Homeबुन्देली झलकNarayan Chauhan नारायण चौहान

Narayan Chauhan नारायण चौहान

एक बार फिर मुझे यानि Narayan Chauhan को अपने बारे में सोचने और लिखने का मौका मिला, और मेरी पूरी कोशिश है कि मैं अपनी पूरी ईमानदारी के साथ अपने उन पलों को सहेजूँ जो जाने अनजाने मुझसे या तो छूट गए हैं या बहुत पीछे छूट गए हैं। 

कानपुर की कुछ धुंधली सी यादे है… 22 मई 1967 को कानपुर मे पैदा जरूर हुआ पर चूँकि माता जी ग्राम सेविका के पद पर तैनाद थी लिहाज़ा मेरी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा बुन्देलखंड से शुरू हुयी, और बुंदेलखंड मे ही समाप्त हो गयी,… जब मैं अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए अपने मौसा जी के साथ महोबा के माताटीला में पांचवी का एग्जाम देने गया था, पास भी हो गया पर पास होते ही मेरी माता जी का ट्रांसफर महोबा से ललितपुर हो गया, 1974 की बात है। 

1975 में मडावरा से छठवीं करने के बाद सातवीं के लिए मुझे महरौनी जाना पड़ा क्योंकि वहाँ माता जी का ट्रांसफर हो गया था, किसी तरह महरौनी से सातवीं पास की, की तब तक माताजी का ट्रांसफर पुनः मडावरा हो गया, तब तक ललितपुर जिला बन चुका था और माताजी ने सोचा कि यहां वहां पढ़ाई करवाने से अच्छा है कि इसका ललितपुर श्री वर्णी जैन इंटर कॉलेज में दाखिला करवा दिया जाए। 

सन 1976 में मैं अपने पिताजी के साथ ललितपुर आ गया और वहां 16 रुपये प्रतिमाह पर एक कमरा लेकर रहने लगा, उसके बाद ललितपुर जैसे मेरी कर्मभूमि बन गया, और श्री वर्णी जैन इंटर कॉलेज का मंच मेरी अभ्यास स्थली, ललितपुर आते ही मेरे जीवन में सच्ची मित्र मंडली का प्रवेश हुआ, और उसके बाद शुरू हुई आवारगी।  

आवारगी के नाम पर मैं अपनी मित्र मंडली के साथ रामलीला देखने जाया करता था यह बात है सन 1981 की, मेरे साथ मेरे एक मित्र भी हुआ करते थे राघवेंद्र सिंह सिसोदिया जो आज बिल्डर की हैसियत से काम करते हैं उन्होंने मुझे उकसाया कि क्यों ना हम भी रामलीला में काम करें और काम करने का रास्ता भी उन्होंने ही निकाला, उन्होंने कब रामलीला के व्यास जी से बात करके, हम दोनों के लिए बंदरों के रोल का इंतजाम कर लिया। 

मुझे पता ही नहीं चला… सो बन्दर बन मंच पर उत्तराने लगे… पर मेरी जिज्ञासा इतनी बड़ी कि शीघ्र ही नाटकों में काम करना मेरे लिए भोजन से भी अत्यावश्यक हो गया, और एक समय वह आया जब श्री वर्णी जैन इंटर कॉलेज के मंच पर कोई भी प्रोग्राम क्यों ना हो मैं उसमें मैं मुख्य रूप से पाया जाता था,
मेरे पिताजी को नाटकों में काम करना अच्छा नहीं लगता था लिहाजा उन्होंने कभी मना तो नहीं किया लेकिन कभी प्रोत्साहित भी नहीं किया, लिहाजा जो भी करना था वो खुद के बल-बूते पर ही करना था। 

परंतु इस कोशिश में मैंने उनके काम को हमेशा हमेशा के लिए बंद करवा दिया, मेरे पिताजी बहुत अच्छे ब्रश आर्टिस्ट थे, तो उनका कुछ अंश मेरे अंदर भी आ गया, कुछ ही कहूंगा क्योंकि वह जिस कमाल के आर्टिस्ट थे, मैं उनका 10 परसेंट भी नहीं था, फिर भी मैंने उसी पेंटिंग की दम पर दिल्ली में संघर्ष किया, और 2 साल मे मैंने अंततः अपने लक्ष्य को हासिल कर ही लिया।  और

जुलाई 15 -1993, को मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में प्रवेश किया, वहां से निकलने के बाद संघर्ष कुछ ज्यादा ही था बतौर अभिनेता संघर्ष के मायने हैं कि आप को आर्थिक रूप से अत्यंत मजबूत होना, प्रथम दृष्टया पारिवारिक मदद की बेहद जरूरत होती है जो नाराजगी की वजह से मेरे साथ संभव ना थी, लिहाजा मैंने वह काम करना पहले पसंद किया जो मुझे आर्थिक रूप से मजबूत कर । 

मैंने आर्ट डायरेक्शन, लेखन और अंततः अपना पसंदीदा क्षेत्र निर्देशन चुना, हालांकि रसोई घर की ज्वाला कभी शांत ना हो इसके लिए मैंने प्रकाश कला यानी लाइट डिजाइन का काफी सहारा लिया और इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूं अशोक सागर भगत का जिन्होंने मुझे प्रकाश कला में पारंगत किया, और प्रकाश कला पल्लवित करने के लिए मैंने आदिती मंगलदास जैसी, तमाम नृत्यांगनाओं के साथ विदेश भ्रमण भी किया, जिस में मुख्यतः अमेरिका कनाडा, इंग्लैंड यूरोप श्रीलंका जाने का अवसर मिला। 

इधर अपनी निर्देशन कला को मैं धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर ले कर जा रहा था, और इस दौरान मैंने यह पाया कि मैं चूँकि बुंदेलखंड में पला बढ़ा हूं, तो यहां की कला और संस्कृति को, अगर आगे बढ़ाया जाए, तो यह विश्व पटल पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ सकती है । कारण है यहां क्रांति की जवाला सुलगी भी.. और भड़की भी, और ये चिंगारी इतनी विशाल है इतिहास में पन्नों मे समेटना मुश्किल हों गया, या यूं कहे की कुछ चाटुकार इतिहास कारो ने वहीं लिखा, जो या तों अंग्रेज़ों को पसंद था या जिनमे भारतीय राजाओ का दमन हुआ था…। 

जो हिन्द धरा के वीर सपूतों की गौरवशाली गाथाये थी उनको इतिहास से गायब कर दिया गया… परन्तु कलमकारों ने इन घटनाओं को कहानी के माध्यम से अपनी पुस्तकों में खूब स्थान दिया जिनमें वृंदावन लाल वर्मा, श्रवण कुमार त्रिपाठी मैथिली शरण गुप्त, ने एक से एक कहानियों का सृजन किया, उनको पढ़ने के बाद मुझे वास्तविक बुंदेलखंड का बोध हुआ कि जो बुंदेलखंड प्राकृतिक सौंदर्य खनिज और वन सम्पदाओ जैसे तेन्दू पत्त, सागौन, चन्दन से परिपूर्ण है। 

उसे अवश्य ही विश्व पटल के समक्ष आना चाहिए, और वह माध्यम अगर Untold Story अनकही  कहानियों के माध्यम से हो तो बुंदेलखंड की प्राकृतिक सुंदरता, एवं उसके साथ साथ, वह कहानियां भी बाहर आ सकेंगी जिन पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया, खासकर इतिहासकारो ने। 

यही Untold Story अनकही  कहानियां  बाद मे बुंदेलखंड का गौरव बनी… इसी श्रंखला में “क़ाज़ीहाउस” मेरी पहली फिल्म है जिसमे मैंने बुंदेली भाषा में सेंसर सर्टिफिकेट पाने की न केवल हिम्मत जुटाई बल्कि बुंदेली भाषा में फिल्म बनाने का साहस भी किया, बहुत से लोगों ने बुंदेली भाषा का चित्र पटल पर दोहन तो किया लेकिन पता नहीं क्यों उनको बुंदेली भाषा के साथ जाने में लज्जा ही प्रतीत हुई। 
मैं इस स्थान पर गर्व से कह सकता हूं कि मैंने “क़ाज़ीहाउस” बनाकर, बुंदेलखंड की पहली ऐसी फ़िल्म बना डाली जिसने बुंदेली भाषा में ही सेंसर सर्टिफिकेट पाने का गौरव हासिल किया, इसको बनाने मे मेरी धर्म-पत्नी लता सिंह चौहान का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने जब भी पैसे से हारा तों अपना ज्वैलरी बॉक्स खोल दिया और हिम्मत से हारा तों मज़बूत चट्टान सी खड़ी हों गयीं, इसके लिए उनका ह्रदय से आभार है, वो स्वयं बहुत ही लाजवाब सुरु साधिका है और उन्होंने “क़ाज़ी -हाउस” अपने सुरों की महक बिखेरी है…। 

“क़ाज़ी-हाउस” के बाद आगे भी मेरी कोशिश है कि इसी तरह की अनटोल्ड अनसुनी कहानियों को विश्व पटल पर सामने लाने का अपना प्रयास जारी रखूं, जिससे हमारा बुंदेलखंड हमारी संस्कृति हमारी भाषा पूरे विश्व पटल पर सामने आ सके। 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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