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Narmada Ka Barman Ghat नर्मदा का बरमान घाट

मकर संक्रांति की सर्द होती रात में दूर से सुनाई देते इस गीत के स्वर धीरे-धीरे Narmada Ka Barman Ghat के  नजदीक आते हैं । बैलगाड़ियों की चर्र – चूँ, बैलों की घंटियों और गाड़ीवान की हाँक के साथ शब्द- शब्द माघ की चाँदनी मिश्री घोल रहे हैं। गाड़ियाँ घाट तक आती हैं। रूक जाती हैं । गाड़ियाँ छोड़ दी जाती हैं। लोग उतरते हैं। नर्मदा की ओर मुखातिब हो नतमस्तक होते हैं। माँ नर्मदा के किनारे लगे सक्रांति के मेले में लोक तत्त्व मिलकर मेले को सांस्कृतिक अध्याय बना रहे हैं।

ऐसी बहे रे ।
ऐसी बहेरे जैसे दूध की धार हो । नरबदा मैया हो..

यह रेवा के किनारे बरमान घाट पर एकत्रित श्रद्धा और आस्था का पूँजीभूत स्वरूप है । यहाँ नदी, प्रकृति, शास्त्र, लोक और आधुनिकता मिलकर अपनी ही परम्परा विकास का द्वार खोल रहे हैं। लोक गीत की अगली कड़ी फिर स्वरों पर सवार होती है-
नरबदा तो ऐसी मिली रे
ऐसी मिली रे, जैसे मिल गये मतारी और बाप रे । नरबदा मैया हो……….।

जहाँ नर्मदा से मिलना, उसके जल में डूब – डूब अवगाहन करना, माँ और पिता से मिलने सरीखा सुखमय हो, जहाँ नर्मदा का पानी, पानी न होकर दूध जैसा लगे, वहाँ के मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों की सघनता को मापने का कोई मापक दुनिया में बना नहीं है । सुबह होते ही सूरज की किरणों और जनमानस के बीच होड़-सी लग जाती है कि कौन पहले नर्मदा जल को छुए, कौन डुबकी लगाए और कौन पहले गहरे जल में पैठकर जीवन के ताप का शमन करे ।

देखते-देखते नर्मदा के दोनों किनारों की रेत पर, घाट की ढलानों पर और बरमान बस्ती के आसपास खाली जगह तम्बू, पड़ाव जनसमूह बैलगाड़ियाँ, ट्रेक्टर, मोटर, मोटर साइकिलें, साइकिलें प्राचीन और वर्तमान सभ्यता का समवेत गान करते हैं । किसी की मनौती पूरी हुई। कोई मान दे रहा है। काई पुष्प विसर्जित कर रहा है । कोई नारियल फोड़ रहा है, कोई चढ़ा रहा है, कोई प्रवाहित कर रहा है। किसी ने माँ को चुनरी ओढ़ाई है। चुनरी जल में बहती जा रही है ।

कोई जल में डुबकी लगा रहा है। डुबकी लगाते-लगाते वह जल सरीखा तरल हो जाता है । तन भीगा है । मन गीला है । आँखें नम हैं। अन्न-धन से घर भर गया है । कोई अपने पुत्र-पुत्रवधू को आशीष दिलाने लाये हैं। कोई नंगे पाँव पैदल मीलों चलकर मैया के दर्शन करने, उसकी गोद में बुड़क- बुड़क हो निहाल हो जाने के लिए चला आ रहा है। बस एक आस कि नरबदा में स्नान कर जीवन की आपाधापी खत्म हो जाए। जीवन नर्मदा के पानी सरीखा हो जाए ।

बरमान मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में कटनी – इटारसी जंक्शनों के बीच मध्य रेल्वे के करेली स्टेशन से 10 किलोमीटर उत्तर में है । सागर- नरसिंहपुर सड़क मार्ग यहाँ से गुजरता है । यहाँ नर्मदा पर पुल बना है । पुल से थोड़ी ही दूरी पर नर्मदा अनेक धाराओं में होकर बहती हैं। इस स्नान को सहस्रधारा कहते हैं। आगे चलकर वे धाराएँ मिलकर एक हो जाती हैं और घाट के पास नर्मदा विराट और गंभीर हो जाती है। घाट पर से पूर्व से लेकर पश्चिम तक नर्मदा कभी जल की लकीर और बरसात में पानी की प्राचीर लगती है।

स्कंध पुराण में एक वर्णन आता है कि इस स्थान को बड़ा ही मनोहारी और नैसर्गिक सौन्दर्य से भरा-पूरा देखकर ब्रह्मा ने तप किया। तप के साथ ही उन्होंने इस स्थान पर एक विशाल यज्ञ भी किया । अतः यह घाट ब्रह्मा की तपोभूमि है। इसलिए यह ब्रह्माघाट कहलाया । कालान्तर में मुख सुख और लोक उच्चारण से घिसकर यह बरमान घाट हो गया। बरमान का एक अर्थ यह भी लगाया जाता है कि ब्रह्मा के तप से उनका शाप मोचन हुआ । यहाँ नर्मदा में स्नान कर और ब्रह्म कुण्ड का दर्शन करने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। मन चाहा वरदान प्राप्त होता है ।

अतः ‘बर माँग’ शब्दों से मिलकर भी बरमान की रचना हुई होगी। जहाँ सृष्टि रचयिता तप करें, वहाँ सर्जन, सौन्दर्य और कल्याण मिलकर मेकल सुता की धारा सरीखे गतिमान होंगे । सहस्रधारा के पास ही ब्रह्मा कुण्ड और पांडव कुण्ड हैं । सुनते हैं कि यह ब्रह्माकुंड वही है जिससे ब्रह्मा ने तप के बाद यज्ञ हेतु कुंड बनाया था और यज्ञ की आहुतियाँ दी थीं। पांडव कुंड के बारे में जनविश्वास है कि वनवास के समय पांडव यहाँ पर ठहरे थे । वे इसी कुंड में स्नान करते थे या उन्होंने भी हवन आदि के लिए यह कुण्ड निर्मित किया हो । पास में ही पांडवों की गुणा भी है, जिसमें पांडव रहते थे ।

संक्राति या अन्य समय लगने वाले मेलों तथा स्नान पर्वों पर दर्शनार्थी यहाँ भी आकर गुफा और कुण्डों का दर्शन करते हैं । भारतवर्ष के लोक की यह अनूठी विशेषता है कि वह पौराणिक घटनाओं और चरित्रों के अपने-अपने क्षेत्र और जीवन पद्धतियों से जोड़कर देखते हैं । यह देश की सांस्कृतिक एकता की पहचान तो है ही, साथ ही भावात्मक और भौगोलिक एकता का यह बहुत महीन किन्तु मजबूत तार भी है । अखण्डता के असली सूत्र तो लोक विश्वास, लोक धारणाओं और लोक संस्कृति के पास है।

नर्मदा जहाँ दो धाराओं में बँटती है, वहाँ एक बड़ा टापू बीच में है, इस टापू पर बहुत पुराना और विशाल शिव मंदिर है। मंदिर मेलों-पर्वों को छोड़ प्राय: सुनसान रहता है। शिव की पिंडी समाधिस्थ शिव के स्वरूप का आधार जगाती है। इस टापू पर से ब्रह्मा कुण्ड और पाण्डव कुण्ड से दूर से दिखाई देते हैं। वहाँ तक जाने का रास्ता भी यहीं से है । वैसे भी शिव के पास आकर सारे रास्ते खुल जाते हैं । टापू काफी ऊँचा है । उस पर अपने शिखर से आकाश की गहराई नापता शिव मंदिर का शिखर है ।

कहा जाता है सन् 1926 में नर्मदा शिखर को लग गयी थी । उस बाढ़ में एक साधु ने शिखर को पकड़कर ही अपनी रक्षा की थी । यह प्रसंग बरमान क्षेत्र के लोगों के बीच जीवन्त है। दक्षिण तट पर वराह मंदिर है । वराह भगवान की मूर्ति खुले में चबूतरे पर स्थित है। इस प्रतिमा पर उकेरी शिल्पकला चित्ताकर्षक है। इस पर बहुत बारीक नक्कासी है । वराह की प्रतिमा खड़ी मुद्रा में है। लोक विश्वास है कि इसके नीचे के गैप में से पुण्यात्मा ही आर-पार निकल सकता है । सो अनेक लोग साष्ठांग होकर इसके नीचे से निकलकर पुण्यात्मा होने का प्रमाण पाते हैं।

पास के दक्षिण क्षेत्र में थोड़ी ही दूर पर अकिंचनदास महाराज का आश्रम है। उत्तर में सियावट महाराज का आश्रम है। इसी के पास एक स्तूप है, जिसमें 50 करोड़ राम नाम लिखे हुए हैं। पूरा क्षेत्र बुन्देलखण्ड के शौर्य और पराक्रम से चमक – चमक है । व्यवहार, खान-पान और बानी – बोली में बुन्देलखण्ड की बनक, झलक उठती है । बुन्देलखण्ड के लोक की सहजता और सरलता में से पुरूषार्थ और कर्मठता साफ-साफ झाँई मारती है।

मध्यकाल के छत्रप मुगल बादशाह अकबर से लोहा लेने वाली गोंडवाना राज्य की साम्राज्ञी दुर्गावती द्वारा यहाँ एक सुन्दर मंदिर निर्मित है। मंदिर में लक्ष्मीनारायण विराजित हैं । कभी यह मंदिर अपनी शिल्प, वैभव और सुंदरता में बेमिसाल रहा है। आज इसमें मूर्तियाँ खण्डित हैं । उस पार एक दीपा मंदिर है । इसमें भोले बाबा शिव अपने गणों और नंदियों के साथ विराजमान हैं। नंदियों की विशाल प्रतिमाएँ बरबस ध्यान खींचती हैं। पास में ही पिसनहारी नाम का मंदिर है, जिसमें विगत 60 वर्षों से अखण्ड जोत जल रही है ।

उत्तर तट पर पंचमुखी मारूति का मंदिर है। पंचमुखी हनुमान के मंदिर वैसे, विरले हैं। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और विशालता में बरमान का अकेला है। इसमें श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण की सुन्दर प्रतिमाएँ स्थित है। ‘राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर’ तुलसी का यह दोहा अनायास याद आ जाता है । यहीं माँ नर्मदा की मूर्ति है ।

इतिहास प्रसिद्ध हाथी दरवाज़ा बरमान क्षेत्र के वैभवशाली अतीत का प्रतीक है । कहते हैं कि यहाँ के राजा-महाराजा और रानी – महारानी हाथियों पर बैठकर इस दरवाजे से निकलकर नर्मदा स्नान को जाया करते थे । एक मंदिर वृन्दावनवासी राधा-कृष्ण का भी है। इसके अतिरिक्त सत्यनारायण मंदिर, देवी की मढ़िया, हनुमान मठ, दत्त मंदिर, काली की मढ़िया, चिन्तामणि का मंदिर, गरुड़ स्तंभ आदि वे स्थान हैं, जो इस मंदिरों के नगर की विरासत में इजाफा करते हैं ।

गरुड़ स्तंभ में भगवान के चौबीस अवतारों के चित्र अंकित हैं । बरमान में पुरातत्व वेत्ताओं ने सोमेश्वर मंदिर में लगभग 150 प्राचीन मूर्तियों को खोज निकाला। ये दुर्लभ प्रतिमाएँ पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में होकर बरमान को व्यस्थित पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की बाट जोह रही हैं ।

प्रकृति की रमणीय गोद में बसा बरमान ऐतिहासिक सांस्कृतिक पुरातात्विक, धार्मिक और शैक्षणिक दृष्टि से सम्पन्न है । यह युगानुरूप अपने जीवन-प्रवाह में परिवर्तन करता चल रहा है, लेकिन इसकी आस्था और विश्वास का मूल स्रोत माँ रेवा के प्रवाह के साथ जुड़ा हुआ है। शिवकन्या नर्मदा के उत्तर तट पर विशाल और ऊँचा घाट नर्मदा के जल में पाँव-पाँव डूबकर जीवन के कल्याण की अरदास कर रहा है ।

नर्मदा में अपने-अपने भाव और रंगों से डूबकर चले जाते हैं। यह न जाने कब से हो रहा है। पर लोग हैं कि आ रहे हैं। नदी को माँ के रूप में पाकर उसके जल से जीवन की ऊर्जा पा रहे हैं । नदी बह रही है । नर्मदा का प्रवाह अनवरत I कल्याण की हजारों-हजार बूँदें मिलकर धाराएँ बन धरती पर बह रही हैं। दूर बहुत दूर गीत सुनाई देता है- नरबदा तो ऐसी बहे रे ।

शोध एवं आलेख -डॉ श्रीराम परिहार  

डॉ श्रीराम परिहार का जीवन परिचय 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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