बुन्देलखण्ड में यह प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र के साथ ही प्रारंभ होता है। अश्वनि शुक्ल प्रतिपदा से पूरे नौ दिन तक ब्रह्ममुहूर्त में गांव की चैपालों के बड़े चबूतरों पर कुँवारी लड़कियों द्वारा खेला जाने वाला सुआटा पर्व है। Bundelkhand ka Naurata- Suata खेलपरक पर्व है इस पर्व पर सुआटा की प्रतिमा या दीवार पर चित्र और रंगोली बनाकर नवरात्रि की अष्टमी तक तरह-तरह गीत गाते हुए कुवांरी लड़कियां सुआटा खेलती हैं।
‘नौरता’ शब्द से यह भलीभाँति स्पष्ट हो रहा है कि यह नवरात्रि का एक पुनीत पर्व है। क्वांर शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक अर्थात् नौ दिन तक यह पुण्य-पर्व आयोजित किया जाता है। मुख्य रूप से यह क्वाँरी कन्याओं का त्योहार है। हिन्दुओं की हर जाति की कन्याएँ नौरता खेलने में विशेष रूचि लेती हैं।
यह एक प्रकार का बालिकाओं के लिए भावी गृहस्थ जीवन का प्रशिक्षण है। इस त्योहार से बालिकाओं को घर-गृहस्थी संचालन की उत्तम शिक्षा प्राप्त होती है। छबाई, लिपाई-पुताई, अल्पना रचना, चैक पूरना और रंगोली का ज्ञान प्राप्त होता है। पारिवारिक संबंधों के निर्वाह की उत्तम शिक्षा इस पर्व से बालिकाओं को स्वतः ही प्राप्त होती है। वे गृहलक्ष्मी बनकर घर-परिवार को स्वर्ग जैसा सुखदायक बना देती हैं।
महिलाएँ ही घर-परिवार को सुख-समृद्धि और सुरस रिद्धि-सिद्धि भर देती हैं और कुछ महिलाएँ परिवार को नरक बना देती हैं। नौरता बालिकाओं को एक उत्तम गृहिणी बनने का प्रशिक्षण देता है। इस पर्व पर आधारित एक लोकगाथा प्रचलित है।
नौरता के गीतों से लोक-गाथा का रूप उजागर होता है। कहा जाता है कि ‘सुआटा’ नाम का एक भयंकर दानव था, जो क्वाँरी कन्याओं को उठाकर खा लेता था। सारा समाज उस दुष्ट दानव के कारण परेशान था। समाज ने चंद्र-सूर्य के सहयोग से हिमांचल की पुत्री पार्वती की आराधना की। माता पार्वती ने उस दानव का संहार कर दिया। तभी से नवरात्रि के अवसर पर कन्याएँ नौ दिन तक गौरा पार्वती की आराधना किया करती हैं।
नौरता के गीतों से गाथा उजागर होने लगती है। किसी एक सार्वजनिक स्थल पर चबूतरे पर सीढ़ीनुमा चैकी बनाकर उस पर गौरा पार्वती की स्थापना की जाती है। दीवाल पर दानव अंकित करके अगल-बगल चंद्र-सूर्य का अंकन किया जाता है। चबूतरे को लीप-पोतकर अनेक रंगों के चैकों से सुसज्जित करके पूजा-अर्चना की जाती है। एक दीपक में दूध और कद्दू के फूल से सिंचित करती हुई समवेत स्वर में गाती हैं-
हिमांचल जू की कुंवर लड़ांयती नारे सुआ हो,
मोरी गौरा बेटी-नेहा तो लंगइयों बेटी नौ दिना नारे सुआ हो।
दसयें दिन करो हो सिंग्गार सुआ।
दसरये खौं दसरओ जीतियौ नारे सुआ हो,
नवयें दिन करो हो सिंग्गार सुआ।
सूर्योदय के पूर्व से ही घर-गृहस्थी के सारे कार्य-कलाप संचालित हो जाते हैं। महिलाओं की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण है। वे अधिक सक्रिय दिखाई देती हैं-
गई नईं होय वारे, चंदा हम घर होय लिपना पुतना।
तुम घर होय दै-दै दरिया,
तिल कौ फूल तिली कौ दानों,चंदा ऊगे बड़े भुंसारें।
इन गीतों में लोक-मंगल की भावना, परोपकार प्रियता, करुणा उदारता और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के दर्शन होते हैं।
चंदा जू आ भइया, सूरज जू आ भइया,
जे मोरे भइया लिबाउन जैहैं, चलावन जैहैं।
नीले से घुड़ला कुदावत जैहैं, बन की चिरइया चुनावत जैहैं।
नंगी डुकरियां पैरावत जैहैं, अंधे कुआं उगरावत जैंहें।
फूटे से ताला बंधावत जैहैं, भूखन खौं भोजन करावत जैहैं।
लीले से घुड़ला कुदावत जैहैं, भूलन खौं गैलें बतावत जैहैं।
कन्यन के ब्याव करावत जैहैं, ब्याहन के चलाव करावत जैहैं।
इस गीत में बहिनें अपने भाइयों से सार्वजनिक जनहित और जन-कल्याण की अपेक्षा कर रहीं हैं। बहिनें प्रातःकाल सर्वप्रथम अपने भाइयों को जगा-जगाकर गाया करतीं हैं –
उठो मोरे सूरजमल भैया, चंदामल भैया।
नारे सुआ हो-मालिन खड़ी है तोरे द्वार,
इंदरगढ़ की मालिनी-नारे सुआ हो हाँतई हात बिकाय।
उठो-उठो भैया-भोर भये नारे सुआ हो, मालिनी ठाँढ़ी है तोरे द्वार।
बालिकाएँ श्रद्धा-भाव से गौरा-पार्वती की पूजा-आरती करती हैं-
झिलमिल-झिलमिल आरती,
महादेव तोरी पार्वती।
को बउ नौंनी सलौनी भौजी, सूरज बउ नौंनी चंदा बउ नौंनी,
नौंनीं-सलौंनी भौजी वीरन हमारे भौजी,
कंठ तुमारे भौजी कंत तुमारे भौजी,
झिलमिल-झिलमिल आरती,
महादेव तोरी पार्वती।
इस गाथा में पारिवारिक जीवन के सुंदर और असुंदर चित्र उभरकर सामने आये हैं, जिनमें नारी जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव दिखाई देते हैं।
ससुरा विचारे नें चुनरी मंगाई, भैया चुनरी मंगाई,
वे चुनरी मैंने देवरे दिखाई, भैया देवरे दिखाई,
देवरा बिचारे ने रापट मारी, भैया रापट मारी,
रापट के असुवा बै गये, भैया असुवा बै गये,
वे असुवा मैंने चुनरन पोंछे, भैया चुनरन पोंछे,
वे चुनरी मैंने धुबिया कें डारीं, भैया धुबिया कैं डारी,
धुबिया कौ लरका फुलक न जानें, भैया फुलक न जानें,
वे चुनरी मैंने दरजी कैं डारी, भैया दरजी कैं डारी,
दरजी कौ लरका तुरप न जानें, भैया तुरप न जानें।
इस गीत में एकावली अलंकार की झांकी दिखाई दे रही है। बालिकाएँ अपनी गौर के सौन्दर्य का चित्रण कर रही हैं। कितनी लगन और उत्साह दिखाई देता है।
अपनी गौर की झांई देखौ, झांई देखौं काहा पैरैं देखौ- देखौ
माथे बेंदी देखौ-देखौ माथें बीजा देखौ- देखौ
गरे में खंगवारौ देखौ- देखौ- देखौ चूरा देखौ-देखौ,
कम्मर में करदौना देखौ-देखौ नाक में बेसर देखौ-देखौ
कानन में झुमकी देखौ-देखौ पाँवन पायल देखौ-देखौ।
पराई निन्दा करने में महिलाओं को बहुत सुख प्राप्त होता है। वे सदैव ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित रहती हैं। वे पराई गौर की निंदा करने में जरा भी पीछे नहीं रहती।
पराई गौर की झांईं देखौ, झांई देखौ कैसी-कैसी देखौ-देखौ
नाक-नकटी देखौ-देखौ आँखन कानीं देखौ-देखौ
गोड़ों टूटों देखौ-देखौ हाँत टूटों देखौ-देखौ
घूरे पै लौटत देखौ-देखौ कौरा मांगत देखौ-देखौ
ये नारी की ईर्ष्यालू प्रवृत्ति का एक उदाहरण है।
आठवें दिन ढिरिया फेरने का प्रचलन है। एक छोटी सी गगरी में छेद करके उसके अंदर जलता हुआ दीपक रख एक बालिका उस जगमगाती हुई ढिरिया को सिर पर रख कर आगे चलती है। पीछे से बालिकाओं का झुंड गाता हुआ मुहल्ले के हर द्वार पर फेरी लगाता हुआ चलता है। उन्हें हर घर से भेंट स्वरूप अन्न और द्रव्य प्राप्त होता जाता है। वे हर दरवाजे पर खड़ी होकर गाने लगतीं हैं।
पूँछत-पूँछत आये हैं नारे सुआ हो, कौंन बडे़ जू की पौर सुआ।
पौरा के सो गये, भौजी पोरिया नारे सुआ हो, खिरकी के जगें कोटवार सुआ।
निकरों दुलइया रानी बायरें नारे सुआ हो, बिटियन देव तमोर सुआ।
कैसे कैं निकरै बिन्नू बायरें नारे सुआ हो, ओलियन नौनें झडूलें पूत सुआ,
पूत जो पारों भौजी पालनें नारे सुआ हो, बिटियन लेव अशीष सुआ।
हमें न जानों भौजी मांगनी नारे सुआ हो,
घर-घर देत अशीष सुआ।
प्रतिदिन नौरता पूजन के पश्चात् बालिकाएँ गोबर में कनिष्ठिका डालकर इन पंक्तियों को समवेत स्वर में दुहराती हैं।
चिंटी-चिंटी कुर्रू-कुर्रू देय, बापै भइया राजी देय-राजी देय
राजी पर घोड़ा देय-घोड़ा देय,
घोड़ा मारी लाता,
जा परी गुजराता-गुजराता,
गुजरात केरे बानियां-बानियां,
गोड़-मूँढ़ सैं तानिया-तानियां,
बम्मन-बम्मन जात के जने पैरें तांत के।
टीका देबैं रोरी के, हाड़-चबाबैं गोरी के।
इन पंक्तियों से गाथा में वर्णित किसी दानव के होने की पुष्टि अपने आप हो जाती है। नौरता का यह परंपरागत पर्व आज भी बुंदेलखंड में प्रचालित है।
सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल