नर्मदा एक स्थान पर जाकर वह अंग्रेजी का U (यू) आकार बनाती है । मण्डला पहुचते ही Narmada Jahan Mekhla Ban Gai । जहाँ U (यू) का निचला हिस्सा है, वहीं बंजर दक्षिण से आकर मिलती है, जिससे दोनों नदियों के संगम से त्रिशूल का आकार बन जाता है । अद्भुत रूप में प्रकट होती है । मेकल की पर्वत श्रेणियों से सूरज झाँकता है। धरती पर स्वर्णिम आलोक बिछ जाता है । वनराशि जाग जाती है। नर्मदा के जल में सरसों के फूलों का रंग घुल जाता है ।
पीपल की डाल नर्मदा के जल पर झुक जाती है । कोयल कूकती है। मण्डल नगर अपनी करवट में ‘ॐ नमः शिवाय’ कहता उठ खड़ा होता है। घाटों पर पदचाप और स्वर – गूँज रेवा के जल में अपना मुँह धोने उपस्थित हो जाती है । जल में डुबकी और एक सहज भाव दोनों स्नानार्थी को भीतर से चोखा बनाने की राह खोजने लगते हैं ।
नर्मदा का जल बाहर की अपेक्षा कहीं अधिक भीतर को छूता है । माँ की नरम हथेली के स्पर्श का और माँ की ममत्वपूर्ण दृष्टि का एक साथ अहसास होता है। स्नान पर्व बन जाता है। व्यक्ति निहाल हो जाता है । नहाते – नहाते एक स्वर उभरता है और रेवा के जल पर तैरता हुआ घाटों पर आकर बैठ जाता है ।
नहाय लैयो कासी झिरिया रे..
कासी झिरिया रे कट जाहें, जनम के पाप हो ।
नहाय लैयो हो..
व्यक्ति को कर्म पुकारता है । उत्साह की उंगली पकड़कर वह अबूझ रास्तों पर चल पड़ता है। मण्डला को तीन ओर से नर्मदा के दर्शन, स्नान और निसर्ग सौन्दर्य का सुख मिल रहा है। अमरकंटक के पास कपिल धारा के पास से नर्मदा ज्यों वन खण्ड में प्रवेश करती है, तो फिर वह मण्डला में ही निकलती है। हालाँकि डिण्डौरी में वह दिखती तो है, पर आसपास वही आरण्यक सौन्दर्य और प्राकृतिक सघनता से घिरी रहती है ।
मण्डला में मानव के बोध और आचरण दोनों को वह प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है । उसके दैनन्दिन के केन्द्र में आ जाती है। उसके किनारे कछार बन जाते हैं । मण्डला में उत्तर तट पर घाट बने हैं। दक्षिण तट पर कोई घाट नहीं है, पर स्नान तो होता ही है । जहाँ घाट नहीं हैं, वहाँ किनारों की खाली जगह में वर्षा के बाद फसल ली जाती है।
नर्मदा किनारे बसे आदिवासियों और ढीमरों को अन्न जल दोनों देती हैं। नर्मदा है तो जीवन है। नर्मदा है इसलिए झोपड़ी है। नर्मदा है इसी से आँगन में बच्चा खेल रहा है। नर्मदा है सो बहुरिया के माथे पर लाल चुनरिया हवा में फर-फर लहरा रही है। नर्मदा के कारण ही होंठों पर मुस्कान और पाँवों में गति है। मेकल सुता के जल पर नाव खुलती है। नाव तैरती है । जीवन की तरलता में नहाता हुआ गीत गूँजता है-
जा नैया वारो खेबै नई री
खेबै नई री मोरी निरखे नथनियाँ की गूँज हो।
जो नैया वारो हों……..।
जो नैया वारो जब खेहैं रे
जब खेहैं रे जब कर लो नथनियाँ को ओट हो । जो नैया वारो हो…. ।
बैसाख-जेठ में नर्मदा सिमट जाती है । पतली हो जाती है । पुल के पास पत्थरों के प्राकृतिक बाँध के कारण पश्चिम में पुल से लेकर पूर्व में हनुमान घाट तक पानी भरा-भरा, ठहरा – ठहरा रहता है । नहाने, नाव चलाने और कछार में खेती करने के लिए जल का यह प्राकृतिक ठहराव सुखदायी है। पुल के पश्चिम में पतली-पतली तीन – चार धाराओं में जल के रूप में जीवन प्रवहमान है। ये धाराएँ इतनी उथली और अपेक्षाकृत कम चौड़ी हैं कि आसानी से पैदल पार किया जा सकता है।
यही धाराएँ बरसात में पानी के पहाड़ बन जाती हैं । नर्मदा ने सौन्दर्य को रचा है । श्रीयुत अमृतलाल बेगड़ ने तो नर्मदा को सौन्दर्य की नदी ही कहा है । मण्डला के दोनों किनारे वृक्षों से लदे और वनस्पतियों से ढँके हैं । इतनी हरियाली मण्डला के बाद नर्मदा की समुद्र तक की यात्रा में किसी नगर या कस्बाई घाट पर नहीं है । बरमान, होशंगाबाद, नेमावर, ओंकारेश्वर, महेश्वर और भड़ौच में भी नहीं है । यह हरियाली मण्डला के पूरे अंचल को अपनी गरीबी में भी गाढ़ा हरियाला बनाये रखती है । अपनी धरती से जोड़े रखती है । अपने संबंधों में सरस बनाये रखती है।
जा नैया वारो भैया लगे रे
भैया लगे रे मोरी भौजी को लगत है यार रे ।
जो नैया वारो रे ……. ।
मण्डला को नर्मदा तीन ओर से घेरे है । यहाँ नर्मदा मण्डलाकार है । इसलिये इसे मण्डला कहा गया है। दूसरी धारणा यह है कि भगवान शिव प्राचीन माहिष्मती (मण्डला) में लिंगाकार रूप में विराजमान हैं। नर्मदा तीन ओर से भगवान शंकर का अभिषेक कर रही है। पूरे क्षेत्र को शिव से जोड़कर देखा जा रहा है। दक्षिण के टोपला पहाड़ से निकलकर मैदानी भाग में बहकर आती हुई बंजर नदी दण्ड के समान मण्डला नगर के ठीक दक्षिण में आकर नर्मदा से दक्षिण तट पर मिलती है ।
देखने पर नर्मदा का मण्डला में चन्द्राकार बहाव और दण्ड के समान बंजर का संगम त्रिशूल की आकृति बनाता है। विन्ध्याचल पर्वत की श्रेणियाँ नाग, ऋक्ष, राई, दलदला और सतपुड़ा पर्वत की श्रेणियाँ मेकल, टोपला, जगमंडल और चिल्फी मण्डला के चारों ओर फैली है। ये शिव की कण्ठहार बनी हैं। मुण्डमाला – सी लगती है । इसलिए भी इसे मण्डला कहते हैं । मण्डला बहुत सुन्दर वनों का संसार सहेजे हुए हैं।
वन अभी भी यहाँ अपने निर्भय में जी रहे हैं। मार तो इन पर भी पड़ रही है, पर अन्य जगह से अपेक्षाकृत शायद कम। सारा वनप्रांतर साल, सागौन, महुआ, आम के वृक्षों से भरा हुआ है। गौर, छोटी महानदी, बालई, चकरार, मचरार, कुतरार, खरनेर, श्रीवनी, बुढ़नेर, बंजर आदि नदियाँ इस क्षेत्र को जल से तरलता देती हैं। मृग, सांभर, बारहसिंगा, चीतल, तेंदुआ, बाघ, गौर, नीलगाय इन वनों में विचरण करते हैं । नर्मदा का पानी पीते हैं। चक्रवाक, नीलकण्ठ, सारस, मोर, पपीहा, कोयल, तोता, बगुला रेवा के जल से ‘पुलक ग्रहण कर उन्मुक्त आकाश नापते हैं।
स्मरणाज्जन्मजं पापं दर्शनेन त्रिजन्मजम्।
स्नानाज्जन्म सहस्रसांख्यं हन्ति रेवा कलौ युगे । -रेवाखण्ड
बड़ा विवाद है कि प्राचीन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक माहिष्मती नगरी मण्डला है या महेश्वर है ? दोनों ही जगह विद्वान अपने-अपने स्तर पर साक्ष और प्रमाण देते हैं। दोनों ही जगह मण्डन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ की जगह सिद्ध की जाती है। दोनों ही जगह सहस्त्रबाहु का संदर्भ आता है। दोनों ही जगह सहस्त्रधारा हैं। दोनों ही जगह जमदग्नि ऋषिके आश्रम हैं। आदि-आदि । फिर भी मण्डला के संदर्भ में कुछ बातें एकदम भिन्न और मौलिक सी प्रतीत होती है ।
जमदग्नि ऋषि का आश्रम मण्डला से 28 किलोमीटर दूर डिण्डौरी मार्ग पर नर्मदा तथा बुढ़नेर नदी के संगम पर देवगाँव में आज भी है । अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए परशुराम ने तीन बार पृथ्वी का भ्रमण कर समस्त क्षत्रियों का नाश किया। उन्हीं ने राजा सहस्त्रबाहु का भी नाश किया। उल्लेखनीय है कि कामधेनु गाय सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि से माँगी थी । न देने पर सहस्त्रबाहु ने उन्हें मार डाला था।
पुराणों में वर्णित चन्द्रवंश ही बाद में हैहयवंश तथा कल्चुरी वंश के नाम से प्रसिद्ध है । कल्चुरी राजाओं के मंदिर तथा राजमहलों के भग्नावशेष समूचे महाकौशल में बिखरे हुए हैं। माहिष्मती नगरी इन राजाओं की कुल राजधानी तथा सहस्त्रबाहु इनके पराक्रमी पुरूष थे।
लुण्ठिता क्रीड़ातातेन, नदी तद ग्राम मालिनी । – ब्रह्म पुराण
महाकवि राजशेखर त्रिपुरी (जबलपुर के पास) के कल्चुरी राजा युवराजदेव के राजकवि थे । वे बाल रामायण के अध्याय 3 / 35 में लिखते हैं कि अपने पुण्यों का क्षय हो जाने के कारण चित्रभानु नामक यक्ष जहाँ निवास करता हो, जहाँ पर यशस्वी राजा कृतवीर्य राज्य करता हो, जिसको घेरकर मेकल सुता नर्मदा प्रवाहित हो रही हो, वही कल्चुरी राजाओं की कुल राजधानी है।
यन्मेखला भवति मेकल सैल कन्या, वीतेन्धनां वसति यत्र च चित्रभानुः ।
तामेष पांति कृतवीर्य यशोवंत, सा माहिष्मतीः कुल राजधानीम्॥
महाकवि कालिदास ने ऐसी ही माहिष्मती के संबंध में सुन्दर बात कही है। यदि राजमहलों के गवाक्षों से जल क्रीड़ा करती हुई रेवा को देखने की इच्छा है तो इस दीर्घबाहु राजा की अंकशायिनी बनो। हालाँकि राज महल मण्डला और महेश्वर दोनों ही स्थानों पर नर्मदा जल से सटे हुए हैं। महेश्वर में ये आज भी उतने ही आकर्षक और साबुत बचे हैं।
अस्यांक लक्ष्मीर्भव दीर्घबाहो, माहिष्मती बप्र नितम्ब कांच्चीम् ।
प्रासाद जालैः जलवेणि रम्यां, रेवां यदि प्रेक्षतुमस्ति कामः ॥
ईसा की आठवीं शताब्दी में मुरारि नाम के कवि हुए हैं। उन्होंने रामकथा आधारित संस्कृत में अनर्घराघव नामक नाटक लिखा है। उसके अनुसार भगवान श्रीराम जब चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर पुष्पक विमान से अयोध्या लौटते हैं, तब वे मार्ग में पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रमुख स्थानों की जानकारी सीताजी को देते हैं।
जब उनका विमान माहिष्मती नगरी के ऊपर से जाता है, तब वे कहते हैं – हे सीते ! देखो यह यशस्वी कल्चुरी राजाओं की माहिष्मती नाम की कुल राजधानी मुण्डमाला नगरी है । यह चेदिमण्डल में स्थित है । मुण्डमाला नगरी ही बाद में संभवतः मण्डला नगरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इयं कल्चुरी कुल नरेन्द्र साधारणाग्र महिषी माहिष्मती नाम वेदिमण्डल मुण्डमाल नगरी। नर्मदा का मेखलाकार होना, कल्चुरी राजाओं की कुल राजधानी, साल के वृक्षों के वन और यशस्वी राजा कृतवीर्य सहस्त्रार्जुन का राज्य आदि ऐसे तथ्य हैं, जो मण्डला के संदर्भ में माहिष्मती के होने को प्रमाणित करते हैं।
पूरे रेवा खण्ड में पग-पग पर सहस्त्र कोटि तीर्थ हैं, लेकिन नर्मदा में घाट-अड़घाट जहाँ भी स्नान करें, वह तीर्थ समान है। मण्डला में नर्मदा पूर्व से आती है। हनुमान घाट के पास से वह थोड़ा दक्षिण की ओर मुड़ती है। जहाँ नर्मदा से बंजर नदी मिलती है, वहाँ वह फिर थोड़ा उत्तर की ओर मुड़ती है और फिर थोड़ी दूर पर ही पश्चिम की ओर बहती चली जाती है।
इस तरह वह अंग्रेजी का U (यू) आकार बनाती है । गोद में मण्डला बसा है । जहाँ U (यू) का निचला हिस्सा है, वहीं बंजर दक्षिण से आकर मिलती है, जिससे दोनों नदियों के संगम से त्रिशूल का आकार बन जाता है । नर्मदा के उत्तर में मण्डला और बंजर के पश्चिम तथा नर्मदा के दक्षिण तट पर महाराजपुर बसा हुआ है। मण्डला और महाराजपुर का आपसी रिश्ता रोटी-बेटी, धन्धा- व्यापार, खेती-बाड़ी, मछली, नौका, शासन-प्रशासन, हाट-बाजार, नौकरी- चाकरी का है।
मण्डला में नर्मदा के उत्तर तट पर पूर्व से पश्चिम तक घाटों का लम्बा सिलसिला है। पूर्व में सबसे पहले हनुमान घाट है। हनुमान घाट में प्रसिद्ध संत तुकोजी महाराज के गुरूभाई स्वामी सीताराम जी सन् 1937 में मण्डला आये, उन्हें एक वृक्ष के नीचे हनुमान जी की प्राचीन विशाल मूर्ति मिली। उन्होंने उसे एक चबूतरे पर स्थापित करवा दिया, और एक भव्य मंदिर बनाया गया जो हनुमान घाट का मंदिर कहलाता है ।
यहीं स्वामी सीताराम जी की समाधि भी है। यहीं पर पास में पश्चिम की ओर महन्तवाड़ा है । कहा जाता है संत कबीर के गुरू भाई प्रमोद गुरू संवत् 1695 में महन्तवाड़ा की गद्दी पर आसीन हुए थे। यहीं उनकी समाधि है । संत कबीर का मंदिर मण्डला नगर के मध्य स्थित है। नानक देव ने दक्षिण यात्रा के समय इस मंदिर में विश्राम किया था ।
हनुमान घाट के बाद मुन्नीबाई की धर्मशाला नर्मदा जल से सटकर बनी है। धर्मशाला में राधा-कृष्ण का मंदिर है । बड़ी ही नयनाभिराम मूर्तियाँ हैं। धर्मशाला एवं घाट से लगे विशाल मैदान में महात्मा गाँधी ने 1933 में आमसभा को संबोधित किया था। अब उस मैदान में कूड़े-करकट के ढेर लगे हैं। पर्व-त्यौहारों पर मेले के लिए भी इस मैदान का उपयोग किया जाता है। धर्मशाला के भीतर शिव मंदिर भी है, जिसमें सूर्य, नाग, गणेश तथा अन्नपूर्णा की प्रतिमाएँ हैं।
इसी से लगी हुई नर्मदा बक्स की धर्मशाला है । इस धर्मशाला की छत पर से नर्मदा की छवि बड़ी ही मोहक एवं शान्तिदायी लगती है। इसके पास बनिया घाट है और फिर वैद्य घाट । वैद्य घाट पर बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष समय एवं नर्मदा के जल प्रवाह का साक्षी बना खड़ा है। घाट पर सीढ़ियाँ हैं। लोग – लुगाई बच्चे – किशोर नहा रहे हैं। घाट के एक हिस्से में गाद भर गयी है।
घाट पर छोटा-सा मंदिर है, इसमें अष्टभुजी गणेश की दुर्लभ और आकर्षक प्रतिमा है । यह नृत्यमय प्रतिमा 9वीं – 10वीं शताब्दी की प्रतीत होती है, जो कल्चुरी काल की है। लोग कहते हैं कि इस घाट पर एक गरम पानी का कुण्ड भी था, जो अब नहीं है । इसी के आगे मण्डला के किले का सतखण्डा है, उस सतखण्डे महल में अब महल की गिरती हुई दीवार ही शेष है।
नर्मदा के उस पास दक्षिण तट पर पुरवा ग्राम है । यहाँ नर्मदा के किनारे सुन्दर धर्मशाला बनी हुई है। जिसे करिया गाँव के पटेल की धर्मशाला कहते हैं। जब आवागमन के ज्यादा साधन नहीं थे, तब दक्षिण क्षेत्र के व्यापारी, तीर्थयात्री यहाँ विश्राम करते थे । कुछ दिन रूकते थे । उत्तर तट से यह धर्मशाला सुन्दर दिखती है । दक्षिण तट पर जेठ की गर्मी में भी गजब की हरियाली है। मण्डला किले के चौदह बुर्ज थे, जिसमें अब कुछ ही शेष हैं।
जहाँ नर्मदा से बंजर मिलती है उसके संगम पर मण्डला तरफ एक विशाल बुर्ज अपने राजा की कहानी सुना रहा है । पर अब इसकी कहानी सुनने वाला कोई नहीं है । गोंड राजा ने इस किले को बनवाया था । उस राजा का नाम नरेन्द्र शाह था जिसने इस किले को 1700 ईस्वी के आस-पास बनवाया था। किले के उत्तरी ओर गहरी खायीं खुदी है । यह सुरक्षा कवच भी होती थी । इसमें नर्मदा का जल भी बहता था । आज भी बाढ़ समय नर्मदा इसमें से सीधे बहने लगती है ।
इस खायीं के किनारे-किनारे ढीमरों की बस्ती है। जिसमें मछली की गंध और वनस्पति की गंध उठती रहती है। इन झोपड़ियों के आगे मछलियों को भूनकर सुखाया जा रहा है । हाट में बेचने और गाढ़े समय में क्षुधा पूर्ति के लिये ये मछलियाँ काम आयेंगी। मछली तो इनके लिए नर्मदा का फल है। प्रसाद है।
किले के इस भव्य बुर्ज के पास वाली ढीमरों की बस्ती के बीच में ही राजराजेश्वरी अपने मंदिर में स्थित है। पास में शिव मंदिर भी है, जहाँ शिवरात्रि के समय बड़ी भीड़ रहती है । यह शिव लिंग विशेष है । काले पत्थर का बना है। इसके नीचे के आधे हिस्से में आठ कोण हैं तथा ऊपर गोल शिवलिंग की आकृति है। यह सब सलंग एक ही पत्थर में है। सामान्य शिव लिंगों से भिन्न आकृति के कारण यह जिज्ञासा और आकर्षण दोनों ही पैदा करता है।
राजराजेश्वरी मंदिर के परिक्रमा पथ में विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं, जिसमें सूर्य प्रतिमा उल्लेखनीय है । प्रतिमा रेतीले पत्थर पर उकेरी है। मझौला आकार है। इसमें सात घोड़ों के रथ पर सूर्य सवार है । इसके बाद आता है-उर्दू घाट । पश्चिम की ओर नर्मदा के किनारे-किनारे बढ़ने पर मिलता है – नाना घाट । इस घाट पर 25-30 सीढ़ियाँ है । घाट के ऊपर मंदिर में लक्ष्मी जी की प्रतिमा है जिसे लोग नर्मदा जी मानकर पूजते हैं।
इसी में छोटी सुन्दर सूर्य प्रतिमा भी है। इसके बाद बाबा घाट, खजांची घाट, स्कूल घाट, जेल घाट और कचहरी घाट है । लोगों से पता चला कि सन् 1868 तक मण्डला में 37 घाट थे, जिनका निर्माण 1680 से 1858 के बीच हुआ था। | ये घाट किसने बनवाये ? जन सहयोग से बने, राजा ने बनवाये या प्रशासन ने, कुछ पता नहीं। हाँ, मोहल्ले तथा स्थान के आधार पर इनके नाम अवश्य हैं।
इन घाटों पर से सामने दक्षिण किनारे पर महाराज शाह द्वारा बसाया गया महाराजपुर है। जिसमें चौधरी परिवार का राम मंदिर बहुत ही खूबसूरत है। पास में ही सिंहवाहिनी मंदिर है । होशंगाबाद, ओंकारेश्वर और महेश्वर की तरह मण्डला में बड़े-बड़े घाट नहीं है । यहाँ अनेक छोटे-छोटे घाट अलग- अलग जगह बने हुए हैं।
इन घाटों पर स्नान – व्यवस्था इतनी सुन्दर और स्वयं चालित है कि समाज अनुशासन की प्रशंसा अनायास करनी पड़ती है । प्रत्येक घाट पर एक हिस्से में पुरुष वर्ग तथा दूसरे में स्त्रियाँ स्नान करती हैं। घाट खुले हैं। पत्थरों से पटे हुए हैं। सुबह स्नान करने उतरती हैं, तो घाटों पर उत्सव नर्तन करने लगता है ।
विशेष बात यह कि खुले घाटों पर स्नान करने के बाद स्त्रियाँ अपने वस्त्र खुले में ही बदलती हैं और इस तरह बदलती हैं कि शरीर का कोई भी अंग दिखाई न दे तथा सूखे वस्त्र गीले भी न हों। यह कला बाथरूम संस्कृति के पास नहीं है । धरती – आकाश के बीच जल की सन्निधि, माँ नर्मदा का आँचल और जीवन को बेखरोंच बचा ले जाने की क्षमता इन घाटों के स्नान – कर्म में देखी जा सकती है।
स्त्रियाँ माँ नर्मदा की वत्सला महिमा में डूबी-डूबी पानी-पानी होकर मन ही मन कहती हैं-
ऐरी मैया नर्मदा तेरो जल अमरत लागे ।
भाग बड़े जो तेरो संग पाये।
तेरी माटी को कन- कन है पावन
हर कन में शंकर मन भावन
जितै- जितै तेरो आँचल फैलो सरग वहीं बस जाये ।
– दिनेश मिश्र
पूरा अंचल गोंड और ढींमर जाति के मूल निवासियों का है। ढींमर जाति का समाज नर्मदा के किनारे-किनारे बसा है । जिनका मुख्य व्यवसाय मछली पालना, मछली मारना और कछार में सब्जी तथा अनाज पैदा करना है। गोंड जाति का समाज वनवासी है। ये लोग जंगलों में रहते हैं। खेती करते हैं और वनों में काम करते हैं ।
जंगलों की ओर से मण्डला आने वाली सड़कों पर प्रभात में कांधे पर कावड़ में वनोपज और कंद-मूल अनाज – सब्जी लादे गोंड पुरुष अपनी चिलकती काली देह से श्रम को जीतते हुए दिखाई दे जाते हैं। गठीली सुघड़ देह, काला-पक्का रंग, चपटी नाक, माथे पर फेटा, एक लाँगी घुटनों तक धोती, साफ सुथरी उजली फक्क कमीज़ और काँधे पर गमछा, गोंड व्यक्ति के व्यक्तित्व को माटी पुत्र का गौरव देते हैं।
हाथ में चाँदी या गिलट की बिल्लौर, चूड़ियों भरे हाथ, गाल, हाथ पाँव पर गुदना, माथे पर बेसर, कान में बुन्दों की लटकन, पाँव में कड़ी, कमर में (किसी-किसी के) चाँदी का पाँच सर वाला कंदोरा और साफ-सुथरा एकदम धुला हुआ लुगड़ा, आँखों में पानी और होंठों पर मुस्कान लिये गोंड स्त्रियाँ प्रकृति की अनुपम रचना लगती हैं।
गोंड स्त्री-पुरूषों का स्वस्थ शरीर और उनका एकदम साफ-सुथरा पन एक मिसाल है । यह साफ – सुथरा पन उनके जीवन में भी है। बेहद ईमानदार और घोर मेहनती समाज गोंडों की बराबरी का भारत वर्ष में अन्यत्र दुर्लभ है। फसल की बुवाई हो या फसल पकने की बिरिया, बेटे का ब्याह हो या कोख हरी करने की मानता, नर्मदा मैया के चरणों में बैठकर अरदास के पान – फूल अर्पित किये जाते हैं । लोक गीत नर्मदा के जल की सतह से उठकर पूरे जंगल में फैल जाते हैं। जंगल गूँजने लगता है।
नरबदा तो ऐसी बहे रे
ऐसी बहे रे जैसी दूध की धार हो ।
नरबदा मैया हो…….. ।
सावन-भादों आ गये हैं। प्रकृति सँवर गयी है । पात-पात पर उल्लास का नर्तन हो रहा है। बाड़े में ककड़ी की बेल पर ककड़ी लग आती है । वह बड़ी हो रही है। बेल की ककड़ी और घर में लड़की को बड़े होते देर नहीं लगती। मोहल्ले की तमाम किशोर छोरियाँ इकट्ठी होती हैं । बेर की सूखी डाली लायी जाती है।
उसके काँटों में फूल खोंसे जाते हैं और उस डाली को इकट्ठी हुई किशोरियों में से किसी एक के किशोर उम्र वाले भाई के हाथों में पकड़ा दिया जाता है । उस भाई के मुँह में ककड़ी का एक टुकड़ा रख दिया जाता है उसे वह खाता नहीं है, ककड़ी का टुकड़ा दातों-होंठों में दबा रहता है। फिर उस भाई के साथ बहनों का समूह नर्मदा तक जाता है।
नर्मदा में उस काँटों में खोंसे फूलों वाली बेर की डाली को बहा दिया जाता है । उसके बाद सब बहनें लुका-छिपी खेलती हैं। भाई उन्हें ढूंढता हैं। शाम हो जाती है । सब घर लौट आते हैं। ऐसा वर्षा ऋतु में 10-15 दिन तक खेल होता है। जिसे ‘माहुलिया’ कहा जाता है ।
रोज-रोज दूसरे भाई को लाया जाता है । इस तरह प्रत्येक बहन भाई से गाँव की सारी बहनों का परिचय हो जाता है। बेर की सूखी डाली में फूलों को खोंसकर खेला जाने वाला यह ‘माहुलिया’ काँटों को फूलों में तब्दील करने की किशोर मन की महीन प्रयत्नशीलता है ।
मण्डला का पूरा क्षेत्र शान्त है । गहर – गंभीर है । मण्डला नगर छोटा- सा शिव मंदिर सरीखा है । उसमें वन की शांति है । विकास की गति धीमी जरूर है, लेकिन बहुत-सी बेकार चीजों और प्रदूषण से वह बचा हुआ भी है। अपने पर्व-उत्सवों में वह अधिक जीवित है ।
अमावस्या, पूर्णिमा, सावन- सोमवार, मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, डोल ग्यारस पर मण्डला में सोमोद्भवा नर्मदा किनारे मेले लग जाते हैं । डोल ग्यारस पर कृष्ण का डोला सजाया जाता है और नाव से उसे नर्मदा में घुमाया जाता है । इस समय दोनों किनारों पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष इकट्ठे होते हैं । सहस्त्रधारा में भी मेला लगता है।
नवरात्रि पर दुर्गा प्रतिमा के साथ ही जवारा नर्मदा में ठंडे किये जाते हैं। एक भरी-भूरी गृहस्थी की मंगल कामनाएँ माँ नर्मदा से माँगी जाती हैं। स्त्रियों के कोकिल कंठों से जीवन की अनवरता को सींचा जाता है। एक स्त्री घाट पर खड़ी है। नर्मदा में पूर है। सावन का महीना है । उसका वीरा रक्षा- बंधन के त्यौहार पर लेने आने वाला है। उसका भाई उस पार खड़ा है । इस पार बहन खड़ी है। नर्मदा में पानी की खँडार उठ रही हैं। भाई कैसे पार हो ? बहन भैया से प्रार्थना करती है- हे माँ नर्मदा ! साँझ ढलने लगी है, मेरा वीर उस पार खड़ा है, अब थोड़ी उतर जा, ताकि मेरा भाई पार उतर आये-
साँझ जरा थम जईयो, हो रेवा मैया
साँझ जरा थम जईयो…
आये बाबुल की बहुत याद, हो रेवा मैया……… कैसो खुशी को सावन आयो
पीहर की याद को बचपन आयो
मेरो वीरो खड़ों है बा पार, हो रेवा मैया……..।
सांझ जरा थम जईयो….. …… I
– दिनेश मिश्र
साँझ हो जाती है। अभिलाषाएँ रेवा के जल से भींगकर और आर्द्र तथा हरी हो जाती है। थोड़े बादल छटते हैं। चंदरमा आकाश से झाँकता है। नर्मदा के माथे पर टिकी लग जाती है । आँचल की ओट किये जीवन की मंजुल भावनाओं के प्रतीक दीपक को वह नारी मैया अमरकण्ठी के जल में छोड़ती है । टकटकी लगाकर दीपक को बहता देखती रहती है और सामने के तट से दूर उसे अपने मैके के दीये जलते दिखाई दे जाते हैं । कोयल कूक उठती है।
ससुर घर ऊँचे बसैं रे
ऊँचे बसैं रे मोरे मैके के दीये दिखाएँ रे
ससुर घर अरी हो.. ।
नर्मदा अभी भी पावन है । अभी भी प्रदूषण रहित है। मण्डला में तो यह और निर्मल है। लुभावनी है । मैंने यह यात्रा प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. सुरेश मिश्र के साथ की है। माँ की पावन और निर्मल स्मृति लेकर मैं लौट आता हूँ । मन उन घाटों पर गाहे-बगाहे अभी भी घूमने चला जाता है।
शोध आलेख – डॉ. श्रीराम परिहार