निमाड़ अपनी विशिष्टताओं के कारण लोक प्रसिद्ध है। प्राचीन काल से निमाड़ में लोक कलाओं की समद्ध परंपरा रही है। Nimad Ki Lok Kalaye वस्तुत: कला का जन्म समाज ही करता है और समाज के लिये होती है इसलिए कला में नवजीवन साधनों का प्रयोग अत्यधिक आवश्यक है। निमाड़ी लोकजीवन के माधुर्य और सौंदर्य की कलात्मक अभिव्यक्ति निमाड़ी लोक गीतों ,लोक नृत्यों एवं लोकचित्रों में अत्यंत सशक्त है।
Folk Art of Nimad निमाड़ क्षेत्र
लोकगीत Folk Song
निमाड़ के लोकजीवन का कोई भी अवसर ऐसा नहीं होता, जब कोई-न-कोई गीत न गाया जाता हो। जन्म, विवाह और मृत्यु आदि सोलह-संस्कार के अवसरों पर अलग-अलग लोकधुनें और लोकगीत गाए जाते हैं। संस्कार गीत प्राय: घर की महिलाएँ ही गाती हैं।
पर्व-त्योहार, अनुष्ठान इत्यादि गीतों की प्रकृति स्त्री-पुरुष परक अर्थात् दोनों ही तरह की होती है। लोकगीतों की गायन-शैली प्रायः अलगअलग होती हैं। निमाड़ी लोकगायन का माधुर्य विवाह, एवं गणगौर गीत, संत सिंगाजी के भजन, कलगी-तुर्रा गायन परंपरा आदि परम्परागत विधाओं में मिलता है।
कलगी-तुर्रा Kalgi Turra
कलगी-तुर्रा प्रतिस्पर्धात्मक लोक-गायन शैली है। इस गायन-शैली का प्रसार एक समयकर्नाटक से लगाकर उत्तरप्रदेश तक था। निमाड़, मालवा, बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड में कलगी-तुर्रा गायन-मंडलियाँ अभी भी मौजूद हैं। चंग की थाप पर कलगी-तुर्रा गाया जाता है। इसके दो अखाड़े होते हैं-एक कलगी अखाड़ा, दूसरा तुर्रा अखाड़ा। अखाड़े के गुरु को उस्ताद् कहते हैं।
आशु-कविता के साथ महाभारत की कथाओं, पौराणिक आख्यानों से लेकर वर्तमान प्रसंगों को सवाल-जवाब के माध्यम से पारम्परिक गायिकी में पिरोया जाता है। कलगी दल ‘शक्ति’ और तुर्रा दल ‘शिव’ को बड़ा बताने की कोशिश करता है।
संत सिंगाजी भजन Sant Singaji Bhajan
संत सिंगाजी 15वीं सदी के निर्गुण संत-कवियों में सबसे अग्रणी हैं। अपनी आध्यात्मिक साधना और शुचिता के कारण संत सिंगाजी के पद समूचे निमाड़ और मालवा के हिस्से में इतने लोकप्रिय हुए कि सिंगाजी के पद-गायन की एक अलग शैली बन गई।
संत सिंगाजी ने निमाड़ी में कई सौ आध्यात्मिक पदों की रचना की। निरगुणिया गायन-शैली : निमाड़ी लोक में निरगुणी और सगुणी संत-कवियों की छाप लगाकर पदों की रचना और गाने की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है। इसमें कबीर, मीरा, रैदास, ब्रह्मानन्द, दादू, सूर, तुलसी आदि कवियों की छाप वाले भजन लोक में सबसे अधिक प्रचलित हैं।
निरगुणिया गायन शैली का मुख्य आधार-वाद्य इकतारा और खड़ताल रहे हैं। यहाँ निर्गुणिया भजन-गायक प्रायः इकतारे के साथ झाँझ मृदंग लगाकर ही गाते हैं। इस गायन को नारदीय भजन भी कहा जाता है।
मसाण्या अथवा कायाखोज के गीत Masanya
निमाड़ में मृत्युगीतों को मसाण्या अथवा कायाखोज के गीत कहते हैं। किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता-संबंधी गीत गाए जाते हैं। मसाण्या गीतों को भी झाँझ, मृदंग और इकतारे के साथ समूह में गाया जाता है। मसाण्या गीत पुरुष-परक हैं। इन गीतों में आत्मा को दुल्हन की उपमा दी गई है और शरीर को दूल्हा कहा गया है।
फाग गायन Faag
होली के अवसर पर फाग गीत गाए जाते हैं, जो प्रायः कृष्ण और राधा पर केन्द्रित होते हैं। दो या तीन ढफ बजाते हुए ऊँचे स्वर में सामूहिक रूप से पुरुषवर्ग फागगायन करता है, जिससे हँसी-मजाक, ठिठौली, छेड़छाड़ के गीत प्रमुख होते हैं। स्त्रीपरक फागगायन अलग होता है।
गरबा/ गरबी/ गवलन गायन शैली Garba/Garbi/Galvan
गरबा गीत : निमाड़ में गरबा स्त्रीपरक आनुष्ठानिक लोक-गायन है। नवरात्रि में गरबे की स्थापना के साथ महिलाएँ ताली की थाप पर गरबा गीत गाती हैं और नृत्य भी करती हैं।
गरबी गीत Garbi
गरबी प्रायः पुरुषपरक लोकगायन है। इसे झाँझ मृदंग के साथ गाया-बजाया जाता है। गरबी गीत निमाड़ी लोकनाट्य गायन का एक मुख्य अंग है। गरबी भक्ति, शृंगार और हास्यपरक होती है।
गवलन Gavlan
गवलन मूलतः कृष्णलीला गीत है। इसके गायन की पद्धति गरबी से भिन्न होती है। गवलन गीतों का मुख्य उपयोग रासलीला में किया जाता है। गवलन गीत पुरुषपरक हैं, जो झाँझ, मृदंग और ढोलक पर गाए जाते हैं।
नाथपंथी गायन Nathpanthi
निमाड़ में नाथ जोगियों में सर्वथा अलग प्रकार के लोकगायन की पद्धति है। नाथ-जोगी भगवा वस्त्र पहने हाथ में रेकड़ी अथवा रूँ-रूँ बाजा बजाते गाते गाँव-शहर में दिखाई देते हैं। नाथ-जोगी प्रायः गोरख, कबीर अथवा भरथरी गाथा गाते हुए मिल जाते हैं। निमाड़ की नाथ-जोगी महिलाएँ प्रायः सुबह-सुबह परभाती गाती हुई मिलती हैं और घर-घर से नेग लेती हैं।
निमाड़ के लोकनृत्य
गणगौर लोकनृत्य Gangaur
गणगौर नृत्य निमाड़ अंचल का पारम्परिक नृत्य है। यह चैत्र माह में पड़ने वाले गणगौर पर्व में किया जाता है। गणगौर गीतों के साथ नृत्य-परंपरा भी जुड़ी है। गणगौर में दो तरह के नृत्य होते हैं। एक झालरिया, दूसरा झेला। झालरिया नृत्य में स्त्रियाँ अलग समूह में और पुरुष अलग समूह में हिस्सा लेते हैं। गणगौर नृत्य के मुख्य वाद्य ढोल और थाली हैं।
काठी नृत्य Kathi
काठी, निमाड़ अंचल का पारम्परिक लोक नृत्य-नाट्य है। पार्वती की तपस्या से संबंधित मातृ पूजा का नृत्य है। ढाँक काठी इस का मुख्य वाद्य है। काठी नर्तकों की वेशभूषा अधिक कल्पनाशील होती है। जिसे ‘बाना’ कहा जाता है। हरिश्चन्द्र, सुरियालो, महाजन, गोंडेन नगर, भिलणों बाल आदि लंबी कथाएँ काठी नृत्य के साथ गाई जाती हैं। काठी का प्रारंभ देव-प्रबोधिनी एकादशी से और विश्राम महाशिवरात्रि को होता है।
फेफारिया नाच Fefariya
फेफारिया पारम्परिक समूह-नाच है। स्त्री और पुरुष जोड़ी बनाकर गोल घेरे में नाचते हैं। फेफारिया वाद्य के कारण इस नाच का नाम फेफारिया नाच पड़ा। फेफारिया एक प्रकार की पुंगी है, जिसकी आवाज शहनाई से मिलती-जुलती है। फेफारिया की स्वरलहरी के साथ ढाँक और थाली की अनुगूंज पर स्त्री और पुरुष नर्तक हाथ-पैरों और कमर की विभिन्न मुद्राओं के साथ नृत्य को क्रमशः गति देते चलते हैं। फेफारिया नाच विवाह के अवसर पर किया जाता है।
मांडल्या नाच Mandalya
मांडल्या नाच ढोल पर किया जाता है। मांडल्या एक पारम्परिक समूह-नृत्य है। इसमें एक पुरुष ढोल बजाता है। संगत में काँसे की थाली का तीव्र स्वर नृत्य को अधिक उत्तेजक बनाता है। मांडल्या नाच केवल महिलापरक है। महिलाएँ ढोल की थाप पर जल्दी-जल्दी गति बदलती हैं, हाथ और पैरों की विभिन्न मुद्राओं को प्रदर्शित करती हैं।
आड़ा-खड़ा नाच Aada-Khada
निमाड़ में जन्म, मुंडन संस्कार और विवाह के अवसर पर कई नृत्य किए जाते हैं। इन नृत्यों को आड़ा या खड़ा नाच कहा जाता है। महिलाएँ घूघट डाले, झुक कर, हाथ और घुटनों को नृत्य, गतियों के अनुसार, लय के साथ ऊपर-नीचे और कमर तक ले जाती हैं।
ढोल और थाली इस नृत्य के मुख्य वाद्य हैं। डंडा नाच : चैत्र-वैशाख की रातों में विशेषकर गणगौर पर्व पर निमाड़ के किसान डंडा नाच करते हैं। इसमें 20 से 25 तक पुरुष नर्तक होते हैं। नर्तकों के दोनों हाथों में एक-एक डंडा होता है, जो लगभग एक या सवा मीटर का होता है। डंडा लेकर नाचने के कारण इसका नाम डंडा नाच पड़ा। डंडा नाच के प्रमुख वाद्य ढोल और थाली हैं। नाच मंद गति से शुरू होकर तीव्रतम गति पर जाकर समाप्त होता है।
निमाड़ी लोकनाट्य
गम्मत Gammat
गम्मत निमाड़ का पारंपरिक लोकनाट्य है। निमाड़ में यह अत्यधिक प्रसिद्ध है। यह लोकजनों के मनोरंजन का साधन है। गम्मत, मुख्यतः तीन अवसरों-नवरात्रि, होली एवं गणगौर पर्व पर की जाती है।
निमाड़ की लोक-चित्रकला
निमाड़ अंचल में लोक-चित्रकला की परंपरा सदियों से चली आ रही है। पूरे वर्ष भर पर्व-तिथि त्योहारों से संबंधित भित्तिचित्रों का रेखांकन चलता ही रहता है।
हरियाली अमावस्या को जिरोती, नागपंचमी को नाग भित्ति-चित्र, कुंवार मास में सांजाफूली, नवरात्रि में नरवत, दशहरे के दिन दशहरे का भूमि-चित्रण, सेली सप्तमी पर हाथा (थापा) दिवाली, पड़वा पर गोवर्धन, दिवाली दूज पर भाईदूज का भित्तिचित्र।
विवाह में कुलदेवी का भित्तिचित्र, दरवाजों पर सातीपाना, मुख्य द्वार पर गणपतिपाना, दूल्हा दुल्हन के हाथों में मेंहदी मांडना, पहले शिशु-जन्म पर पगल्या का शुभ संदेश रेखांकन, साँतिया, चौक, कलश, मांडना आदि मेलोंबाजारों में विभिन्न गुदना-आकृतियों का रेखांकन निमाड़ की लोकचित्र परंपरा है।