रवेश द्वार से बाई तरफ नर्मदा घाट के पास आचार्य शंकराचार्य के गुरू की गुफा है, जो पहले लुप्त थी । अब मलबा सफाई कर दी गई है। यहीं पर शंकराचार्य ने अपने गुरू गोविन्दपादाचार्य से शिक्षा ग्रहण की थी। शंकर यहाँ लगभग ढाई वर्ष रहे । यहीं से उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। ‘तिलक रहस्य’ के अनुसार आद्य शंकराचार्य का समय संवत 745 वि. का है।
रेवा कावेरी संगम पर उन्होंने ब्रह्मसूत्र का भाष्य भी लिखा । मतलब कि यह शंकराचार्य की शिक्षा स्थली भी रही है। ओंकारेश्वर पहाड़ के चारों तरफ नर्मदा के पार की स्थिति देखें तो वहाँ भी अनेक दर्शनीय स्थल पग-पग पर इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व हुए हैं। वे प्रतीक्षातुर हैं- उन आँखों के लिए जो आए, देखें, अक्षुण्ण रखे परखें और डूबते हुए को बचा लें। एक-एक उपल प्रतिमा ऐतिहासिक कथाओं की पोटली बाँधे बैठी है ।
जहाँ कावेरी आकर नर्मदा में मिलती है, तथा नर्मदा दो धाराओं में बँटती है, उसके पूर्व में 14 मील पर धावड़ी कुंड है। नर्मदा यहाँ अनेक धाराओं में विभाजित होकर नीचे कुण्ड में गिरती है । इसी ओर 7 मील दूर सीतावन है, कहा जाता है कि वहाँ खर-दूषण से राम के युद्ध के समय सीता जी को रखा गया था । मार्ग में अन्नपूर्णा आश्रम के प्रांगण में भगवान कृष्ण के विराट रूप की 36 फुट ऊँची प्रतिमा आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना है ।
थोड़ी दूर पर मार्कण्डेय शिला तथा मार्कण्डेय आश्रम है। उत्तर में धावड़ी मठ एवं गया शिला है। इस पहाड़ी और नर्मदा के दक्षिण तट का भी एक सम्पन्न पुरालोक है । इसके दक्षिण में विष्णुपुरी एवं ब्रह्मपुरी बसी हुई थी। स्पष्ट है कि नर्मदा के बीच द्वीप पर शिवपुरी थी, जो अपने समय में समृद्ध सांस्कृतिक नगरी थी। ममलेश्वर पार्थिव लिंग है । राजा विंध्याचल की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने सभी देवताओं सहित यहाँ रहना स्वीकार किया । ममलेश्वर शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है । यह अपनी पूर्ण कला से स्थित है।
यह मंदिर भी ओंकारेश्वर मंदिर की तरह पाँच मंजिला है, तथा प्रत्येक में शिव लिंग स्थित है। यह मंदिर पंचायतन है । इसके प्रांगण में छह अन्य मंदिर हैं । इस तरह पूरे अहाते में सात मंदिर हैं। मंदिरों की दीवारों, प्रवेश द्वारों पर विभिन्न आकृति की मूर्तियाँ हैं, जिनमें बारीक से बारीक कारीगरी की गई है, जो देवासुर इतिहास की एक-एक कथा को बाँच रही है । इसकी भीतर दीवारों पर शिव स्तोत्र संस्कृत में खुदे हुए हैं। इसके दक्षिण में तीन किलोमीटर दूर त्रिशूल भेद बावड़ी है। ‘रेवाखंड’ की कथा के अनुसार शंकर ने ब्रह्मराक्षस का वध त्रिशूल से किया । उसका रक्त त्रिशूल को लगा । त्रिशूल को शुद्ध करने के लिए त्रिपुरारि ने नर्मदा के दक्षिण का स्थान चुना ।
यहाँ उन्होंने त्रिशूल को जमीन में मारा और बाहर निकाला । त्रिशूल साथ ही जलधारा निकल आई, जो कपिलेश्वर के नीचे से होकर गोमुख से गिरती हुई नर्मदा में मिलती है। यहाँ से 2 मील पूर्व में कावेरी-नर्मदा संगम पर कुबेर मंदिर है । ‘पदमपुराण’ में कथा है-कुबेर ने 100 वर्ष तक शिवजी की तपस्या की। वरदान स्वरूप वह यक्षों का राजा बना तथा उसे धन कुबेर की पदवी भी इसी जगह मिली थी।
विशेष बात यह है कि इस ‘शिवपुरी’ की रचना योजनाबद्ध थी एवं सामरिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण थी । शिवपुरी होने के नाते इसके प्रवेश द्वारों पर अधिकांश विशाल प्रतिमाएँ भैरव की हैं । दूसरी बात इसके गढ़ के चारों ओर समान ऊँचाई और मोटाई वाली बड़ी-बड़ी मारूति और गणेश की प्रतिमाएँ हैं । पूर्व में नर्मदा पर पंथिया, ग्राम में गणेश और बजरंग आमने- सामने खड़े हैं। पश्चिम में एक तो खेड़ापति हैं ।
दूसरे गौरी-सोमनाथ मंदिर के सामने उसी आकार की गजानन एवं मारूतनंदन की प्रतिमाएँ हैं । गणेश की मूर्ति खंडित है तथा यह दो भागों में एक तरफ उपेक्षित पड़ी है। पवन पुत्र की भारी देह लेटी हुई स्थिति में है । इसके भी दो टुकड़े थे, जो अब किसी तरह जोड़ दिए गए हैं। तीसरी जगह उत्तर में न होकर हांडी कुंडी द्वार के पास है, जहाँ बेचारे गणेश नाक हाथ तोड़कर दो भागों में अपनी विशाल टूटी देह लिए झाड़ियों में पड़े हैं।
हनुमान अपना कमर से नीचे का हिस्सा बगल में रखे हुए टूटी टाँगों सहित जमीन में धँसे पड़े हैं। दक्षिण में विष्णुपुरी के केसरी नंदन और गजबदन थोड़े से सही सलामत हैं । अतः चारों तरफ गणेश और बजरंग, जो प्रकारातंर से शिव के ही पुत्र हैं, शिवपुरी की चौकसी में खड़े हैं। शंकर सुवन की इन चारों मूर्तियों में एक सी मुद्रा है एवं प्रत्येक के बाएँ पैर के नीचे मकरी राक्षस की दबी हुई मूर्ति उकेरी हुई है।
दूसरी उल्लेखनीय बात है कि इस शिवपुरी क्षेत्र के चारों तरफ थोड़ी- थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे किले बने हुए हैं, जो युद्ध एवं सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । ये किले जंगल में होने के कारण आम जनता की जानकारी से परे हैं। पूर्व में ‘ सैलानी गढ़’ है । इस गढ़ के सामने ही सप्तमात्रिका (सात मात्रा) देवी है। पश्चिम में मार्कण्डेय पहाड़ी पर एक छोटा किला है। उत्तर-पश्चिम में ‘नीलगढ़’ है तथा दक्षिण में त्रिशूल भेद बावड़ी के आगे एक छोटा किला बना है।
ये सब किले शिवपुरी से 3-4 मील की दूरी पर पहाड़ों के शिखरों पर बने हैं। जो पुराकाल से आज तक अपनी बुलंदी के बल पर इतिहास को जिन्दा रखे हुए हैं। ओंकारेश्वर पहाड़ी का पत्थर – पत्थर अपने युग का कथावाचक है। यहाँ कभी एक सांस्कृतिक वैभव से पूर्ण नगर आबाद रहा होगा। इसके चप्पे-चप्पे में मंदिरों के खंडहर बिखरे हैं । हर दस-पन्द्रह मीटर पर मंदिर का मलबा, पत्थर, मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। झाड़ियों में घूमने पर स्पष्ट रूप से मकानों की नींव एवं चबूतरे दिखाई देते हैं । अतः यहाँ बस्ती भी रही होगी। मंदिरों की बस्ती। पुजारियों की बस्ती । ऋषियों की आश्रम बस्ती।
यह पूरा क्षेत्र केन्द्रीय पुरातत्व, राज्य पुरातत्व, मंदिर ट्रस्ट एवं विशेष क्षेत्र के विकास प्राधिकारण के संरक्षकत्व में है । इस लेख में जितने भी स्थलों और मूर्तियों के नाम आए हैं, उनमें से अधिकांश न्यूनाधिक रूप में से खंडित हैं। मलबे के ढेर बने एवं संस्कृति इतिहास के ढेर बने मंदिरों में संस्कृति, इतिहास और स्थापत्य का समवेत स्वर दबा पड़ा है। यदि मलबा सफाई कर खुदाई की जाए तो एक जीता-जागता वैभवपूर्ण इतिहास अपना खोया स्वरूप पा सकता है।
यह मांडव से भी अधिक रमणीय और दर्शनीय स्थल बन सकता है। पर्यटन की दृष्टि से भी इसमें अनेक आकर्षण एवं संभावनाएँ दबी पड़ी हैं। यहाँ तो ‘नर्मदा के कंकर, सारे ही शंकर’ वाली उक्ति चरितार्थ है। इन मंदिरों को बनाने वाला कौन था ? समय की किन घड़ियों ने इनकी नींव रखी होगी और एक पूरी नगरी घंटियों, आरती, श्लोकों शंख और घड़ियालों से गूँज उठी होगी।
मंदिरों की दीवारों-द्वारों पर दीप जगमगा उठे होंगे। नर्मदा की लहरों पर संख्या के झुरमुट में दीपक तैरे होंगे और उनके प्रतिबिम्बों ने रेवा की लहर-लहर पर असंख्य दीपक प्रज्ज्वलित कर दिए होंगे। आज वह सब कुछ गुम हो गया। जितना बचा है, उसे सहेजने को, जमीन से निकालने की परवाह किसी को नहीं है। कुछ संरक्षण के नाम पर आजीविका चला रहे हैं।
इस पवित्र क्षेत्र की संस्कृति एवं उसके स्थापत्य को दुनिया के सामने जमीन से निकालकर खड़ा कर देने की कसक शायद अभी किसी में पैदा नहीं हुई। क्या इसके उद्धार की कोई योजना नहीं बन सकती ? जो अपनी ईमानदारी क्रियान्विति द्वारा बता सके कि हम अपने अतीत की ज़मीन पर संस्कृति, इतिहास और स्थापत्य के रूप में उच्च स्तर पर जीवित थे । शायद कोई आए और इस इतिहास से इतिहास बना जाए।
शोध एवं आलेख -डॉ. श्रीराम परिहार